वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 27
From जैनकोष
ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को ।
ण हु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एयट्ठो ।।27।।
789-जीव और शरीर के एकत्व की आशंका—यदि शरीर ही जीव नहीं है तो फिर तीर्थंकरदेव और आचार्यदेव आदि की जो स्तुतियां हैं वे सब मिथ्या हो जावेंगी । इसलिये मैं तो यही समझता हूँ कि देह ही आत्मा है । ऐसा जिज्ञासु ने कहा । भगवान् तीर्थंकर ने अपनी कांति से दशों दिशाओं को स्नान करा दिया । कांति शरीर की है । जिसकी कांति है, वही भगवान् है । शरीर से अतिरिक्त भगवान नहीं है । शरीर ही तो जीव कहलाया । शरीर से न्यारा अन्य जीव है ही क्या? यदि शरीर ही जीव न हो तो ये स्तुतियाँ झूठी हो जायेंगी । हे भगवान! आपके तेज के द्वारा सभी प्रभावित हैं । तेज भी तो शरीर का ही है । हे भगवान् ! आपका रूप बड़ों-बड़ों के चित्तों को चुरा लेता है । चूंकि रूप शरीर का है, अत: भगवान् शरीर से अलग हो ही नहीं सकते, इससे शरीर ही तो भगवान् कहलाया । शरीर से न्यारा भगवान् नहीं है । व्यवहार में बहुत से लोग कहा करते हैं कि इन भगवान की कैसी मूर्ति है, ये भगवान् काले हैं, इनकी सूरत मन मोहनी है, ये भगवान् छोटे से हैं, ये भगवान् बड़े हैं आदि से हम तो इन्हीं को जीव मानते हैं । इनसे अलग हम जीव मानते ही नहीं । आप दिव्यध्वनि के द्वारा कानों में अमृत की वर्षा करते हो । दिव्यध्वनि के समय शरीर ही से तो शब्द निकला, अत: शरीर ही जीव कहलाया । हे भगवन् ! आपके 1008 लक्षण हैं । लक्षण शरीर के ही तो है । यदि शरीर ही भगवान् न हो तो ये स्तुतियाँ मिथ्या हो जायेंगी । सब शास्त्र झूठे कहलायेंगे । हम तो शरीर को ही भगवान् मानेंगे । यह हमारा जबर्दस्त विश्वास है कि शरीर ही जीव हैं । ऐसी शंका शंकाकार ने की और भी देखो—आचार्य की स्तुति में भी कहा करते कि जिनका देश शुद्ध है, कुल शुद्ध है, जाति शुद्ध है, जो शुद्ध मन वाले हैं, शुद्ध वचन वाले हैं । शुद्ध काय वाले हैं वे आचार्य मुझ पर प्रसन्न हों। इसमें देह के, पुद्गल के गुण गाकर ही तो उनकी स्तुति की । इससे हम जानते हैं कि देह ही आचार्य है । यह शंका भी शंकाकार ने की । अब उत्तर में श्रीआचार्यदेव कहते हैं । 790-जीव और शरीर के एकत्व की आशंका का परिहार—जीव और देह एक है ऐसा व्यवहारनय कहता है परंतु निश्चयनय के आशय में जीव और देह कभी भी एकार्थ नहीं है । समाधान में पूर्व गाथोक्त शंका का खंडन करते हुए आचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं मानना चाहिये, क्योंकि तुम्हें नयों का पता नहीं है, अतएव ऐसी बात कह रहे हो । व्यवहारनय तो ऐसा कहता है कि जीव और देह एक है, मिला हुआ है । परंतु निश्चयनय के मत में कभी भी जीव और देह एक नहीं हो सकता । आत्मा जिस जगह है, वहीं देह है । देह जिस जगह है, उसी में आत्मा के प्रदेश है फिर भी देह देह ही है, आत्मा आत्मा ही है । आत्मा और आकाश का अवगाढ़ संबंध नहीं है । शरीर और आत्मा में अवगाढ़ संबंध है । क्योंकि जब शरीर चलता है, आत्मा भी चलता है, लेकिन आत्मा के चलने पर आकाश के प्रदेश नहीं चलते हैं । जिस पर भी देह का लक्षण देह ही में है, आत्मा का आत्मा में। जैसे—सोना और चाँदी मिला हुआ हो तो वह सोने का डिंगला कहलाता है । इसी प्रकार व्यवहारनय की दृष्टि से