वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 36
From जैनकोष
तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विंति ॥ 36 ॥
899-आत्मा की निर्मोहता—मोह मेरा कुछ भी नहीं है मैं तो एक उपयोग मात्र हूँ ऐसा जो जानता है, अपने को बोधता है, बूझता है उसे समय अर्थात् आगम तथा आत्मतत्त्व के ज्ञाता पुरुष मोह-निर्ममत्व अथवा निर्मोह कहते हैं । मोह मेरा कुछ भी नहीं है—यहाँ पर आचार्य ने स्त्री-पुत्रादि के राग की चर्चा को नहीं कहा, क्योंकि वह राग मोह के सामने याने राग के राग के सामने कुछ भी नहीं है । जैसे किसी आदमी ने आपका विरोध किया, आपने उसका कोई जवाब भी नहीं देना चाहा । उसका मतलब हुआ कि वह विरोध पक्ष वाला कमजोर है क्योंकि आपने उसका जवाब यह सोचकर नहीं दिया कि यह तो बकता है, इसका क्या जवाब देना । यदि आपने उसका विरोध करने पर विरोध किया तो इसका मतलब हुआ कि उसमें भी कोई बल है । सम्यग्दृष्टि की निगाह में स्त्री-पुत्र-मित्र का राग कुछ भी नहीं है । अतएव यहाँ मोह को ही कहा कि मोह मेरा कुछ भी नहीं है । 900-आत्मा की उपयोगमात्रता—मैं एक उपयोगमात्र हूँ, चैतन्य मेरा स्वभाव है—ऐसा जो जानता है, उसे मोह से भी ममता नहीं है । धन हरेक छोड़ सकता है परंतु बात छोड़ना कठिन है । ऐसा क्यों हुआ—कि यह बात नहीं छोड़ी जा सकती है जो जिस बात को निजभाव मानेगा वह उसे कैसे छोड़ेगा । जो उस बात से भी अपने को न्यारा करले वह विवेकी ज्ञानी है। जो अपने में होने वाले राग-द्वेष-मोह भाव हैं, उनका भी त्याग कर देवे तो कर्म ही न बंधे । यदि अपने भाव को न पकड़े रहें तो दुःख हो ही नहीं सकता । दुश्मनी होने पर कोई तुम से बड़ा है उससे दया करके बोल लो कि यह तो अज्ञानी है, इस से बोलने में क्या दोष है? यदि छोटा है तो उससे बोलने में शोभा ही है । धन मेरा नहीं है उसकी यहाँ चर्चा करना व्यर्थ है क्योंकि बार-बार चर्चा करने से संदेह हो जाता है कि धन-वैभवादि अपने कुछ होंगे, तभी तो इनकी आचार्य बार-बार चर्चा कर रहे हैं । अतएव यहाँ पर धन वैभवादि मेरे नहीं हैं—इनकी चर्चा न करके मोह राग, द्वेष वचन बात मेरे नहीं हैं इनकी चर्चा कर रहे हैं । यह मोहभाव भावक मोहकर्म के द्वारा रचा जाने वाला है । अनुभाग वश फलदान में (निमित्तरूप से) समर्थ होने से मोहनीयकर्म भावक कहा जाता है । उस भावक के द्वारा निर्वर्त्यमान भाव्य यह मोह परभाव है । यह प्रभाव टंकोत्कीर्णवत् निश्चल मुक्त ज्ञायकस्वभावी का कुछ भी नहीं है, क्योंकि परमार्थ से देखो तो परभाव मुक्त ज्ञायकस्वभाव को कुछ भी हुवाने में समर्थ नहीं है । मैं वही का वही चैतन्यतत्त्व हूँ । मैं तो उपयोग मात्र हूँ अथवा चिच्छक्तिमात्र हूँ जिसकी प्रताप संपत्ति ऐसी है कि समस्त विश्व के प्रकाश करने में प्रचंड विकस्वर है । 901-चैतन्यस्वरूप के ज्ञाता के विभाव में भी ममता का अभाव—मैं एक उपयोगमात्र हूँ, ज्ञानमात्र हूँ—ऐसा जो जानता है, उसको मोह से भी ममता नहीं है, यहाँ पर किसी वस्तु की ममता की तो बात ही नहीं कर रहे हैं । कोई व्यक्ति बिगड़ जाए, और उसको तुम बार-बार मनाने लगो तो लोग समझेंगे कि यह बड़ा आदमी होगा, अतएव इसको बार-बार मना रहे हैं । धन मेरा नहीं है—यह कहना निम्न श्रेणी का कथन करना कहलायेगा, अत: धन मेरा नहीं है, इसकी चर्चा ही नहीं की गई है । हमला राग-द्वेष मोह बल पर करो—ये मेरे नहीं हैं । आगम के जानने वालों ने ऐसा कहा है कि जो जीव मोह को अपना रहा है, वह जिस पर को विषय करके मोह किया गया है, उसको भी अपनायेगा । जैसे जिसको अपना राग प्रिय लग रहा है, जिसको आश्रय करके राग किया गया है, वह उसको भी अपनायेगा । राग करना उतना बुरा नहीं, जितना बुरा राग का राग करना है । जिसको राग ही अच्छा न लगे, उसको वह चीज भी अच्छी नहीं लगेगी, जिसको आश्रय करके राग किया गया था । जैसे जिसने घड़ी का राग किया, यदि हमें घड़ी का राग प्रिय लग रहा है तो घड़ी भी अवश्य प्रिय लगेगी । जिसे घड़ी का राग प्रिय नहीं है, उसे घड़ी भी अच्छी नहीं लगेगी । यह घड़ी का राग कष्टकर है, इससे क्या लाभ है? इसके राग के बनाने में कितना कष्ट होगा—ऐसा विचारने से छूट सकता है । जो अपने राग को मेटना चाहता है उसे घड़ी भी प्रिय नहीं लगेगी । राग के राग को मोह कहते हैं । घड़ी का राग राग कहलाया, लेकिन घड़ी के राग का राग मोह कहलाया । मोही को राग तो प्यारा लगता ही है, साथ ही राग का राग भी प्यारा लगता है । राग के राग में बेहोशी हो जाती है । राग में बेहोशी नहीं होती है । 902-निर्मोहता के अनुभव में आत्मलाभ—मोह मेरा कुछ नहीं है, मैं उपयोग मात्र हूँ, मोह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो एक अमूर्त चैतन्य आत्मा हूँ, ज्ञान मेरा स्वभाव है—इस प्रकार विचारने से राग-हटे मोह हटे-उसे कहते हैं मोह की निर्ममता । जो इस तरह का अपने को अनुभव करता है उसे आगम के जानने वालों ने मोह निर्गम कहा है । जब भी शांति मिलेगी, ज्ञान ही से मिलेगी । ज्ञान के सिवाय शांति का और कोई उपाय नहीं है । इस ज्ञान के लिये खुद को भी न्यौछावर कर दो तो भी कम है । जो चीज अपने को अच्छी लगती है, उसी के लिए कोई चीज न्यौछावर की जाती है । यदि तुम्हें ज्ञान अच्छा लगता है तो उसके लिये क्या-क्या न्यौछावर नहीं कर दोगे? जो जिसको प्रिय है उसके लिए सब कुछ सौंप दिया जाता है । जैसे पुत्र सबको प्यारा होता है; उसके लिये क्या-क्या न्यौछावर नहीं कर दिया जाता? यदि तुम्हें मुक्ति और ज्ञान प्यारा है, उसके लिये धन क्या, अन्य क्या-क्या न्यौछावर नहीं कर सकते हो? वस्तुत: यह मोह मेरा नहीं है, फिर यह मोह मेरे में कैसे उत्पन्न हो गया? यह मोह पुद्गल द्रव्य के निमित्त से उत्पन्न होता है । कार्मण वर्गणायें भावकरूप में फल देने की शक्ति से उत्पन्न हुई उनके द्वारा मोह रचा गया है । मैं इसके होने में निमित्त नहीं हूँ, इसके होने में ये पुद्गल निमित्त हैं । जैसे यदि मिट्टी सोचे कि घड़ा बनने के लिये मैं ही निमित्त हूँ और मैं ही उपादान हूँ । तो मेरुपर्वत की तलहटी में स्थित मिट्टी के धड़ाधड़ घड़े बनने लगेंगे, अत: मिट्टी घड़ा बनने में निमित्त नहीं है । उसी प्रकार इस मोह के करने में निमित्त मैं नहीं हूँ, ये पुद्गल द्रव्य निमित्त है । मैं तो टंकोत्कीर्ण प्रतिमा के समान निश्चल हूँ । जैसे पर्वत के अंदर मूर्ति स्थित है, उसी प्रकार मुझ आत्मा में परमात्मा मौजूद है । भेद विज्ञान की कुशलता से परमात्मत्व प्रकट हो सकता है । भेद विज्ञान पुरुषार्थ करने से हो सकता है । पुरुषार्थ किये बिना तो सम्यक्त्व भी नहीं होता । छोटे बच्चे खेलने के लिये जैसे रेत का घर बार-बार बनाते हैं और बार-बार बिगाड़ते हैं, वह घर कुछ काम नहीं आता । उसी प्रकार तनिक सुना और भुला दिया, फिर थोड़ा सुना-फिर भुलाया तो वह तो बच्चों का रेत का घर ही है । यदि तुम ज्ञान को परिपक्व करो तो कुछ लाभ भी होगा । अतः ज्ञान के पुरुषार्थ में जड़ की प्रीति छोड़कर लगो तो कुछ मिलेगा । पुण्योदय के कारण यह धन मुफ्त ही मिला है, वह मुफ्त में ही चला जायेगा उसके टैक्स, चोरी डाका द्वार होंगे । मुनाफे में मिलेगा पाप, घृणा । ज्ञानी जीव सोचता है कि मोह मेरा कुछ नहीं हैं । 903-परमागम का जयवाद—अहो! ये परोक्ष आर्षवाणियाँ अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के तीर्थ में आज भी जयवंत प्रवर्त रही हैं । एक स्तुति में कहा गया है कि—‘‘या जगमंदिर में अनिवार अज्ञान अंधेर छयो अति भारी, श्रीजिन की ध्वनि दीपशिखासम जो नहिं होत प्रकाशनहारी, तो किस भांति पदारथ पांति कहां लहते रहते अविचारी, याविधि संत कहें धन है धन है जिन वैन बड़े उपकारी ।’’
भगवान् महावीर स्वामी, जिनके चरित्र का स्मरण हमारी कलुषताओं को दूर भगा देता है, उस चरित्र में प्रधान एक बात जिस पर हम लोगों का ध्यान होना चाहिये, वह है भगवान् महावीर स्वामी का अखंड ब्रह्मचर्य । भगवान् महावीर स्वामी बाल ब्रह्मचारी थे, यह निर्विवाद सिद्ध है । माता-पिता के विवाह के आग्रह करने पर भी उन्होंने विवाह करने की स्वीकृति नहीं दी तथा समय की ओर ही उन्होंने अपना लक्ष्य रक्खा । भगवान् महावीर स्वामी पुण्यशाली व्यक्ति थे, उन्होंने राज्यसुख भोगा, वे राजा के पुत्र थे—इन कारणों की विशिष्टता से हम उनको नमस्कार करते हों—ऐसा नहीं है । उनमें एक बड़ी बात यह थी कि जिसके कारण हम लोगों के मस्तक यकायक झुक जाते हैं, वह है सत्य-उपदेश भगवान महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि से जो उपदेश संसार के प्राणियों को प्राप्त हुआ है, जिससे उन्हें संसार के समस्त दुःखों से छूटने का मार्ग दिखाई दिया, वह अब भी उपलब्ध है । भगवान् महावीर स्वामी ने हमें देह व संसार के बंधन से छूटने का उपाय बताया, अतएव वे हमारे आराध्य हैं । भगवान महावीरस्वामी के उपदेश से हमें कल्याण स्वार्थ का उपदेश मिलता है, अतएव हम उनकी आराधना करते हैं ।
