वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 12
From जैनकोष
सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरिसीहिं ।
ववहारदेसिदा पुण जे हु अपरमे ट्ठिदा भावे ।।12।।
503-शुद्धनय व व्यवहार की देशना का निर्णय—शुद्ध निरपेक्ष परमभाव के दृष्टाओं द्वारा तो शुद्ध और शुद्धादेश जानना चाहिये अथवा शुद्ध तत्त्व का आदेश करनेवाला शुद्धनय जानना चाहिये, परंतु जो जीव अपरम भाव में स्थित है वे व्यवहारनय से देशित होना चाहिये । परम भाव के दर्शकों का प्रयोजन शुद्ध व शुद्धादेश से है । इस प्रसंग में नय 3 जानना —(1) शुद्धनय, (2) शुद्धादेशनय, (3) अशुद्ध नय (व्यवहारनय) । परमशुद्धनिश्चयनय तो शुद्धनय के विषयभूत तत्त्व को शुद्ध शैली से कहना सो शुद्धादेशनय है । बाकी सब आशय व कथन अशुद्धनय अथवा व्यवहारनय हैं । जिन जीवों ने आखिरी ताव से निकला हुआ शुद्ध सोना जान लिया है, उनकी दृष्टि हमेशा शुद्ध सोने पर ही रहती है । उन्हें फिर उसमें कितना सोना और कितना कचरा है ये भी भेदभाव नहीं रहता है वह तो उसमें सोना कितना है बात यही देखता रहता है । इसी प्रकार जिन्होंने अपने आत्मतत्त्व को जान लिया है उन्हें फिर कर्म संबंध से मतलब नहीं है । वे अनात्मा को आत्मा मान नहीं सकते । जिसने जान लिया कि राख में इतना सोना है, वो राख को सोना नहीं मान सकते, वे न्यारिया उतना ही पैसा चुकाते हैं । क्यों? उतने सब ढेर से राख में प्रयोजनवान उतना सोना ही है । इसी प्रकार मुमुक्षु पुरुष को प्रयोजनवान वह अपना आत्मद्रव्य ही है । शुद्ध सोना 10 तरह के पिंड में भी होगा तो सब एकसा होगा उसमें कोई अंतर नहीं होगा । इसी प्रकार जितनी भी शुद्ध आत्मायें होगी वे सब एकसी होगी । त्रिकालवर्ती शुद्धचैतन्य भाव भी स्वभाव से शुद्ध ही है । निश्चयनय का विषय अनेक पदार्थ या अनेक प्रकार के पदार्थ नहीं, उसका विषय 1 तरह का और 1 ही पदार्थ है सो प्रयोजनवान है । 504-सम्यग्दृष्टि का विवेक—जिसे सोने की परख है तो वह किसी 1 तोले सोने में दो आना भर मैल और 14 आना भर सोना है तो पारखी तो उसमें सोना 14 आना भर ही बतायेगा । कोई मूर्ख भले ही उसे 1 तौला सोना कहता रहे । इसी प्रकार जिसे आत्मस्वभाव की पहिचान है उसकी दृष्टि में तो वही शुद्धस्वभाव है । निश्चयनय की दृष्टि कर लेने वालों के 2 कला होती हैं क्योंकि वह आत्मा के शुद्ध स्वभाव को जानता है किंतु उसे व्यवहार का भी ज्ञान रहता है । जबकि व्यवहारदृष्टि वाला सिर्फ व्यवहार को जान पाता है । हां, यह बात अलग है कि तुम निश्चय को समझो नहीं और निश्चय के अनुरूप बनने का उपक्रम करने लगो तो बात ही अलग है । ज्ञानी भी पर्याय को जानता अवश्य है किंतु उस पर्याय को पर्याय रूप से जानता है, पर्याय में आत्मबुद्धि करना घातक है किंतु पर्याय को पर्याय रूप से जानना कुछ भी हानिप्रद नहीं है । पर्याय बुद्धि करोगे तो मोह अवश्य बढ़ेगा । उसके बाद अपमान सम्मान सुख दुख आदि की अनेक विपत्तियां बढ़ जायगी । इसलिये यदि अनाकुल बनना है तो केंद्र में उपयोग स्थिर करो, सब आकुलताएं दूर भाग जायेगी । जिस तरह 1 तिजोरी में 1 बड़ा डिब्बा रखा हो उसमें 1 डिब्बी रखी हो फिर 1 थैली रखी हो उसमें सोना रखा हो तो उसके धनी को यह पूरा ख्याल रहता है कि उस थैली के भीतर मेरा कितना सोना रखा है । इसी प्रकार ज्ञानी को इन सब पर्यायों में उस शुद्ध चैतन्य स्वभाव का पूरा-2 ध्यान रहता है । किसी भी परिस्थिति में वह अपने स्वभाव को नहीं भूल सकता है । 505-स्याद्वाद की उपादेयता:—व्यवहार नय उनको प्रयोजन वान है जो अपरमभाव में है । परंतु लक्ष्य के बिना मनुष्य चलेगा कहां, वह लक्ष्य शुद्धतत्त्व की प्राप्ति है । इसलिये जो परम भाव में हैं उन्हें निश्चयनय प्रयोजनवान है । जिनवचन ही इसका सच्चा निपटारा करते हैं । जगत के जो जीव जो कुछ कर रहे हैं वह सब स्याद्वाद के बल पर कर रहे हैं । यदि जीवन के हर कदम पर स्याद्वाद का उपयोग न किया जाय तो जीवन दूभर हो जाय, कुछ भी काम मानव बिना स्याद्वाद के नहीं कर सकता है । व्यावहारिक जीवन में जितना भी काम चलता है सब स्याद्वाद के बल पर चलता है । स्याद्वाद सहित जो जिनवचन है वही प्रयोजनवान हैं । जिसका मोह वमन हो गया, वह फिर कैसे मोह को पी सकता है । जब मोह मंद हो जाता है तभी वह समयसार को जान सकेगा । क्योंकि ‘‘वह कारण परमात्मा अनादि काल से अंत: प्रकाशमान हो रहा है’’ इस निज स्वरूप का बोध जिन वचन से ही होता है । जिनेंद्र के वचन ही अज्ञान को नष्ट कर देते हैं बिना आगम अभ्यास के और बिना स्याद्वाद को समझे आत्मस्वरूप का निश्चय ही नहीं हो पाता है । उदाहरण में देखिये कि राग द्वेष किसकी परिणति है? क्या कर्म की परिणति है तो कर्म को है । यदि कर्म को मरने दो, फिर यहाँ ये भ्रम क्यों लगा रखा है कि मुझे राग द्वेष होता है । किंतु राग द्वेष होता है अपने आत्मा में ही, आत्मा को छोड़ किसी अन्य द्रव्य में नहीं होता है । इसलिये वह राग द्वेष आत्मा का विकारी परिणाम है किसी निमित्त से होता है । इसलिये आचार्यों के वचनों पर श्रद्धा करके व्यवहार और निश्चय का ज्ञान करो । दोनों के ज्ञान बिना कभी भी वस्तु स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता है । दोनों नयों को समझकर व्यवहार को व्यवहार की तरह जानो और निश्चय को निश्चय की तरह जानो फिर कभी भी वस्तु के स्वरूप के ज्ञान में संशय नहीं रह जाता है । व्यवहार को तो, निश्चय में साधक होना चाहिए अन्यथा वह व्यवहार नहीं है । कोई मनुष्य समुद्र में नाव चला रहा है, किंतु कहीं जाने का उद्देश्य सुनिश्चित तो अवश्य बनायेगा; अन्यथा वह बिना दिशा ज्ञान के कहां भटकता फिरेगा । और जिसका अपना पहुँचने के स्थान का उद्देश्य निश्चित है वह एक दिन अवश्य अपने अभीष्ट स्थान को पहुंच जायेगा । इसी प्रकार निश्चय, लक्ष्य बांधता है जो चीज उसे प्राप्त करना है किंतु व्यवहार में वह चलने का पूर्ण प्रयत्न करेगा तो अवश्य किसी दिन सफल हो सकेगा। 506-दोनों नयों के परिज्ञान की आवश्यकता है—बिना लक्ष्य बनाने वालों की दशा देखो—कहते हैं मुझे इतने दिन पूजन भजन करते हो गये किंतु सुख अभी तक नहीं मिला । मैं लखपति नहीं बन सका अथवा मेरे संतान नहीं हुई । जब उनका लक्ष्य ही गलत है तब सुख कैसे प्राप्त हो सकता है । इसी वस्तु तत्त्व के ज्ञान बिना अथवा शुद्ध लक्ष्य के बिना क्रोध, मान, माया और लोभ आ जाता है विषयों में प्रवृत्ति नहीं घटती हैं । किंतु जिनके निश्चय का ज्ञान है उनके व्यवहार तो होता ही है । 1 मनुष्य शास्त्रों का पूर्ण ज्ञाता है लोक और अलोक बड़ी ऊंची और बारीक कथनी करता है किंतु अपने को नहीं जानता तो उसका वह ज्ञान सब व्यर्थ है लोक की बारीकी जान ली पर अपने पर घटित नहीं किया, सात तत्त्वों की कथनी समझ ली पर उसमें से अपने एक को नहीं समझा तो वह सारा विज्ञान आत्महितकारी नहीं । इसलिये निश्चय के ज्ञान बिना व्यवहार का ज्ञान व्यर्थ है, जैसे कि बिना मक्खन के दूध अथवा बिना धान के उसका भूसा हमारे को उतना उपयोगी नहीं । इसलिये दोनों नयों का यथार्थज्ञान करो । व्यवहार का ज्ञान न करो तो तीर्थ नष्ट हो जायगा, धर्म की प्रवृति कैसे चलेगी और निश्चय को छोड़ दोगे तो सारा व्यवहार ही व्यर्थ है । व्यवहार तो बच्चे को जिस प्रकार उंगली पकड़कर चलना सिखाता है उसी तरह है किंतु वयस्क हो जानें पर फिर वह आवश्यक नहीं रह जाता है । यही हाल व्यवहार का है कि जब तक अपने स्वरूप की प्राप्ति नहीं हुई तब तक तो वह उपयोगी है फिर उसकी आवश्यकता नहीं । अंत में उसे छोड़ना ही पड़ेगा । 