वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 28
From जैनकोष
मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवली भयवं ।। 28 ।।
798-देहस्तवन से प्रभुस्तुति का व्यवहार—भगवान की स्तुति व्यवहारनय से की गई है । अर्थात् भगवान का ध्यान करने से परिणाम निर्मल होते हैं । परिणामों की निर्मलता से पुण्य-प्रकृति का उदय और पापप्रकृति का नाश होता है ऐसा समझने से ये स्तुतियाँ व्यवहारनय से है, ठीक जचेगा । अत: व्यवहारनय के द्वारा शरीर की स्तुति से आत्मा की स्तुति हो जाती है । जितने भी लोग पर की बड़ाई करते हैं वे सब व्यवहारनय से ही करते हैं । शरीर के विषय में प्रशंसा सूचक बात कही जाये तो व्यवहारनय की स्तुति कहलाई भी जा सकती है । भगवान के शरीर की स्तुति होने के कारण ये स्तुति व्यवहारनय से समझनी चाहिये । व्यवहारनय तो शरीर और कर्म पर चलता है । बाकी सब कल्पना की बात है । ‘‘द्रोपदी को चीर बढ़ायो सीता प्रति कमल रचायो । अंजन से किये अकामी, दुख मेटो अंतर जामी ।’’ इत्यादि स्तुतियाँ सब व्यवहारनय से की गई हैं उपचार का कोई कारण अवश्य होता है । हे भगवान् ! मुझे सुमति देना—यह सब भगवान की व्यवहार भक्ति है । भगवान की सच्ची अवस्था की स्तुति करना निश्चयनय की स्तुति है । देह की स्तुति करके आत्मा की स्तुति मानना व्यवहारनय से ही युक्त है । अब इस बात को दृढ़ करते हैं— 799-व्यवहार स्तवन का परीक्षण—जहाँ दो पदार्थ हों वहाँ अन्य पदार्थ के किसी धर्म से दूसरे की बात कहना सो व्यवहारनय कहलाता है । जैसे दो मित्र हैं एक खुद का लड़का हो और एक दूसरे का हो, तो लड़का वाला कहता है कि मेरा लड़का तो बड़ा विवेकी है, पर यह खोटी आदत तो उस दूसरे लड़के की लग गयी । तो क्या एक लड़के की आदत दूसरे लड़के में लग सकती है? नहीं । वह तो एक अपनी नई आदत बना लेता है । उसकी आदत उसके पास है, पर दूसरे का कुछ नाम लेकर धर्म उपदेश करके दूसरे की बात लगाने को व्यवहारनय कहते हैं उस व्यवहारनय में कुछ बात है, संबंध है जो अटपट व्यवहारनय नहीं लगता । उस संबंध के कारण जो कि बाह्य में संबंध हो अथवा निमित्तनैमित्तिक संबंध हो, किसी भी संबंध की वजह से दूसरे का धर्म दूसरे में जोड़ना व्यवहारनय है । यहाँ शरीर और जीव देखो एक साथ रह रहे ना? अपनी-अपनी भी बात विचार लो । यह मैं आत्मा जो जानने समझने वाला है इस शरीर में बंधा फंसा हुआ है ना तभी तो परेशान है, परतंत्र है, शुद्ध आनंद नहीं भोगने पाता है, विशुद्धता नहीं जग रही है । कहते हैं ये सब इन दो के संबंध से है ना। तो ऐसे संबंध वाली हालत में शरीर के संबंध से शरीर के धर्म का नाम लेकर आत्मा में बात कहना व्यवहार की बात है । यहाँ हम आप तो बंधन में हैं, अशुद्ध हैं लेकिन जो अशुद्ध नहीं रहे, जिनको अब बंधन नहीं रहा ऐसे अरहंत भगवान तीर्थकर भी जब तक मुक्त हुए हैं, शरीर के साथ ही तो रह रहे हैं, एकक्षेत्रावगाह होकर, वहाँ शरीर के धर्म का नाम लेकर तीर्थकर के आत्मा में कुछ कहना तीर्थकर को कुछ कहना व्यवहारनय है । जैसे कहते हैं कि तीर्थकर पुरुष सफेद खून वाले होते हैं । है यह शरीर की विशेषता । शरीर में सबके सफेद और लाल दो खून पाये जाते हैं, डाक्टर लोग बतायेंगे । लाल खून विशेष मात्रा में है, सफेद खून साधारण मात्रा में है । सफेद खून कुछ कीटनाशक, रोगनाशक जैसी प्रकृति रखता है, फिर तीर्थंकर का शरीर तो बहुत ऊंचा है, उनके शरीर में श्वेत खून की मात्रा बड़ी हो अथवा वही हो तो कहते हैं कि उनके सफेद खून है । तो शरीर का धर्म है यह पर भगवान में लगा देते हैं । 