वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 318
From जैनकोष
णिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणेदि।महुरं कडुयं बहुविहमवेयओ तेण सो होई।।318।।
विरक्त पुरूष के कर्मफलभोक्तृत्व का अभाव―वैराग्य को प्राप्त हुआ ज्ञानी जीव कर्मों के फल को जानता तो है कि यह मधुर है, यह कड़वा है, परंतु उसका अनुभवने वाला नहीं होता। जैसे किसी पुरूष को दूसरे के द्वारा दूसरे को गालियां दी जावें तो पर का अपमान किए जाने पर हँसी आ जाती है, इसी तरह कोई पुरूष ऐसा भी है कि जिसको गालियां दी जाने पर अपमान किया जाने पर स्वयं को हँसी आ जाती है। कोई गालियां अधिक महसूस करता है, कोई कम महसूस करता है, कोई परवाह ही नहीं करता है। जैसे ज्ञान का विकास है वैसे ही वैसे वह पर के परिणमन का ज्ञाता रहता है। गजकुमार मुनिराज पर गजकुमार के स्वसुर ने ग़ुस्से में आकर कि तुझे यदि मुनि बनना था तो कल ही सुबह बन जाता। एक दिन ही शादी करके फिर तूने घर छोड़ा, तू इतना निर्दय है―ऐसा भाव करके ससुर ने गजकुमार के सिर पर मिट्टी का बाँध बांधकर कोयला भरकर आग लगा दी, सिर जल रहा है, किंतु धन्य है वह ज्ञान जिस आत्मज्ञान के जगने पर यह जलता हुआ सिर ऐसा मालूम देता है कि जैसे कहीं अन्यत्र मुर्दे का सिर जलाया जा रहा है। यह आत्मज्ञान की कितनी बड़ी चरम सीमा है।
अवेदकता―जब आशय कुछ और है तब शरीर की पीड़ा भी अनुभव में नहीं आती। यहीं के उदाहरण देख लो―क्रांतिकारी भगतसिंह के गुट में जो लोग गिरफ्तार हुए थे उनमें किसी की अंगुलि मोमबत्ती जलाकर उस पर धरी गयी, और वह अंगुलि जल रही है, उसमें से खून और मांस भी टपक रहा है और सरकारी अधिकारी कह रहे हैं कि तुम अपने गुट का भेद बतावो, इस घटना का रहस्य बतावो, यह काम किसने और कैसे जोड़ा है?किंतु अंगुलि जल रही है, मांस का लोथड़ा गिर रहा है और फिर भी कुछ डर नहीं। भोग रहे हैं। तो जब लौकिक आशयों में किसी प्रकार दृढ़ता होती है तो वहां शरीर पीड़ा नहीं अनुभवी जाती। तब जो ज्ञानी संत पुरूष सर्व से भिन्न ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व को लक्ष्य लेते हैं और प्रकट हुए आनंद की धुनि में सदा मग्न रहते हैं। आत्महित ही जिनका एक लक्ष्य है उन्हें कहां से क्लेश हो? वैराग्य को प्राप्त हुआ ज्ञानी पुरूष कर्मफल का परंतु भोगने वाला होकर भी भोक्ता नहीं होता है।
