वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 378
From जैनकोष
असुहो सुहो व रसो ण तं भणइ रसय मंति सो चेव।
ठ: य एइ विणिग्गहिउं रसणविसयमागयं तु रसं।। 378।।
रस और ज्ञाता का परस्पर अनाग्रह ― अशुभ और शुभ रस इस आत्मा को ऐसा आग्रह नहीं करता है कि तुम मेरे रस को ले लो और न यह आत्मा अपने स्वरूप से चिगकर रस के ग्रहण करने के लिए जाता है, किंतु यह आत्मा अपने आप के प्रदेश में ठहरा हुआ मात्र जानता है और विकार भाव में अपने आप के विकल्प का स्वाद लेता है, किंतु इस विषय को तो कुछ भी नहीं करता। जब तेरा दर्शन ज्ञान और चारित्र इन इंद्रिय-विषयों में नहीं है तो फिर इन विषयों के खातिर तू अपना घात क्यों कर रहा है ?
रसादि गुणों का विवरण ― रस पुद्गल द्रव्य के रसशक्ति का परिणमन है, जितने भी दृश्य दृष्ट होते हैं, परिणमन विदित होते हैं वे सब किसी न किसी शक्ति के होते हैं, कोई भी दशा दिखे तो वहाँ यह जानना चाहिये कि इस अवस्था का स्रोतभूत आधार क्या है? प्रत्येक परिणमन का आधार गुण होता है। पुद्गल में व्यक्तरूप से विदित होने वाले परिणमन रूप के परिणमन हैं, रस के गंध के और स्पर्श के परिणमन हैं। रूप नामक शक्ति के मूल में 5 परिणमन हैं काला, पीला, नीला, लाल और सफेद । इन 5 के अलावा और जितने विभिन्न रंग दिखाई देते हैं वे सब इन रंगों के मेल से बने हुए परिणमन हैं और इन रंगों की हीनाधिकता के तारतम्यरूप परिणमन हैं। रसशक्ति के मूल में 5 परिणमन हैं- खट्टा, मीठा,कड़वा, चरपरा और कषायला। जितने भी स्वाद हैं और नाना प्रकार के विदित होते हैं वे इन स्वादों के मेल के परिणमन हैं अथवा इन स्वादों की हीनाधिकता के तारतम्य से परिणत हैं। गंधशक्ति के दो परिणमन होते हैं - सुगंध और दुर्गंध। स्पर्शशक्ति के मूल में चार परिणमन हैं- चिकना, रूखा, गरम और ठंडा। पर पुद्गल परमाणुवों के पुंजरूप पुद्गल स्कंधों में व्यावहारिकता बन गयी है इसलिए चार परिणमन और प्रकट हो जाते हैं हल्का, भारी, कड़ा और नरम। एक ही अणु है, वह न तो कड़ा है, न नरम है, न वह हल्का है, न भारी है। हल्का, भारी, कड़ा और नरम तब प्रकट होते हैं जब बहुत से अणुवों का पिंड पुद्गल स्कंधरूप होता है।
रस के लक्ष्य में अज्ञानज विडंबना ▬ प्रकरण में रस की बात कही जा रही है कि यह रस आत्मा को प्रेरित नहीं करता है कि तुम हमारा स्वाद लो –जैसे कि कोई देवदत्त नामक पुरुष यज्ञदत्त का हाथ पकड़ कर प्रेरणा किया करता दिखता है कि तुम अमुक काम करो, तुम्हें मेरी सिफारिस लिखना पड़ेगा, इस पर तुम हस्ताक्षर कर ही दो। जैसे अनेक कार्यों के लिए प्रेरणा करते हो, इस प्रकार इस आत्मा को रसादिक प्रेरणा नहीं करते और जैसे कोई लोहे की सुई चुंबक पत्थर के पास खिंचती फिरती है इस तरह से यह आत्मा इन विषयों के निकट खिंचा-खिंचा फिरे, ऐसा भी नहीं है, उन को ग्रहण करने के लिए जाय सो भी बात नहीं है, फिर भी ये अज्ञानी जन इन स्वादों में कैसा रोष व तोष करते हैं? साग में नमक ज्यादा गिर जाय तो थाली पटक देते हैं और यदि अच्छे स्वादिष्ट व्यंजन बनें तो सारे संकट और विपत्ति भूलकर एक इसके स्वाद में ही मग्न हो जाते हैं। ऐसे रस के स्वाद में रोष और तोष इन जीवों को क्यों आता है? इस कारण कि यह प्राणी निश्चय कारणसमयसार से परिचित नहीं है। ज्ञानांदमय आत्मस्वभाव की इसे श्रद्धा नहीं है, सो अपने आनंद को प्रकट करने के लिए बाह्य विषयों में ही दृष्टि डालते हैं और उनमें अनुकूल प्रतिकूल कल्पनाएँ बनाकर संतोष और रोष करते हैं।