904-राष्ट्रीय पताका का संकेत—प्रभु के उपदेशों को आज हमारे राष्ट्र की पताका बता रही है कि भगवान् महावीर स्वामी ने हमारे हितार्थ क्या शिक्षा दी थी और हमें क्या करना है तथा कल्याण कैसे होगा । यह सब पताका का रूपरंग भी ध्वनित करता है । हमारी राष्ट्रीय-पताका तीन रंगों से रंजित है:—हरा, पीला, सफेद । इन तीनों रंगों से प्रमुख दो आशय प्रकट होते हैं जो अभी कहे जावेंगे, जैसा कि जो समस्त विश्व के ज्ञाता है उन भगवान की दिव्य ध्वनि से हमें उपदेश मिलता है । ऐसा नहीं है कि किसी भगवान ने और कुछ बताया हो, दूसरे ने कुछ और । भगवान् आदिनाथ के समय से लेकर भगवान् महावीर स्वामी के समय तक समान धर्म प्रवर्तित हुआ है । ऐसा नहीं कि किसी ने कम उपदेश दिया हो या किसी ने अधिक । राष्ट्रीय-पताका कह रही है कि:— (1) समस्त पदार्थों को सत्यता से जानो । पदार्थ उत्पाद व्ययध्रौव्य युक्त हैं । (2) आत्मा को क्या करना चाहिये कि वह संसार के दुखों से छूट जाये, वह उपाय है रत्नत्रय । 905-यथार्थ ज्ञान से ही राग-द्वेष का परिहार—राग-द्वेष मोह दुःखदायी है, अत: पहले इन्हें छोड़ो—यह हम कितना भी कहते रहें मोह नहीं छूटेगा, जब तक स्त्री-पुत्र-पिता-भाई-बंधु मकान-धन कपड़ा, चटाई शरीरादि दिखाई देने वाले पदार्थ कैसे आये और कहां से आये क्या इनका स्वरूप है यह ज्ञान नहीं होगा । सर्वप्रथम यहाँ जानने की आवश्यकता है कि दुनियाँ के समस्त पदार्थ क्या हैं, इनका स्वरूप कैसा है, ये क्यों हैं? आदि । दुनियाँ में जितने भी पदार्थ हैं, प्रत्येक पदार्थ एक है, अकेला है । जो दो पदार्थ मिलकर एक हो जाये वह भी पदार्थ नहीं है । पदार्थ टूटकर दो नहीं हो सकता है । जगत् के समस्त पदार्थ अखंड हैं, वे टूट नहीं सकते । अखंड को जानने की यह पहिचान है कि जो बात बनेगी, जो परिवर्तन होगा, वह पूरे में होगा; ऐसा नहीं कि किसी परिणमन से आधे में पदार्थ परिणम जाये आधे में नहीं । ऐसा नहीं कि आधे आत्मा में दुःख हो रहा हो और आधे में नहीं । एक बात पूरे में घटेगी अर्थात् यदि दुःख है तो पूरे आत्मा में । यदि सुख है तो वह भी पूरे आत्मा में । संसार के जितने भी पदार्थ हम देख रहे हैं ये सब एक पदार्थ नहीं हैं । एक वह है, जो परमाणु है, आँखों से न दिखाई दे सके, उसका दूसरा हिस्सा न हो सके । हम पर्याय को द्रव्य (पुद्गल) मान लेते हैं, अत: हमारा राग बढ़ जाता है । यदि हम द्रव्य को द्रव्य ही मानें तो हमें मोह हो ही नहीं सकता । क्योंकि प्रत्येक आत्मा अपने ही द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव में रहता है, दूसरे द्रव्य के द्रव्य क्षेत्र-काल भाव में नहीं रहता है । प्रत्येक पदार्थ अपने में ही परिणमता है, दूसरे पदार्थ में उसका परिणमन आ-जा नहीं सकता । यदि यह ज्ञान हो गया तो मोह हो ही नहीं सकता । जो कुछ यह है वह उसही द्रव्य की पर्याय है नित्य नहीं जैसे रस्सी पड़ी हुई है । उसमें यदि साँप का भ्रम हो जाता है तो भय उत्पन्न हो जाता है । लेकिन जब हमें पास में जाकर रस्सी में रस्सी का बोध हो जाता है तो भय खतम हो जाता है और आनंद प्रकट हो जाता है । संसार के सभी पदार्थ अपने में पूरे हैं, कोई अधूरा नहीं है । सभी पदार्थ अपने में अपने आप परिणमन करते हैं, कोई पदार्थ दूसरे में परिणमन नहीं कर सकता और न दूसरे पदार्थ रूप ही परिणम सकता है । ऐसा भी नहीं कि एक पदार्थ का परिणमन दूसरे पदार्थ में चला जाये, दूसरे का पहले में आ जाये । वे तो अपने में ही स्वत: परिणमते रहते हैं । सबसे पहले मोह छोड़ने के लिये इस शरीर से पर्यायबुद्धि हटानी पड़ेगी कि यह शरीर मेरा नहीं है, शरीर मैं स्वयं नहीं हूँ, यह शरीर नष्ट हो जाने वाला है, मैं तो एक चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ, मैं ज्ञानमय हूँ, ज्ञान-रूप ही मेरा परिणमन है—ऐसा अनुभव करने से मोह दूर हो जाता है । चाहे लोक में प्रतिष्ठा प्राप्त कर लो उससे मोक्ष नहीं मिलने का । प्रतिष्ठा तो चार दिन की चांदनी है । 906-राष्ट्रीय ध्वज का प्रथम संकेत:—(1) प्रत्येक चीज उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यरूप है । अर्थात् उत्पादरूप होने से बनती है, व्ययरूप होने से बिगड़ती है और ध्रौव्यरूप होने से बनी रहती है । ध्वज का हरा रंग बताता है कि प्रत्येक पदार्थ प्रतिसमय उत्पन्न होता रहता है । प्रत्येक पदार्थ बिगड़ता रहता है—यह पीला रंग का आशय है सफेद रंग का प्रयोजन वस्तु के सदा बने रहने से है । वस्तु में उत्पाद व्यय होने पर भी वस्तु वही रहती है, यह वस्तु की ध्रुवता है । जिस प्रकार सफेद रंग पर पीला भी चढ़ सकता है, हरा भी उसी प्रकार वस्तु बनती भी रहती है बिगड़ती भी रहती है, तब भी बनी रहती है । साहित्य में उत्पाद को हरे रंग से व्यय को लाल रंग से और स्थैर्य को सफेद रंग से ध्वनित किया है । इन पर्यायों में मोह मत करो । ये पर्यायें नष्ट हो जाने वाली है । अच्छे परिणाम रक्खोगे, अच्छी गति प्राप्त होगी, बुरे परिणामों से बुरी गति प्राप्त होती है । 907-राष्ट्रपताका का दूसरा संकेत—(2) मेरा आत्मा का उद्धार कैसे हो? क्या करें कि इस संसार से छूट जाय? आत्मा का ज्ञान श्रद्धान और आचरण (क्रिया) हो तभी मोक्ष मिल सकता है । आत्मा को अनुभव करना, जानना आत्मा का ज्ञान करना है, श्रद्धान यह है कि आत्मा का स्वरूप जानने से मोक्ष प्राप्त हो सकता है, और आत्मा के अनुरूप आचरण करने का नाम है आत्मा का चारित्र करना । ध्वजा का पीला रंग सम्यग्दर्शन को बता रहा है । उससे प्रतीति होती है कि मैं शुद्धस्वरूप चैतन्य आत्मा हूँ । शुद्ध आत्मा की रुचि को सम्यग्दर्शन कहते हैं । चारित्र से आत्मा का विकास होता है, आत्मा के गुणों में वृद्धि होती है, यह हरा रंग प्रकट कर रहा है । ज्ञान बड़ी स्वच्छता की चीज है अत: उसका वर्णन सफेद रंग से किया जाता है । जिस राष्ट्र की छाया में हम बढ़ रहे हैं, वह इस ध्वजा द्वारा इन दो बातों का उपदेश दे रहा है । तुम उस पथ पर चलो तो तुम्हारी इच्छा, न चलो तो तुम्हारी इच्छा । मैं आत्मा एक वस्तु हूँ, आत्मा का कल्याण कैसे हो, यह बात करने पर मानव में जो मानवीय लक्षण होने चाहिये, वे अपने आप आ जाते हैं । आत्मा के अनुसार आचरण करो यही भगवान् महावीर स्वामी का उपदेश है । 908-सम्यग्दर्शन की कर्णधारता—(अ) तत्त्वार्थ में उन्मुख जो बुद्धि उसका नाम तो श्रद्धा है । यदि श्रद्धान का नाम ही सम्यग्दर्शन है तो फिर श्रद्धा ज्ञान की पर्याय रही या दर्शन की ? यदि श्रद्धा ज्ञान की पर्याय है तो सम्यक्त्व क्या रहा, सम्यक्त्व किसे कहेंगे? तत्त्वार्थ के विषय में तन्मयता का नाम रुचि है, वह भी ज्ञान की अथवा चारित्र की ही पर्याय है । और ऐसा ही स्वरूप है, ऐसा स्वीकार करना उसका नाम प्रतीति है । प्रतीति को भी आपने ज्ञान की ही पर्याय बताया । ऐसी स्थिति में सम्यग्दर्शन का स्वरूप क्या रहा? समाधान—सम्यक्त्व का स्वरूप श्रद्धा रुचि-प्रतीति नहीं हैं क्योंकि वे तो ज्ञान की पर्यायें हैं । अत: सम्यग्दर्शन अनिर्वचनीय है । वह ज्ञान द्वारा ही बताया जाता है । श्रद्धा, प्रतीति और रुचि सम्यक्त्व को बताने के द्वार हैं श्रद्धा-प्रतीति-रुचि और क्रिया में सम्यक्त्व का सम्यक् लक्षण नहीं हे । जिसके द्वारा विपरीत अभिप्राय मिट जाता है, उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं । जैसे कर्ण को इधर-उधर करने से नाव घूम जाती है, कर्ण दिशा बदल देता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व संसार समुद्र में मोक्षरूपी नौका के कर्णधार के समान है, मोक्ष-नौका का रास्ता दर्शाता है । संसार मार्ग में जाते हुए प्राणी को, जो कि गलत मार्ग है, संसार मार्ग से हटाकर—सांसारिक काम छुटाकर, मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति कराने के लिये सम्यक्त्व दिशा बदलने का काम देता है । आंख-कान-हाथ-पैर वे ही हैं, लेकिन सम्यक्त्व होने के पश्चात् उनका उपयोग मोक्ष मार्ग में होने लगता है । हाथ-पैर-आंख-कान-जीभ व्यवहार मोक्ष-मार्ग के बाह्य साधनों में प्रवृत्ति करने में सहाय्य हैं लेकिन नाक का क्या भला उपयोग है, यह समझ में नहीं आ रहा । नाक तो संसार में ही नाक रखने के (प्रतिष्ठा-सुख के) उपयोग में आती है । कदाचित् नाक (प्रतिष्ठा) नाक (स्वर्ग) तक पहुँचा सकती है? (हंसी) श्रद्धा, रुचि और प्रतीति ज्ञान की पर्यायें हैं और क्रिया चारित्र की । सम्यक्त्व प्राप्त होने पर ज्ञान और चारित्र निर्मल हो जाते हैं । जो गुणों को निर्मल कर देता है, वही सम्यक्त्व का लक्षण समझ लीजिये । यहाँ शंका होती है तत्त्वों की श्रद्धा-प्रतीति और तत्त्वों में रुचि तो मिथ्यादृष्टि को भी हो जाती है और सम्यग्दृष्टि के भी | तो सम्यग्दृष्टि कैसे पहिचाना जाये? समाधान:—भूतार्थ से जाने गये ये जीवादि सात तत्त्व सम्यग्दर्शन के कारण हैं । तत्त्वों में प्रतीति-श्रद्धादि होने पर बोलते जाते हैं, बात समझ में आती जाती है मगर झक्काटा नहीं हो पाता । अत: श्रद्धादि को सम्यग्दर्शन के बाह्य लक्षण कहा है हां, यदि श्रद्धादि गुण स्वानुभूति के साथ उत्पन्न होते हैं तो सम्यग्दर्शन के लक्षण हैं । अन्यथा स्वानुभूति न होने पर श्रद्धादि ये श्रद्धाभास, रुच्याभास, प्रतीत्याभास हो जाते हैं । अत: स्वानुभूति के बिना तत्त्वों की श्रद्धा-रुचि और प्रतीति भी सम्यग्दर्शन नहीं हो सकते । यदि स्वानुभूति सहित तत्त्वों की श्रद्धा-प्रतीति-रुचि है तो श्रद्धादि गुण श्रद्धा-प्रतीति और रुचि ही रहते हैं । 