वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 379
From जैनकोष
असुहो सुहो व फासो ण तंभणइ फुससुमंति सो चेव।
ण य एइ विणिग्गहिउं कायविसयमागयं फासं।। 379।।
मात्र स्पर्शज्ञातृत्व आत्मविकार का अकारण ▬ ये सुहावने और असुहावने स्पर्श, कभी ठंडे अच्छे लगते हैं, कभी गरम अच्छे लगते हैं, ये सभी स्पर्श इस आत्मा को यह प्रेरणा नहीं करते हैं कि तुम मेरा स्पर्श करो ही करो, और न काय के विषय भाव को प्राप्त स्पर्श का ग्रहण करने के लिए यह आत्मा अपने स्वरूप दुर्ग से निकलकर उन्हें ग्रहण करने जाता है किंतु वस्तु का स्वभाव ऐसा है कि किसी पर के द्वारा किसी पर को उत्पन्न नहीं किया जा सकता । प्रत्येक पदार्थ अपनी ही स्वरूप कला के कारण अपने में प्रकाशमान् रहता है। बाह्यपदार्थ हो तो क्या, न हो तो क्या? जैसे यह दीपक अपने स्वरूप से प्रकाशमान् रहता है, इसी प्रकार यह ज्ञान अपने स्वरूप से जाननहार रहा करता है। अब ज्ञेय पदार्थ में विचित्र परिणमन उन ज्ञेयों के कारण ही है, वे ज्ञेय इस ज्ञान में रंच भी विक्रिया करने में समर्थ नहीं हैं, फिर भी अज्ञान का प्रसाद है कि विकार ही विकार अनादि काल से चला आ रहा है।
आश्रयभूत वस्तु क्लेश का अकारण ▬भैया ! सम्यग्दर्शन होने से उस वस्तुस्वरूप की महिमा अपने आप में समाए तो ये विकार समाप्त हो सकेंगे। दु:ख है तो केवल विकारभाव का ही दु:ख है। देखो नैमित्तिक चीज कोई इसकी नहीं है। धन कम हो गया, इसका कुछ दु:ख नहीं है किंतु तत्संबंधी ममता का विकल्प बन रहा है। यही दु:ख है । बड़े तीर्थंकर चक्री 6-6 खंड की विभूति को त्यागकर निर्गंथ अवस्था में रहते हैं, उनके क्या कोई दुःख है? यदि दु:ख होता तो काहे को त्यागते अथवा भूल से त्याग भी देते तो फिर घर चले जाते, उनके तो बड़े स्वागत की तैयारियां होतीं। घर से निकला हुआ बेटा अब घर आ रहा है।
आत्मस्वरूप के अवलंबन की महिमा―इस वैभव में आनंद नहीं है। आन्नद तो अपने आप के स्वरूप में है। यह आत्मा तो दीपक की तरह उदासीन है । जैसे दिया जलता है तो जलता है, उसे यह फिकर नहीं है कि मैं इन पदार्थों को प्रकाशित कर दूं, ऐसी उस दीपक को अपेक्षा नहीं है, इसी प्रकार इस ज्ञाता आत्मा को कोई अपेक्षा नहीं है कि मैं दुनिया भर के पदार्थ जानूँ। इसका सहज ऐसा ही संबंध है कि सारा विश्व जानने में आ जाता है जब यह जीव जानने के लिए फिरा करता है तब इसे ज्ञान होता नहीं और जब यह जीव जानने की तृष्णा छोड़ देता है तब इसके सारा विश्व ज्ञान में आ जाता है । यह आत्मा स्वभाव से आनंदनिधान है, पर निधि इसके तब प्रकट होती है जब निधि की चाह न हो।