16 भगवान स्वर्ण सदृश रंग वाले हैं और रंग है शरीर में परंतु संबंध है ना सो देह के धर्म का उपदेश यहाँ तीर्थकर को किया जा रहा है । इस संबंध की बात आयी । तो जान लेना चाहिये कि यह स्तवन व्यवहारनय से है । 800-यथार्थ निर्णयपूर्वक व्यवहार स्तवन का औचित्य—व्यवहार स्तवन करने में हानि कुछ नहीं है बल्कि यहाँ तक स्तवन जो किए जाते कि द्रोपदी की चीर बढ़ायो सीता प्रति कमल रचायो । इसमें प्रकट कर्त्तत्ववाद का समर्थनसा करता है, वे भी स्तवन बोले जा सकते हैं । भीतर में उसका सही अर्थ लगाकर भक्तजन प्रभु का स्तवन करते, प्रभु की भक्ति करते, विशेष पुण्य का अर्जन करते उस पुण्य के प्रताप से ऐसी घटना हो जाती है चीर भी बढ़ जाय अग्नि का जल भी बन जाय, कमल रच जाय, सूली से सिंहासन हो जाय। हैं ना आखिर ये सब पुण्य के प्रताप । ये सब प्रताप प्रभु की भक्ति से मिले हैं इसलिए निमित्त दृष्टि करके कारण को महत्त्व देकर कह दिया जाय स्तवन में बोल दिया जाय तो बोलते जाइये, कुछ बात नहीं, किंतु भीतर में आशय स्वच्छ रहे । तो जब ऐसे भी स्तवन बड़े-बड़े मुनींद्र भी करते हैं, योगी भी करते हैं प्रभु अमुक तीर्थकर ऐसे रंग के हैं, उनकी कीर्ति ऐसी फैल रही है आदिक शरीरराश्रय जो-जो भी स्तवन हैं वे भी किये जा सकते हैं किंतु अभिप्राय में स्पष्टीकरण रहे कि यह इस प्रकार बना । जैसे सोना और चाँदी दोनों का मिलकर एक ढेला बन गया तो वह सफेद सा हो जाता है, पीलापन तो रहता ही नही, तो सफेद तो है चाँदी का धर्म लेकिन उस सोने को देख कर, उठाकर, कसकर कहा कि यह क्या तुम सफेद सोना लाये हो? अथवा सफेद सोना है इस तरह कहना यह सब व्यपदेश है । इसी प्रकार शरीर का गुण है, यह सफेद खून होना । परमार्थ से तीर्थंकर प्रभु उनका आत्मा तो सफेद आदिक से अत्यंत दूर है फिर भी ऐसा स्तवन में कहा जाता है तो वह व्यवहार स्तवन है । निश्चय से तो परमात्मा के आत्मस्वरूप का जो स्तवन किया जायगा उसे ही परमार्थ स्तवन कहते हैं । 801-देहस्तुति से प्रभुस्तुति की व्यवहारता का विवरण—जीव से अन्य (भिन्न) पुद्गलमय इस देह का स्तवन करके मैंने केवली भगवान की स्तुति कर ली वंदना कर ली ऐसा व्यवहारनय से मानता है । जीव से यह देह भिन्न है, देह पुद्गलमय है । पुद्गल माने जो घटे व बढ़े, पूरण गलन स्वभाव वाला । आत्मा में यह बंधन नहीं होता है, पुद्गलों में भेद संघात होता है । यह पुद्गलमय देह जीव से भिन्न है—ऐसा मानकर फिर देह का वर्णन करके भगवान की स्तुति करे वह स्तुति व्यवहारनय से की हुई कहलाती है । ज्ञानी मुनि ऐसा कहकर भी संतुष्ट हैं । यदि कोई रहस्य ही न जाने और स्तुति कर रहा हो, तो वह उनकी स्तुति व्यवहारनय से की हुई भी नहीं है । रईस आदमी यदि चना खाये तो कहते हैं कि भैया साहब को चना खाने को मन हुआ है । ज्ञानी यदि देह की भी स्तुति कर दे तो कह देते हैं कि यह स्तुति व्यवहारनय से की गई है । गरीब यदि चना खाये तो सब कहते हैं कि यह तो गरीब है अत: चना खा रहा है । उसी तरह अज्ञानी यदि देह की स्तुति करे तो वह स्तुति व्यवहारनय से भी की हुई नहीं है । यदि सोना चांदी मिले हुए हों तो कह देते हैं कि सोना सफेद है । अत: यह रद्दी है । अरे कभी सोना सफेद हो सकता है? उसमें सफेद चांदी और पीला सोना है । सोना और चांदी मिला