909-सम्यक् श्रद्धा—जैसे भगवान् की भक्ति की, लेकिन भगवान में श्रद्धा नहीं है तो वह सम्यक्त्व नहीं है । अत: सम्यग्दर्शन की पहिचान स्वानुभूति से है । जिनको भगवान के गुणों पर विश्वास होता है, वे भगवान के गुणों पर गद्गद् हो जाते हैं जैसे लोक में कोई तुम्हारा मित्र तुम्हारे साथ प्रेम पूर्वक बातें करे, तुम्हारे पास बैठे और तुम्हारे शत्रु के पास भी प्रेम पूर्वक आचरण करे तो उसे पक्का मित्र नहीं कह सकते । जैसे श्रद्धा, प्रतीति आदि सम्यक्त्व के साथ भी रहती और मिथ्यात्व के साथ भी रहती तो श्रद्धा आदि को सम्यक्त्व का लक्षण कैसे कहा जावे? अत: दोनों जगह गुणों की समानता नहीं सम्यग्दृष्टि जीव के श्रद्धा आदि गुण सम्यग्दर्शनरूप हैं, और मिथ्यादृष्टि जीव के वही गुण आभासरूप हो जाते हैं । यहाँ पुन: शंका होती है—जब श्रद्धा लक्षण ज्ञान में घटित हो गया तो फिर वह मिथ्या और सम्यक् कैसे? समाधान:—श्रद्धा और स्वानुभूति की सम व्याप्ति है । स्वानुभूति के बिना श्रद्धा नहीं हो सकती । स्वानुभूति के बिना केवल शास्त्रों के श्रवण से जो श्रद्धा है वह स्वानुभूति नहीं है, वह श्रद्धा श्रद्धाभास कहलाती है । अत: जो श्रद्धा सम्यक्त्व के साथ है वह सम्यक् श्रद्धा है और जो मिथ्यात्व के साथ है वह मिथ्या श्रद्धा है । 910-मोह मेरा कोई नहीं है, मैं उपयोगमात्र हूँ—मोह, विपरीत अभिप्राय कर्मों के उदय से होता है । मोह मेरा स्वभाव नहीं है । राग-द्वेष आदि परिणाम मेरे में आकुलता उत्पन्न करने वाले हैं । मोह मेरा कुछ नहीं लगता, मैं उपयोग मात्र, चैतन्यरूप आत्मा हूँ ऐसा जो अनुभव करता है, उसे स्वानुभूति प्राप्त हो जाती है । वह मोह निर्ममत्व हो जाता है । मोह-निर्ममता सम्यग्दर्शन का परिणाम है । लोक में कहते हैं कि घड़े को कुम्हार ने बनाया, मिट्टी ने घड़े को नहीं बनाया अथवा मिट्टी ने घड़ा बनाया, कुम्हार का कोई प्रयोजन नहीं है । यद्यपि घड़ा मिट्टी की ही दशा है परंतु बनाने वाला कुम्हार उसके बनने में कारण है । इसी प्रकार मोह को कर्म हुआते हैं । मोह के हुआने वाले पुद्गल कर्म हैं । कर्म के द्वारा मोह रचा गया है । मोह मेरा नहीं मेरा तो टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव है । टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव:-अहा यह स्वभाव निश्चल है । स्वभाव बनाना नहीं पड़ता । स्वभाव अनादि से पूर्ण है । स्वभाव के इधर-उधर लगे हुए मोहादि को ज्ञान की टांकी से अलग करना पड़ता है तो वास्तविक स्वभाव परमात्मत्व अपने आप प्रकट हो जाता है । ज्ञायक स्वभाव बनाना नहीं पड़ता, वह तो शिला में स्थित निश्चल मूर्ति की तरह अनादि से है, जो कि ज्ञान टांकी से अपने आप प्रकट हो जाता है । वह निश्चल स्वभाव मोह के द्वारा हुवाया नहीं जाता, मोह के भावक कर्म हैं । यदि मोह स्वभाव का भावक बन जाये तो मोह मेरा कुछ लगे तो; लेकिन मोह मेरा कुछ लगता नहीं है और न वह स्वभाव का भावक ही है । किंतु जो कुछ यह है, यह सब आत्मा इस ज्ञान स्वभाव के द्वारा ही समझ में आता है । यह आत्मा ज्ञान मात्र है । यहाँ पर ‘एतत्’ शब्द से आत्मा को बताया गया है, क्योंकि यह आत्मा शुद्ध है । संस्कृत में प्रत्येक चीज जो अज्ञात है, नपुंसकलिंग से ही पूछी जाती है, चाहे वह पुर्ल्लिंग या स्त्रीलिंग क्यों न हो? प्रश्न का उत्तर किसी भी लिंग में दिया जा सकता है । जब हम आत्मा के बारे में मध्यस्थ भाव से सोचते हैं तो ‘एतत्’ शब्द बहुत ऊंचे भाव को लिये रहता है । स्वयं के द्वारा स्वयं का आत्मा समझा जा रहा है, मोह द्वारा वह समझ में नहीं आता है । मोह मेरा स्वभाव नहीं है । आत्मा ही जानने वाला है और वही ज्ञेय है । यह आत्मा ज्ञान द्वारा जान लेने में आता है । ज्ञानशक्ति के द्वारा चित्स्वभाव के द्वारा पारिणामिक स्वभाव आत्मा ही समझा जाता है । बड़े-बड़े अन्य यत्नों के द्वारा नहीं, अपितु उसी ध्रुव स्वभाव के द्वारा यह भगवान् आत्मा समझा जाता है । 911-मोह और ज्ञान के स्वरूप में स्वाद में भेद:—जो मैं एक हूँ वह किसी द्रव्य में नहीं पहुँचता । जब हम संयोग वाली दृष्टि से देखते हैं, ये द्रव्य एक-एक में प्रविष्ट हुये प्रतीत होते हैं । लोकाकाश का ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जहाँ छहों द्रव्य न हों । लोकाकाश के एक प्रदेश पर जाति की अपेक्षा से छहों द्रव्य पाये जाते हैं । इनका तो परस्पर में साधारण अवगाह है । इस मिली-जुली अवस्था में दही और शक्कर के मिश्रण के समान ये द्रव्य सब एकमेक हो रहे हैं, फिर भी दही में बूरा मिलाने पर भी जो स्वाद बनता है, उसमें स्वाद भेद है । इसी प्रकार ये द्रव्य एक दूसरे में अवस्थित हैं, फिर भी एक का स्वरूप दूसरे में नहीं पहुँचता है । इस उपयोग की भूमि में यह मोह-बीज उत्पन्न हो जाता है, लेकिन राग से स्वभाव भिन्न है आत्मा का स्वरूप चैतन्य है । मोह के स्वभाव में व्याकुलता है और आत्मा के स्वभाव में परमानंद । हे आत्मन् ! तुम चाहे मोह का स्वाद लो, चाहे स्वभाव का स्वाद लो, तुम प्रभु हो, समर्थ हो । आत्मारूपी टेबल पर मोह और स्वभाव दोनों चीजें रक्खी हैं—उठाकर चाहे किसी का स्वाद लो । मोह का स्वाद लेने वाला मिथ्यादृष्टि है, और स्वभाव का स्वाद लेने वाला सम्यग्दृष्टि है । मोह जुदा है और स्वभाव जुदा । मान लिया आम में रूप जुदा है, और रस जुदा है—ऐसा अनुभव में आता है । लेकिन वही पदार्थ रस वाला है वही रूप वाला । जैसे बाजार में आम का भाव ।) सेर है तो क्या रूप छोड़कर कोई रस को =) सेर दे देगा? अरे रूप तो रस से अलग हो ही नहीं सकता, फिर भी स्वरूप भेद तो है ही । 912-विभाव से विविक्त होने में विवेक का अभ्युदय:—आत्मा में मान लिया विभाव आ रहा है । उस समय यदि अनुभव करो कि विभाव का स्वभाव भिन्न है और स्वभाव का स्वभाव भिन्न है यह सब मोह को नाश करने का षड्यंत्र है, मोहियों के मिजाज के खिलाफ है । स्वभाव-विभाव के स्वाद भेद से मोह छूट सकेगा । हे आत्मन् ! तुम कृतकृत्य हो । तुम स्वभाव और विभाव में अंतर जान लो, बस जो कुछ होना होगी होगा । जैसे आदिनाथ भगवान् छह माह तक अपनी इच्छा से निराहार रहे और छह माह तक अंतराय होता गया । यदि भगवान् आहार करने के लिये उद्दंडता करते तो उनको आहार मिल जाता; क्योंकि उनके महान् पुण्य का उदय तो था ही । यदि भूख लगी है तो थोड़ी समता की बात सोच लो तो स्वभावत: भूख कम लगेगी । समता धारण करने से भूख का दुःख कम हो जाता है । ज्ञान में कोई ऐसा बल है, कि वह तत्काल के दुःख को भी कम कर देता है । सर्वदा आत्मा एकत्व में ही रत है । मोह मेरा नहीं है, पुत्र मेरा नहीं है—यहां इस बात की चर्चा नहीं की गई है; क्योंकि इसकी चर्चा करना निम्न कोटी की बात कहलायेगी । जैसे ज्ञानियों का दरबार लगा है । सबसे छोटा ज्ञानी द्वारपाल है । पुत्र मेरा नहीं है-यह कहना तो द्वारपाल की बात होगी । भीतर जाकर तो यह बात सुनाई पड़नी चाहिए कि यह आत्मा के परिणाम भी मेरे नहीं हैं । मोह मेरा नहीं है—यह बात समझ में आनी चाहिए । पुत्र मेरा नहीं है यह बात तो बाल गोपाल भी जानते हैं । यहाँ पर आचार्य कहते हैं कि राग द्वेष मोह परिणाम जो कि आत्मा में उत्पन्न होते हैं, वे भी मेरे नहीं हैं । इस प्रकार जो ज्ञानी भावना भाता है, वह मोह से निर्ममत्व हो जाता है—ऐसा समय के जानने वाले कहते हैं । जो जीव मोह और स्वभाव में भेद डालकर स्वभाव की ओर झुकता है, वह मोह-नाशक है । जो मोही स्वभाव की उपेक्षा करके विभाव की ओर झुकता है मिथ्यादृष्टि है । हे आत्मन् ! राग-द्वेष-मोह आदि विभावों का अभी तक बहुत सम्मान किया है; अब कारण परमात्मा ध्रुव परमात्मा की ओर झुक । इस चैतन्यमात्र मुझ आत्मा को कोई नहीं जानता है; यदि कोई जानता भी होगा, वह स्वयं अपने रूप बन जायेगा, इस चैतन्य आत्मा में दृष्टि नहीं गड़ायेगा । अत: इस संसार के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है । संसार कुछ भी करे, मेरे में विह्वलता नहीं आनी चाहिये । विह्वलता यही है कि यह आत्मा स्वभाव की ओर झुकता नहीं है । लोग प्राय: इसीलिये दुःखी होते हैं कि ये ऐसा क्यों करते हैं । मुझे इस वजह से खेद नहीं है कि तुम किस तरह चल रहे हो ये विभाव मेरे में खेद है दुनियां कैसे भी परिणमे, उस परिणमन में मेरी कोई हानि नहीं है । मेरे आत्मा में उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेष मोह परिणाम मेरे कुछ भी नहीं हैं, मैं उन्हें कुछ भी अनुभव नहीं करता हूँ । मैं अपने रस के भरे हुए रस को ही चेतन करता हूँ मैं उस चैतन्य भाव को अपने में ही चेतन करता हूँ । मोह मेरा कुछ भी नहीं है मोह तो औदयिक भाव है । मैं मोह का कुछ भी नहीं हूँ—सम्यग्दृष्टि अपने में ऐसी भावना बनाता है । जिस सम्यक्त्व होने पर सम्यग्दृष्टि अपने में ऐसी भावना बनता है, उसका लक्षण प्रतीति आदि नहीं है । प्रतीति रुच्यादि बाह्य लक्षण हैं । स्वानुभूति को अंतरंग लक्षण कहा जा सकता है । स्वात्मानुभूति की तरह श्रद्धा आदि भी रूढ़ि में लक्षण बन जाते हैं। 