507-प्रत्येक द्रव्य की स्वतंत्रता—प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप है । विवक्षित आत्मा अन्य सब आत्मावों से व समस्त विजातीय द्रव्यों से न्यारा है । आत्मा का स्वभाव समस्त परभावों से भिन्न है । जब तक उपयोग में विविधता रहती है, तब तक उपयोग 1 केंद्र पर कभी नहीं ठहर सकता है । किंतु जब उपयोग में ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय में कुछ भी भेद नहीं रहता है वहाँ पर उपयोग स्थित हो सकता है । जहाँ दो वस्तु की संयुक्त दृष्टि है वहाँ उपयोग का केंद्रीकरण कभी भी हो ही नहीं सकता है । मेरा स्वभाव कैसा है, परभावों से याने परपदार्थों से भिन्न है, उनकी सत्ता अलग और अपनी सत्ता अलग । एक पदार्थ की सत्ता दूसरे में नहीं हो सकती है । सभी पदार्थ अपने चतुष्टय से हैं पर के चतुष्टय से नहीं हैं । परपदार्थ का भाव और परपदार्थ के निमित्त से होने वाले भाव, मैं इन सभी भावों से अलग हूँ । यद्यपि ये रागादिभाव होते हैं आत्मा में किंतु आत्मस्वभाव से भिन्न है । चैतन्य स्वभाव ही मेरा निज स्वभाव है रागादि से मेरा ज्ञान जुदा है । रागादि विकारी परिणाम हैं । अतएव मैं राग नहीं, मैं द्वेष नहीं हूँ । इस प्रकार भी परभावों से भिन्न हूँ । परभाव से भिन्न तो क्षायोपशमिक ज्ञान भी है मैं उन क्षायोपशमिक ज्ञानों के स्वभाव रूप भी नहीं हूँ । क्योंकि मैं अधूरा नहीं किंतु आपूर्ण हूँ अपूर्ण नहीं हूँ । ज्ञानादि गुणों से पूर्ण हूँ । अपूर्ण अधूरे को कहते हैं और आपूर्ण, जिसमें अधूरापन नहीं हो उसे कहते हैं । मतिज्ञानादि आपूर्ण नहीं है किंतु अपूर्ण या अधूरे हैं । तो क्या केवलज्ञान मेरा स्वभाव है? नहीं, वह भी स्वभाव नहीं, क्योंकि वह सापेक्ष है, अनादि से नहीं किंतु सादि है । वह स्वभाव नहीं है । केवलज्ञान पर्याय है और पर्याय प्रतिसमय बदलती रहती है । यद्यपि केवलज्ञान में निरंतर सदृश पर्याय होती हैं । प्रतिसमय वही ज्ञान जैसा मालूम होता है परंतु वैसा ही प्रतिसमय होता रहता है वही एक पर्याय प्रतिसमय नहीं है । सदृश पर्यायें हैं इसलिये ऐसा मालुम पड़ता है—1 केवलज्ञान ही निरंतर चलता रहता है । जिस प्रकार बिजली का प्रकाश निरंतर एक-सा चलता रहता है किंतु उसमें भी प्रतिसमय नया-2 प्रकाश रहता और काम प्रतिसमय नया-2 करता है जो कि हमारी स्थूलदृष्टि में नहीं आता है। 508-अ आत्मस्वभाव की विविक्तता—आत्म का स्वभाव वह है जो बहिरात्मा, अंतरात्मा व कार्य परमात्मा सबमें पाया जावे । केवलज्ञान ज्ञान का अंतिम विशुद्ध फल है । अब देखो अपने स्वभाव को जानने के लिये कितने पदार्थों को दूर करना पड़ा—सबसे पहिले जड़ पदार्थों को श्रद्धा से दूर किया, रागादि को दूर किया फिर गुण भेद को भी छोड़कर उस अखंड आत्मतत्त्व को पाया तभी आत्मस्वभाव को जान सके । जिस पर भी ऐसे संकल्प विकल्प के समय वह यथार्थतया ज्ञान न हो पाया सो स्वभाव संकल्प विकल्प से दूर है । यह आत्मा द्रव्य से अपने चैतन्यरूप है, क्षेत्र से अपने ही आत्मप्रदेशों में रहता है उससे बाहर कहीं नहीं । काल से भी उसका कोई टुकड़ा नहीं होता है । स्वभाव से अपने ही ज्ञान, दर्शन, सुख शांतिरूप रहता है कभी भी परभावरूप नहीं होता है और चैतन्य स्वभाव को भी कभी नहीं छोड़ता है । इस प्रकार जो अपने चतुष्टय को जानता है और परचतुष्टय को जानता है, वही निजस्वरूप को जान सकता है । जब तक वह 1 आत्मतत्त्व दृष्टि में नहीं तब तक अनेक संकल्प विकल्प होते रहते हैं और जब तक संकल्प विकल्प रहेंगे तभी तक यह निरंतर आकुलता से दु:खी रहेगा । भूतार्थनय से उस 1 को जानो तो समझो सबको जान लिया; अन्यथा संसार भर का सारा ज्ञान भी आत्मा का कल्याण नहीं कर सकता है । वह सब ज्ञान अज्ञान की कोटि में ही सम्मिलित किया जाता है, इसलिये द्रव्य, गुण, पर्याय को यथार्थ जानकर ही आत्मानुभवन किया जा सकता है । जिन्हें परमार्थ का दर्शन नहीं वे व्यवहार से समझाये जाते हैं । जैसी निरपेक्ष वस्तु है उसका वैसा श्रद्धान करना निश्चयनय है । इसलिये निश्चयनय का ज्ञान कर लेना आवश्यक है । वैसे दोनों नयों को प्रयोजनवान बताया है । तब शंकाकार कहता है कि जैन शासन की कैसी ढुलमुल नीति है, कि व्यवहार को भी उपादेय बतलाता है और निश्चय को भी उपादेय बताया गया है । सो भैया ! ढुलमुल नीति नहीं है । स्याद्वाद में संदेह को स्थान नहीं । स्याद्वाद पूरा निर्णय कर देता है । वस्तु जिस दृष्टि से जैसी है उस दृष्टि से वैसी ही है । यह जैनशासन ही स्याद्वाद के द्वारा झगड़े को निपटाता है । संयुक्त दृष्टि को व्यवहार और असंयुक्त दृष्टि को निश्चय कहते हैं, इसमें झगड़ा कहां रहा । अरे जो कुछ दुनियां में भी हम करते हैं वह सब स्याद्वाद के आधार से ही करते हैं । प्रत्येक स्थान पर स्याद्वाद का उपयोग हो रहा है । व्यवहारिक जीवन में भी बिना स्याद्वाद के काम ही नहीं चल सकता है । विरोध मिटाने के लिए स्याद्वाद है । 508-ब अनेकांत की उपादेयता—जहां अलग-2 दृष्टि से वस्तु स्वरूप का कथन किया जाता है वहाँ विरोध कैसा? एक ही आदमी पिता की अपेक्षा पुत्र है और अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है । ससुर की अपेक्षा दामाद है और अपने दामाद की अपेक्षा ससुर है । इसमें क्या विरोध आ रहा हैं? हाँ, यदि बिना अपेक्षा के कथन किया जाता तो अवश्य विरोध आ सकता था । उसी प्रकार आचार्य समझाते हैं कि जहाँ समझने के लिये व्यवहार उपयोगी, तो समझने पर वही अनुपयोगी होकर निश्चयनय वहाँ उपयोगी हो जाता है । जैसे नाचने वाला जहाँ नेत्रहीन को अनुपयोगी हो तो आँख वाले को वही उपयोगी हो जाता है । व्यवहारनय तो एक संकेत है उसके बल पर चलना पड़ता है पर उसी संकेत को पकड़कर नहीं रह जाना चाहिये । एक बालक को रत्न का स्वरूप समझाने के लिये काँच दिखाकर समझाया जाता है कि रत्न इस प्रकार होता है, किंतु कोई मूर्ख उसी कांच को रत्न समझ बैठे तो वह मूर्ख ठगाया ही जायगा । जिस प्रकार बच्चों को चवन्नी लेने की आदत पड़ जाय और उसे चवन्नी से कम दो तो नहीं ले सकता उसी प्रकार जिसने परमतत्त्व को जान लिया, वह फिर व्यवहार में फंसकर नहीं रह जाता है । 509-जीव की कक्षायें—जीव की 5 कक्षायें होती हैं उसमें से 1-तीव्र मिथ्यादृष्टि, 2-भद्रमिथ्यादृष्टि 3-सविकल्प, अंतरात्मा, 4-निर्विकल्प अंतरात्मा, 5-परमात्मा । इनमें से तीव्र मिथ्यादृष्टि उपदेश का पात्र नहीं है । निर्विकल्प अंतरात्मा और परमात्मा इनको कुछ समझाने की आवश्यकता नहीं है । अब रहे भद्र मिथ्यादृष्टि और सविकल्प अंतरात्मा । इनमें से भद्र मिथ्यादृष्टि को व्यवहार से समझाना चाहिए और सविकल्प अंतरात्मा को निश्चय से समझाना चाहिए । पात्र भेद से उपदेश भेद हैं । जिनेंद्रवचन सब विरोध मिटाने वाले हें । जिनशासन में सभी दृष्टियों से वर्णन है । दृष्टिवाद अंग से कुछ बचा नहीं है । ये स्याद्वाद अथवा अपेक्षावाद सभी दृष्टियों को संभालता है । स्याद्वाद से सब विरोध मिट जाता है इस स्याद्वाद की कृपा से 2 विरोधी तत्त्व भी एक साथ बैठ सकते हैं । जैसे किसी मकान का सामने से, पीछे से और अगल-बगल से फोटो लिया जाय तो चारों फोटो अलग-2 जंचेंगे, पर वे हैं एक ही मकान के । स्याद्वाद उनका निपटारा कर देता है कि यह भी मकान का फोटो, यह भी मकान का फोटो, उसमें किसी प्रकार का कोई विरोध नहीं । जितना समझना, समझाना है वह सब व्यवहार है । जिनको भी अपने स्वभाव की दृष्टि नहीं जो अपरमभाव में स्थित हैं, वे सब व्यवहार में स्थित हैं । कोई कहे कि सम्यग्दृष्टि को बोलना या चर्चा वार्ता नहीं करना चाहिए? क्योंकि निश्चय का विषय कथन करने का नहीं । जो-जो भी कथन किया जाता है वह तो सब व्यवहार है । यदि सम्यग्दृष्टि चर्चा नहीं करेंगे और मिथ्यादृष्टि वस्तु स्वरूप को जानता नहीं है तब तो मोक्षमार्ग ही रुक जायगा । आचार्य कहते हैं कि भद्र मिथ्यादृष्टि को व्यवहार का उपदेश देकर उसे सन्मार्ग पर लाना चाहिए, यदि उसे उपदेश ही बंद कर दिया जाय तो वह परमभाव में कैसे आ सकता है । क्योंकि अपरमभाव में तो वे ठहरे हुए हैं उन्हें सन्मार्ग में लाने के लिये व्यवहारनय प्रयोजनवान है । और भी देखो जितने भी जीव परमभाव में आये थे व आये हैं वे सब भी तो पहिले अपरमभाव में थे उनको भी व्यवहार प्रयोजनवान रहा । 