है, इस कारण से सोने में कहा जाता कि यह सोना सफेद है पर वास्तव में सोने का सफेदी स्वभाव है क्या? यह व्यवहारनय से कहा जाता कि सोना सफेद है । इसी प्रकार शरीर और आत्मा परस्पर में अवगाढ़ है । जहाँ शरीर जाता, वहीं आत्मा जाता है जहाँ आत्मा जाता वहीं शरीर जाता है । तो क्या शरीर का धर्म जीव का बन जायेगा? नहीं बनेगा । जीव का धर्म जीव का ही रहेगा, शरीर का धर्म शरीर का ही रहेगा । आत्मा का धर्म चैतन्य, ज्ञान है, शरीर का स्वभाव खून मांस, हड्डी, मज्जा आदि है । है तो तीर्थकर के शरीर का खून सफेद, किंतु कहते हैं कि भगवान का खून सफेद है । हाँ, जो सारे विश्व का कल्याण करनेवाला है, यदि उसके शरीर का खून सफेद भी हो, तो इसमें आश्चर्य ही क्या? भगवान का बल अपरिमित है, सारा खून सफेद है अतएव इतना बल है । इस प्रकार ऐसी भगवान की स्तुति व्यवहारनय से की गई है । तभी यह स्तुति व्यवहारनय से मानी जायेगी, जबकि यह श्रद्धा हो कि शरीर अलग है, शरीर ही भगवान् नहीं हैं और तब देह की स्तुति की जाये । जिन्हें भगवान की तो खबर नहीं और मूर्ति को ही भगवान् मानते हैं, वे अज्ञानी हैं । जो ज्ञानी जीव से देह अन्य है ऐसा मानकर देह की स्तुति करके माने कि मैंने केवली भगवान की स्तुति की है, वह व्यवहारनय की अपेक्षा से है । शरीर का गुण लहू आदि है, ऐसा वर्णन करे तो देह की मुख्यता से वर्णन है और शरीर के गुण के व्यपदेश से भगवान तीर्थकर का वर्णन करने लग जाय कि भगवान आपका लोहित सफेद है तो यह व्यवहारनय से ही स्तवन है । जैसे कि मिले हुए सोने चांदी के एक पिंड में चांदी के सफेदी गुण के व्यपदेश से सुवर्ण का वर्णन करने लग जाय कि यह सुवर्ण सफेद है तो यह व्यवहारनय का व्यपदेश है । यदि व्यपदेश की दृष्टि नहीं तो सुवर्ण सफेद है यह मिथ्याज्ञान हुआ और चांदी सफेद है ऐसा कहने में चांदी का वर्णन हुआ सुवर्ण की कोई चर्चा ही नहीं । यदि व्यपदेश की दृष्टि नहीं तो भगवान का लोहित शुक्ल है यह मिथ्याज्ञान हुआ और शरीर का लोहित शुक्ल है ऐसा कहने में शरीर का वर्णन हुआ । भगवान की कोई चर्चा ही नहीं, स्तुति ही क्या हुई । इससे शरीर धर्म के व्यपदेश से भगवान की स्तुति करना यह व्यवहारनय से स्तुति है । निश्चयनय से शरीर की स्तुति से आत्मा की स्तुति नहीं बन सकती । शरीर की स्तुति करके आत्मा की स्तुति मान ली जाये वह व्यवहारनय से ठीक है ।
यह मोही जीव जिसका राग है, उसकी स्तुति से, अपनी स्तुति मानता है । जैसे यह बच्चा बड़ा बुद्धिमान् है, एक बार में याद कर लेता है-ऐसा कहने पर बच्चे में जिसका राग है, वह अपनी स्तुति मानकर फूला न समायेगा । आपका जिसमें राग है, उसमें सहयोग देना चाहते हैं । आप जिसे अपना मित्र बनाते हैं; उसके मित्रों से भी मित्रता और उसके द्वेषियों से भी द्वेष करना पड़ेगा, तभी यह सच्ची मैत्री है । यह जो नाना वर्णनों में भगवान की स्तुति की जाती है, यह सब व्यवहारनय से की जाती है । निश्चयनय से तो शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन तो होता ही नहीं है । कभी-कभी ऐसी भी स्तुतियाँ जो कि शरीर की मुख्यता से गाई गई हैं; जैसे कि हे प्रभु ! तुमने अपनी कांति से दशों दिशाओं को स्नान करा दिया इत्यादि स्तुति व्यवहारनय से मानी गई है । प्रश्न: शरीर के स्तवन से आत्मा की स्तुति हो जाना व्यवहारनय क्यों है? शरीर की स्तुति से आत्मा की स्तुति हो जाना निश्चयनय से क्यों ठीक नहीं?