सगाई―अब जरा अज्ञानी जीवों की प्रवृत्ति देखो। बड़े बालकों को या बड़ी कन्यावों को देखो―जब संबंध चर्चा होने लगती है, अमुक जगह संबंध ठीक है, कर दें सगाई। सगाई जानते हो क्या होती है? दूसरे को स्व मानने लगना इस प्रकार की मान्यता का नाम सगाई है, स्व शब्द में ‘स्वार्थे क:’ प्रत्यय लगाकर स्वक बना और हिंदी में भाववाचक आई प्रत्यय लगा दिया जिससे बन गया स्वकाई तथा स्वकाई से बिगड़कर बना सगाई। दूसरे को अपना मान लेना ऐसा जहां निश्चय कर लिया जाय उस का नाम है सगाई। अभी बाहर-बाहर हैं, कोई निश्चय भी नहीं, कहो सगाई टूट जाय, पर ऐसा मान लेते हैं कि संबंधी के कोई पीड़ा हो तो यह दूसरा भी दुःखी होने लगता है। अनागत चीज की भी यह अज्ञानी जीव चिंता करता है। किसी का मकान आपने रहन रख लिया। अब जान रहे हैं कि कई वर्ष हो गए। इतना ब्याज हो गया है। इसमें गुंजाइश नहीं है। अब यह न छुड़ा पायेगा, बस चाहे वह अपना न बन पाये, न रजिस्ट्री हो सके, पर यह मानता है कि यह मकान मेरा है। तो इस प्रकार के अनागत पदार्थों से भी यह सगाई कर लेता है। केवल लड़का लड़की के संबंध मानने का नाम सगाई नहीं है बल्कि जिस चीज को अपनी मान लो उसी की सगाई हो गई। कोई चीज अपनी बन सके या न बन सके, मगर सगाई चेतन अचेतन से कर डालते हैं अज्ञानी जीव।
ज्ञानी व अज्ञानी के भाव―ज्ञानी जीव की तो इस शरीर तक से भी सगाई नहीं है और सगाई की बात तो दूर रहो, अपने में उठने वाले राग-द्वेषादिक भाव तक से भी सगाई नहीं है, किंतु अज्ञानी जीव कूड़ा और कचरा से भी सगाई किए हुए हैं। कोई घर का आँगन नीचा है ना, तो उसे पूर कर बड़ा करते हैं। यदि पड़ोस में कोई घर फूट गया तो बड़ा कीचड़ पड़ा था, उसे 10 रू में खरीद लिया, तो उसने उस कूड़े तक से सगाई कर ली। कोई आदमी उस जगह से एक ईट तक भी नहीं ले जा सकता है। इस अज्ञानी जीव ने चेतन अचेतन पदार्थों से भी सगाई कर रखी है। अंतर्द्रष्टा के भाव―ज्ञानी जीव जिसे शुद्ध आत्मा का ज्ञान है अर्थात् ज्ञानमात्र, ज्ञानस्वभाव मात्र जिसमें किसी भी प्रकार का भेद नहीं है, जो है सो ही है, परिपूर्ण है। उस अखंड एक को बताने के लिए योग्य व्यवहार भेद किया जाता है, पर भेद व्यवहार गुण आदि कथन करके भी उस आत्मतत्त्व को बताया जाय तो कुछ लोग तो संकोच करेंगे और कुछ लोग झुंझलाहट करेंगे। कौन लोग झुंझलाहट करेंगे ? जिन्हें इस अखंड आत्मतत्त्व का सही दर्शन हो रहा है। अरे क्यों रंग में भंग डाल रहे हो? यह चैतन्य तो अखंड चिन्मुद्रांकित है। यह तो यही है। इसमें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, यह कथनी भी खेद पहुंचाने वाली बन रही है। जैसे कोई संस्कृत का ज्ञानी हो और उसके आगे कोई संस्कृत स्तवन कर रहा हो जो पढ़ा लिखा न हो। अब हम किसी छंद का उदाहरण नहीं दे सकते, क्यों कि बनाकर भी गलती करके बोलें तो भी मुश्किल सा हो रहा है। ऐसे गलत छंदों को अजानकार बोला करते हैं और संस्कृत के जानकर को चोट आती रहती है। दु:ख नहीं दिया जा रहा है पर ऐसा ही क्लेश होता है।