510-अ स्याद्वाद में सुंदर निर्णय—जैन शासन का स्याद्वाद इस विषय में सुंदर निर्णय देता है कि शंका की कोई गुंजाइश ही वहाँ नहीं रह जाती है । इस स्याद्वाद पर कोई भी विशेष आक्षेप नहीं उठा सका । कुछ ब्रह्मसूत्र ने लिखा है । ब्रह्मसूत्र कर्ता ने लिखा है कि 1 में अनेक कैसे रह सकते हैं । पर वे स्याद्वाद को समझ ही नहीं सके इसलिये उन्होंने ऐसा लिखा है । यदि एक अपेक्षा से अनेक माने गये होते तो विरोध हो सकता था पर अनेक अपेक्षाओं से अनेक रहने में क्या बाधा है? इस गोल चौकी के प्रति पूछो कि यह कैसी है तो कोई कहेगा गोल है, कोई कहेगा इतनी ऊंची कोई कहेगा इतनी मोटी है कोई कुछ व्यास वाली बतलायेगा, देखो 1 चौकी में सब गुण मौजूद हैं । वह लंबी भी है चौड़ी भी है, काली भी है, ऊंची भी है आदि । 1 चौकी में अनेक अपेक्षाओं से अनेक धर्म बतलाने से कोई बाधा नहीं आती है । आत्मा में भी द्रव्य की अपेक्षा नित्य और पर्याय की अपेक्षा अनित्य, द्रव्य की अपेक्षा एक और गुण और पर्याय की अपेक्षा अनेक के कहने में कोई बाधा नहीं आती है । स्यात् शब्द का अर्थ ही अपेक्षा है । द्रव्य सत् है तो गुण सत् नहीं, गुण सदंश है, सत के अंश है, एक समय की पर्याय का दूसरे समय में सद्भाव नहीं है । मनुष्य पर्याय मिटी, देव हो गया । देव मिटा मनुष्य हो गया, इसलिये पर्याय भी सत नहीं है सत्-अंश है । यह स्याद्वाद जैनशासन का ट्रेडमार्क है, यह ट्रेडमार्क जहाँ लगा हो समझो वह सत्य कथन है । वह सच्ची दुकान है वहाँ से सौदा खरीद सकते हो । जिस प्रकार किसी विश्वस्त कंपनी का ट्रेडमार्क ही विश्वास के लिये काफी होता है, उसी प्रकार यह जैनशासन का ट्रेडमार्क है । इसके रहते हुए कहीं कभी कोई विरोध नहीं आ सकता है । ये सब विरोधों को समाप्त कर देनेवाला अमोघ शस्त्र है । जैन धर्म का कोई भी शास्त्र उठा लो उसमें यह ट्रेडमार्क लगा हुआ मिलेगा । इसलिए कोई विरोध नहीं आता है 510-ब द्रव्य को अहेतुला—सम्यग्दृष्टि मोह का वमन कर देता है तभी वह सुखी रहता है । देखो आचार्यों ने परम कृपा करके हमें मिथ्यात्व के नाश का उपाय बतलाया है । बाकी अन्य क्रियाएं तो अन्य धर्मों में भी मिल जायगी, दया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य वगैरह का उपदेश सभी धर्मो में दिया है । एक मिथ्यात्व के नाश का जैनधर्म में ही प्रधानतया उपदेश दिया है, यही इस धर्म की विशेषता है । प्रत्येक द्रव्य अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव से है पर के द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप चतुष्टय से नहीं है । सिद्धांत ग्रंथ में बताया है कि 1 परमाणु-2 अंश अधिक वाले परमाणु से बंध जाता है वे दोनों स्कंध और पर्याय की दृष्टि से बंध गये, पर द्रव्य की दृष्टि से नहीं बंधे । संयोग की दृष्टि से दो द्रव्य बद्ध कहला सकते हैं, पर द्रव्यदृष्टि से दोनों अबद्ध हैं, क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप कभी भी होता ही नहीं है । स्निग्ध का रुक्ष के साथ बंध हो गया, किंतु एक ने दूसरे को नहिं परिणमाया । शरीर भी कई परमाणुओं का पिंड है, उसमें 1-1 परमाणु का अपना अलग परिणमन है । एक परमाणु भी कभी दूसरे परमाणु रूप नहीं होता है । यह स्वतंत्रता की दृष्टि जैन शासन की देन है । जिस भोजन को हम खाते हैं वह सत् नहीं है उसमें 1-1 परमाणु सत् है । इस प्रकार व्यवहार में व्यवहार सत् है और निश्चय में निश्चय सत् है । इन दोनों में उपयोगी कौन है ! यह आपका अनुभव बतायेगा । इन दोनों नयों का ठीक-ठीक ज्ञान होने पर आप असली तत्त्व को जान सकेंगे । 511-चैतन्य सामान्यात्मक समयसार:—मुमुक्ष जल्दी ही ज्यों का त्यों समय के सार को अर्थात् आत्मा के स्वभाव को जान लेते हैं । वह समयसार ही उत्कृष्ट ज्योति है । सब पर्यायों में रहने वाला, निरपेक्ष शुद्ध निगोद और सिद्धो में सदा रहने वाला वह समयसार नया नहीं है । जितने पुराने आप हैं उतना ही पुराना वह आप में चला आ रहा है । लोग कहते होंगे कि ये कुछ नई-सी बात है पर ये बात कैसी नई हो सकती है । उस उत्कृष्ट समयसार के शुद्धपरिणमन में सिद्ध भगवान क्रीडा कर रहे हैं । मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व में खेल रहे हैं सम्यग्दृष्टि जिनवचन और आत्मश्रद्धा में खेल रहे हैं । कोई धर्मचर्चा में खेल रहा है, कोई विषय कषायों में खेल रहा है इस प्रकार खेल तो सभी रहें हैं और आनंद मना रहे हैं । किंतु इन खेलों में बड़ा अंतर है । जब तक अपनी गोकुल से मथुरा न्यारी नहीं बसती तब तक मनुष्य पर्याय की कोई भी सार्थकता नहीं है । अपने उस चैतन्य स्वभाव को देखो तो सब अवगुण और विकार अपने आग नष्ट हो जायेंगे । जिस प्रकार भक्तामर में कहा है—‘‘दोषैरुपात्तविविधाश्रयजातगर्वें: स्वप्नांतरेऽपि न कदाचिदपीक्षितासि ।’’ हे भगवान! दोषों को जगह-2 स्थान मिल जाने से वे आपकी तरफ देख भी न सके । और गुणों को कहीं स्थान न मिल सकने के कारण वे सब आपके पास आकर इकट्ठे हो गये । इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । इसी प्रकार अंतर्ज्ञान का गुण आ जाने के कारण सब गुण अपने आप आ जाते हैं । 512-स्याद्वाद के दर्शन—जब आत्मानुभव होता है तब वहाँ अनुमान, प्रमाण, नय निक्षेप का प्रवेश नहीं । किंतु जब तक किसी निर्णय पर नहीं पहुंच जाते तब तक यद्यपि ये इस प्रकार है,तथापि इस प्रकार भी हैं कहना ही पड़ेगा । इस यद्यपि और तथापि के बिना कभी भी किसी पदार्थ को पूरा समझा नहीं सकते हो । कोई पूछने लगे कि ये आत्मा कैसा है? तो कहना पड़ेगा कि यद्यपि सदा रहने वाला है, अजर अमर है, यद्यपि पर्याय से प्रतिसमय नाशवान है । कोई पूछे इसका स्वभाव कैसा है तो कहना पड़ेगा कि ध्रुव चैतन्य स्वभावरूप है यद्यपि इस समय क्रोध मान माया रूप विकारी बन रहा है । वस्तु का स्वभाव अवक्तव्य है क्योंकि उसे कहकर नहीं बताया जा सकता है, किंतु फिर भी यदि समझाना ही पड़ता है तो उस समय उसे दोनों नयों का ज्ञान आवश्यक है । यद्यपि सम्यग्दृष्टि परमभाव और अपरमभाव दोनों को जानता है परंतु लक्ष्य बनाता है वह परमभाव का । सम्यग्दृष्टि खोटे भावों मैं रहता नहीं हैं किंतु उसे गुजरना पड़ता है । वह शुभभावों में भी नहीं ठहरता किंतु गुजरना उन्हीं में से पड़ता है । 513-व्यवहार की कृपा—पहली अवस्था में व्यवहारनय हस्तावलंबन की तरह है । देखो ना! तुम सबको जन्म से ही ये सब ज्ञान थोड़े ही था । माता पिता की कृपा से पहिले स्कूल में पढ़ा, फिर और आगे पढ़े, सभी तरह की तुम्हें सुविधायें दीं, सिखाया, समझाया तभी तो अब आकर इस योग्य हुए कि अब सब कुछ समझ सकते हो । अपने लक्ष्य पर जाने को जहाँ पहिला कदम रखा, वह छोड़ना पड़ेगा, व्यवहार की कृपा से ही पहिली अवस्था में प्रवेश मिलता है । देखो मुझे भी कुछ थोड़ी ज्ञान की दृष्टि मिली वह यदि चिरोंजाबाई साव से संबंध न होता तो बड़े वर्णीजी से कैसे संपर्क बढ़ता? देखो 1 बार छुट्टीयों में घर पहुंचा तो वहां, विचार हुआ कि अब पढने को नहीं जाना है, माताजी ने भी सम्मति दे दी, किंतु सागर विद्यालय की तरफ से एक नोटिस पहुँच गया कि यदि पढ़ने को नहीं आना है तो अब तक जितने दिन पाठशाला में रहे, उतने दिन तक का पूरा मय पढ़ाई खर्चा के वसूल किया जायेगा, तो पाठशाला में पढ़ने को जाना पडा क्योंकि जाने में खास हानि नहीं दिखाई दी खर्चा ही क्यों सारा दिया जावे । एक बार फिर नहीं जा रहे थे तो फिर वहीं नोटिस आ गया फिर भी जाना पड़ा और कुछ पढ़ लिख सका । इसके आगे भी मेरे संस्कार प्रारंभ से ही एकांत में रहने के बने हैं । एक 25-26 वर्ष की उम्र में समयसार पढ़ा तो बड़ा प्रिय लगा इसी संस्कार वश आगे विवाह न करने का नियम ले लिया । इस प्रकार अनेक व्यवहारों की कृपा से यहाँ तक आया हूँ । अपना लक्ष्य शुद्ध रखे तो व्यवहार हेय नहीं है यदि ये दृढ़ श्रद्धा हो कि एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कुछ नहीं करना, यह श्रद्धा बनाकर चलो । व्यवहार में सब कुछ करते जाओ तो भला ही भला है । देखो व्यवहार सरीखा परोपकारी कोई नहीं कि खुद तो मर जाता है और दूसरों का भला करता है । अर्थात् निश्चय पर पहुंचने पर व्यवहार तो अपने आप छूट जाता है । पर आजकल कोई व्यवहार को सर्वथा हेय समझते हैं । पर भला होता है व्यवहार से, व्यवहार न हो तो तीर्थ नष्ट हो जाय जिन्होंने व्यवहार को साधन और निश्चय को साध्य बनाया वही व्यक्ति कल्याण कर सकता है । 