802-निश्चयत: देह स्तुति से प्रभुस्तुति का अभाव—देह की स्तुति से शरीर की स्तुति हो जाना निश्चयनय में युक्त नहीं है, क्योंकि शरीर के गुण केवली भगवान के नहीं होते हैं । वास्तव में तो जो केवली की गुणों की स्तुति करता है वही निश्चय से केवली भगवान की स्तुति करता है । शरीर के गुण केवली में होते हैं, निश्चयनय में नहीं फबती है । शरीर की पर्याय याने गुण शरीर में रहता है । शरीर की पर्याय आत्मा में नहीं रहती और आत्मा की पर्याय शरीर में नहीं हो सकती । अत: शरीर की स्तुति से आत्मा की स्तुति हो जाये, यह बात निश्चयनय में नहीं फबती । पर व्यवहारनय से यह बात ठीक है, अर्थात् शरीर की स्तुति से आत्मा की स्तुति हो जाती है । बुद्धि द्वारा एक की चीज दूसरे में रखने को व्यवहारनय कहते हैं । अत: शरीर के संबंध होने के कारण शरीर की स्तुति को आत्मा की स्तुति मान लेना व्यवहारनय है । यह बात निश्चयनय से नहीं है । जैसे सोना और चाँदी में से सफेद गुण चाँदी में है, सोने में नहीं निश्चयनय से देखा जाये तो चांदी के गुणों से सुवर्ण का वर्णन नहीं हो सकता है । यह सोना सफेद है ऐसा कहेंगे, क्योंकि दृष्टि शुद्धता पर है । शुद्ध चीज पीला सोना है । जैसे सोने में चांदी का गुण नहीं है तो क्या चाँदी का गुण बताकर सोने का गुण बताना ठीक है? यदि वास्तव में सोना है, सफेद हो ही नहीं सकता । सोना चांदी मिले हैं वहाँ सोने को सफेद कह देते हैं क्योंकि हमारी दृष्टि शुद्ध पर है । शुद्ध पर दृष्टि से मनुष्य भी जीव नहीं, त्रस जीव नहीं, है निश्चयनय से जीव देखना है तो चैतन्य आत्मा जीव है । जिसमें जरासी भी अशुद्धि होती है, शुद्ध पर दृष्टि डालते समय उस चीज को बिल्कुल इन्कार कर देते हैं। सोने का व्यपदेश सोने का नाम लेने से ही होगा यह बात निश्चयनय से हैं । 803-ज्ञानी और अज्ञानी की भक्ति में अंतर—हे भगवन् ! आपका शुद्ध श्वेत खून है । शरीर का खून सफेद होना शरीर की बात है—भगवान में नहीं है निश्चयनय की अपेक्षा से सफेद खून कहने से भगवान की भक्ति नहीं होगी । भगवान की स्तुति, आप अनंत ज्ञानी हो, सर्व पदार्थों के ज्ञातादृष्टा हो, इस प्रकार की स्तुति निश्चयनय से होगी । शरीर की स्तुति से आत्मा की स्तुति नहीं होती है । आपका कोट तो अच्छा है इतना कहने पर ही कोट वाला प्रसन्न हो जाता है । मोही मोह की दशा में पर की स्तुति को अपनी स्तुति मान लेता है । जो ज्ञानी निश्चयनय की बात जानता है, वह भगवान के शरीर की स्तुति करता हुआ भी अपने निश्चयनय से च्युत नहीं हो सकता है । यदि ज्ञानी मूर्ति को भी भगवान् कहे, तो भी ठीक है, क्योंकि वह भगवान के स्वरूप से परिचित है । परंतु जो निश्चयनय की बात जानता ही नहीं, वह भगवान की मूर्ति को ही भगवान् मान बैठता है । वह यदि शरीर की स्तुति करके भगवान की स्तुति माने तो वह अज्ञानी है । जो वास्तविक भगवान को जानता है, यदि वह मूर्ति को भी पार्श्वनाथ भगवान् कह दे तो वह भूला नहीं । मगर जो भगवान को जानता ही नहीं, यदि वे मूर्ति को पार्श्वनाथ भगवान् कहें तो वे भूले हैं । स्थापना निक्षेप में भी यदि सच्चे भगवान को जानते हो तो मूर्ति को पार्श्वनाथ भगवान् कह सकते हैं । जो भगवान को जानते ही नहीं, यदि वे मूर्ति को भगवान् मानें तो वे भूले हैं । 