वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 377
From जैनकोष
असुहो सुहो व गंधो ण तं भणइ जिग्घ मंति सोचेव।
ण य एइ विणिग्गहिउं घाणविसयमागयं गंधं।। 377।।
गंध और ज्ञाता की स्वतंत्रता▬ ये अशुभ शुभ गंध इस आत्मा को यह प्रेरणा नहीं करते कि तुम मुझ को सूँघो और न यह आत्मा अपने प्रदेश से चिगकर घ्राण के विषय में आए हुए गंधों को सूँघने के लिए निकलता है। अपने ही प्रदेश में रहकर विषय विषयी परिणमन हो रहा है, लेकिन यह जीव अज्ञानवश कल्पना बनाकर अपने में रागद्वेष रूप विकार उत्पन्न करता है कितने प्रकार के गंध हैं, कितनी सुगंधों के लिए यह जीव आसक्त रहता है? अरे भाई चाहे कैसा ही गंध हो, है तो वह अजीव का ही परिणमन। उसमें तेरे आत्मा का क्या जाता है? तेरा दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुण किसी परपदार्थ में नहीं है। इन विषयों में तेरा गुण परिणमन नहीं है, फिर उन विषयों के निमित्त तू अपना घात क्यों करता है ?
गंध का कुछ विवरण▬ गंध पुद्लद्रव्य की गंध शक्ति का परिणमन है। इन 5 विषयों में रूप विषय अप्राप्य है अर्थात् वह आंख के पास चिपटता नहीं है और कदाचित् कोई रूप आंख से चिपट जाय तो उसका ज्ञान ही नहीं हो सकता है। अपनी आंख में लगे हुए अंजन को ये आंखे खुद नहीं देख सकतीं। दर्पण लेते हैं, दर्पण आंख की छायारूप परिणमता है। उसे देखकर जानते हैं कि अंजन ज्यादा लगा, यह कारोंच लगी। और जब आंखे इतनी दूर की चीज को देख लेती हैं तो आखों से चिपटी हुई बात को ये आंखे क्यों नहीं देख पाती हैं? नेत्र अप्राप्य अर्थ को विषय करते हैं और बा की चारइंद्रिय प्राप्य अर्थ को विषय करती हैं। शब्द कान में आ पड़े तो चट जान जाते हैं। शब्द न आऐं तो उसका ज्ञान नहीं होता। यह गंध भी नाक में प्रवेश कर जाती है तब ज्ञान में आता है।
गंध का निमित्तनैमित्तिक संबंधवश विस्तार▬ आप कहेंगे वाह फूल तो लगा है गुलाब के पेड़ में, वह तो नाक में नहीं आता। और उसका जो गंध परिणमन है वह उसमें ही है फिर यह जाना कैसे जाता है?तो ऐसा होता है कि फूल गंध का निमित्त पाकर पास के पुद्गल स्कंध गंधरूप बन जाते हैं और उन पुद्गल स्कंधों का निमित्त पाकर पास के स्कंध गंधरूप परिणम जाते हैं। इस तरह से निमित्तनैमित्तिक संबंध में नाक के पास के परमाणु में गंध हो जाता है। किसी चीज की गति से अधिक गति है निमित्तनैमित्तिक संबंधकी। बिजली का बल्ब जिस का बटन दो मील पर लगा है बटन खोलते ही एक सेकेंड बाद जलने लगता है। तो बिजली वहाँ दौड कर नहीं जाती,किंतु निमित्तनैमित्तिक परिणमन से वहाँ का तार बिजली रूप परिणमन कर उजेले में आ गया।
शब्द का भी निमित्नैमित्तिक संबंधवश विस्तार▬ भैया ! शब्दों की भी ऐसी ही बात है। कोई मुख से शब्द बोलता है तो ये ही शब्द आप के कान में नहीं पहुंचते। जैसे हम यहाँ बोल रहे हैं तो ये ही शब्द यदि कान में पहुंच गए तो ये एक पुरुष के कान में शब्द जाएँ और बा की 100, 200, 500 आदमी तो सुनने से वंचित रह जाएँ, उन्हें कुछ भी सुनाई न पड़े। यह शब्द ही स्वयं आप के कान में नहीं जाते, पर इस शब्दपरिणमन का निमित्त पाकर पास में जितनी भाषावर्गाणावों का मेंटर है वह शब्दरूप परिणम जाता है और आप के कान के निकट जो पुद्गल स्कंध है, भाषा वर्गणा वह शब्दरूप परिणम कर आप के विषय में आ रहा है। निमित्तनैमित्तिक संबंधवश जो गति है वह अति तीव्र होती है।
अज्ञानज विकार▬ यह गंध विषय न तो आत्मा को प्रेरित करता है कि मुझे सूँघों, बेकार क्यों बैठे हो, और न यह आत्मा अपने स्वरूप से चिगकर उन गंधों को ग्रहण करने के लिए डोलता फिरता है। किंतु विषयविषयी का संबंध है, इसका ज्ञान में गंधविषय आता है, पर इतने मात्र से इस आत्मा में विकाररूप परिणति नहीं हो जाती। यह तो अपने आप के परिणमन की कला है। फिर भी यह जीव उन सब शुभ अशुभ गंधों को सूँघकर अपने में इष्ट अनिष्ट भाव लगाता है, रागद्वेष करता है, यह सब अज्ञान का प्रसाद है। ज्ञानी जीव तो अपने आप के सहज स्वरूप की प्रतीति के बल से अपने स्वरूप के दर्शन में उत्सुक रहता है।
शुभाशुभसहिष्णुता का अभ्यास▬ये विभाव यद्यपि इष्ट अनिष्ट भाव को उत्पन्न करते हुए आते हैं तो भी मूल में रुचि विषयों में नहीं है, आत्मस्वरूप में है। सो जिस के मूल में रुचि होती है उस के ही अनुराग समझा जाता है। यह व्यवहारमोक्षमार्ग के माध्यम से निश्चय मोक्ष मार्ग को आत्मसात् करने का उद्यम बनाए रहता है। केवल यह अज्ञानी जीव ही अशुभ शुभ गंधों को पाकर रोष और तोष करता है। अच्छी बास आए तो हाथ में छातीमें, मुँहमें सब में फर्क आ जायेगा और बुरी गंध आ जाय तो नाक मरोड़ेंगे। कम से कम अपने व्यवहार में तो यह आदत बनावो कि जितनी दुर्गंध आप सह सकते हों सह लो और मुँह न बनावो जितना बन सके। यह भी एक विषयों में समभाव की प्रक्रिया है। यहाँ कुछ थोड़ी सी मलिन चीजों को देखकर बार–बार नाक सिकोड़ना अपने आप की मलिनता को व्यक्त करने वाली बात है। गंधों में भी रागद्वेष मत करो, ऐसा यहाँ आचार्य देव का उपदेश है।