514-मानव जन्म की सार्थकता—मुमुक्षु में ज्ञान सीखने के लिये सबसे पहिले विनय होना चाहिये । बिना विनय के कभी विद्या नहीं आ सकती है । संस्कृत पढ़ने वाले विद्यार्थियों का और हमारा बड़ा सौभाग्य रहा है किं प्रारंभ से ही विनय की शिक्षा और संस्कार डाले गये हैं । आज भी जो कुछ बड़े वर्णीजी कहें मुझे शिरोधार्य करना पड़ता है । कभी कुछ कठिनाई भी हो तो वर्णीजी स्वयं उसे सम्हाल लेते हैं । आज तक कभी उत्तर देने का अवसर नहीं आया । सबकी यहीं भावना रहना चाहिये कि अपने से बड़ों के प्रति मेरी विनय बनी रहे । आज की प्रचलित अन्य भाषाओं के पढ़ने वाले विद्यार्थियों में विनय नहीं देखा जाता है । विनय में कल्याण भावना प्रकट होती है । लक्ष्मी आवे या जावे, जीवन रहे या जावे, पर मुझे अपने स्वभाव की दृष्टि प्राप्त हो जाये, इस प्रकार की भावना जागृत होगी तभी 1 दिन अवश्य उस स्वानुभव की दृष्टि प्राप्त हो सकती है । अपने को कभी छोटा मत समझो, तुम भी तो वही हो जो सिद्ध परमात्मा हैं । अखंड, अनंत गुणों के भंडार । फिर क्यों अपने को इतना तुच्छ समझते हो । राजा हो या रक, विद्वान हो या मूर्ख एक दिन आखिर सबको मरना तो पड़ता ही है फिर नया जन्म भी लेना पड़ेगा, इस जीवन में भी अन्य जन्मों की तरह विषयकषाय में फंसे रहे तो उसका प्रतिफल अगले जन्म में क्या होगा? वही फल होगा जो प्रत्यक्ष में अन्य दु:खी जीवों को देख रहे हो अथवा जो अभी तक शास्त्रों में नरक निगोद का कथानक सुनते रहे हो जिनके दुख श्रवणमात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं, वह दुख और किन को सुरक्षित रखा गया है । उमास्वामी ने लिखा है—वह्वारंभपरिग्रहत्व नारकस्यायुष: । अर्थात् बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह का फल नरकायु है । पाप के फल में देर हो सकती है । पर अंधेर नहीं हो सकता है । हां, जैनधर्म में निमित्तमात्र की दृष्टि में कर्म फल देता है इस लिये यहाँ जो कुछ किया तत्काल उसका कर्मबंध रूप फल मिल गया । यदि कहीं ईश्वर फल देता होता तो देर फिर भी हो सकती थी पर यहाँ कर्म का ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध है कि यहाँ कषाय की और वहाँ कर्मबंध हुआ । 515 अ-मानवमरण की सार्थकता—भैया ! जब मरना ही है तब ऐसी भावना करो कि वीर मरण हो, कहीं साधु संतों के समागम में पवित्र स्थान पर सल्लेखना पूर्वक मरण हो । आजकल तो लोग कहते हैं कि अरे उसे घरवालों की लकड़ी नहीं मिली, यहाँ आचार्य कहते हैं कि जहाँ जन्म होता है उसी समय सस्कार कराते समय उपदेश दिया जाता है कि ‘समाधिमरणं भवतु’ अर्थात् तुम्हारा समाधिमरण हो आज के कुछ लोग उसे भले अपशकुन समझते हों पर मानव जीवन की सफलता उसी पर निर्भर है । अन्यथा इस तरह कुमौत मरते हुए तो अनंत भव बीत गये । मोह ममता कर करके तो अनेक चल बसे और अपनी हंसी की करतूत भी बता गये । कई व्यक्ति तो अपने मरण भोज का भी प्रबंध कर जाते हैं । इस मरण भोज की प्रथा इसलिये चली थी कि प्रतिदिन दान देनेवाला श्रावक 12 दिन तक पात्रदान नहीं कर सकता, इसलिये 13 वें दिन पात्र को दान देकर अपना अहोभाग्य मानता था और कुछ साधर्मी बंधुओं को भी इसी खुशी में भोजन करा देते थे । इसलिये तेरवीं का अधिकार उसी व्यक्ति को है जिसका चौका रोज लगता है, रोज पात्रदान जो करता है, पर आज तो वह रूढ़ि बन गई । मरण समय कोई कुबुद्धि न हो हमेशा, ऐसी भावना हो कि मरण घर में न होकर किसी शुभ स्थान किसी संत समागम में हो । तभी भविष्य सुधर सकता है। 515 ब-आचार्यों की कृपा—इस तरह व्यवहारनय प्रथम अवस्था में हस्तावलंबन की तरह है ।आचार्यों को यद्यपि इस बात का खेद होता है कि मुझे स्वभाव दृष्टि को छोड़कर क्यों व्यवहार में फंसना पड़ता है । क्योंकि किसी को समझाना आदि कार्य सब पागलपन की चेष्टा है । वे तो चाहते हैं कि मैं उत्कृष्ट तत्त्व निजानुभव को देखता रहूँ । समस्त बाह्य पदार्थों से मुख मोड़कर अपने आपको जानता रहूँ । उन्हें ये व्यवहारनय कुछ भी उपयोगी नहीं है । नीचे से ऊपर आने को सीढ़ी उपयोगी होती है किंतु ऊपर आ जाने पर फिर क्या सीढ़ी का उपयोग है । दूसरी मंजिल पर आने को सीढ़ियां उपयोगो अवश्य हैं किंतु वह ऊपर जाने वाला व्यक्ति ये श्रद्धान पहिले से ही रखता है कि सीढ़ियाँ छोड़ने पर ही चढ़ी जायगी । वह सीढ़ियों पर चढ़कर यदि वे सुंदर संगमरमर की हैं तो उन्हीं को पकड़कर नहीं रह जाता है । पैर रखा और छोड़ा एक सीढ़ी के बाद दूसरी तीसरी सीढ़ी चढ़ता जाता है और छोड़ता जाता है इसी प्रकार व्यवहारनय आगे निश्चयनय की प्राप्ति के लिये ग्रहण किया जाता है । निश्चय की दृष्टि आने पर फिर व्यवहार का कोई उपयोग नहीं है । इस प्रकार श्रद्धा बनाने पर ही अपने को शांति का अनुभव होता है, शांति का दूसरा उपाय कुछ भी नहीं है । यह वयवहार साधन रूप की चर्चा का है । 516-वास्तव में व्यवहार तो सदा ही रहता—व्यवहार परिणमन वस्तु में सदा रहता है । जो विवेकी आत्मा स्वभावदृष्टि के अवलंबन के प्रसाद से जो निश्चयनय के विषयभूत आत्मस्वभाव का लक्ष्य करते हैं वह लक्ष्य करना भी तो व्यवहार है । हां इस व्यवहार में विषय निश्चय का है । तो देखा निश्चय है । तो विषय रूप से है और व्यवहार से काम हो रहा है । परंतु इस व्यवहार का यहाँ विवेक नहीं किया जा रहा है । भिन्न समयवर्ती व्यवहार और निश्चय की पद्धति की चर्चा है । 517-अनेक में एक के दर्शन—एकत्व में नियत और व्याप्त पूर्ण ज्ञानधन आत्मा का दर्शन करना सम्यग्दर्शन है । वस्तु की परीक्षा 4 प्रकार से होती है । द्रव्य, क्षेत्रकाल, भाव रूप चतुष्टय से । यदि प्रत्येक वस्तु का चतुष्टय समझ में आ जावे तो शीघ्र ही वस्तु का स्वरूप समझ में आ जाये । संपूर्ण पदार्थों में द्रव्य क्षेत्र काल भाव मौजूद है । किंतु प्रत्येक द्रव्य का चतुष्टय उसी द्रव्य में है एक द्रव्य का चतुष्टय अन्य द्रव्य में नहीं है । जैसे आत्मा का द्रव्य क्षेत्र कालभाव आत्मा में ही हैं । आत्मा से बाहिर किसी अन्य पदार्थ में नहीं है । इसी तरह अन्य द्रव्य का चतुष्टय उसमें ही है उस द्रव्य से बाहिर नहीं है । एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का अत्यंताभाव है, एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का लगाव नहीं है । उस अखंड 1 द्रव्य को देखना सम्यग्दर्शन का कारण है । जीवों को अनादिकाल से अनेक का परिचय है अनेक में उस 1 का परिचय नहीं है । सामने जो भी सब स्कंध दिख रहा है वह 1 द्रव्य नहीं वह नाना द्रव्यों का समुदाय है । एक-एक अणु ऐसे अनेक अणु मिलकर स्कंध बना है । जिस प्रकार एक-एक तोला मिलकर 1 मन हो जाता है । इसी प्रकार एक-एक परमाणु द्रव्य है । इस प्रकार जो 1 को नहीं जानता वह सबको भी नहीं जान सकता है । अनेक के सयोग को जो 1 मानता है, वह मिथ्या दृष्टि, मोही है । 518-पर में स्वत्व की मान्यता ही विषपान—यह धन कुटुंब परिवार मेरा है यह मानना तो और भी महामिथ्यात्व है । इससे ही सारे दुख होते हैं । यही मान्यता विपत्ति का घर है । यह मिथ्यादृष्टि इंद्रियों से देखकर ही जो सामने दिखता है उसी को पदार्थ मान लेता है, पदार्थ का निर्णय करता है । उसी में संबंध की बुद्धि कर लेता है । पर पदार्थों से अपने में सुख दु:ख मानता है । वह नहीं समझता कि मेरा सुख दु:ख मुझ पर निर्भर है । मेरा परिणमन कोई भी दूसरा नहीं कर सकता । 519-प्रत्येक द्रव्य की स्वाश्रितता—देखो तो क्या एक पदार्थ का कुछ भी दूसरे में मिला है । एकद्रव्य से बाहर उसका कुछ भी अंश नहीं है । सिद्ध जीव अनंतानंत एकत्र रहते हैं किंतु क्या 1 सिद्ध दूसरे सिद्ध रूप हो सकता है । कभी नहीं अपनी आत्मा में भी अनंत आत्माएं दूसरी निगोदिया जीवों की हैं पर उन सबकी अपनी-2 आत्माएं अलग-अलग हैं कभी भी एक रूप नहीं हो सकती हैं । इस लोक में कार्मणवर्गणाएं, आहार वर्गणाएं, तैजस वर्गणाएं, भाषावर्गणा आदि कितनी तरह की वर्गणायें भरी पड़ी है किंतु वे भी अभी एक दूसरे रूप में बदल कर नहीं हो सकती है । देखो परखो सभी द्रव्य अपने-2 द्रव्यक्षेत्र में रहते हैं । लोग कहते हैं मैं आकाश में रहता हूँ या जबलपुर में रहता हुँ, किंतु ये सब व्यवहारकथन है । प्रत्येक द्रव्य अपने आप में रहता है, कोई किसी के आधार से नहीं रहता है । आत्मा-आत्मा के आधार से, पुद्गल अपने आधार से रहता है । अंतरदृष्टि से देखो तो सब द्रव्य स्वतंत्र दिखेंगे, इन चर्म चक्षुओं से सब मिले हुए दिखते हैं । 