804-कषाय का, संसार का मूल पर्याय बुद्धि—जो हम लोगों को क्रोध जल्दी आता है, उसका कारण पर्याय को आत्मा मानता है । इसी मिली हुई पर्याय को—यह मैं हूँ—यह मान रक्खा है । उनकी सदा पर्यायबुद्धि रहती है, अतएव वे लोग हम, मैं आदि कहकर शान बताते हैं । अहं प्रत्यय और अहंकार में भेद है । अहंप्रत्यय में तो अहं का प्रतिबोध है और अहंकार में अहंपना कराया गया है । अहंप्रत्यय तो स्वाभाविकी चीज है और अहंकार बनावटी चीज है । अहं में अहं को समझना अहम् प्रत्यय है और पर में अहम् समझना अहंकार है । यद्यपि सामान्यतया अहम् प्रत्यय भी दोनों जगह घट सकता, किंतु दोनों जगह नहीं घटता, केवल मिथ्याशय में घटता है अत: अहम् प्रत्यय की मुख्यता अहं में अहं के प्रतिबोध की है । देखो भैया ! जहाँ शरीर को आत्मा माना कि वहीं नाना विकल्प विपदायें खड़ी हो गई । प्रशंसा, निंदा सम्मान, अपमान, यश, अपयश, सुख, दुःख, इष्ट, अनिष्ट, संपदा, विपदा सभी अहंकार वृक्ष के फल हैं । शरीर में आत्मबुद्धि न हो तो कोई विपदायें नहीं हैं जैसे शरीर की स्तुति से आत्मा की स्तुति नहीं हो सकती है, उसी प्रकार शरीर की निंदा आत्मा की निंदा नहीं होती । लोग, उनको कुछ कहने पर, अपना अपमान पर्यायबुद्धि होने के कारण महसूस करते हैं । जैसे चांदी का वर्णन करने से सोने का वर्णन नहीं होता उसी प्रकार शरीर की निंदा या प्रशंसा करने से आत्मा की निंदा या प्रशंसा नहीं हो सकती । निश्चयनय से सोने का वर्णन करो तो सोने का वर्णन कहलायेगा । यह मोही ऐसा मोह करता है कि धन को भी अपना मानता, स्त्री-पुत्र-मित्रादि को अपना मानता है, घर, गाय, भैंस आदि सभी पदार्थों में आत्मबुद्धि करता है । पर्याय में जब तक आत्मबुद्धि है, तब तक आत्मा को सत्पथ नहीं दिखाई दे सकता है । एक साधु या सद्गृहस्थ मरणासन्न है, व्याधि हो रही है, यदि उसकी आत्मा के भीतर स्वानुभव हो रहा है तो क्या इन बाह्य कारणों से उसके कर्मबंध हो जायेगा? नहीं, कर्मबंध उस स्वानुभवी के नहीं हो सकता क्योंकि कर्मबंध तो भाव से होता है । सारी दु:ख संपदा शरीर को आत्मा मानने से प्राप्त होती हैं शरीर की स्तुति करने से भगवान की स्तुति नहीं हो सकती । 