913- सम्यग्दृष्टि के शांति, धर्मरूचि, कृपा व आस्तिकता:—सम्यग्दृष्टि जीव के प्रशमादि गुण भी प्रसिद्ध हैं—ये सम्यग्दृष्टि के बाह्य लक्षण कहे हैं, क्योंकि प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य—ये मिथ्यादृष्टि के भी पाये जाते हैं । फिर भी सूक्ष्म भेद से वे भिन्न हैं, सम्यग्दृष्टि के वे यथार्थ हैं, मिथ्यादृष्टि के वे आभास हैं । प्रशमगुण किसे कहते हैं—पंचेंद्रियों के विषयों में मन की शिथिलता का होना, विषयों से मन को हटाना—इसको प्रशमगुण कहते हैं । प्रशमगुण में सब ओर से मन शिथिल हो जाता है, क्या खायें, क्या पियें किसे भोगें—आदि की भी इच्छा नहीं होती है । प्रशमगुण के प्रगट होने पर अनगिनती कषायों से मन शिथिल हो जाता है । कषाय किसके लिये? क्यों करना? आत्मा स्वतंत्र है, एकाकी है, कषायादि सब असमानजातीय द्रव्य पर्याय हैं । ये हमारे ताऊ लगते हैं, ये वे हैं, ये फलाने है—इस तरह नाम ले दिये तो इनसे क्या मिल गया? जड़ से कषाय करके क्या उपयोग का जीवन निभ जायेगा? क्या आत्मीय जीवन को ये धन-संपत्तियाँ पूरा कर देगी? जब ये भाई बंधु धन संपत्तियाँ आत्मधर्म में सहायक नहीं हो सकते तो किसके लिये कषाय की जाये? यह चेतन समागम दुःख से निकालकर क्या सुख में पहुंचा देगा? सम्यग्दृष्टि का मन कषायों में शिथिल हो जाता है, लगना नहीं चाहता । धर्म के काम हठ या तत्परता-आसक्ति से करना—यह भी कषाय है । प्रशम कषायों की शांति का गुण है—यह गुण सम्यग्दृष्टि जीव का बाह्य लक्षण है । 914-प्रशमभाव हैं:—किसी ने अपराध किया, उस पर उसके दुःख के लिये बुद्धि का न होना—इसको प्रशमगुण कहते हैं । किसी ने कितना भी बुरा किया हो, सम्यग्दृष्टि उसका बुरा नहीं विचारता है । ‘सुख-दु:ख दाता कोई न आन, मोह राग रुष दु:ख की खान’ सम्यग्दृष्टि यह जानता है । उसके अपराधी के घात का कोई विचार नहीं होता है इसे प्रशमगुण कहते हैं । यह प्रशमगुण क्यों होता है? सम्यग्दृष्टि जीव के अनंतानुबंधी कषायें नहीं रही, अत: ये आत्मा बुरा विचारने वाले जीव के प्रति बुरा विचार नहीं करता है । कितनी ऊंची साधना है सम्यग्दृष्टि जीव की, तलवार भी लग जाये तब भी कषाय नहीं करता है यह सम्यग्दृष्टि की पहिचान है किसी के तलवार भी लगा दे फिर भी घात, दुःख नहीं विचारता । सम्यग्दृष्टि जीव के अनंतानंत कषायों का उदयाभाव रहता है, शेष कषायों का आंशिक उदय रह गया, अत: सम्यग्दृष्टि के प्रशमगुण पैदा होता है । ‘धर्मी सौं गौ वच्छ प्रीति सम कर जिन धर्म दिपावै ।’ जिनके प्रशमगुण हो जाता है उनका मन अपने कल्याण की ओर प्रवृत्त रहता है । सम्यग्दृष्टि जीव को सत्संग में प्रसन्नता होती है जहाँ रागादि हों वहाँ सम्यग्दृष्टि को आकुलता होती है । यदि दैवयोग से सम्यग्दृष्टि के आरंभादि क्रिया भी होती है, मनवचनकाय की चेष्टा भी सम्यग्दृष्टि जीव के होती है, तब भी उसके अनंतानुबंधी नहीं रही अत: वह क्रिया और चेष्टा चारित्रगुण में अंतरंग की शुद्धि को खराब नहीं कर सकती है । प्रारंभ से जिन बातों में यह जीव रहा उनका मिटना देर में होता है फिर भी ज्ञान होने पर अंतरंग में अनाकुलता ही रहती है । जैसे रस्सी में सर्प का अनुभव किया तो भय उत्पन्न होता है । थोड़ी देर बाद उसको अच्छी तरह देखने से रस्सी में रस्सी का ज्ञान होने पर अंतरंग में स्वस्थता आ जाती है । परंतु उस रस्सी को सांप समझकर जो घबराहट हुई थी जिससे दिल धड़कना हुआ व थकावट हुई । वह अब भी बनी हुई है । रस्सी में रस्सी का ज्ञान होते ही शांति हो गई उस घबराहट में जो कि रस्सी को सांप जानने में उत्पन्न हुई थी, उसकी शारीरिक शांति कुछ समय बाद ही होगी । लेकिन वह भ्रम के बड़े दुःख से तो बच गया । अब उसे आकुलता नहीं है । भ्रम खत्म होने से भीतरी महादुख खत्म हो गया । इसी प्रकार जीव को पर पदार्थ के मोह के कारण बड़ा भारी दुःख आ गया था । जरा विवेक किया, आचार्यों की भक्ति की याने आचार्यों की बात मानी, तो समझ में आ गया कि पर द्रव्य पर ही हैं । मैं अपने से चतुष्टय से हूँ, पर पदार्थ स्वयं के स्व चतुष्टय से है । मैं पर पदार्थों से बिल्कुल भिन्न हूँ, पर पदार्थ मेरे से भिन्न हैं । इस प्रकार का ज्ञान होते ही जीव के समस्त दुःख दूर हो जाते हैं, उसे दुनियां में कोई भी कार्य करना शेष नहीं रहता है । जैसे मकान बनाते हैं । मकान तो अपने से बनता ही नहीं हम तो मकान बनाने के भावमात्र कर सकते हैं । हम दुनिया का कोई कार्य नहीं कर सकते, हमें दुनियां में कोई काम करना शेष नहीं रहा है । सम्यग्दृष्टि की अंतरंग शुद्धि का कभी नाश नहीं होता है । बाह्यशुद्धि के नाश होने पर यह प्रशमगुण प्रकाशमान रहता है । मिथ्यादृष्टि को कभी शाँति नहीं मिलती है । जिसे वह शांति मानता है, वह शांत्याभास है । उसका प्रशमगुण प्रशमाभास है । अज्ञानियों का भरोसा नहीं भैया! जैसे सींग वाले सांड का विश्वास नहीं है, उससे सात हाथ दूर से चलना पड़ता है, अन्यथा उसके सींग मारने का डर रहता है, उसी प्रकार इस मिथ्यादृष्टि का भी कोई विश्वास नहीं है, उससे बच करके चलना चाहिए । अभी तो भगवान की भक्ति में लीन हो, अभी आकर लड़ने लगे तो बड़ी मुश्किल हो जावे । उसके प्रशमगुण उत्पन्न नहीं होता है । जो वह प्रशम बनाये रखने के लक्षण पूजादि करता है वे भी प्रशम नहीं है, प्रशमाभास है । क्योंकि पूजा करते समय तो उसका प्रशम है, अभी तेजी भी आ सकती है । सम्यग्दृष्टि चाहे कहीं भी हो, सभी जगह उसका विश्वास है कि इस जीव के शांत परिणाम सर्वत्र रहेंगे । अत: उसका गुण प्रशम है । मिथ्यादृष्टि के साथ प्रशमगुण प्रशमाभास हो जाता है, और सम्यग्दृष्टि के साथ प्रशमगुण प्रशम ही रहता है । कभी-कभी तो सम्यग्दृष्टि भी खतरे में पड़ जाते द्वीपायन मुनि सम्यग्दृष्टि थे । वे ध्यान में अवस्थित थे । उनको नागरिकों ने पत्थर मारे । कर्मविपाकवश उन्हें यह देख असह्य क्रोध आया । फलत: उनके वामस्कंध से तैजस पुतला निकला, और पूरी द्वारिका को जला डाला । उधर द्वीपायन मुनि का सम्यक्त्व जाता रहा व खुद भी भस्म हो गये । देखो ऐसे खतरे में सम्यग्दर्शन नहीं रहता । यह सम्यग्दृष्टि जीव अपने को चारों ओर से चैतन्यमात्र अनुभव करता है । मैं अमूर्त चेतन हूँ । कब वह समय आवे कि मेरे स्थैर्य की परीक्षा के हेतु मेरे पर चारों ओर से गालियों की बौछारें पड़ें और मेरे उस समय भी प्रशम गुण ही रहे । जैसे नाई का लड़का बाल बनाना सीखने के लिये दशों व्यक्तियों को तलाश-तलाश कर बाल बनाता है । यदि अपने को शिक्षा देने वाले गाली-गलौज देने वाले मिले तो लाभ ही समझो सम्यग्दृष्टि जीव अपने सम्यक्त्व की परीक्षा करने के लिये गाली देने वालों की आवश्यकता महसूस करता है । किसी को यदि अनायास ही गाली देनेवाला मिल जाता है, तो वह अपना सौभाग्य समझता है, उनका आभार मानता है और अपने प्रशमगुण को बढ़ाता है । 915-संवेग भाव—एक गुण सम्यग्दृष्टि में होता है संवेग । धर्म में और धर्म के फल में अपूर्व उत्साह जगाना संवेग गुण है । जैसे अपने घर के काम में अपना काम समझने के कारण विशेष चित्त लगता है, इसी तरह सम्यग्दृष्टि धर्म को ही इष्ट कल्याणकारी जानकर उसके फल में अनुराग करता है । धर्म के अनुराग को ही संवेग गुण कहते हैं । पंच परमेष्ठी में, धार्मिक कार्यों में पुण्य कार्यों में अनुराग रखना संवेग है । सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल स्वरूप है । शुद्ध आत्मा का अनुभव करना धर्म कहलाता है । मैं त्यागी हूँ अत: मैं व्रती हूँ, अत: मुझे शुद्ध खाने को मिलना चाहिये आदि संबंध भाव, सो धर्म नहीं है और यह अशुद्ध अनुभव है । भगवन् ! अब मैं इंद्र बना हुआ हूँ, आपका अभिषेक करूंगा, पूजा करूंगा, मंत्र बोलूंगा—यह भी अशुद्ध का अनुभव है । मैं जीवों की रक्षा करता हूँ—यह भी अशुद्ध का अनुभव है । आज चतुर्दशी है, अत: मुझे उपवास करना चाहिए, मुझे तपस्या करनी चाहिए । यह सब अशुद्ध का अनुभव है । पर द्रव्य के विचार जितने भी हैं, सब अशुद्ध का अनुभव है । शुद्ध का अनुभव भी अशुद्ध अनुभव द्वारा ही बताया जायेगा । चैतन्यमात्र आत्मा का अनुभव शुद्ध अनुभव है । पर्यायमात्र का अनुभव अशुद्ध का अनुभव है । 