त्रुटि की बाधा―एक बार एक राजा पंडित पर असंतुष्ट हो गया तो उसे जो देता था रसद वह सब बंद कर दिया। अब बेचारा पंडित क्यों करें? सो जंगल में से लकड़ी बीन लाए और वह बोझ सिर पर रखकर बेचने लगा। तो एक दिन वह पंडित सिर पर बोझ लादे हुए आ रहा था और यहां से राजा जा रहा था। तो राजा कहता है कि –‘काष्ठभार सहस्राणि तव स्कंधं न बाधति।’ इसमें वह राजा छोटी सी गलती बोल गया है, सो भी बता देंगे। अर्थ उसका यह है कि यह इतना बड़ा भारी काठ का बोझ हे पंडित तुम्हारे कंधे को बाधा नहीं देता है क्या ? काठ का बोझ कंधे पर लादे हुए वह जा रहा था। यह तो है इस पंक्ति का अर्थ और गलती इसमें क्या है कि बाधते कहना चाहिए, सो बाधति कह दिया है। गलती है इतनी त में ए बोलना चाहिए, सो त में इ बोल दिया। ‘काष्ठभार-सहस्राणि तव स्कंधं न बाधति।’ तब विद्वान उत्तर देता है कि – ‘भारं न बाधते राजन् यथा बाधति बाधते।’ हे राजन् यह भार मुझे बाधा नहीं दे रहा है मगर यह बाधति शब्द बड़ी बाधा कर रहा है, बेचैनी कर रहा है। तो संस्कृत का जानकार इतनी सी गलती पाकर कितना दु:खी होता है? हालांकि उसका कुछ बिगाड़ नहीं किया, ‘लेकिन ऐसी ही प्राकृतिकता होती है।
अभेद में भेदकथन की असह्यता―भैया ! यों ही समझिए कि जो अखंड चैतन्यस्वभाव की महिमा में मग्न होते हैं और जिसने परम आल्हाद प्राप्त किया है उस पुरूष के लिए गुणभेद की कथनी भी चोट पहुंचा देती है। उच्च शुद्ध आत्मतत्त्व का ज्ञान जिसे लोक में बोलते हैं टन्नाकर रह जाना, यहां वहां कहीं अगल बगल ध्यान और झांक न होना, ऐसे स्वसम्वेदन ज्ञान द्वारा ही यह शुद्ध आत्मतत्त्व ज्ञात होता है। ऐसा शुद्ध आत्मा जिसके ज्ञात हुआ है वह परपदार्थों से अत्यंत विविक्त है, अलग हटा हुआ रहता है। जैसे जल से भिन्न कमल है। जल में ही कमल पैदा है फिर भी जल से अलग ऊपर खड़ा है। इस ही आत्मभूमि में राग भाव पैदा होता है। फिर भी यह उपयोग कमल इस रागभाव से दूर खड़ा है।
निकटस्थ की महत्ता से महंत का परिचय―अथवा जिस कमल की उत्कृष्टता की इतनी बड़ी महिमा है उस कमल के पत्ते की भी बात देखो―वह पत्ता पानी में पड़ा हुआ है फिर भी पानी से लिप्त नहीं होता। कमल के पत्ते ऐसे साफ चिकने होते हैं कि उनमें पानी के बूंद का स्पर्श नहीं हैं, पास में हैं वह। जैसे पारा आपके कागज में लुढ़कता रहेगा पर कागज को छेदेगा नहीं, भेदेगा नहीं, पकड़ेगा नहीं। इसी तरह कमल के पत्तों को देख लो। जिसके फूल में इतनी बड़ी करामात है उसके पत्ते में भी यह करामात है। बड़े आदमी के घर के लोगों से भी बड़े आदमियों की परख हो जाती है और जिस घर के लड़के गाली देने वाले घिनावने, क्रोधी होते हैं उसके लिए यह अनुमान कर लो कि कुल का प्रमुख भी योग्य नहीं हैं। विद्वानों का परिचय―पुराने समय में एक पुरूष मंडनमिश्र से शास्त्रार्थ करने चला। पहिले शास्त्रार्थ की बड़ी पद्धति थी। मंडनमिश्र के नगर में वह पुरूष पहुंचता है, आज मैं मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करुंगा। सो कुवे पर महिलाएँ पानी भर रही थी। उन महिलावों से पूछा उस विवादार्थी ने कि मंडन मिश्र का घर कौन सा है? तो एक स्त्री जवाब देती है--स्वत: प्रमाणं परत: प्रमाणं कीरांगना यत्र गिरो तिरंति।