805-परमार्थ प्रभुस्तुति का प्रकार—निश्चयनय से भगवान की स्तुति इस प्रकार होती है कि आपकी आत्मा से अखिल कर्म दूर हो गये हैं, सर्वदर्शी व समदर्शी हैं, ज्ञान के निधान हैं, इस संसार के बंधन से मुक्त हैं । यदि कोई भगवान को स्वरूप से नहीं जानता है वह भगवान के शरीर की स्तुति करता हुआ भगवान के कुछ गुणों का ठीक वर्णन भी कर जाये तो क्या भगवान को समझा हुआ है? नहीं है—यह तो अंधे के हाथ बटेर है । यदि निश्चयनय की बात जान ली तो व्यवहार की बातें भी गुणकारी हो सकती हैं, भगवान की पूजा करना, स्तुति आदि करना सफल है । यदि निश्चयनय को नहीं समझा तो भगवान की भक्ति, पूजा, स्तुति आदि से कोई मौलिक लाभ नहीं है । निश्चयनय की बात समझ में न आने से कषाय, मोह लड़ाई-झगड़ा, राग-द्वेष आदि दुष्कार्यों का हो जाना सरल है । यह आवश्यक नहीं कि भगवान् आंखों से दिखाई पड़े, तभी भगवान के दर्शन हो सकते हों—भगवान के स्वरूप का विचार दूर बैठे-बैठे भी किया जा सकता है । प्राय: लोग भगवान की मूर्ति के पास खड़े होकर भी भगवान के स्वरूप का विचार नहीं कर सकते हैं । जिनका लक्ष्य व भाव शुद्ध है, उनके हृदय में भगवान् बसते हैं । जिनके भाव शुद्ध नहीं हैं, वे चाहे भगवान की मूर्ति सिर पर धरे नाचते भी फिरे तो क्या उनके हृदय में परमात्मा आ जायेंगे? नहीं आ सकते । तो फिर इसकी क्या चिंता कि हमें भगवान् आंखों से दिखने ही चाहिये । भगवान् स्वरूप (हृदय स्थित भगवान का) भाव शुद्ध करके कहीं भी विचारा जा सकता है । भगवान की मूर्ति के पास न पहुँच सके, या बड़ी भीड़ है तो जहाँ भगवान का शुद्ध चिंतन है समझो वहीं भगवान् आ गये । यह सब शुद्ध परिणामों के ऊपर निर्भर है । परिणाम निर्मल हों तो चाहे कैसी भी स्थिति में पड़े हो कर्म आ ही नहीं सकते । 806-बंधनों की जड़ पर्यायबुद्धि—समस्त प्रकार के बंधनों की जड़ पर्याय बुद्धि है । मैं पिता हूँ, साधु हूँ, पंडित हूँ, अमुक हूँ—यह सब पर्याय बुद्धि ही तो है । यद्यपि हिंसा करने से बचने का उपाय सोला (शुद्धि) करना उपयुक्त है । सोला करे लेकिन मैं सोला करती हूँ अत: छुओ मत—ऐसा क्रोध मत करो । क्योंकि कषाय करने से पर्याय बुद्धि दृढ़ होती है । सोला अवश्य करो । सोला करना बुरा नहीं अच्छा ही है, लेकिन कषाय में मत पड़ जावो कि मैं सोला करती हूँ । यदि सोला करनेवाले को कोई अनजाने छू दे तो वह उसके ऊपर बरस पड़ती है इस तरह बाह्य सोला की रक्षा लिये वह अंतरंग सोला (परिणामों की शुद्धि) बिगाड़ लेती है । अंतरंग शुद्धि गई, चाहे बाह्य-शुद्धि बनी रहे तो भी बाह्य शुद्धि निरर्थक रही । सोला का मुख्य मर्म अहिंसा है । भीतर का सोला करना है इसका ध्यान रक्खो । देखो जो-जो प्रचलन हैं उनके मूल उद्देश्य जानना चाहिए और उद्देश्य की रक्षा करना चाहिये । लड़की के घर का रुपया नहीं लेना चाहिये—इसके लिये समाज ने बाड़ लगा दी कि लड़की के घर का तो पानी भी नहीं पीना चाहिये । लड़की के घर का पानी तो न पियो और नगदी 10000) दश हजार गिना लो तो क्या पानी न पीना गुणकारी हुआ? इससे बड़ा पाप क्या हो सकता है । अब तो यह नौबत आ गई कि लड़की के घर का पानी नहीं पीना चाहिए । क्यों लड़की के पिता की गाढ़ी कमाई मक्खीचूस पुत्र वाला एक बार में ही जितना वश चलता, खींच लेता है ।