105 डिग्री के बुखार की अपेक्षा 100 डिग्री के बुखार वाला स्वस्थ माना जाता है, परंतु क्या 100 डिग्री के बुखार वाला व्यक्ति स्वस्थ है? नहीं ! यदि यह अनुभव है कि मैं अमुक हूँ तो यह अशुद्ध का अनुभव है, किंतु अपेक्षावश किसी अशुद्ध अनुभव को भी शुद्ध अनुभव कहा जाता है । धर्म सीखने के लिये बच्चे बनों । जैसे बच्चा अपनी पोजीशन का विशेष ख्याल नहीं करता है । बच्चे धूल में खेलते, लोटते रहते हैं, परंतु उन्हें इसका बिल्कुल भी अनुभव नहीं होता है । जितने अंश में दृष्टांत हैं उतने अंश में लेना । नहीं तो बच्चा वैसे अपने से भी अज्ञानी है । अत: यह अनुभव करो कि यह ढाँचा मैं नहीं हूँ, मैं तो चैतन्यमात्र आत्मा हूँ । किसी भी पर्याय का अनुभव अशुद्ध अनुभव कहलाता है । शुद्ध का अनुभव धर्म है, अशुद्ध का अनुभव धर्म नहीं है तो इस धर्म का फल क्या मिलता है? सुख-आनंद जो कि अतींद्रिय है, अविनाशी है, स्वभाव कर्मों के क्षय से प्रकट होनेवाला है, स्वभाव का पूर्ण अनुभव उस धर्म का फल है । 916-आत्मगुणानुराग में संवेग:—आत्मा के गुणों में अनुराग होना संवेग है । रत्नत्रय में अनुराग होना, चैतन्य स्वरूप से अनुराग होना संवेग है, धर्म है । गुणों से गुणी भी पृथक नहीं है, अत: इन शरीरधारी धर्मात्माओं के गुणों में अनुराग करना भी धर्म ही है, क्योंकि ‘‘न धर्मो धार्मिकैर्विना।’’ अत: धर्म के अनुराग का नाम धर्म है और धर्म के फल में अनुराग होना भी धर्म ही है । धर्म का अनुराग संवेग है । मिथ्यादृष्टि का संवेग गुण संवेगाभास है और सम्यग्दृष्टि का संवेग संवेग है । अनुराग का अर्थ इच्छा नहीं है । संसार से डरना और संसार से निवृत्ति हो जाना भी संवेग है । अधर्म से निवृत्त होने को अनुराग कहते हैं । और अधर्म के फल से निवृत्त होने का नाम भी अनुराग ही है । धर्म के अनुराग को संवेग कहते हैं । छठे गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त है । अत: मुनियों की नींद ऐसी होती है कि तुम प्राय: पहिचान नहीं कर सकते कि ये सो रहे हैं या जाग रहे हैं? शरीर धर्म के कारण मुनियों की आँख गिरती अवश्य है, परंतु धर्म अनुराग के कारण उन्हें अंतर्मुहूर्त से अधिक नींद आती हो नहीं है । उन्हें संसार से छूटने की फिक्र लगी रहती है उनका धर्म से अनुराग और संसार से वैराग्य इतना पक्का है कि वे आसक्ति से सोते नहीं हैं । अगर इन को देर तक नींद आ जायें तो उनका मुनित्व गया । दर्शन के साथ चारित्र की बड़ी महिमा है । संसार से डरने का नाम भी संवेग है । आत्मधर्म में आना भी अनुराग है । इस तरह सम्यग्दृष्टि की अभिलाषा भोगो में ही निषिद्ध है, इतना ही मत समझना । परंतु उसे तो मोक्ष की इच्छा भी नहीं होती है । उसका मोक्ष प्राप्त करने का और शुद्धात्म होने के लिये यत्न रहता है । निर्विकल्प ध्यान में इच्छा नहीं होती है, परंतु यत्न अपने आप ही हो जाता है । उसकी परिणति ऐसी है कि वह धर्म कार्यों में लगा रहता है । सम्यग्दृष्टि धर्म की भी इच्छा नहीं करता है, परंतु धर्म के लिये यत्न स्वयमेव हो जाता है । इसी कारण सम्यग्दृष्टि जीव के स्व की अनुकंपा होती है और सत्य हित से अनुविधस्त करने वाली पर की अनुकंपा होती है । इस अनुकंपा का कारण आत्मस्वभाव की यथार्थ पहिचान हो जाना है । इसी कारण अंतरात्मा के आस्तिक्य भाव भी सुदृढ़ रहता है । मैं चैतन्य स्वरूप हूँ, पर पदार्थों से अत्यंत विभक्त हूँ, उपाधि से अत्यंत विविक्त हूँ । औपाधिकभाव मेरे स्वभाव नहीं हैं इत्यादि वस्तु स्वरूप की प्रतीति अडिग रहती है । 917-स्व-पर का पार्थक्य:—आचार्य 36 वीं गाथा में कह रहे हैं कि मोह मेरा कुछ नहीं है मैं तो उपयोगमात्र हूँ । जैसे 36 में 3 और 6 इन दोनों अंकों का मुंह अलग-अलग है इसी प्रकार इस गाथा में बताया गया है कि मोह और ज्ञान का स्वरूप अलग-अलग है । जैसे 3 और 6 एक दूसरे को पीठ बता रहे हैं ऐसे ही मोह और ज्ञान एक दूसरे को पीठ बता रहे हैं । मोह के राज्य में ज्ञान का तिरस्कार रहा तो अब ज्ञान के राज्य में मोह की मिट्टी पलीत हो रही है । जैसे सम्यग्दृष्टि ने मोह के निषेध में यह भाव किया इसी प्रकार अन्य भाव के संबंध में भी लगा लेना चाहिये कि राग द्वेष मेरा कुछ नहीं है । राग आत्मा के चारित्र गुण का विकार है । जैसे यह अंगुली है । एक मुक्का लगाने से टेढ़ी हो गई । टेढ़ी होना यह अंगुली की ही पर्याय है, मुक्के की टेढ़ी होना पर्याय नहीं है । हां अंगुली टेढ़ी होने में मुक्का निमित्त है । इसी प्रकार राग आत्मा के चारित्र गुण की परिणति है । रागादि के उत्पन्न होने में पुद्गल कर्म तो निमित्तमात्र हैं । मैं उपयोगमात्र हूँ राग मेरा नहीं है । राग आत्मा के निमित्त से नहीं होता है । जैसे एक सिनेमा के पर्दे पर रील के फोटो का आकार आ जाता है । वे आकार रील की परिणति नहीं है—पर्दा की ही परिणति है फिर भी पर्दा के स्वभाव से नहीं । रील तो उन आकार के आने में निमित्त है । यदि पर्दा के अंदर फोटो आते तो बिना रील के भी आ जाने चाहिये । इसी प्रकार आत्मा के भीतर रागादि विभाव नहीं होते । यदि रागादि विभाव आत्मा का स्वभाव होता तो सबके बराबर-बराबर राग रहना चाहिये । कर्म के बिना राग नहीं होता है, अत: राग आत्मा का स्वभाव नहीं हैं । जो आत्मा का स्वभाव नहीं होता है, वह मेरा नहीं है । स्वभाव की दृष्टि करने पर राग-द्वेष मेरे नहीं है । मैं राग नहीं हूँ, मैं तो उपयोगमात्र, चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ । द्वेष क्या है? द्वेष भी तो आत्मा के लिये अहितरूप है । इसने सदा आत्मा के साथ रहकर धोखा किया बुरा किया । द्वेष कल्पना है । वास्तव में वह कल्पना अशुद्धोपयोग है । मैं अशुद्धोपयोग नहीं हूँ । जिसके निमित्त से कर्म उत्पन्न हुए वह भी मेरा नहीं है । गुस्सा पुद्गल के निमित्त से होता है, अत: गुस्सा करना मेरा स्वभाव नहीं है । मान करना, मायाचारी करना, लोभ करना—ये चारों कषाय भी मेरा स्वभाव नहीं । लेकिन इस अमूर्त आत्मा ने कषाय करना ही अपना रोजगार समझ रक्खा है उसने यही अपना काम समझा है । परंतु है वह ज्ञानमात्र, उसमें रूप नहीं हैं । लेकिन आत्मा की परिणतियां मेरा नहीं है । यदि कोई गृहस्थ ज्ञानी कहे कि यह शरीर मेरा नहीं है, तो उसका कोई हाथ मरोड़ दे और कहे कि कहो कि शरीर मेरा है । हाथ मरोड़ने के दु:ख के कारण वह बाह्य मन से कह देगा, हाँ भाई शरीर मेरा ही है । परंतु उसके अंतरंग में यही है कि शरीर मेरा नहीं है । वह भीतरी मन से नहीं कहेगा कि शरीर मेरा है । शरीर बिना आत्मा है—जिसे यह पता न हो, उसका कल्याण नहीं हो सकता है । 918-आत्मा की ओर विशेष ध्यान लगाओ:—पर घर की बात न सोचो तभी तो आत्मानुभव हो सकता है । जैसे किसी को भाषण देना सीखना है, उसको 8-10 साल पहले से सीखना पड़ता है । थोड़े से लाभ के लिये कितना परिश्रम करना पड़ता है? उसी प्रकार यह अनुभव कि शरीर बिना भी आत्मा रह सकता है—मोह छूटने से हो सकता है एतदर्थ भावनात्मक पुरुषार्थ करो । यह शरीर भी मेरा नहीं है, ये पौद्गलिक कर्म भी मेरे नहीं हैं, यह मन भी मेरा नहीं है, यह बार-बार उठने वाली कल्पना भी मेरी नहीं है । मैं तो उपयोगमात्र हूँ, चैतन्य मेरा स्वभाव है । अपनी बात पर न अड़ना (हठ न करना) निर्मलता बिना नहीं हो सकता है । अत: निर्मल परिणामों को बनाने के लिए किसी बात की अटक (हठ) नहीं होनी चाहिये, वही तो बड़प्पन है । जिसकी बात की अड़ भी नहीं मिटी तो उसने क्या धर्म किया । भले ही तुमने धर्म खूब किया हो लेकिन अवसर पर (परीक्षा में) नंबर तो शून्य ही आया । आज ऐसा ही होना चाहिए, मैं तो लड्डू ही खाऊंगा—यह अड़ कहलाती है । अब इसके लिये करो संक्लेश नाना और दुःखी करो औरों को झड़प झड़पकर । बात की जड़ जब तक नहीं गई, तो धर्म क्या हुआ? मन की अड़, वचन की जड़, काय की अड़—ये सब निरर्थक हठ है । ये हठें सभी खराब हैं । अड़ मिथ्या भाव है । इतना सरल रहना चाहिये कि उन भावों को बदल देवे । बाजे-बाजे व्यक्ति तो मंदिर में भगवान की साक्षी में शपथ लेते हैं कि भगवन्! आज से हम अमुक चंद्र से नहीं बोलेंगे । ये मिथ्यात्वभाव नहीं तो और क्या है? इन प्रतिज्ञाओं को जल्दी से तोड़ देना चाहिए । भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि नाथ! अज्ञानावस्था में मैंने ऐसा कह दिया था, अत: मैं अपने वचन वापिस लेता हूँ । 