शिष्योपशिष्यैरूपगीयमानमवेहि तन्मंडनमिश्रधाम।। वह स्त्री जवाब देती है कि जिस के द्वारे पर बैठे हुए तोते यह कह रहे हो कि स्वत: प्रमाणम् परत: प्रमाणम् माने दार्शनिक चर्चा कर रही हो तोती याने तोते की स्त्री को। पुरूष से स्त्री को लोग जरा कम बुद्धिमान् समझते हैं। तो वीरांगनाएँ जहां ऐसी वाणी बोल रही हों कि प्रमाण स्वत: होता है या परत: होता है और जहां शिष्य और उपशिष्य बहुत से मंडनमिश्र का अभिवादन कर रहे हों, समझ लो कि वही मंडनमिश्र का घर है। इस ही प्रकार की पहिले बड़े पुरूषों के घर जानने की पहिचान हुआ करती थी। अब तो कोई गुण रहा नहीं पहिचान का, सो सीधा नाम दीवाल पर खुदवा देते हैं। यह फलाने चौधरी का मकान है। अब क्या करें ? कोई गुण ही नहीं है और गुणों से कोई पूछ नहीं सकता। तो चलो अपना नाम खुदवा कर जाहिर कर दें, यह फलाने का नाम है। बड़ों के प्रभाव का परिकर से परिचय―भैया ! बड़े पुरूषों का प्रभाव उनके परिकर से भी जान लिया जाता है। तो यहां बड़ा पुरूष कौन बैठा है ? शुद्ध आत्मतत्त्व का उपयोग। इस उपयोग की पहिचान ये ऊपरी हैं, व्रत से रहना, तप से रहना,नियम से रहना, दया करना―ये सब उसके ऊपरी वातावरण हैं। जिससे पहिचान होती है कि यहां कोई बड़ा महान् आत्मा बसता है। तो यह ज्ञानी जीव शुद्ध आत्मतत्त्व के ज्ञान होने के कारण और परपदार्थों से अत्यंत विविक्त रहने के कारण प्रकृति के स्वभाव को स्वयं ही छोड़ देता है। साँप तो विष को न स्वयं छोड़ता है और न दूध खांड पिलाने से भी छोड़ता है। अज्ञानी प्रकृति के स्वभाव को न स्वयं छोड़ता है और न शास्त्रों के सिखे सीखाए भी छोड़ता है किंतु यह ज्ञानी अपने ज्ञान की सहज कला से स्वयमेव ही प्रकृतिस्वभाव को छोड़ देता है और इस कारण चाहे कर्मफल मधुर हों, चाहे कर्मफल कटुक हों, ज्ञातामात्र रहने से उनको केवल जानता ही है। ज्ञान की अयोग्यता―भैया ! यथार्थज्ञान हो जाने पर परपदार्थों को अहंरूप से अनुभव करने की ज्ञानी में योग्यता भी नहीं है। यह ज्ञानी पुरूष अयोग्य है। किस बात के लिए अयोग्य है ? परद्रव्य को अपना मानने के लिए अयोग्य है। अयोग्य कहो या नालायक कहो, अर्थ में कुछ फर्क है क्या ? वह उर्दू का शब्द है, यह संस्कृत का शब्द है। अभी किसी को नालायक कह दो तो वह लड़ने भिड़ने लगता है। अरे बेचारे ने तो प्रशंसा ही की है कि तुम संसार के पंचड़ों के लायक नहीं हो, तुम नालायक हो, यानेसंसार के क्लेश, दु:ख कष्ट के लायकनहीं हो, इन मोहियों की गोष्ठी के लायक नहीं