जीव और शरीर मिले हुए हैं । इस पिंड को जीव कह दिया जाता है । मिली हुई चीज में जहाँ जिसका जो आशय हो उस आशय से किसी एक के नाम का व्यवहार चलता है । जैसे मिले हुए चांदी सोने में पिंड को देखकर कोई तो कहता है कि यह सोना है, कोई कहता है यह तो चांदी है । मिले हुए दूध पानी में बेचने वाला तो कहता है यह दूध है और खरीददार खरीदता हुआ भी या न खरीदता हुआ यह कहता है कि यह तो पानी है । बोले जाने में आशय भिन्न-भिन्न है । यह शरीर याने भव जीव पुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्याय है इसे व्यवहारनय तो जीव कहता है और निश्चयनय अजीव अर्थात् यह जीव नहीं ऐसा कहता है । 791-दृष्टांतपूर्वक जीव और देह की भिन्नता का विवरण—जैसे चांदी का स्वभाव श्वेतपना है, सोने का स्वभाव पीतपना है सो स्वभावभेद होने से दोनों में भिन्नता है अत: वे दोनों एक अर्थ हो ही नहीं सकते इसी प्रकार जीव का स्वभाव उपयोग है और पुद्गल (शरीर) का स्वभाव अनुपयोग है सो स्वभावभेद होने से दोनों में भिन्नता है अत: जीव और पुद्गल ये दोनों एक अर्थ हो ही नहीं सकते । जीव अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है उसका परिणमन चैतन्यस्वरूप है । शरीर अनंतों पुद्गल परमाणुवों का एक पिंड है वह तो प्रकट मायास्वरूप है । निश्चय से जीव अखंड सर्वविशुद्ध चैतन्यस्वरूप है । निश्चय-नय से शरीर और आत्मा का परस्पर में संबंध नहीं है । व्यवहारनय की दृष्टि से दूध पानी एक है लेकिन निश्चय से दूध अलग है, पानी अलग । जैसे अमय और कपूर दो मित्र हैं व्यवहार से उन्हें एक कहा जाता है, निश्चयनय से दोनों अलग-अलग हैं । जो सोना और चांदी का डिंगला मिला हुआ था उसमें भी निश्चयनय से चाँदी के हिस्से में चांदी के परमाणु है, सोने के हिस्से में सोने के परमाणु है । इसी प्रकार आत्मा और शरीर यद्यपि मिले हुये हैं, लेकिन निश्चयदृष्टि से हैं न्यारे-न्यारे । जीव का स्वभाव चैतन्य, अजीव का स्वभाव अचैतन्य है । स्वभाव से भिन्नों में संबंध कैसे हो सकता है? अत: भगवान की इस प्रकार की स्तुतियां व्यवहारनय से की हुई होती हैं । व्यवहारनय कहता कि शरीर आत्मा अलग नहीं हैं मिले हुए हैं । निश्चयनय से शरीर जुदा, आत्मा जुदा है इस प्रकार नयों का ज्ञान करना आवश्यक है । 792-व्यवहारनय और निश्चयनय का जीवसिद्धि के संबंध में आशय—व्यवहारनय कहता है कि जीव और देह एक है । व्यवहारनय भी सब जगह यों बोलता नहीं है किंतु उसकी ही किसी किरण में यह धुनि निकलती है कि चूंकि जीव और शरीर एक क्षेत्रावगाह हैं, उनकी यह एक सम्मिलित अवस्था है । तो जैसे सोना और चांदी का एक पिंड कर दिया जाय, तपाकर मिलाकर ढंग से एक पिंड बना दिया जाय तो वह भी देखो एक बन गया ना । व्यवहार से एक है तो भी वहाँ निश्चय से देखो तो सोना में सोना है, चाँदी में चाँदी है, इसी प्रकार यहाँ भी लगता कि यह शरीर ही जीव है पर निश्चय से देखो तो जिसका जो सत्त्व है उस सत्त्व से उसे निरखें तो जीव में जीवपना है, शरीर में शरीरता है अजीवपना है, पौद्गलिकता है तो निश्चय से यह जानों कि इस जीव और शरीर का एकमेकपना नहीं है, जीव और शरीर के एकमेकपन का कथन व्यवहार से है । निश्चयन का कथन भगवती प्रज्ञा के प्रसाद से सुगमतया स्पष्ट समझ में आ जाता है । भगवती प्रज्ञा की बड़ी महिमा है । प्रज्ञा अर्थात् भेदविज्ञान की बुद्धि । प्रज्ञा अर्थात् भेद विज्ञान करने के बाद जो आदेय तत्त्व है उसको ग्रहण करने की बुद्धि । प्रज्ञा अर्थात् जिस आदेय अंतस्तत्त्व से ज्ञानमात्र स्वरूप का ग्रहण किया, उसमें अभेदरूप से वर्तना, जानना इसका नाम है प्रज्ञा इस प्रज्ञा को भगवती कहा गया है । भगवान आत्मा की यह परिणति है । भगवती प्रज्ञा के प्रसाद से ही हम विजय प्राप्त कर सकते हैं । कर्मों का ध्वंस, आकुलताओं का हटना । अपने में तृप्त होना, विशुद्ध आनंद प्राप्त करना, कल्याण पाना यह सब भगवती प्रज्ञा के प्रसाद से होता है । 793-भगवान और भगवती की अवधारण—लोग तो कहते हैं कि भगवान और भगवती भगवान की स्त्री भगवती, और फोटो में दिखाते हैं कि भगवान भी खड़े और उनकी स्त्री भगवती भी खड़ी सजधज कर, कपड़े पहिने हुए, शृंगार किए हुए, शस्त्र लिए हुये । फिर उन्हें और कुछ बुद्धिमानी का रूपक बनाना है तो फिर एक शरीर जिसमें आधा अंग तो पुरुष का और आधा स्त्री का यह हैं भगवान, इनके अर्द्धांग में भगवती है और अर्द्धांग में भगवान । जैसे दाहिना हाथ पुरुष जैसा, दाहिना पैर पुरुष जैसा दाहिना सारा हिस्सा पुरुष जैसा बायां हिस्सा स्त्री जैसा, वैसे ही आभूषण, वैसे ही दुबले पतले मोटे अंग जैसे कि स्त्रियों के होते हैं । यह भगवान करुणावान, सब जीवों के पालक अपनी भगवती को अर्द्धांग में लिये हुये हैं । बड़ी महिमा गाते हैं लोग, लेकिन यहाँ तो देखो—वह तो एक लौकिक वैषयिक ढंग की महिमा है किंतु यहाँ तो पूरे भगवान में पूरी भगवती समायी हैं । वहाँ तो आधा-आधा रूप है, यह आत्मद्रव्य भगवान जिसमें जो कुछ भी शुद्ध स्वरूप परिणति है वही तो भगवती है । भगवत: इयं भगवती जो भगवान में हो सो भगवती । आत्मा भगवान की परिणति का नाम भगवती है । वह विशुद्ध परिणति भगवान आत्मा में सर्व प्रदेशों में व्याप्त है या आधे अंग में व्याप्त है? सर्वांग में । 794-भगवती के परिचय का एक प्राचीन युग—कोई समय था जबकि सम्यग्ज्ञान का विशिष्ट प्रचार था । गृहस्थ संन्यासी साधुजन आत्मकल्याण के लिए उत्सुक रहा करते थे और ऐसे विशुद्ध भगवान और भगवती के गुण गाया करते थे उस समय सबके चित्त में यह बात समाई हुई थी कि भगवती के प्रसाद से ही हम आनंद पा सकते हैं विजय पा सकते हैं सब कुछ भगवती की महिमा है । भगवती की महिमा इतनी बात तो लोगों ने पकड़ ली पर भगवती क्या है इससे हट गए । और अनेकरूपों में मूर्तियां नजर आने लगी । जैसे दुर्गा, काली, सरस्वती, अंबा, चंडी, मुंडी आदि । लेकिन एक बात ध्यान में और देना । अब भी ये सब भगवती और भगवती के ही ये सब नाम हैं । जैसे दुर्गा, दुःखेन गम्यते प्राप्यते या सा दुर्गा । जो बड़ी कठिनाई से प्राप्त हो सके उसका नाम दुर्गा है । बड़ी कठिनाई से दुर्लभता से प्राप्त होने वाली चीज क्या है । स्वानुभूति भगवती । आत्मा भगवान की विशुद्ध परिणति यही दुर्गा है । सरस्वती—सर: प्रसरंग यस्या: सा सरस्वती । जिसका बहुत बड़ा फैलाव हो उसका नाम सरस्वती है । आत्मा भगवान की जो विशुद्ध परिणति है, ज्ञातारूप परिणति है उसका फैलाव कितना । उसमें कोई सीमा है क्या? तीनों लोक में फैल गई । यद्यपि गुण द्रव्य के आधार में ही है, पर गुण में विषय क्या आया । कि ज्ञान को वैयाकरणों ने भी जाना तथा ‘जाना’ और ‘जानना’ इन दोनों में समानता दी । जितनी धातुवें जाने के अर्थ में हैं वे ही धातुयें जानने के अर्थ में हैं । एक