919-ज्ञानी का उपेक्षास्वभाव:—मन-वचन-काय इंद्रियां और इंद्रियों के विषय इंद्रियों का विचार—ये सब मेरे नहीं हैं धन मकान का तो कहना ही क्या ये तो मेरे कभी हो ही नहीं सकते । इस प्रकार आत्मा के जितने भी विभाव हैं सबके प्रति सोचें । इस तरह सोचने से यह जीव इच्छा मात्र की इच्छा ही नहीं करेगा । इच्छा न करने से वैराग्य उत्पन्न होता है । मोक्ष की चाह करने पर मोक्ष का भी रास्ता बंद रहता है । सम्यग्दृष्टि जीव मोक्ष के मार्ग पर चलता है, परंतु रटन (इच्छा) नहीं करता है । उसका सहज वैराग्य है, प्रयत्न करता है परंतु चाह नहीं रखता है । ‘‘बिन माँगे मोती मिलै, मांगे मिलै न भीख’’ इत्यनुसारेण क्या चाहने से मोक्ष मिल जायेगा? रोटी खाना जिनका प्रतिदिन का काम है तो क्या वह प्रत्येक ग्रास लेते समय इच्छा करता है कि अब मैं टुकड़ा तोड़ता हूँ, दाल साग लगाता हूँ, अब मुंह में देता हूँ, अभी मुंह में नहीं देता—ये कार्य तो बिना इच्छा किये अनायास ही हो जाते हैं ये कार्य तो रोज आना के हैं । इसी तरह सम्यग्दृष्टि भी मोक्ष की इच्छा नहीं करता है, मोक्ष के मार्ग पर चलने का उसका प्रतिदिन का प्रयास है । वह प्रयास करता जाता है, कामनायें नहीं बनाता, न इच्छा ही करता है । यह संसार गोरखधंधा है, जरा जान लिया कि इससे इस तरह निकला जाता है, बस, जरा आत्मा पर दृष्टि दी और संसार से निकल गये । किसी जीव में तो अभिलाषा न होने पर, कारण के न मिलने पर भी इष्ट की सिद्धि नहीं होती है । किन्हीं जीवों के चाह नहीं है और कारण मिलने पर इष्ट की सिद्धि हो जाती है । अत: चाह क्यों की जाये? यत्न करना श्रेष्ठ है, चाह न करो । चाह से किसी चीज की प्राप्ति नहीं होती है । सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी सुख की इच्छा नहीं करता है । यहाँ तक कि मोक्ष की भी उसे चाह नहीं है । सारा जगत् यश की इच्छा करता है, संपत्ति की चाह करता है । परंतु पुण्योदय न हो तो सर्व पदार्थों की इच्छा करते रहने पर भी इष्ट की सिद्धी नहीं होती है । बुढ़ापा, मृत्यु, बीमारी, गरीबी, दुःख, वियोग, अनिष्ट संयोग को कोई नहीं चाहता है, परंतु पापोदय के कारण बिना चाहे भी ये व्याधियाँ अपने आप प्राप्त हो जाती हैं । अत: चाहने से प्राप्ति और न चाहे से अप्राप्ति कैसे हो सकती है । 920-सम्यग्दृष्टि का संवेग गुण:—धर्म से अनुराग करना और धर्म के फल में अनुराग करना संवेग गुण है । अशुभ से निवृत्ति का नाम भी संवेग है । अशुभ से निवृत्ति होने पर वास्तविक स्वभाव का विकास होता है, और अशुभ कार्यों में निवृत्ति (अनिच्छा) होती है । संवेग कहो या निर्वेद कहो एक ही बात है । संवेग=धर्म से अनुराग का द्योतक है; और निर्वेद=विषयभोगों की अनिच्छा को बतलाता है । अर्थात् समस्त अभिलाषाओं के त्याग को निर्वेद कहते हैं । इस संसार में अपन सब ये जन्मते-मरते रहते हैं, अत: किसकी चाह करें? समस्त अभिलाषाओं का त्याग और धर्म से अनुराग एक ही बात है । जिसकी मोक्ष में इच्छा नहीं है और उसका मोक्षमार्ग में प्रयत्न जारी है, वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । नीले कपड़े में जैसे केशर का रंग नहीं चढ़ता, उसी प्रकार इच्छा से मलिन आत्मा में धर्म का अनुराग नहीं चढ़ सकता है । अपनी जिंदगी में कोई एक बड़ा उत्सव करा दिया और 364 दिन कुछ नहीं किया तो कुछ नहीं किया । एक गरीब आदमी आधा पेट रोटी खाकर धर्म करता है वह धर्मलाभ ले लेता है । धर्म का माप धन से नहीं होता, धर्म का माप ज्ञान से होता है । जो ज्ञान के मार्ग में आकर धर्म सेवन करता है वही धर्म का फल भोगता है । धन का धर्म तो ‘‘आज नकद कल उधार है ।’’ अर्थात् आज धन खर्च करके धर्म करो, जाओ उसका फल उधार है कल मिलेगा । और ज्ञान के धर्म को आज करो तो तुरंत ही फल मिलेगा, उधार का काम नहीं है । एक गरीब कोई स्वरूप ज्ञान कर रहा है, भगवान् पर दृष्टि पड़ते ही फल पा लेता है । अत: धर्म का फल ज्ञान से ही मिलता है । ज्ञानी जीव धर्म में ही खर्च करता है और यश लोलुपी धर्म में भी खर्च करे तब भी उसके फल को नहीं प्राप्त कर सकता है । भावना का हेर-फेर है । मिथ्यादृष्टि के धर्म करते समय भी रागादि परिणाम रहते हैं । अत: उसका क्रियारूप धर्म भी अधर्म ही है । विभाव के परिणमन को अपनाना ही अधर्म है । विभाव परिणामों की पकड़ रहते तुम्हारा पूजा-पाठ करना सब व्यर्थ है । बहुत से लोग नाच-नाच के पूजा करते हैं, वे बाजे बजा-बजाकर पूजा क्यों न करने लगें यदि रागादि युक्त परिणाम हैं, वह धर्म के फल को नहीं पा सकता है । 921-संवेगभाव—संवेग भावना जिसको उत्पन्न हो जाती है उसके किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं होती है । मिथ्यादृष्टि के राग परिणाम एक क्षण को भी नहीं छूटते हैं । सम्यग्दृष्टि सदा वीतराग रहता है । सम्यक्त्व को धारण करने वाले जीव के किसी से राग-द्वेष नहीं होता है । यह प्रतिज्ञा करता है कि इन भोजनादिकों से भी किस दिन मेरा राग छूट जावे और मुझे भोजन न करना पड़े। धर्म के अनुराग के लिये सदा सादा भोजन करो । धर्म के मार्ग में अपने को तथा दूसरे को उत्साहित करना चाहिये । सम्यग्दृष्टि जीव भोजन को बड़ा कष्टकर समझकर भोजन करता है । वह खुशी पूर्वक भोजन भी नहीं करता है—रसगुल्ले, जलेबी आदि तो उसे भायेंगे कैसे? सात्विक भोजन में ही वह आसक्ति नहीं करता है। सम्यग्दृष्टि जीव की ऐसी दृष्टि स्वभावत: बन जाती है । सम्यग्दृष्टि जीव कभी राग परिणत नहीं होता है । राग-द्वेष मोह मेरा नहीं है, जिनके यह प्रतीति है, उनमें संवेग भावना उत्पन्न होती है । देखो अकलंक और निष्कलंक ने धर्म के नाम पर कितना अपूर्व बलिदान किया था । निष्कलंक ने धर्म के लिये अपने प्राणों की बाजी लगा दी और अकलंक ने भी उसके वियोग की कितनी बड़ी विपत्ति सही । जिनके व्यवहार में इतना बल है उनके अंतरंग मोक्ष मार्ग में भी बल संभव है । ज्ञान की बात के बिना धर्म तिल रत्ती भी नहीं है । ज्ञान का सर्वत्र प्रचार हो यही धर्मप्रभावना है । सम्यग्दृष्टि सदा ही वीतराग होता है । अब सम्यग्दृष्टि की दया का वर्णन करेंगे । जिस सम्यक्त्व के होने पर प्रशम संवेग अनुकंपा और आस्तिक्य ये चार गुण प्रकट होते हैं उस सम्यक्त्व परिणति में जीव का निर्ममत्व भाव होता है । उसमें से अनुकंपा गुण का वर्णन करते हैं:— 922-अनुकंपा—जिसमें निज का हित हो उसके अनुसार क्रिया के यत्न को निज की अनुकंपा कहते हैं और जिससे पर का हित हो उसके अनुसार क्रिया के यत्न को पर की अनुकंपा कहते हैं । अनुकंपा माने दया भाव । अपने में जो मैत्री या मध्यस्थभाव या शल्य रहितता होती है उसे अनुकंपा कहते हैं इन चारों गुणों में अन्य प्रकरणों का संबंध मिलाया जाये तो:—प्रशमभाव होने पर मैत्री प्रकट होती है । संवेग गुण होने पर प्रमोद होता है, अनुकंपा होने पर कारुण्य होता है, आस्तिक्य हो तो माध्यस्थभाव रहता है । जैसा वस्तु का स्वरूप है वैसी प्रतीति हो तो माध्यस्थभाव रहता है । इसी प्रकार इन चारों गुणों का संबंध कषायों से इस प्रकार जोड़ सकते हैं:—क्रोध कषाय कम होते ही प्रशमगुण पैदा होता है । मान कषाय के दूर होने पर संवेग भाव प्रकट होता है । माया (छल कपट) के खत्म होते पर दया उत्पन्न होती है । छली, कपटी व्यक्ति बहुत क्रूर होते हैं । घात करनेवाला छली ही होता है । छल कपट के दूर होने पर अनुकंपा उत्पन्न होती है । लोभ कषाय के नाश होने पर आस्तिक्य भाव उत्पन्न होता है । लोभ कषाय होने पर यथार्थ बात नहीं सूझ सकती है । मैत्री-प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ एवं क्रोध मान माया लोभ से इन चारों गुणों का विध्यात्मक व प्रतिषेधात्मक संबंध है । अनुग्रह बुद्धि होने को अनुकंपा कहते हैं । वह हृदय धन्य है जो किसी का बुरा न सोचे, ऐसे परिणामों को मैत्रीभाव कहते हैं । दूसरे का बुरा सोचने से अधिक पतित अवस्था हो सकती है । चाहे लड़ लो किंतु किसी का बुरा तो न विचारों । जैसे न्याय के लिये राम ने रावण से युद्ध किया था, लेकिन रावण का उसने बुरा नहीं सोचा था । वे तो चाहते थे कि रावण सीता को लौटा दे, चाहे लड़कर, चाहे शांति से । हठी होने के कारण रावण मारा गया । स्वयंभूरमण समुद्र में जो महामच्छ होता है, वह तो छट्ठे नरक में जाता है लेकिन उसके कान में होनेवाला तुमुल मच्छ सातवें नरक में जाता है; क्योंकि वह कान में बैठा-बैठा सोचता है कि यदि मैं इतना बड़ा (महामच्छ जितना) होता तो सारे जीवों को एक साथ पेट में रख लेता, इस प्रकार उसकी तीव्र कषाय होने से बड़े भारी कर्म का बंध होता है । इतनी बड़ी अवगाहना सुनकर विस्मय नहीं करना यह बात इसलिये सत्य है कि असंख्यात द्वीप-समुद्रों का जितना परिमाण होता है उससे भी कई अधिक परिमाण वाले स्वयंभूरमण समुद्र में यह महामत्स्य होता है । यह माता पिता के गर्भ से पैदा नहीं होता है, सम्मूर्च्छन जन्म से पैदा होता है । दूसरे का बुरा विचारना बड़ा अनर्थकारी है । कोई अपना अहित भी सोचता है अपने पर उपद्रव भी करता हो