हो। सीधी बात यह कही है उसने। कोई नालायक कहे तो यही अर्थ लगाना कि यह कह रहा है कि हम इन मोहियों कीगोष्ठी के लायक नहीं हैं। हट जावो। यह सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरूष परद्रव्यों को अहंरूप से अनुभव करने के लिए अयोग्य है। इस कारण यह कर्मफल का भोक्ता नहीं होता। इस कथन से यह निर्णय करना कि ज्ञानी जीव प्रकृति के स्वभाव से विरक्त होता है, इस कारण वह अवेदक ही है।
ज्ञानी की विरक्तता―यह ज्ञानी किन-किन बातों से विरक्त है? संसार से विरक्त-भावरूप संसार, इससे विरक्त है अपने आपकी त्रुटियां अपने आपको नहीं सूझतीं क्योंकि यह जान रहा है कि इन त्रुटियों के कारण इस प्रभु की सर्वज्ञता रूप विभूति ढकी हुई है। यह इसके अनर्थ के लिए ही है। सो संसार से विरक्त रहता है, शरीर से विरक्त रहता है, शरीर को भार जान रहा है, विपत्ति जान रहा है। यदि खूब बड़ी तोंद हो जाय कि अपने आप उठा न जाय, शौच वगैरह भी न जा सके, धोती न पहिन सके, इतनी बड़ी तोंद हो तो तुम्हें बोझा लगे कि न लगे ? लगेगा। और उससे आधी तोंद हो तो भी लगे और तोंद न हो बिल्कुल अच्छा पतला दुबला बढि़या हो तो भी ज्ञानी को बोझ ही है। अज्ञानी को नहीं होता बोझ। वह ज्ञानी तो जानता है कि इस देह के बंधन के कारण मेरा सब आनंद समाप्त हो रहा है। ज्ञानी देह से भी विरक्त है और भोगों से भी विरक्त रहता है। भोगने के विकल्पों में पड़ता है और इंद्रिय विषयों के पौद्-गलिक पदार्थ इनसे भी विरक्त हैं। सो वह वैराग्य को प्राप्त हुआ ज्ञानी उदय में आये हुए शुभ अशुभ कर्मों के फल को व निर्विकार स्व शुद्ध आत्मा को भिन्न रूप से जानता है। इस कर्मफल का ज्ञाता तो है अर्थात् उसकी परिणति को जानता है, ये सब विकल्प भिन्न हैं मुझसे, ऐसा वह जानता है, किंतु कर्मफल को भोगने वाला नहीं होता।
ज्ञानी का अंत:प्रत्यय―ज्ञानी पुरूष न तो कर्म का कर्ता है और न कर्म का भोक्ता है किंतु केवल वह कर्मों के स्वभाव को जानता है। जो मात्र जान रहा है उसके करना और अनुभवना नहीं है। तब वह आत्मीय शुद्ध स्वभाव में नियत होता हुआ मुक्त ही है। जैसे आप ध्यानपूर्वक यहां न सुन रहे होंगे तो हम कह सकते हैं ना आपसे क्यों जी आप कहां हैं इस समय ? और आपका ध्यान मानो इटावा के मकान में हो तो आप कह भी देंगे कि हम इस समय इटावा में थे। तो शरीर से और आत्मप्रदेश से बाहर आप नहीं बैठे हो और जहां उपयोग जा रहा हो वहां आपका निवास बोला जायेगा। ज्ञानी पुरूष की आत्मभूमि में कुछ भी बीत रहा हो, कुछ ज्ञान के कारण तो नहीं बीत रहा ना। कुछ भी बीते पर उसका उपयोग जब शुद्ध चैतन्यस्वरूप में लगा हुआ है उस समय वह निर्विकल्प है, संकट से मुक्त है और उपयोग की दृष्टि में तो वह मुक्त ही है। वह उपयोग निकाले, शुद्ध स्वभाव से अगल बगल दृष्टि दे तो फिर संकट हो गए तो ज्ञानी पुरूष का यह प्रत्यय तो निरंतर रहता है कि मैं चैतन्यमात्र हूँ और चेतना ही मेरी वृत्ति है और फिर जब उपयोग इस चैतन्यस्वभाव के अनुभव में ही नियत होता है तो उस समय तो विकल्प भी नहीं होता है