रस का मायाजाल▬ कहते हैं ना कि कोई अगर क्रोध में है, तो भाई अभी न बोलो, अभी इसे खूब बढ़िया खिला दो रसीला, तो क्रोध करना तो दूर रहो और उसकी सेवा करने का विचार बना लेगा। शांत हो गया क्रोध । भैया ! यह पता नहीं चलता है कि कहाँ से मीठा लग बैठता है। इस मुँहमें मिठास किस ओर से आती है और कहाँ से बढ़िया लगता है, अभी तक इसकी अच्छी तरह खोज नहीं कर पाये। कहते हैं कि इस जीभ की जो टुनक है आगे की बस वह किसी से छू जाय सो ही स्वाद आता है। जीभ निकाल कर कोई भी चीज बीच में धर दें तो स्वाद रंच भी नहीं आता । कैसा संबंध है, क्या मतलब पड़ा है? यह अमूर्तिक ज्ञानानंदमय आत्मा उस रस के विकल्प में ऐसा मिठास का अनुभव करता है कि जैसे मानो आत्मा में मिठास किया गया हो।
आत्मा द्वारा रस की अग्राह्यता▬ अच्छा बताओ कोई आम का स्वाद ले सकता है क्या? कोई नहीं ले पाता है क्योंकि आम का स्वाद आम में है और आत्मा तो आकाश की तरह अमूर्तिक है। तो जैसे आकाश में आम बिखेर दिये तो आकाश में रस चिपकेगा क्या? नहीं। इसी तरह आकाश के मानिंद यह आत्मा अमूर्त है। खूब रस मुँह से चाटो पर आत्मा में रस चिपक सकता है क्या? तो रस को आत्मा ग्रहण नहीं करता किंतु द्रव्येंद्रिय और विषय का संबंध बनता है और ये द्रव्येंद्रिय ज्ञान कराने के साधन हैं। सो इस रसना इंद्रिय से तो खाली यह ज्ञान करता है, कि इसमें मीठा रस है, इसमें अमुक रस है, पर आत्मा में जो मोह भरा है, राग पड़ा है उस राग मोह के कारण यह आत्मा उसमें भला मानता है, यह बहुत उत्तम स्वाद है।
कारणसमयसारसुधाररसस्वाद का विलास ▬ भैया ! किसी की आदत पड़ जाय किसी वस्तु के स्वाद लेने की तो बुढ़ापे तक भी नहीं छूटती, ऐसे भी बहुत लोग मिलेंगे। किसी को रबड़ी खाने का शौक है तो वह बुढ़ापे तक रबड़ी खाना नहीं छोड़ता है ऐसे भी लोग देखे जाते हैं। तो रस का स्वाद लेने में जो अनुरक्ति है वह केवल अपने ज्ञानानंद स्वाभाव के रस के परिचय के बिना है। कैसा है यह कारणसमयसार ज्ञानानंदस्वभाव कारणस्वभाव ज्ञान कि जिस का आश्रय लेने से कार्यसमयसार प्रकट होता है, शुद्धपर्याय व्यक्त होती है, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख अनंतशक्ति प्रकट होती है, उसका उपाय है शुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मतत्व का श्रद्धान होना। ज्ञान हो और उस ही रूप उपयोग में ग्रहण हो तो इस समाधि के बल से अनंत चतुष्टय प्रकट होता है जो कि अवस्था अत्यंत दुर्लभ है।
आत्मस्वभाव के परिचयरूप वैभव की उत्कृष्टता ▬ अपने आप के अंतर में अनादिनिधान अंत:प्रकाशमान इस स्वभाव का परिचय पा लेना, अत्यंत दुर्लभ है। तीन लोक के समस्त वैभव भी इसके निकट आ जायें वे तुच्छ चीजें हैं। ज्ञान का आदर करो, वैभव का आदर न करो, क्योंकि वैभव से तो वर्तमान में इतना ही फायदा है कि भूखे प्या से न रहें जिस से संतोषपूर्वक हमें आत्माहित का मौ का मिले। इतने प्रयोजन के अलावा और जो प्रयोजन बना डालना है- मेरी पोजीशन बढ़े, लोगों में मेरी इज्जत हो, तो यह सब उसकी उदृंडता हैं। वैभव अधिक होने से इसको अशांति ही तो मिलने का अवसर है, पर शांति प्रकट होना कठिन है। जिस के पास कम धन है वह इस हालत में बड़ा प्रसन्न है और कुछ धन बढ़ जाने पर फिर उसकी खेदजनक स्थिति हो जाती है, और जो आज संसार में माने हुए करोड़पति, अरबपति हैं उन की तो विचित्र हालत है आज के समयमें। चारों ओर से चिंताएँ घेरे हैं। टेक्स, सरकारी मुकद में अन्य घटनाऐं, धन बढ़ाने संबंधी कल्पनाएँ- ये सदा चिंताएँ उनके बनी रहती हैं।
कल्पित रोष तोष का कारण ▬ ऐसी इन बाह्य व्यासक्तियों से इस ज्ञानानंदस्वाभावी अंतस्तत्त्व की दृष्टि ऐसे लोगों को अत्यंत दुर्लभ है। सो यह निश्चय कारणसमयसार के बिना यह जीव रसों में तोष और रोष करता है। यह रोष और तोष आत्मा के विकार है। इन रोष और तोषों को इन बाह्य विषयोंने उत्पन्न नहीं किया । ये तो अपने आप के स्थान में अपनी परिणति से परिणमते हैं, किंतु उनका निमित्त पाकर ज्ञान कर के कल्पना बनाकर ये जीव खुद रोष व तोष करता है।
जैसे रसविषयक ज्ञान का इस ज्ञेय के साथ अज्ञान के कारण प्रसंग बन जाता है, इसी प्रकार स्पर्श परिणमन के साथ इस ज्ञाता ज्ञानरूप परिणमन के कारण एक प्रसंग बन जाता है।