व्याकरण से भी ज्ञान परिणति की समता देखिये गच्छति मायने जाता है अवगच्छति मायने जानता है । तो जानना भी जाने के ढंग से विदित हो रहा है । और लोग ऐसा सोचते हैं कि मेरा ज्ञान देखो सारे कमरे में फैल गया, जितना मैदान हो वहाँ तक चला गया और स्मरण के द्वार से मेरा ज्ञान बंबई चला गया, विदेह क्षेत्र चला गया, सिद्ध क्षेत्र में चला गया । ज्ञान की कैसी तीव्र गति है । ज्ञान कोई ऐसा पदार्थ नहीं जो जाता फिरे, पर इस वर्णन में उसकी महिमा निरखिये सबसे बड़ा फैलाव किसका है? इस ज्ञान परिणति का । इस भगवती का । इसही का नाम सरस्वती है । बाहर में यहाँ वहाँ क्या सरस्वती है? चंडी चंडयति भक्षयति रागादिशत्रून् जो खाडोल सो चंडी, रागादिक विकारों को शत्रुवों को जो चबा डाले विलीन कर दे । उनका पता भी न रहे ऐसा भक्षण करने वाली जो परिणति है उसका नाम है चंडी । क्या है वह? स्वानुभूति । जब स्वानुभूति अपने चंड प्रताप से अपना वैभव बढ़ाती है तब वहाँ विषयकषाय शत्रु टिक नहीं पाते, विलीन हो जाते हैं । जैसे खाया हुआ अन्न पेट में विलीन है, किसी को दिखता है क्या? वह विलीनता तो इससे भी विचित्र है मुंडयति खंडयति विकारान् इति मुंडी, कलयति, भक्षयति विभावान् इति काली आदिक जो अनेक देवताओं के नाम हैं ये नाम भी अभी उसकी बागडोर पकड़े हुए हैं । ये दुर्गा, सरस्वती काली आदिक सब हैं भगवती । 795-भगवती का यथार्थ परिचय—अब वे प्राचीन लोग दुर्गा आदिक के रूप से स्वानुभूति भगवती की कल्पना से भी विचलित होने लगे । इस स्वानुभूति भगवती की सुध सारी बिसार दी और उद्देश्य भी बदल गया । सुख प्राप्ति, धन प्राप्ति, कीर्ति प्राप्ति ये सब उद्देश्य भी बदल गए । अब देखिये कि रूप बिल्कुल अलग हो गए लेकिन मूल में यह विचारो कि भगवती क्या है? यह प्रज्ञा पहिले तो वस्तुस्वरूप के परीक्षण के रूप में होता है पश्चात् भेदविज्ञान के रूप में । फिर देह से हटकर आदेय के आकर्षण के रूप में । फिर उस आदेय तत्त्व में अभेदरूप से रहकर एक आनंद अनुभवने के रूप में इस भगवती का प्रताप जगता है । तो उसको सम्हालकर उसके प्रसाद से निरखिये आत्मा और शरीर ये दोनों एक कैसे हो सकते हैं । आत्मा का लक्षण है उपयोग और शरीर का लक्षण है अनुपयोग । चांदी सफेद, सोना पीला और फिर सबका अपना-अपना सत्त्व उसमें अपने में, ये दो एक कैसे हो सकते हैं । कभी हवा पानी बन जाय, पानी हवा बन जाय जैसा कि साईंस में छोटे-छोटे लड़के लोग भी किया करते हैं । उस हालत में भी कोई एक परमाणु दूसरे परमाणु के सत्त्व को नहीं रख लेता, उनमें अन्योन्याभाव था, अत्यंताभाव न था, वह परिणम गया एक दूसरे रूप एक परिणति को छोड़कर अन्य परिणति ग्रहण की । कोई भी पदार्थ एकमेक नहीं बनता । हम आप सब ज्ञानस्वरूप हैं आनंदमय हैं न कोई दुःख का काम है और न कोई अज्ञान विकार का काम है । अपने स्वरूप को सम्हाले, देखें, उसे निरखकर प्रसन्न रहने की आदत बनायें तो इसको क्या दुःख है? क्या कष्ट है । 