अचेतक अचेतक का निमित्तनैमित्तिक संबंध―भैया ! देखो यह विचित्र खेल कि विकार भाव होता है परस्पर में तो अचेतन अचेतन को हुआ करता है। मानों आत्मा तो एक देश है। उस देश में चेतन गुण भी रहता है, अचेतन गुण भी रहता है, और वे आत्मा के ही देशवासी हैं। जैसे ज्ञान और दर्शन गुण ये तो चेतन हैं, स्वरूप दृष्टि से निहारना सब कुछ और श्रद्धा चारित्र आदि सब गुण ये अचेतन हैं अर्थात् चेतने वाले, जानने देखने वाले ज्ञान दर्शन हैं और बाकी सब गुण चेते जाने वाले हैं पर चेतने वाले नहीं हैं। आनंद स्वयं आनंद का भोग नहीं कर सकता क्योंकि आनंद में चलने का माद्दा ही नहीं है। आनंद का भोगने वाला ज्ञान गुण है। इसी तरह श्रद्धा चारित्र गुण यह स्वयं अपने को कुछ नहीं समझता। इसको जानने वाला और व्यवस्था बनाने वाला ज्ञानगुण है। तो स्वरूपत: चूँकि यह चेतन नहीं है इसलिए श्रद्धा गुण और चारित्र गुण अचेतक हुआ और कर्म यह भी अचेतक हुआ। कर्मोदय का निमित्त पाकर विपरीत परिणमता है श्रद्धा और चारित्र और श्रद्धा व चारित्रगुण का निमित्त पाकर विपरीत परिणमता है तो यह कर्म।
ज्ञान कीविपरीतता का अभाव―इन कर्मों का ज्ञान के विपरीत परिणमन के लिए कोई संबंध नहीं है। ज्ञानावरण नामक कर्म तो है पर वह ज्ञान के विपरीत परिणमन का कारण नहीं है। श्रद्धा और चारित्र विपरीत हुए इस कारण ज्ञानावरण में भी यह निमित्त पका आया कि ज्ञान उठ खड़ा नहीं हो सकता, पर ज्ञान विपरीत नहीं परिणमा। कुमति, कुश्रुति, कुअवधि जो भेद किए गए हैं ये ज्ञान के कारण भेद नहीं हैं किंतु मिथ्यात्व कर्म के मिथ्यात्व भाव के संबंध से ये भेद हो जाते हैं। मति, श्रुत, अवधि ज्ञान में जो सुपना आया है वह सम्यक्त्व के भाव से आया है। ज्ञान के स्वयं कोई ऐसी खूबी नहीं है कि वह कहीं कुबन जाय और कहीं सु बन जाय। तो मैं तो ज्ञानस्वरूप हूँ, चैतन्यभाव हूँ यही अगर मूलत: विपरीत परिणम जाय तो बड़ा कठिन हो जायेगा। परिणत होने वाले का यह ज्ञान ठिकाने लगा सकता है और कहीं ज्ञान ही विपरीत परिणमता तो फिर कहां ठिकाना पड़ता ? यह मैं ज्ञानमात्र हूँ, यह मैं न कर्ता हूँ, न भोक्ता हूँ।