तब भी दूसरे का बुरा न विचारो । सर्व प्राणियों को सुख शांति मिले, ऐसी चेष्टोन्मुख बुद्धि का होना अनुकंपा भाव है । यह बुद्धि सम्यग्दृष्टि जीव के होती है । क्योंकि:— 923-आत्मदया की दृष्टि—उस अनुग्रह के होने में दर्शनमोहनीय का अनुदय हेतु है । व्यामोह न हो तो दया होती है । दर्शनमोहजन्य मिथ्या मोह के बिना शत्रुता नहीं होती है । जब तक मिथ्यात्वकर्म रहता है, तब तक ही यह विभाव बनता । जिसने स्वरूप का बोध कर लिया और जिसको ज्ञान हो गया है, उसको दया उत्पन्न होगी कि इसका (मोही का) अज्ञान नष्ट हो जाये । जो सर्वसंपन्न व्यक्ति हैं, उनको गरीबों के प्रति ऐसी दया उत्पन्न होती है कि इसके पास कपड़ा नहीं है, इसे कपड़ा दे दो; यह भूखा है, इसे भोजन करा दिया जाये आदि । कोई व्यक्ति जैसे मर रहा है अर्थात् अधिक बीमार है । उसके पास खड़े हुए भिन्न-भिन्न वर्ग के व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न प्रकार की दया उत्पन्न होती है । आत्मबुद्धि वालों को उसकी आत्मा पर दया आती है वह यही चाहेगा कि किसी तरह से इसकी आत्मा का कल्याण हो जाये स्व-पर स्वरूप का यथार्थ बोध हो जावे । पर्यायबुद्धि रखने वाला उसके शरीर पर दया करेगा । उनमें उसके कल्याण की चाह करने वाला श्रेष्ठ है । यदि तुम मरने वाले व्यक्ति में मोह उत्पन्न करोगे तो वह कुछ तो यहीं मर रहा, कुछ उसका परभव भी बिगड़ जायेगा । परिवार के व्यक्तियों ने अभी तक अपना क्या किया? सिवाय मोह उत्पन्न करने के । जिससे विवाद भाव पैदा न हो, निर्मल भाव बढ़े, ऐसा सत्संग किसी को नहीं रुचता । अरे, सबसे पहले अपनी आत्मा पर दया करनी चाहिये । भैया ! गांवों में प्राय: बूढ़ों पर सब कोई विश्वास करता है । एक साग बेचने वाला गांव में आ गया । सभी वहाँ पर साग खरीदने के लिये पहुँचे वहाँ पर एक बूढ़ा भी पहुँचा । सभी ने उससे कहा कि हमारा भी साग खरीद दो, हमारा भी खरीद दो । बूढ़े ने एक-एक करके सबकी साग खरीद दी । सबके साग ले लेने पर साग वाले के पास नीचे की खराब साग बची, तो बूढ़े ने अपनी भी साग खरीदी । घर पर बूढ़े राम साग लेकर पहुंचे, चारों ओर से गालियों की बौछारें आने लगी कि इतनी रही साग क्यों लाये, इसे कौन खायेगा, तुम्हारे पर साग भी देखकर नहीं लानी आती-आदि आदि । बतावो भैया ! उसे क्या करना था? अपनी साग लेने के बाद सबको साग लिवाता । पहले अपने पै दया करो । वास्तव में तो जो कोई दया कर पाता है, वह अपनी ही कर पाता है, कोई दूसरा अपने से दूसरे पर दया कर ही नहीं सकता । जिसके मिथ्याज्ञान होता है, वह सशल्य है । दूसरे को मारने की इच्छा करता हुआ भी खुद को ही मारता है । कर्म किसी की लिहाज नहीं करते, अपराध किया और कर्म बंधे । सर्व प्राणियों के प्रति समता भाव का होना, यह तो दूसरों के प्रति दया है; शल्य का त्याग कर देना, अपनी दया है । अपनी शल्य को मेटने के लिये दूसरे से कहा जाता है कि हमारे से गलती हो गई अपने मन में शल्य न रखना । यदि तुम्हारे मन में यह अनुभव हो जाये कि उसकी शल्य मिट गई है, चाहे मिटी भी न हो, तो भी तुम्हें सुख मिलेगा । और चाहे उसकी शल्य मिट गई हो लेकिन तुम सोच रहे कि इसकी शल्य अभी नहीं मिटी है, तो तुम्हारे मन में शल्य बनी रहेगी और दुःख होता रहेगा कि वह क्या सोचता होगा, हम से यह भूल हो गई । अत: दूसरे से अपराध की क्षमा माँगकर अपनी शल्य मिटाई जाती है अत: शल्य का मन से मिटने का नाम अपनी दया है । प्राणियों पर दयाभाव रखना पर दया है । अपने में रागादि भाव मत लाओ यह अपनी अनुकंपा है? दया दो प्रकार की होती है:—(1) स्वदया और (2) परदया । जीवों की अहिंसा ही दया है । अहिंसा ही परमात्मा है । वह परमात्मा वहाँ रहता है, जहाँ भाव-आरंभ और भाव-परिग्रह नहीं है । और जहाँ लेशमात्र भी भाव परिग्रह है, वहाँ अहिंसा नहीं है । हे भगवन् आपने अहिंसा की सिद्धि के लिये दोनों प्रकार के (बाह्य और अंतरंग) आरंभ और परिग्रह को छोड़ दिया है, अत: आप बड़े दयावान है । अत: रागादि परिणामों का न होना यथार्थ अनुकंपा है । 924-आस्तिक्य गुण—जो चीज जैसी है, उसे वैसी ही समझना, सो आस्तिक्य है । जो पदार्थ जैसा है, वैसा समझना आस्तिक्य है । जैसा मैं हूँ, वैसा विश्वास होना आस्तिक्य है । अन्य लोग कहते हैं ‘‘नास्तिको वेदनिंदक: ।’’ सो भैया यह सही भी इस तरह है कि वेद है ज्ञान । जो ज्ञान की निंदा करे, ज्ञान को ठीक न समझे, वह नास्तिक है । जो पदार्थ के स्वरूप में धर्म के स्वरूप में, धर्म के फल में, धर्म के कारणों में निश्चय रखता है, उसे आस्तिक्य कहते हैं । प्रश्न:—आस्तिक्य में क्या भाव या लक्षण होते हैं कि उसे आस्तिक समझा जाये? उत्तर:—जो स्वत: सिद्ध है, चेतन है, वह जीव नामक पदार्थ है । जो अचेतन पदार्थ है वे अजीव नामक पदार्थ हैं । पहले तो अपने से न्यारा इस शरीर को जाने । सभी लोग शरीर से न्यारा अपने को नहीं समझते हैं । कुछ दार्शनिक बंधु कहते हैं कि ‘‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म।’’ यह सारा संसार ब्रह्ममय है, और उसकी नाना परिणतियां ब्रह्म का विकार है । परमहंस जो होते हैं, उनका चित्त संसार के इन पदार्थों में नहीं लगता है । वे जहाँ चाहे खाते, जहाँ चाहे बैठ जाते हैं । जैसा मिलता है, वैसा खा-पी लेते हैं । जैसा उनके पास कपड़ा हो, वैसा पहन लेते हैं, कोई नग्न रहते हैं । परमहंस पद सोचने से नहीं मिलता है । वह तो सहज वैराग्य और ज्ञान की बात है । सभी जीव समान है ऐसा ज्ञान वैराग्य का हेतु होता है । किंतु स्वरूप यथार्थ समझे बिना समानता ज्ञात नहीं होती । पहले तो यह जानना कि शरीर से न्यारा जीव है । फिर यह जानना कि कर्म से भिन्न यह आत्मा है । किसी चीज में निजी स्वभाव में भेद नहीं पड़ता है और भेद पड़ा तो कोई उपाधि निमित्त है । वह कोई न कोई चीज तो है उसी का नाम कर्म है । उन कर्मों का क्षय हो जाये तो मोक्ष हो जाता है । जब तक कर्म आत्मा में चिपके हैं, तब जीव उन कर्मों का कर्ता है और भोक्ता है । जीव के साथ कर्म लगे हैं । जिनके साथ कर्म लगे हैं वे संसारी हैं । 925-आस्रव और बंध में पुण्यपाप रूपता—आस्रव और बंध के दो भेद हैं—पुण्याश्रव, पुण्यबंध (2) पापास्रव और पापबंध । पुण्य और पाप—ये दोनों ही जीवरूप भी हैं, कर्मरूप भी हैं । पाप के उदय से बुरी बातें होती हैं और पुण्य के उदय से साता का संग मिलता है । पुण्य के उदय में प्रतिष्ठा आदि भी बढ़ जाती है । लेकिन पुण्य का उदय भी आकुलता रूप पड़ता है । पुण्य और पाप दोनों के उदय में आकुलता ही रहती है । अत: पुण्य कर्म को भी आस्रव और बंध का भेद बताया है आस्रव और बंध संसार में भ्रमण कराने में सहायक हैं । पुण्य को संवर और निर्जरा का भेद नहीं बताया है, क्योंकि संवर निर्जरा मोक्ष के कारण होते हैं, पुण्य है संसार का कारण । पुण्य और पाप आस्रव और बंध के भेद हैं ये सब अहित हैं, हित चैतन्यमात्र मैं स्वयं हूँ, ऐसी श्रद्धा आस्तिक जीव में होती है । 926-शुद्धता का विधान—पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा तो बंध और मोक्ष का विकल्प भी संसार के कारण हैं । द्रव्यार्थिकनय से सभी जीव शुद्ध हैं । यदि अशुद्ध भी द्रव्य का स्वभाव हो जाये तो वह अशुद्धता उसमें बनी रहनी चाहिये, अनंतकाल तक मिटनी नहीं चाहिये । अत: जीव कभी शुद्ध नहीं हो सकता है, यह दोष उपस्थित हो जायेगा । जैसे काले रंग का स्वभाव काला है, उसको जिंदगी भर धोते रहो लेकिन वह अपनी कालिमा नहीं छोड़ सकता है । कोयले का भी कालापन मिट जाता है, क्योंकि कालिमा उसका स्वभाव नहीं है । कोयले को तेज आग में डाल दो तो वह भी जलकर बिल्कुल सफेद राख बन जाता है । जब कोयला भी जलकर सफेद हो जाता है तो क्या यह आत्मा जिस पर पाप की कालिमा पूत गई है, सफेद (स्वच्छ) नहीं हो सकता है? क्यों नहीं, कोयले की तरह उसमें भी ज्ञान-ध्यान और तप की आग लगा दो वह भी तप से तपकर स्वच्छ हो जायेगा । जब कोयला भी जलकर सफेद हो गया तो पाप लिप्त यह आत्मा भी तपोवह्नि से अवश्य शुद्ध हो सकता है ।