520-पर्यायदृष्टि वाला भी पर्यायमात्र नहीं:—अरे जब एक क्षेत्रावगाही शरीर भी इस आत्मा से पृथक् है तब इन बाह्य पदार्थों में कैसे एकता हो सकती है । इससे यह निश्चित हुआ कि सभी सत् अपनी-2 सत्ता रखते हैं कोई किसी से मिलकर एक नहीं हो सकता है । जिनको हम अपना परम आराध्य मानते हैं वह भगवान् भी हम से पृथक् सत् है । इसलिये इन अनेक में से 1 की दृष्टि सम्यग्दर्शन है । वस्तु तो सब 1-1 हैं उनको हर दृष्टि से समझना है । द्रत्य में काल कृत क्षेत्र कृत भाव कृत कोई भेद नहीं है । जिन जीवों को स्वभाव का बोध नहीं वे विशेष की दृष्टि से समझते हैं । फिर पर्यायदृष्टि से अपने को देखने वाला कहा तक कल्याण पथ पर जा सकता है यह सोचने की बात है । हमारे लिये बड़ा भारी ये कलंक है कि मैं मनुष्य हूँ, स्त्री हूँ, अमुक जाति का हूँ इत्यादि सब पर्याय दृष्टियां होती हैं । ज्ञानी इन सब पर्यायों में उस अपने 1 तत्त्व को देख लेता है जो व्यक्ति इन इंद्रिय विषयों से विरक्त न होकर उनके अधीन बना रहता है, वह तो विषय कषायों की गलियों में ही दौड़ता रहेगा, उसे पथ मिलना मुश्किल है । वह इंद्रियों की विषयों की पूर्ति में जो धन वगैरह सहायक होता है, उसी में गहरा महत्त्व करने लगता है । उनका वियोग हुआ तो दु:खी हो जाता है । पहिले इंद्रियाँ विषयों की पूर्ति में आकुलित रहता है बाद में वियोग में दु:खी होता है । इस तरह इस विषय कषाय के पथ मैं कभी सुख या निराकुलता का अनुभव नहीं कर पाता है । निरंतर दु:खी बना रहता है । इन इंद्रिय विषयों से एक बार हटाकर सत्याग्रह तो करो, सब इंद्रियों की गुलामी नष्ट हो जायगी । फिर आंख, नाक, कान का उपयोग ही नहीं रहेगा । फिर अपना उपयोग आत्मा में ही रहेगा । अन्यत्र कहीं नहीं । इस तरह अपने आधार से अपने को जानना यही सम्यग्दर्शन है । 521-आत्मा के एकत्व की दृष्टि:—यह आत्मा व्यापक बतलाया है पर कितने में व्यापक है, जितना आत्मा का आकार प्रकार है । आत्मा से बाहर आत्मा की व्यापकता नहीं है । किंतु जहाँ आत्मा की सीमा का भी ध्यान नहीं, वह परिस्थिति उत्पन्न करो । जहाँ पर नव, निक्षेप प्रमाण और गुणभेद का भी प्रवेश नहीं वहीं सम्यग्दर्शन का अनुभव होता है । यहाँ पर अरहंत भगवान और सिद्धभगवान भी परद्रव्य हो जाते हैं । वहाँ पर यह कारण परमात्मा कार्य परमात्मा बनने के पथ पर चल देता है । वहाँ ज्ञान में ज्ञान स्थिर हो जाता है, तब सारा अज्ञान ज्ञान होकर पूर्ण ज्ञान रूप हो जाता है । हम भेददृष्टि से देखेंगे तो आत्मा में सिर्फ 1 चैतन्यमात्र अपना स्वरूप दिखेगा । गुणों में भेद सिर्फ समझने के लिए हैं आत्मा तो 1 अभेद रूप एव अखंड है । गुणों में भेद करने से तो आत्मा के भी खंड करना पड़ेंगे । अनुभव करने पर आत्मा तो प्रतिभास मात्र है । वह अनुभवगम्य है । इंद्रियों या मन के द्वारा उसका प्रतिभास नहीं हो सकता है । वहाँ पर जाननेवाला और जानने योग्य अथवा जिससे जानते हैं इन तीनों में कोई अंतर नहीं रह जाता है तीनों कर्ता कर्म क्रिया एक हो जाते हैं । अपने को, अपने द्वारा स्वयं आप जानने लगता है, वहीं पर स्वानुभूति प्रगट होती है । इतना अनुभव सभी को है कि उपयोग जितना जब तक घूमेगा तब तक विकल्प होंगे । जितने विकल्प बुद्धि में आते उतना क्षोभ करना व सुख का घात करना है । विकल्प करने में न आवे उसका उपाय अध्यात्म का मनन हैं । विकल्प न आयें ऐसा प्रयत्न अध्यात्म है । भूतार्थनय से तत्त्व क्या सारी दुनियाँ जानने में आवे तो ऐसा ज्ञाता विकल्पों से परे हो जाता है । शांति को क्या करना? उपयोग में जो परिवर्तित विचार आते वे स्वस्थ्य हो जावें, उपयोग स्व में स्थिर जम जाय तो उपयोग न बदले । कुछ पर्यायों पर ही दृष्टि जाती वे है विनाशीक सो वे बदलें तो दु:खी हो जाते । जानने का विषय भी अध्रुव, अध्रुव का विषय भी अध्रुव । खराब पदार्थ को भी जानो पर उसमें भी उपयोग स्थिर रह जाय सो नहीं होता । जो जैसा उपयोग करता उसी से वह वैसा सुखी दु:खी है । भूतार्थ से कैसा जाना जाय पदार्थ कि सम्यग्दर्शन हो जाय इसे जानिए । 522 अ-द्रव्यगुण पर्याय का परिचयन—अब द्रव्य गुण पर्याय तीनों से देखो । पर्याय विनाशीक है अध्रुव दशा यदि है तो कह दो कि पर्याय है, किंतु जिस शक्ति का पर्याय है वह शक्ति त्रिकाल है ।दशा का आधार कोई ध्रुव शक्ति है जैसे क्रोध मान माया लोभ आदि पर्यायें हैं उनका आधारभूत कोई शक्ति है । चौकी में रूप है रस है गंध है स्पर्श है चार चीजें है क्या ये रस आदि रहेंगे निरंतर ? नहीं, निरंतर बदलते हैं जैसे काला पीला आदि पर्यायें हैं इनका आधार भी एक शक्ति है वह है गुण । रूप, गुण त्रिकाल है । खट्टा मीठी पर्याय रस गुण की पर्याय है । इसी तरह गंध की पर्याय दो हैं उनका आधारभूत गंध गुण हैं । ये गुण नहीं बदलते ये पर्यायें बदलती रहो । गुण हमेशा रहते । पर्याय बदलती रहती है दुर्गंध पर्याय किनकी? गंध गुण की, इसी तरह अन्य गुण की पर्यायें जान ।आत्मा के ज्ञान दर्शन आदि शक्तियां है । ज्ञान की पर्यायें कुमति कुश्रुत ज्ञान आदि हैं । दर्शन की पर्याय हैं चक्षुदर्शनादि । मिथ्या दर्शन श्रद्धा गुण की पर्याय है । राग चरित्र गुण की पर्याय है । ये पर्याय जानना और उनका आधारभूत गुण जानना । ये मनुष्य है । असमानजातीय द्रव्यपर्याय, अनेक द्रव्यों का मिलकर 1 पिंड पर्याय है । आस्रव दो प्रकार के हैं—जीवाश्रव अजीवाश्रव । जीवाश्रव के अनेक भेद हैं—मिथ्यात्व कषाय योग आदि । राग चारित्र की पर्याय है सम्यग्दर्शन श्रद्धा गुण की पर्याय है । 522 ब-भूतार्थनय से ज्ञेय—पुद्गल का काला रूप है, काला किसकी पर्याय है? रूप गुण की पर्याय है जिसकी पर्याय है उस गुण को जानने में मुख्यतया लग जाय । रूपगुण किसका अभिन्नगुण है पुद्गल का अभिन्न गुण है । अब लो, द्रव्य पर दृष्टि गई । द्रव्यदृष्टि होने पर विकल्प कहां रहा आत्मा में जीवाश्रव-रागादि है । प्रश्न करो राग किसकी पर्याय? चारित्र गुण किसका अभिन्न गुण है? उत्तर आत्मा की शक्ति है । गुणभेद मिटा दो तो उपयोग ध्रुव पर पहुँचेगा । विकल्प ऐसी जगह नष्ट हुये । भूतार्थनय ऐसी जगह नेता को पहुँचाता है जहाँ उपयोग स्थिर हो जाय । शांति के अर्थ उपयोग स्थिर करो दशा से लगाव न रखकर अपने पर दृष्टि करो । पर्याय पर दृष्टि गई, सब विकल्प में अनुकूल व प्रतिकूल । स्वभाव दर्शन, कारण परमात्मा का विश्वास ज्ञान उपयोग इस जीव का भला कर सकता है कुछ भी गुजरो पर उसके ज्ञाता हो रहो, शांति । निश्चय-स्वभाव, परिणमन-व्यवहार । स्वभाव का अवलोकन लक्ष्य निश्चय हो तो कहीं भी रहो स्वभाव का उपयोग हो जाय तो निराकूलता मिलती है । ये पर्याय मैं नहीं, पर्याय गुजरने को आते हैं मैं बाह्य में कुछ नहीं कर सकता हूँ, एक मैं हूँ परिणमता रहता हूँ, बाह्य में बुद्धि होने से पर्यायबुद्धि रहती है । प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है अखंड है एक दूसरे में कुछ नहीं कर सकता मैं कुछ भी बाहर नहीं कर पाता पर को जानता भी नहीं, आपको अपने परिणमन से जानता हूँ । ज्ञान ज्ञेयाकार हो जाता तो मालुम पड़ता कि मैं ज्ञेय को जानता हूँ । दर्पण में क्या आप अपनी आँख देख रहे? अपनी आँख का प्रतिबिंब देख रहे । इसी प्रकार अपने ज्ञान के परिणमन को जानते हो उसमें ऐसा ज्ञेयाकार बना, तब कहते हैं फलाने को जानते हैं । जानने का संबंध भी वस्तुत: परपदार्थ में नहीं है । एक का किसी भी अन्य से संबंध नहीं हो सकता सो निज ध्रुव को जानो । सब जगह एकत्व को जान लेना । ज्ञेयाकार वह भी मैं नहीं हूँ वह भी पर्याय है पर्याय से दृष्टि हटावो तो कुछ भी हो एकत्व स्वभाव पर आत्मा जा सकता है । राग किया वह राग मैं नहीं जिससे राग हुआ वह मैं नहीं । जानने को भी देख लेना कि मैं ये कुछ नहीं । राग किसकी पर्याय हैं । चरित्रगुण की । यह गुण किसका? आत्म का । देखो अभूतार्थ से हटा भूतार्थ पर आया । श्रुतज्ञान किसकी पर्याय ज्ञान गुण की । ज्ञान गुण किसका? आत्मा का । भेद से हटना अभेद में पहुँचना । सुख किसकी पर्याय? आनंद गुण की, आनंद गुण किसका है, आत्मा का । 