भावदृष्टि की शब्दानुसारिता―दूसरी बात यह समझिये कि इस आत्मा को जब ज्ञानी कहकर पुकारा जाय तो ज्ञानी के नाते से ही समूचे आत्मा को देखना। जब सम्यग्दृष्टि कह कर आत्मा को बताया जाय तब सम्यग्दर्शनमय ही आत्मा को देखना। जैसे किसी पुरूष के दो नाम हों। खराब पीरियड तक एक पुराना नाम रहा और कुछ अच्छे सदाचार नियम संयम के समय में दूसरा नाम रख दिया तो कोई पुरूष उसके बारे में यदि खूब आचरणों की बातें कह कर निंदा भी करे तो भी वह कह सकता है कि यह काम पुराना नाम लेकर इसने किया, जो वर्तमान नाम है उसको लेकर कहेगा कि हमने नहीं किया। जहां यह आप सुनें कि सम्यग्दृष्टि के बंध नहीं होता वहां केवल सम्यग्दर्शनमय ही देखो। वहां यह प्रश्न क्यों उठाते हो―तो सम्यग्दृष्टि के चारित्र मोह पड़ा है, उसके बंध नहीं होता क्या ?होता है। मगर उसको चारित्र मोही कहकर कहें तो यह प्रश्न उठावो। जब सम्यग्दृष्टि कहकर कहते हैं तो सम्यग्दर्शन के नाते जो कुछ होता है वह कहा जा रहा है।
भाव की शब्दानुसारिता पर कुछ दृष्टांत―एक आदमी पुजारी है, पंडित है व्यापारी है। जब व्यापार के आशय में है तब दो चार बातें गड़बड़ भी कर दे जैसा कि प्राय: करते है लोग। और पंडिताई के आशय में है तब भला उपदेश भी देता है और कोई कहे कि पंडितजी आपने तो दोपहर में एक दो ग्राहकों से ऐसा बर्ताव किया। अरे वह बर्ताव पंडितजी ने नहीं किया, वह बर्ताव एक दुकानदार ने किया। पंडितजी के नाते से जब उपयोग रहता है तो आप उस आत्मा को केवल पंडितमय ही निरखलो ना और देखो एक आदमी पुजारी भी है और मुनीम भी है और मंदिर के आँगन में आकर कहो पुजारी जी हमारा हिसाब बताना आज। तो उसका बोलना फिट नहीं है। हिसाब बताने की बात कहना हो तो मुनीमजी कहकर पुकारो। पुजारी कहकर न पुकारो। और तुम्हें पूजा ध्यान में मदद लेनी हो तो पुजारी कहकर बुलावो।
समीचीन दृष्टि के बंधाहेतुत्व―जब ग्रंथों में यह स्पष्ट लिखा है कि जिस अंश से सम्यग्दर्शन है उस अंश से बंध नहीं है। जिस अंश से राग है उस अंश से बंध है। तो हम जब केवल सम्यग्दर्शन की खूबी को ही देख रहे हैं और सम्यग्दृष्टि कहकर बोल रहे हैं तो निश्चयपूर्वक बोलिए कि सम्यग्दृष्टि के बंध नहीं होता। ये सब स्याद्वाद से सारी बातें उलझ जाती हैं। वहां यह भी एकांत नहीं है कि जिस आत्मा को सम्यग्दृष्टि कहा है उस आत्मा के बंध कभी कतई होता नहीं, यह भी नहीं है, पर जिसका विवाह हो उसका ही तो गीत गाया जाता है। अब दूल्हे का छोटा भाई लड़ने लगे कि वाह हमारा नाम क्यों नहीं लिया जाता, तो उसका लड़ना ठीक तो नहीं है ना। व्यवहार में असत्य की भी जबर्दस्ती―फिर भी देखो भैया ! अगर दूसरे साल कोई दस्तूर बाकी रह गया हो विवाह के बाद और न हो बड़ा तो छोटे भाई को ही सामने रखकर लोग नेक दस्तूर कर लेते हैं। जैसा रिवाज हो तुम्हारे । भादों में मौर सिराते हैं और वह दुल्हा कहीं नौकरी पर हो या कहीं पढ़ने में हो तो छोटे ही भाई के ऊपर मौर धरकर तालाब में जाकर उस मौर को सिरवा देते हैं। तो लौकिक पुरूषों ने तो जो चाहे सो किया, व्यवहार है। पर परमार्थत: यदि शब्दों का ठीक-ठीक उपयोग करें तो कहीं भी कोई विवाद न हो। शब्दों का