796-शोक अभाव से ज्ञानी के कष्टानुभव का अभाव—जीव कष्ट मानना है दो बातों का एक तो मरण होने का, दूसरे धन वैभव के कम होने का । धन वैभव मिट रहा हो उसमें कष्ट, जीवन मिट रहा तो उसमें कष्ट अथवा मरण में क्या और धन मिटने में क्या—जीने की आशा रख रहा, एक कष्ट तो यह है और धन वैभव संपदा की आशा रख रहा एक कष्ट यह है । जो पुरुष अपने आत्मा के विशुद्ध ज्ञानस्वरूप की सम्हाल करता है और उस सम्हाल में, अनुभूति में जो एक अलौकिक आनंद उपयोग बर्तना है उस अनुभव तक पहुँचा हो, उसे फिर न जीवन की आशा न धन की आशा ज्ञानीजन कुछ भी आशा नही करते और यह सोचा करते, इस यत्न में रहा करते कि आशा नाम की तरंग ही समाप्त हो जाय तो मेरा कल्याण है । सर्व आनंद मेरे निकट है । यही करना है हम आपको तब ऐसी बात बन सकेगी । ऐसा किये बिना गुजारा न चलेगा, सिद्धि न होगी, निराकुल न बनेंगे । करना है यही । और रोज-रोज धर्म के नाते, स्वाध्याय के नाते भक्ति के नाते यत्न करते भी इसका है मगर होता क्या है कि थोड़ा कुछ निकट पहुंचते बस कार्यक्रम हट गया, समय नहीं है । उपयोग इससे आगे लगता नहीं है, वासना ऊधम मचा देती है । इससे थोड़ा-सा ही बढ़े तो संकट मिटें, सिद्धि मिले । करते-करते जब कोई तत्त्व आने की बात होती है या थोड़ा सा हम उस अंतस्तत्त्व के निकट पहुँचे हुए होते हैं, लो या तो समय पूरा हो गया या दूसरा कार्य लग गया या कोई विकल्प उठ गए या स्थिरता न थी । फिर हट गए । रोज-रोज इतना श्रम करने पर भी उस एक बात को नहीं पा सकते जो श्रम के बाद जरा और थोड़े से यत्न और समय में पायी जा सकती है। उसकी लगन भी हो, उत्साह भी हो ऐसा, समस्त कार्यों से अधिक प्रमुखता इस आत्मानुभूति ज्ञानानुभूति के कार्य को दें, तन, मन, धन, वचन, समय ये 5 चीजें अन्य कार्यों की अपेक्षा इस कार्य के लिए कुछ ज्यादह लगे, ऐसा उत्साह हो, ऐसी आकांक्षा हो । ऐसी तैयारी यदि है मन की कि मुझे तो किसी भी प्रकार संसार के सर्व संकटों से छूटकर आत्मा के विशुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप में रहना है, विकल्प ही न हों तो फिर क्या दुःख । 797-सत्य के आग्रह में सत्य समृद्धि का लाभ:—कभी सामायिक में अच्छे भाव होते-होते एक यह विकल्प उठ जाता है कि अगर हम यहीं के रह गए तो हमारे घर के मुन्ना मुन्नी वगैरह क्या करेंगे? अरे अगर वहीं के रह गए अर्थात् निर्विकल्प हो गए तो तुम तो आनंदमग्न हो गए अब रही मुन्ना मुन्नियों की बात । तो उनके रक्षक आप अब भी नहीं है, उनका उदय ही उनकी लौकिक रक्षा कर रहा है । जैसा पुण्य का उदय आप लिए हुए हैं वैसा पुण्योदय आपके घर में बसने वाले भी लिए हुये हैं । उनका उनके अनुसार है । और फिर जब एक आत्महित के मार्ग में एक विशुद्ध ढंग से चल रहे हैं तो जगत के अन्य जीवों पर उतनी करुणा नहीं है, घर के दो चार जीवों पर इतनी अधिक करूणा है तो क्या यह आत्मा के नाते ईमानदारी है? यह तो मोहभाव है । स्वयं स्वयं में मग्न होने के लिए सर्वप्रकार से पुरुषार्थ चले । कोई बीच में कल्पनायें न उठायें, कोई किसी का जिम्मेदार नहीं है, अधिकारी नहीं है, स्वामी नहीं है । अपने को अपना स्वरूप निरखना है और उस जगह उपयोग रखकर तृप्त रहना है, यह बात कुछ अधिक समय तक चल सके तो समझिये कि यह जैन धर्म पाना, नरभव पाना, पवित्र शासन पाना बुद्धि पाना ये सब सफल हो जायेंगे । इस प्रकरण में बताया जा रहा कि मैं और शरीर एकमेक नहीं हूँ । व्यवहार से यह कहो तो कोई स्तवन व्यवहारनय से था, निश्चयनय से न था । निश्चयनय से तो स्तवन आत्मा के गुणों का आत्मा में विकासों का वर्णन कर करने से बनेगा । अपने में प्रतीति रखिये कि मैं जीव हूँ, शरीर से निराला हूँ, ज्ञानमात्र हूँ । इस अनुभूति के प्रसाद से संसार के समस्त संकट कटेंगे ।