523-अभेद की ओर ढलना ही भूतार्थसरणी है—जितने भी स्कंध हैं वे अभेद वस्तु नहीं है, अभेद अनेक वस्तुओं के पिंड हैं । उनमें पहिले तो भेद करके भिन्न-भिन्न एक वस्तु को (परमाणु को) देखना, फिर अभेद वस्तु का उपयोग करना । इतने पर भी शुद्ध अभेद न आवे तो उसमें भी जो गुणपर्यायभेद व गुणभेद हैं उन सबको गौण करके एक अभेद स्वभाव की ओर ढलना । इसी प्रकार जो आत्मा भी आज किसी गति इंद्रियादि दशा में हैं व परिवार मित्र आदि के स्नेह आदि की अवस्थायें हैं उस आत्मा को अन्य आत्माओं से व देहादिक भिन्न ग्रहण करना । इतने पर भी शुद्ध अभेद न आवे तो एक उस आत्मा में या निज आत्मा में जो गुणपर्यायभेद हैं व गुणभेद हैं उन सबको गौण करके एक अभेदस्वभाव की ओर ढलना । मैं सहज चैतन्यस्वरूप हूँ एक चित्स्वभावमात्र हूँ इस प्रकार पर्यायभेद व गुणभेद से परे चैतन्यशक्तिमात्र अपने आपकी ओर ढलना सो भूतार्थसरणी है । कल द्रव्य क्षेत्र कालादिकी अपेक्षा आत्मा के सहज शुद्ध स्वभाव का वर्णन किया था । उस त्रिकालवर्ती सहज शुद्ध स्वभाव की दृष्टि ही सम्यग्दर्शन है । वह स्वानुभव क्या है? यह कहा नहीं जा सकता है । गुण पृथक-पृथक नहीं है, समझने के लिये उनमें भेदकर लिये जाते हैं । जिज्ञासु की जिज्ञासा के अनुरूप जिस तरह वह समझ सके, समझा दिया जाता है । आत्मा तो एक अखंड द्रव्य है । उसमें कुछ टुकड़े मत समझना ।यह स्वभाव की दृष्टि इतनी सरल और सहज है कि उसे पाने को किमी भी पराश्रय की आवश्यकता नहीं है । 524-अपनी ओर दृष्टि देना ही अपने को पाना है—मनुष्य ज्ञान विज्ञान कितना पढ़ जाय किंतु आत्मज्ञान के बिना वह सब व्यर्थ है । उसी स्वभाव का परिचय कराने के लिये ये 7 तत्त्व बतलाये गये हैं । इन 7 तत्त्वों का ज्ञान तो सभी को हो जाता है उसकी बारीक से बारीक भी चर्चा मनुष्य कर सकता है किंतु उन 7 तत्त्वों के द्वारा अपने उस निज नाथ को नहीं ढूंढ सकता है । ये चर्चा वार्ता तो बंदरों की छलांग है । जितनी चाहे ऊंची भरते रहो जिस प्रकार किमी किसी रामायण में कथानक आता है कि बंदरों ने सीता को लाने के लिये समुद्र पार कर लिया था । पर समुद्र तो पार कर लिया था किंतु उन बंदरों को उस समुद्र में भरे हुए रत्नों का क्या पता? इसी प्रकार सब शास्त्रों का ज्ञान पाया किंतु आत्मज्ञान के बिना वह सब व्यर्थ है । धर्म कार्य करते हुए भी जो क्रोधादि कषाय रहता है वह उस धर्म के मर्म न समझने का फल है । धर्म कर रहे हैं और क्रोध आ जाता है । मान और दिखावटीपन अधिक रहता है वह सब इसी मर्म को न समझने का परिणाम है । ये दिखने वाले पदार्थ ध्रुव तत्त्व नहीं, सबका एक दिन नाश होने को है । जो भी समागम मिला एक दिन सबका वियोग होगा । यह इस विनाश शील पर्याय में आत्मबुद्धि करके अपने गुणों को नष्ट कर देता है । 525-आज के मानव का लक्ष्य—जीवोन्य: पुद्गलाश्चान्य: जीव पृथक और पुद्गल पृथक है ये कथन बहुत स्थूल हैं इसके मर्म को समझने के लिये द्रव्य गुण पर्याय को समझना पड़ेगा और उसमें भी भूतार्थ दृष्टि से समझेंगे तभी उसमें से निज तत्त्व की खोज कर सकेंगे आज का मनुष्य अपना कुछ ध्येय ही नहीं बना पाता है कि उसे क्या करना है? कहां जाना है? उसका अपना अंतिम लक्ष्य क्या है? उसका तो अपना लक्ष्य है कि घर गृहस्थी बढ़ जाय, दुकानदारी बढ़ जाय, कीर्ति और बड़प्पन फैल जाय, किंतु ये सभी काम पराश्रित हैं, पुण्य कर्म के अधीन हैं । अपने वश का काम नहीं है, पराधीन है । उसके पीछे हम लोग पड़े हुए है । धन का अधिक से अधिक संग्रह ही हमारा लक्ष्य है, जो कि आत्मा से अत्यंताभाव वाली वस्तु है । इससे आत्मा का क्या भला हो सकता है। 526-स्वरूप दर्शन बिना सब दु:खी:—अपना स्वभाव ज्ञानमात्र है, स्वभाव का दर्शन सम्यग्दर्शन है । अनेक संयोगी चीजों को एक मानना अज्ञान है, अनेक को अनेक रूप मानना और बस अनेक में से अपनी एक की खोज कर लेना सम्यग्ज्ञान है । इस अपने स्वभाव की खोज के बिना जीव बस पुण्य पाप में उलझा रहता है और इनको ही अपना रूप समझकर अनंत संसार में घूमता रहता है । इस मनुष्य के मन में भी अपनी समझ नहीं आई तो यह पर्याय भी व्यर्थ चली जायगी । आगे दूसरी पर्याय देखो एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय और चार इंद्रिय जीवों को देखो क्या कीमत है? जूते के नाल से भी उनकी कम कीमत है । पंचेंद्रिय जीवों में पशुओं को देखो कितने दु:खी हैं, इन सबके बाद मनुष्यों को भी देखो—क्रोध मान आदि कषाय के वश में निरंतर खुद दु:खी और दूसरों को भी दु:खी करते हैं, किसी से विरोध हो गया तो छुरी मारकर दम निकाल देते हैं आदि अनेक दु:ख लगे हुए है । बिना अपने एक स्वभाव के जाने कभी भी यह जीव सुखी नहीं हो सकता है । सोचो आज तुम कुछ धनी बन गये तो मान क्यों करते हो? क्या कभी तुम ऐसे न थे और यदि अपनी संभाल न की तो क्या आगे इस प्रकार न बनोगे । फिर मान किसका इस संसार में तुम्हारा कुछ भी तो नहीं है, एक तुम्हारी आत्मा है और उसके गुण ही सिर्फ तुम्हारे हैं फिर किस पदार्थ को अपना मान कर घमंड करता है । मान अपने पुराण आचार्यमहाराज के उपदेश पर चलने में कठिनाई अनुभव कर रहे हैं क्योंकि लोभ कषाय में फंसे हुए हैं । इसी से त्याग करने में उत्साह नहीं जगता । विवेकी वही है कि जिसे मौका पड़े तो देर न लगे और सब छोड़कर सन्मार्ग पर अपना कल्याण करने को चल पड़े वही गृहस्थ धन्य है । 527-जानन विशेष की दो विधियां—वस्तु के जानने की दो विधियां हैं-एक तो जिस वस्तु को जाना जा रहा है उस ही को केवल जान जाय, उस ही के निज की बात जानी जाय उससे ही केवलज्ञान का संबंध हो किसी दूसरे का ख्याल भी न रखे, अपेक्षा न रखे, संबंध न देखे एक तो यह विधि है । दूसरी विधि यह है कि उस पदार्थ में जो कुछ विभाव परिणमन है उसको देखो—किस निमित्त से हुआ है, किस अपेक्षा से हैं किस संबंध से है, ऐसा कुछ भी अकेवल भाव देखना वह सब एक दूसरी विधि है । पहिली विधि का नाम है निश्चयनय और दूसरी विधि का नाम है व्यवहारनय! जैसे दर्पण से देखा तो दर्पण की बात, दर्पण के गुण, दर्पण के धर्म, और दर्पण में ही देखे किसी दूसरे की अपेक्षा न करे, कोई अपेक्षा परिणमन हो उसे भी न देखे, केवल दर्पण में दर्पण के ही कारण निज में जो स्वच्छता है उसे देखे वह है निश्चयनय और दर्पण में मुंह का प्रतिबिंब है मुंह सामने है आदिक देखना यह व्यवहारनय है । अब आत्मा की बात देखिये । आत्मा में आत्मा की ही सत्ता जाने, समस्त आत्मा में जो स्वभाव है अनादि अनंत हैं केवल ज्ञायकमात्र, चैतन्यमात्र, उसे ही निरखना यह तो है शुद्धनय से निरखना, और इसमें रागादिक हुए है, कर्म के निमित्त से हुए हैं ये इस तरह मिट सकते हैं आदिक बातों को देखना यह सब व्यवहार नय है । तो प्रसंग यह चल रहा था कि लोक में एकत्व ही सुंदर है ।किसी भी पदार्थ को देखें एकत्व देखें अकेला देखे कैवल्यस्वरूप देखें तो उस निरखन में अनाकुलता है, क्लेश नहीं है शांति होगी, आनंद होगा, और यह अपेक्षा से बात देखें संबंध वाली बात देख तो उस देखने में कुछ विह्वलता भी होती है । इससे केवल एकत्व भाव ही सुंदर है और उसे ही ग्रहण करना चाहिये । 