समुचित प्रयोग―वचन प्रयोग में जितना शब्दों के बोलने में इंग्लिश भाषा में ध्यान रखा जाता है उतना ध्यान हिंदी भाषा में नहीं रखा जाता है। एक ही शब्द जैसे देखना है, जिसके अनेक शब्द हैं―सी, लुक, परसीव आदि कितने शब्द हैं पर जो चाहे शब्द नहीं बोल उठते। प्रकरण में जो ठीक बैठना चाहिए अर्थ में वही बोलते हैं इंग्लिश में। पर हिंदी में जो चाहे बोल जाते हैं और वहीं मुहावरा पड़ा हुआ है। तो जब यह कह दिया कि सम्यग्दृष्टि के बंध नहीं होता, तो लोग अटक जाते हैं कि यह क्या कह दिया ? अरे यह इसने कह दिया कि सम्यग्दर्शन के कारण बंध नहीं होता―यह है उसका भाव। तुम्हारी दृष्टि चारों तरफ है सो यह देख रहे हो कि जिस आत्मा में सम्यग्दर्शन पैदा होता है उस आत्मा में कषाय भी तो चल रही है, बंध भी तो चल रहा हैं, सम्यग्दर्शन भी चल रहा है, पर हम यह नहीं कह रहे हैं। हम तो पतली सी पतली तरैया आँख में लगाकर एक बिंदु से देख रहे हैं। तो यह ज्ञानी जीव करने और भोगने के भाव से अलग है। केवल जानता हुआ शुद्ध स्वभाव में नियत होकर मुक्त ही है। बाह्य के अदर्शन में अनाकुलता का एक दृष्टांत―खरगोश के पीछे शिकारी कुत्तों को दौड़ाता है। खरगोश जितने कुत्ते नहीं भाग सकते, उसकी तो ऐसी छलांग जाती है कि 7-8 हाथ दूर तक पैर भी कहीं न रखे। वे खरगोश दूर जाकर एक झाड़ी के पास बैठकर अपने कानों से ही अपनी आँखें बंद कर लेते हैं। कर्मों का सुयोग भी देखो खरगोश को बड़े कान दिये गए हैं। किसलिए ? इन्हीं संकटों के अवसर के लिए। वे झट झाड़ी में छुप जाते हैं, कानों से अपनी आँखों को ढक लेते हैं। तो कानों से आँखों को बंद कर लिया लो अब कहीं संकट नहीं हैं। पर एक ऐब है कि जरा देर तक तो अपनी आँखों को कानों से ढके रहे, फिर शंका हो गयी कि देखें तो कहीं से कुत्ते तो नहीं आ रहे हैं। जैसे ही कान हटाये, आँखें खोली, झाड़ी से निकलकर जरा सा देखने लगे तो कुत्तों ने देख लिया, अब वे कुत्ते फिर लपके और खरगोश फिर भागकर झाड़ी में घुस गये और झट कानों से अपनी आँखें बंद करके बैठ जायेंगे, फिर वे कुत्ते ढूंढ कर हैरान हो जायेंगे। बाह्य के अदर्शन में अनाकुलता―इसी तरह यह उपयोग जिसके पीछे विषय कषायों के परिणाम शिकारी दौड़ रहे हैं, यह उपयोग बड़े सातिशय वेग वाला है, सो जाकर ज्ञानज्योति के गुप्त प्रकाशमय स्थल में जाकर छुप जाता है। परंतु संस्कार इस आत्मा में कायरता का लगा है, सो थोड़ी देर तो रहता है इस ज्ञान झाड़ी में, बाद में फिर देखने लगता है कि देखें तो जरा, हो क्या रहा है बाहर में ? जो विकल्प किया सो विषय कषायों के शिकारी आ धमकते हैं। जरा साहस कर यह उपयोग और बड़े आराम के स्थान में पहुँचे, जरा स्थित बना रहे तो भी संकटों से मुक्त ही है। इस ही बात को कुंदकुंदाचार्य देव कह रहे हैं।