927-मोहनिर्ममत्व का प्रकाश—मोह मेरा कुछ भी नहीं है । जो लोग लगते हों कुछ, घर में हों झगड़ा तो उन्हीं से होगा, उपेक्षा तो उन्हीं से की जायगी और जो लोग बिल्कुल न्यारे हैं, दूसरे देश के हैं उनसे क्या लड़ाई हो? प्राय: सभी घरों में रोज-रोज परस्पर में लड़ाई झगड़े होते रहते हैं फिर भी कोई घर छोड़कर भागता तो नहीं, परस्पर में लड़ते भी रहते और मोहवश उन्हें अपनाते भी रहते हैं । गैर लोगों से तो इस तरह लड़ाई झगड़ा नहीं हुआ करता तो इसका कारण क्या है कि उन गैर लोगों पर उनका कुछ वश नहीं, विकल्प मान्यता में वश तो उन्हीं पर चलता जिन पर अपना कुछ अधिकार माना हो । जैसे कहते हैं कि कुम्हारी से न जीते तो गधी के कान ऐंठे । बहुत सी स्त्रियां ऐसी होती हैं कि पति से झगड़ा हो जाय तो वे पति का तो कुछ बिगाड़ कर नहीं पाती, वे अपने बच्चे को ही ठोंक पीट डालती हैं, इसका कारण यह है कि उस बच्चे पर उन्होंने अपना अधिकार मान रखा है । तो इस लड़ाई झगड़े का आधार भी तो देहात्मबुद्धि है । बंधन है इस जीव का तो अज्ञान का है, बाह्य कुछ बंधन नहीं । जिसका हृदय निर्मल हो गया । सम्यग्ज्ञान का प्रकाश हो गया अब ऐसा पुरुष जब घर संपदा को छोड़कर ज्ञान आराधना में मग्न होना चाहता है तो अन्य लोगों को मोहियों का आश्चर्य होता है । इसे क्या हो गया । ऐसी क्यों इसकी बुद्धि बन गयी? ऐसा नासमझ क्यों बन गया कि घर छोड़कर माता पिता छोड़कर, धन वैभव छोड़कर दीक्षित होकर अकेला रहने लगा । लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है । हो आश्चर्य, लोगों के अधीन नहीं है अपना सुधार बिगाड़ । उस ज्ञानी ने तो अपने आप में हित का सही निर्णय किया है और उसके लिए वह तुला हुआ है । उसे कुछ न चाहिये जो लोग धन वैभव को पकड़े हुये हैं उन्हें क्या मिलता है? कुछ भी नहीं, पाप जरूर मिलता है । तो यह समझना है कि यह मोह, राग द्वेष भाव मेरे नहीं हैं विकारों में बुद्धि अटकाकर समय न खोवें पुरुषार्थ करिये, हित थोड़े समय में जान लेने भर की बात है, अब आगे और बढ़िये, यहाँ अंतरंग में भाव करें कि ये मुझमें उठने वाले जो विषय कषाय के परिणाम हैं वे भी मेरे कुछ नहीं हैं । मैं तो एक ज्ञान मात्र हूँ और अकेला हूँ दूसरे पदार्थ का इसमें मिश्रण ही नहीं हो सकता । मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ ऐसा अकेला अपने को निरखे तो वह है कल्याण का उपाय।
928-आत्मैकत्व की दृढ़ प्रतीति का उद्यमन—ये राग-द्वेष कषाय भाव भी प्रबल भाव हैं तभी तो देखो बहुत-बहुत हटाये जाने पर भी रागादिक भाव हट नहीं पाते । प्रबल हैं और कर्म के उदय से हुए हैं लेकिन यह तो देखो कि मेरे स्वरूप के भाव होते, तो सदा रहना चाहिये । अब ये पुद्गल द्रव्य के निमित्त से रचे गए हैं तो मैं तो एक ज्ञानस्वभाव मात्र हूँ । मेरा है क्या? यह मैं आत्मा तो स्वयं ज्ञानानंद समृद्धि से संपन्न होने के कारण स्वयं अपने आपका आप हूँ ये सब रागादिक कषायादिक विकारभाव हैं परतत्त्व हैं, ये मेरे कभी कुछ नहीं हो सकते । यह मैं एक चैतन्य शक्ति मात्र हूँ, चित् धन मात्र केवल जाननस्वरूप को लिए हुए मैं आत्मा अनादि अनंत ध्रुव हूँ, ऐसे अपने ज्ञानमात्र स्वभाव की प्रतीति करें तो इसको सुख शांति का लाभ हो सकता है । मैं सदा एक हूँ । इस मुझमें चाहे अनेक प्रकार के रागादिक विभाव आयें, कर्म आये समस्त द्रव्य आयें, लेकिन मैं मोहरूप नहीं हूँ । सर्वदा मैं अपने आपके आत्मा के एकत्व गत हूँ, मेरा ही मैं हूँ, ऐसा पक्का निर्णय है, मोह मैं नहीं हूँ । मैं ज्ञानमात्र हूँ । मन के विषय की चाह करना उसकी बड़वारी करना इससे बढ़कर अन्य अंधापन नहीं है । पंचेंद्रिय के विषयों के भी अंधापन से भी ज्यादह अंधापन इस अनुभव में है कि परतत्त्वों परद्रव्यों को मान लूं कि ये मैं हूँ । इन मोह विषय कषाय के परिणामों को समझ लें कि ये मैं हूँ यह है इसका सबसे बड़ा भारी अंधापन । देखो मैं एक हूँ । सारे द्रव्य यद्यपि परस्पर में अवगाहित हैं लेकिन इन सबका स्वाद भेद तो बराबर है । कषाय करने से, क्रोध करने से कैसा स्वाद आता है । आत्मा में क्या बात बीतती है, उससे जान सकते हैं कि कषाय का स्वाद कैसा होता है । और कषायों से निराला केवल ज्ञानमात्र अपना स्वरूप निरखे तो उस समय भी जान सकते हैं कि अपने सहज स्वरूप के लगाव में चाहे वह धीरे हो, एकदम भंग भी हो तो भी भीतर में प्रतीति हो, उस ज्ञानमात्र स्वभाव का लगाव हो तो उसको उसके अनुरूप ही आनंद का अनुभव होगा । मैं मोह से भी रहित हूँ । मोह में भी मेरी ममता नहीं । 929-विकारों से दूर होने की भावना:—मैं क्रोध से रहित हूँ । कोई चाहे कि मुझे क्रोध न आये तो उसके दो विचार प्रधान मौलिक होना चाहिये । पहिला तो यह जो यह गाली दे रहा, प्रतिकूल चल रहा, यह मुझ को जानता ही नहीं । मैं हूँ आकाशवत् निर्लेप चिदानंदघनस्वरूप आत्मतत्त्व और यह उन दूसरों को दिखता कहां है? अधिक से अधिक यह शारीरिक रूप दिखता है । जब यह अज्ञानी है मुझे जानता ही नहीं है तो मेरा स्वरूप इसके ज्ञान में कैसे आये? इसने मुझे कुछ नहीं कहा । दूसरी बात यह सोचे कि कर रहा है यह चेष्टा अपनी कषाय के अनुसार अपनी वेदना शांत करने के लिए ऐसी जो बाहर में बाहर की बात वही निरख लेता है, उससे आगे अपना संबंध नहीं बनाता है उसे मोक्षमार्ग है और जो उन बाह्य अर्थों के साथ संबंध बनाये तो उसका दुःख कभी दूर नहीं हो सकता । जान लो, यह सब मोह ही दुःख का हेतु है । जिस किसी को भी दुःख है निर्णय कर लो, किसी न किसी वस्तु में उसके मोह है । और कोई दुःख नहीं है । ज्ञानी जीव अपने आपको चारों ओर से ज्ञानरस से निर्भर देख रहा है । अपने आपको केवल अकेला संचेतन कर रहा है । मैं केवल एक चैतन्यस्वरूप हूँ क्योंकि यह ज्ञानी सब समय स्वयं अपने आपको अपने आपके स्वरूप में रहता हुआ ही तो देख रहा है । जो जिस भाव से देखे उसका उसके अनुसार कार्य होगा, कभी हो कहीं हो ।तो जब सभी पदार्थ अपने आपके स्वरूप में स्थित हैं तो मेरा कौन है दुनिया में। ऐसा जानकर जो परवस्तुओं से हट जाता है उसे कहते हैं ज्ञानी श्रद्धावान पुरुष । तो ज्ञानी चिंतन कर रहा है कि मैं मोहरूप नहीं, मेरा मोह कुछ नहीं, इसी प्रकार राग द्वेष कर्म नोकर्म इंद्रियां, ये सबके सब भी मेरे कुछ नहीं हैं । मैं तो एक ज्ञानमात्र हूँ । ऐसा भीतर में प्रकाश जगे तो इसके विवेक जगे, पर का लगाव छूटे खुद में अर्ंतध्वनि बने और यह सुखी रहे । अपने को अकेला विचारे । मेरे पास धन नहीं है ऐसा मत सोचो, ये तो विनाशीक बात हैं । यह भेद विज्ञान करना कि मैं ज्ञानरूप हूँ रागरूप नहीं, इस ज्ञानरूप भावना के प्रसाद से वे सब काम होंगे जो मुक्ति के लिए आवश्यक होते हैं । अपने को यही भावना भावो सिद्ध का भी यही ध्यान करके यह भावना भावो कि यह हूँ, मैं मेरा । जो अपने ज्ञानमात्र को दृष्टि में लेकर उस रूप ही अपना उपयोग बनायगा उसको ये शारीरिक, सांसारिक व्याधियां सता न सकेंगी । आत्मकल्याण की खबर आये, वस्तुस्वरूप का अभ्यास करे स्वाध्याय द्वारा और उसे अपने में घटित करें । यों शुद्धोपयोग से आत्मा संकटों से दूर हो लेगा । आस्तिक्य होने पर आस्तिक कहता है कि मोह मेरा नहीं है । उन सातों तत्त्वों में अपने ही प्रत्यक्ष का विषय जो चैतन्यात्मक स्वभाव है, वही मैं हूँ । मैं उपादेय हूँ । मुझ आत्मा में भिन्न जो पौद्गलिक रागादिक हैं, वे सब पर हैं । पर हेय है । यदि कोई किसी को मारे-पीटे तो ठुकने वाला अपना शरीर कड़ा कर लेता है और अपना उपयोग भीतर की ओर दे लेता है, तो उससे कम चोट लगती है यदि कोई अचानक ही एक घूंसा जमा दे तो चोट अधिक लगती है । इसी प्रकार ये रागादिक मुक्का हैं, ये आत्मा तक अपना वार न कर पायें । इसी के लिये ज्ञान द्वारा आत्मस्वभाव में लगो । अंतर्दृष्टि इतनी दृढ़ बना लों कि रागादि का प्रहार इस पर न हो सके । निश्चय और व्यवहार नय के द्वारा जो जैसे पदार्थ हैं, उनमें वैसा ही श्रद्धान करना आस्तिक्य भाव है । व्यवहार की बात भी व्यवहार के रूप में व्यवहार जैसी माने यह भी आस्तिक्य है । पर्याय का भी ज्ञान होवे, वह ज्ञान भी ज्ञान है । यदि पर्याय का ज्ञान न होवे तो सच्ची श्रद्धा नहीं है । पर्याय को जानो, उसके साथ त्रैकालिक स्वभाव को भी जानो, वह आस्तिक्य भाव है और सही ज्ञान है । शुद्धसत्ताक चैतन्यस्वभावमय निजतत्त्व का अनुभवी पुरुष मोहभाव से निर्मम हो जाता है सो वह केवल मोहभाव से ही निर्मम नहीं होता है किंतु राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन आदि सर्व भावांतरों से निर्मम हो जाता है । 930-जीव की गलतियों के मिथ्यात्व भाव के मूल दो प्रकार—(1) ज्ञेय पदार्थों से अपने को न्यारा न मान पाना और ( 2) अपने विभावों से अपने को न्यारा न समझ सकना । ये दो गलतियां मिथ्यात्वभाव की पोषक हैं । इनमें पहली गलती को ज्ञेय-ज्ञायक संकर और दूसरी गलती को भाव्यभावक-संकर कहते हैं । 36 वीं गाथा में भाव्य-भावक संकर को मिटाने के लिये वर्णन था । मोह मेरा कुछ नहीं है, मैं तो अपने चैतन्य स्वभाव का संचेतन करता हूँ । मैं मोह नहीं हूँ । मैं ज्ञानस्वरूप हूँ । इसी प्रकार रागादि के साथ भी लगा लेना चाहिए कि रागादि मेरा कुछ नहीं है आदि । मनवचनकाय की चेष्टाओं से काम, क्रोध, मद, मोह लोभ, भय—इन आत्मा के छह रिपुओं से अपने को न्यारा समझे । इस प्रकार भाव्यभावक संकर से अपने को न्यारा समझकर विवेक उत्पन्न करें । अब ज्ञेय पदार्थों को जानकर उनके प्रति अथवा ज्ञानविकल्प के प्रति या ज्ञेयाकार विकल्प के प्रति जो ममत्व परिणाम हो जाया करता है उसका विप्रतिषेध करते हुये श्रीमत्कुंदकुंदाचार्य महाराज कहते हैं:—