528-व्यवहारनय की प्रयोजकता और परमार्थ प्रयोजन—इस पर शंकायें उठना स्वाभाविक है कि जब आत्मा का एकत्व भाव ही उपादेय है, निश्चयनय का विषय ही ग्रहण करने योग्य है फिर व्यवहारनय की जरूरत ही क्या है? तो कह रहे हैं कि किन्हीं-किन्हीं जीवों को कभी-कभी व्यवहारनय भी प्रयोजन वाला है । हम आप लोग कोई भी जो खूब ज्ञानार्जन करके आत्मा के शुद्ध स्वरूप की बात कहते हैं शुद्ध स्वरूप की दृष्टि किया करते हैं तो यह बात क्या जन्म से पायी है आपने? इससे पहिले हुए आप कितना व्यवहार में थे । व्यवहार से रहे, उसी व्यवहार में ज्ञानार्जन किया उसी सिलसिले में फिर एक यह दृष्टि प्राप्त की है । तो पुरुष भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं । किन्हीं पुरुषों को कोई व्यवहारनय भी प्रयोजनवान है और निश्चयनय तो निश्चय से जान गया जो भाव स्वभाववान है वह प्रयोजनवान है । जैसे किसी जीव को किसी का परिचय नहीं है तो उसको लक्षण बताया जायगा उसकी पहिचान बतायी जायगी यह सब एक व्यवहारनय के ज्ञान की बात है । जब वह जान गया तो बस जान गया, यह उसका फल हुआ तो व्यवहारनय भी प्रयोजनवान है इसका पहिले आलंबन लिया जाता है और उसके आलंबन में रहकर हम उसके निश्चय की बात सीखा करते हैं । इसमें तो कोई संदेह नहीं कि आत्मा को जब भी शांति मिलेगी तब अपने आपको अधिकाधिक अकेला अनुभव करने में मिलेगी । इस अकेले के सामने यह नहीं कि दुनिया की दृष्टि से ऐसा सोचना कि मैं तो अकेला ही रह गया, सभी लोगों ने मेरा साथ छोड़ दिया अब मैं क्या करूं, ऐसी पर्यायदृष्टि के अकेले की बात नहीं कही जा रही है । उसमें तो विह्वलता है, पर द्रव्यदृष्टि का जो एकत्व है अपने को ऐसा अकेला निरखना कि मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ । मैं शरीरादिक समस्त पदार्थों से भिन्न निराला हू, ऐसा केवल ज्ञानमात्र अपने को निरखें, उस एकत्व की बात कही जा रही है । उस एकत्व पर हमारा जितना चिंतन चलेगा, जितना हम उसका आश्रय लेंगे, जितना उसका उपयोग रहेगा उतना हम शांत रह सकते हैं । और जितना हम अपने उस एकत्व स्वभाव से गिर जायेंगे, बाहरी बातों में लग जायेंगे उतना ही हम विह्वल होंगे। 529-जैनदर्शन की एक बड़ी देन—जैन दर्शन ने सबसे बड़ी देन दी है भव्य जीवों को तो वस्तुस्वरूप की स्वतंत्रता का भान कराना । साधारणरूप से तो सभी धर्म कहते ही हैं—हिंसा न करो, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह पाप मत करो, सप्तव्यसनों का त्याग करो, अभक्ष्य का त्याग करो । ये उपदेश सर्वत्र मिलते हैं । भले ही उनकी कोई कमजोर परिभाषा करता हो कोई प्रबल, पर ऐसे उपदेश सर्वत्र मिलते । जैन दर्शन में भी ऐसे उपदेश भरे हुए है तब जैन दर्शन में महिमा की बात क्या आयी? एक वस्तुस्वरूप की इस स्वतंत्रता के विषय को यदि उड़ा दिया जाय तो जैनदर्शन में क्या है । मूल सिद्धांत उत्पादव्यय ध्रौव्य युक्त सत् है । प्रत्येक पदार्थ उत्पादव्यय ध्रौव्य वाला है । इतने संक्षिप्त सूत्र में कल्याण की सब बातें आ गई हैं । इस सूत्र का अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक पदार्थ अपने अतिरिक्त किसी दूसरे में उत्पाद व्यय ध्रौव्य नहीं रखता । मतलब किसी पदार्थ का कोई दूसरा पदार्थ न कर्ता है, न भोक्ता है, न किसी का किसी से कुछ संबंध है । यह निर्णय हो जाता है । वस्तु की ऐसी स्वतंत्रता का भान जब उपयोग में रहता है तो उस उपयोग से कोई विह्वलता नहीं । द्वितीय सूत्र जो कि तत्वार्थसूत्र में प्रथम है—सम्यग्दर्शनज्ञान चरित्राणिमोक्षमार्ग । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र मोक्ष का मार्ग है । पर सम्यग्दर्शन कैसे प्रकट होता, उसका आधारभूत सूत्र यह उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सत् बतलाया है । देखिये—प्रत्येक पदार्थ वह अपने ही प्रदेश से है, अपने में ही परिणमता है, अपने में ही विलीन होता है और सदा रहा करता है । आत्मा को ही देखो—चैतन्यमात्र अपने में ही अपना परिणमन करता हूँ । अपने में ही परिणमन विलीन करता हूँ और मैं वही स्वरूप रहता हूँ । ऐसा अपने आपका भान होना और भान होना इतना ही नहीं किंतु निर्विकल्परूप से ऐसे ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व का अनुभव हो जाना यह सम्यग्दर्शन है, ऐसा ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है और ऐसा ही रहने का यत्न होना मैं केवल ज्ञाता दृष्टा हूँ ऐसा जो आचरण है वह सम्यक्चारित्र हुआ । तो मुक्ति का मार्ग भी हमें इस वस्तु के स्वरूप से मिला । लोक में रहकर हम शांति से जीवन रख सक इसका भी मार्ग हमें वस्तुस्वरूप से मिला जो पुरुष वस्तु के इस स्वतंत्र स्वरूप की प्रतीति रखता है उसका इस लोक में भी बिगाड़ नहीं, परलोक में भी बिगाड़ नहीं । ज्ञान है सम्यग्ज्ञान है । 530-व्यवहारत: भी यथार्थज्ञान में खतरे का अभाव—जो बात जैसी है उसको वैसी जानने में कोई धोखा नहीं है जो बात वैसी नहीं है उसको जैसी समझने में तो धोखा ही होता है । व्यवहार में रस्सी को रस्सी जाना तो उसमें कोई विह्वलता नहीं, सर्प को सर्प जाना तो भी उसे खतरा नहीं । और कदाचित रस्सी को जान लिया सर्प, फल यह हुआ कि हमें दूर रहना चाहिये, सावधानी रखनी थी, पर कभी रस्सी को सर्प जाना तो विह्वल हो रहा और कभी सर्प को रस्सी जान ली तो उससे खतरा है, उसके छू लेने पर काट लेगा। तो जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा निरखने में खतरा नहीं होता । बारह भावनाओं में जैसे अनित्य भावना बताई । ये समस्त दृश्यमान पदार्थ नियम से नष्ट होने वाले हैं, ऐसा यदि कुछ समझ रहे हों तो गृहस्थी के काल में भी हम को लाभ है क्योंकि वे नष्ट होंगे ही । ऐसा समझने वाला पुरुष वियोग होने पर आकुलित न होगा, वह जान जाता है कि वह बात तो मैं पहिले से ही जान रहा था । कोई नई बात नहीं हुई । इन सबका वियोग होगा । तो यथार्थ बात समझने में विह्वलता नहीं है खतरा नहीं है यह जीव समझता रहे कि यह जीव असाधारण है । यह पर्याय जब मिटेगी, अथवा इस मुझ को जब कभी विकल्प होगा, आकुलता जगेगी, वेदना रहेगी तब इसको कोई सहाय नहीं, ऐसा पहिले से ही जिसने समझ रखा हो कि मेरा दुनिया में कोई शरण नहीं है और फिर आ जाय ऐसी ही आपत्ति तो उस समय यह घबड़ायेगा नहीं, क्योंकि समझेगा कि मैं तो समझता ही था कि संसार दुःख का घर है और दुःख आने पर कोई किसी को सहाय नहीं होता है । वह धैर्य रखेगा और जो किसी पर से शरण मानता चला आया है अचानक ही उस पर उपद्रव आये तो एकदम धक्का लगता—अरे मेरा कोई शरण नहीं है । यदि पहिले से हो इस भावना को जमाये रहें तो उसे कष्ट का प्रसंग नहीं आता । 531-यथार्थ परमार्थ ज्ञान में खतरे का अभाव—जैसे व्यवहार में यह बात है कि यथार्थ ज्ञान में खतरा नहीं निश्चय से भी समझिये कि मेरा सहज वास्तविक अपने आप में रहने वाला जो विशुद्ध स्वरूप है जो असली जान है, जिससे हमारे स्वरूप का निर्माण हुआ है ऐसा जो चैतन्य प्रतिभास है वह मैं हूँ केवल वही मैं हूँ ऐसा जो एकत्व का ज्ञान करता है उसे कहीं खतरा नहीं होता । कभी मरण का समय भी आ जाय तो क्या है? मैं तो यह ज्ञानमात्र खुद ही निश्चय से पड़ा हुआ हूँ । लो यह मैं पूरा का पूरा जा रहा हूँ अपने को निरखता रहूँगा । यों कहीं भी कुछ अपना परिणमन करता रहेगा, उसे विह्वलता नहीं है, जहाँ अपने स्वरूप का निरखना छोड़ा और बाहर में कुछ निरखने लगे अरे इतनी बड़ी कंपनी बनाई, इतनी बड़ी संपदा बना ली, इतने मेरे परिजन मित्रजन आदि हैं, ये सब छूटे जा रहे हैं यों उसे आकुलता बढ़ेगी । तो अपने आपके स्वरूप का लक्ष्य होना यह तो एक अमृत है । और कुछ दूसरा अमृत नहीं है जिसके पान से यह मैं अमर हो जाऊँ । कहीं भी भटक ले कहीं भी अन्यत्र उपयोग लगा ले, कितना भी विह्वल हो जायें, दुःखी हो जायें, यदि शांति मिलेगी तो इस ही एकत्व के आश्रय से मिलेगी । मुझ में मेरा जो आत्मप्रभु विराजमान है शाश्वत उसका आलंबन लिये बिना कभी भी शांति नहीं मिल सकती । सत्पुरुषों का संग हम आप पर प्रभाव डालता है । उनकी मुद्रा देख कर उनके वचन सुनकर उनके वातावरण में रहकर हम यही तो पाठ सीखते हैं, और इस शिक्षा में जितना हमारा उपयोग हमारे उस शुद्ध चैतन्य पर रहता है उतना समझलो हमने वास्तविक निधि का उपयोग कर लिया । 532-अंतस्तत्त्व से बाहर सारपने का अभाव—सारमात्र निज एकत्व का दर्शन ही है । जगत के अन्य कार्यों में कुछ भी सारभूत बात नहीं है । सार तो इसी में है कि अपने आप में बसे हुए उस एकत्वस्वरूप का उपयोग करते इसी से जीवन की सफलता है । ये धन वैभव मकान महल आदिक कुछ भी अंत में काम न देंगे । इन सबके संबंध में इस मुझ आत्मा को कुछ भी लाभ नहीं होता, और फिर कभी यह आत्मा इस देह से निकल भी जायगा । फिर क्या रखा है? लौकिक व्यावहारिक लाभ भी नहीं रखा है । इसी प्रकार इज्जत सम्मान हो गया बड़ी कीर्ति हो गई तो उससे इस मेरे आत्मा को क्या लाभ है? इस समय भी क्या लाभ है? अगर हजार पाँच सौ पुरुषों ने सम्मान कर दिया, और सम्मान भी क्या, स्वार्थ-वश उन्होंने मेरा नाम लेकर जो-जो वचन बोल दिया है उनका कारण उनकी खुदगर्जी है । उनको जो इच्छा होती है उसकी सिद्धि के लिए उन्होंने नाम बोला है पर उससे मेरे आत्मा को लाभ क्या है? क्या मेरा आत्मा उतना ही है जितने में हमने परिचय बना रखा है? क्या ये समस्त परिकर मेरे लिए प्रभु है जिनसे कि मैं कीर्ति की, यश की कुछ आशा करता हूँ । क्या ये अन्य जितने भी चेतन जीव परिकर हैं मित्र के रूप में परिवार के रूप में ये सब कोई परमार्थ चीज है? क्या ये मेरा कुछ उपकार करने वाले हैं? मेरे आत्मा का उपकार तो है समस्त कर्मों से छूटना, समस्त विकल्पों से छूटना और अपने सहज ज्ञानानंदस्वरूप का अनुभव करना इस उपकार को अन्य कौन करने में समर्थ है जब मेरा बाहर में कहीं कुछ सार नहीं है तो किसी क्षण उन समस्त बाह्य पदार्थों को एकदम भूलकर कुछ भी न सोचकर अंत: जो विश्राम किया जाता है उस विश्राम में यह आत्मानुभव की धारा का प्रवाह ऐसा फूटकर निकलता है कि जैसे कोई संतप्त पुरुष किसी बड़ी मोटी शीतल धारा में पहुँचकर एक शांति का अनुभव करता है वह तो है एक काल्पनिक शांति, किंतु यह अपने स्वभाव के स्पर्श में अतुल आनंद प्राप्त करेगा। 533-अंतस्तत्त्व की ही शरण्यता का निश्चय—भैया ! जिस किसी भी प्रकार हो आना है अपने आत्मा के एकत्व में उस ही एकत्व का आश्रय करना शुद्धनय है । सो जो लोग इस उत्कृष्ट तत्त्व तक पहुंच चुके हैं, जिन्होंने इस परम भाव को निर्मल कर लिया उनको तो एक शुद्धनय ही जानना चाहिये । उनको व्यवहार की अशुद्धता की बातों का प्रयोजन नहीं है किंतु जो लोग इस परम दशा में नहीं पहुँच पाये हैं, अभी पूर्व की अशरण दशा में है उन्हें क्या करना चाहिये । उन्हें व्यवहारनय का उपदेश किया जाना चाहिये । जैसे जो शुद्ध स्वर्ण के रुचिया है अशुद्ध स्वर्ण से जिनको नफरत है ऐसे पुरुष शुद्ध स्वर्ण पर ही दृष्टि रखते हैं, उसका ही अनुभवन करते हैं और अशुद्ध स्वर्ण का अनुभव शुद्ध स्वर्ण के रूप में कर ही नहीं सकते हैं उन्हें ही शुद्ध स्वभाव का बोध है । पर जिन्हें उस शुद्ध स्वर्ण की प्राप्ति नहीं है, जो इन अनेक गहनों में पूर्ण स्वर्ण का ही अनुभव करते हैं उन्हें शुद्ध स्वर्ण का अनुभवन न होने से क्या करना चाहिये, वे अपने उस अशुद्ध स्वर्ण में ही अपना लेन देन व्यवहार बनाये रहते हैं । लेकिन एक बात है—कदाचित् किसी जौहरी को पारखी को लेना पड़े तो भेद ज्ञान से उसे यह निरख लेना पड़ता है कि इसमें इतना तो शुद्ध स्वर्ण है और इतना अशुद्ध । इसी तरह अपने में यह ज्ञानप्रकाश तो आना ही चाहिये कि मेरे में शुद्ध चैतन्यतत्त्व तो यह है और ये सब उपयोग, ये सब विकल्प, ये सब बाहरी बातें, ये सब कल्पनायें, ये सब व्यर्थ के तत्त्व है, विवाद के ही कारण हैं, मेरा भला करने वाले नहीं हैं । 534-भेदविज्ञान की महिमा—एक यह भी बड़ी बैनी दृष्टि का फल है कि घर में रहकर अनेक कार्य करते हुये भी यह ज्ञान बनाये रहना कि करने का काम तो शुद्ध ज्ञान का अनुभव था । ये जितने भी काम किये जा रहे हैं ये करने के न थे मगर करने पड़ रहे हैं, इस प्रकार का ज्ञान होना एक सावधानी का ज्ञान है, और जिनको यह विवेक नहीं है करने में ये दोनों दिख रहे हैं एक से अविवेकी का कार्य और विवेकी का कार्य, जो व्यवहारिक है, धनार्जन आदिक से संबंधित है—लेकिन उन दोनों के आशय में अंतर है । जैसे कभी-कभी किसी भाई से कहते हैं कि तुम अमुक नियम ले लो तो वह कह बैठता कि यदि मैं नियम ले लूंगा तो उसका ध्यान रहने से उसके तोड़ने की बात कभी मन में आ जायगी और यदि नियम नहीं लिया है तो हमारा वह तो नियम जैसा ही चल रहा है (यह एक उनकी बात कह रहे हैं) यहाँ नियम क्या? शुद्ध सहज ज्ञायकस्वरूप को निरखकर उसमें ही निरख रहे इस बात को वह विवेकी गृहस्थ उन बाहरी कामों में लगता हुआ भी निवृत्त हो रहा है और उसका चित्त चाह रहा है उस एकत्व के लिए । एक पुरुष तो सबका त्याग कर के अकेला र्निग्रंथ भी होता है, अपने वर्तमान भेष के योग्य कार्य में संतोष नहीं रखता और गृहस्थ जैसे कार्यों में उपयोग रखता है और एक गृहस्थ जो गृहस्थी के कार्यों में रहकर धनार्जन आदिक व्यापारों में रहकर उससे हटने की ही निरंतर भावना बनाये हुए है । उसका लक्ष्य उस शुद्ध एकत्व की ओर है । वह पुरुष सदा शुद्ध एकत्व का दर्शन कर रहा है, अथवा स्मरण कर रहा है अथवा प्रतीति में लिए हुए है, बार-बार उसके उस शरण भाव से संबंध है । 535-एकत्व के अनुभवन का अनुरोध—हम आपको यह निरंतर भावना रखना चाहिये कि मैं सिर्फ ज्ञानमात्र पदार्थ हूँ, जैसे ज्ञानन ज्ञान प्रतिभाषा । यह पकड़ा नहीं जा सकता आकाश की तरह निर्लेप है मैं भी केवल ज्ञानमात्र हूँ, ऐसी बार-बार अपने आपके बार में दृष्टि लगायें, यही है धर्मपालन यह वह धर्म पालन है कि जिसके प्रताप से नियम से कर्म करते हैं, नियम से शांति है, मुक्ति उस की निकट है जो अपने आपको ज्ञानमात्र के रूप में विश्वास किए हुए हैं इस शरीर का जो नाम है वह मैं नहीं हूँ, मैं तो वह ज्ञानमात्र पदार्थ हूँ जिसे अन्य कोई जानता ही नहीं है । ऐसे ज्ञानमात्रभाव में अपनी श्रद्धा बनाये रखना यह बहुत ऊँचा पुरुषार्थ है । ऐसे ही तो अरहंत सिद्ध हुए हैं । भगवंत में और क्या स्वरूप नजर आ रहा है । कौन सी विशेषता नजर आ रही है? यही तो कि वे केवल रह गये । क्यों भगवान की ओर तीन लोक के इंद्र झुक रहे कि वे केवल रह गए? उन्होंने कुछ नहीं रखा, सबको पृथक कर दिया, सबसे छूट हो गई अकेले रहने की महिमा है इससे तीनों लोक के इंद्र उनके चरणों में झुकते हैं । हम आप भी जब कभी अपने ज्ञान द्वारा अपने को वास्तविक अकेला निरखें तो उसकी वह महिमा है कि हमारी सारी आकुलतायें दूर हो जायेंगी और शांति का अनुभव होगा । इसमें लक्ष्य एक ही हो, काम कितने ही कर रहे हों, पूजा, सामायिक ध्यान आदि समस्त कार्यों को करते हुए भी दृष्टि ऐसी बनाये रखें कि मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ, इसका किसी अन्य से कुछ भी संबंध नहीं । यह प्रतीति अपनी दृढ़ बन जाय तो समझ लीजिये कि हमने अपना एक बड़ा काम किया, हम प्रभुता पा लेने के अधिकारी हैं, हम भगवतस्वरूप का साक्षात अनुभव करने के अधिकारी हैं इन बातों की ओर चित्त क्यों नहीं जाता? यों कि हम असत्संग में अधिक रहते जिसमें हम अपने को सावधान नहीं बना पाते । जिस किसी भी प्रकार हो, अपने आपको इस देह से भी निराला ज्ञान मात्र अनुभव करना ही होगा । इस ही प्रतीति के प्रताप से समस्त सांसारिक संकट टल सकते हैं । 536-सब भेद विकल्प छोड़कर अपना अभेद अनुभव करो—नवतत्त्व की संतति छोड़कर, अनेक भेद भाव को भी छोड़कर उस अपने एक स्वरूप की पहिचान करो, जो सहज ही पहिचाना जा सकता है । अभी तक हमने अपने को बालक, जवान और वृद्ध देखा, मनुष्य देखा, अमुक जाति का देखा, पर इन सबमें रहनेवाला उस तत्त्व को नहीं देखा जो कुछ देखा अपनी इन चर्म चक्षुओं से देखा, विवेक की आंखों से कभी नहीं देखा, भीतर की दृष्टि से कभी नहीं देखा । वह शुद्ध अखंड द्रव्य इन आंखों से नहीं दिख सकता है । उसे किसी ने नहीं देखा । उसे देखे बिना कभी कोई सुखी भी नहीं हो सकता है ।जो अनेक पर्यायों में, तत्त्वों में रहकर भी अपनी एकता को नहीं छोड़ता ऐसा वह सामान्य आत्मा किस प्रकार से ज्ञात होता है । उस उपाय की और उस उपाय के परिणाम को अनुभवने के लिये एवं बताने के लिये पूज्य श्रीमत्कृंदकुंदाचार्य गाथा द्वारा अपूर्व तत्त्व बताते हैं—