इच्छा की अर्थकारिता का अभाव ▬ संसार में भी मनमानी नहीं चलती है। जब हम चाहते हैं तब चीज नहीं है, जब हम नहीं चाहते तो चीज सामने है। सबकी ऐसी हालत है। हम चाहे कि बड़े विश्व के ज्ञाता बन जायें तो नहीं बन सकते। आज देश की बागडोर संभालने वालों में परस्पर में कलह है, वह इसही से कलह है कि वे चाहते हैं कि मैं नेता कहलाऊँ, मैं उच्च कहलाऊँ। ऐसी भावना होने के कारण उनका बल क्षीण हो जाता है और उस से ऐसे कारना में नहीं बन सकते हैं जो नेता कहलाने लायक बन सकें। जि से अपनी सुध नहीं, अपनी पोजीशन नहीं चाही, केवल काम चाहा है और उन्नति की धुनि रखता है, अन्य किसी दूसरी चीज की कुछ परवाह नहीं है, न धन संचय करता है, न यश फैलाने का भाव रखता है किंतु एक धुनि लग गयी है कि मैं देश की उन्नति करूँ, मैं अमुक कार्य को अच्छी तरह संपन्न करूँ, एक धुनि केवल लग गयी है उस के ही प्रताप से वह नेता बन सकता है, पर शुरू से ही और कुछ सोच ले तो नहीं बन सकता है।
सदाशय से त्याग किये जाने का महत्त्व ▬धर्म की लाइन में त्यागी साधु बन जाने में भी जिस के मूल में आशय रहे कि हमारा सत्कार होगा, कमायी धमाई की किल्लत से छुट्टी मिलेगी ऐसा भीतर में आशय रखकर कोई धर्ममार्ग में प्रवृति करता है तो उसमें प्रगति के लक्षण और भाव नहीं आ पाते हैं। जो पुरुष संपन्न होकर भी, किसी प्रकार का क्लेश नहीं है, सब व्यवस्था है, संपन्न होकर भी उसका त्याग करे, समर्थ होकर भी वैभव का त्याग करे तो उस के चित्त में यह बात बनी रहती है कि जब हमने हजारों लाखों की संपदा का त्याग किया और धर्ममार्ग में कदम रखा है तो मुझे इन छोटी बातों की चाह से क्या फायदा है? यह उसमें विशद् ज्ञान बना रहता है। त्याग कहते ही इसको है कि अपने लिए लौकिक बातें कुछ न चाहियें, न यश, न धन, न आराम, न भोग और इतनी उत्सुकता बनी रहे कि मुझ में आत्मस्वभाव का दर्शन बना रहे यही तत्त्वभूत है, यही मैं हूँ, इसके अतिरिक्त और कुछ आकांक्षा नहीं है―इतनी लगन के साथ जो पुरुष त्यागमार्ग में बढ़ता है उसको सफलता मिलती है। इसी तरह जो देश में उन्नति करने की धुनि रखकर देश में बढ़ते हैं वे प्रगति के पात्र होते हैं।
निष्कामकर्मयोग की विशेषता ▬ भैया ! निष्कामकर्मयोग का बड़ा महत्व है। निष्काम कर्मयोग क्या है? कामनारहित कार्य करना, उस के फल में कुछ न चाहना। निष्काम कर्मयोग को और लोग भी कहते हैं और जैन सिद्धांत भी कहता है पर फरक इतना आया कि जब अन्यत्र निष्काम कर्मयोग की प्रधानता दी गयी, इससे ही मुक्ति है तो जैन सिद्धांत में निष्काम कर्मयोग को ढाल बतायी गयी। मुख्यता दी गयी है ज्ञानानुभूति की। दूसरी जगह कुछ काम करना, एक ईश्वर के नाम पर करना, ईश्वर के लिए सौंपना वह काम, यह उद्देश्य बताया गया है। तो जैन सिद्धांत में विषय कषाय से बचने के लिए निष्कामकर्मयोग करना यह बताया गया है तो निष्कामकर्मयोग में जब कि अन्यत्र कर्मयोग की प्रधानता है। निष्काम को धीरे बोलते हैं तो यहाँ कर्मयोग की गौणता है और निष्काम को तेजी से बोलते हैं। कामनारहित वृत्ति होनी चाहिए।
ज्ञाता की उदासीनता ▬यह आत्मा समस्त परपदार्थों के प्रति उदासीन है। जो विषयों के प्रति राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं वे सब अज्ञान हैं। हे आत्मन् ! तेरे कोई गुण अचेतन विषयों में नहीं हैं, फिर उन अचेतन विषयों में तू क्या ढूँढ़ता है और उनके निमित्त क्या घात करता है? अपने आप को संभाल, अपने आप के गुणों की दृष्टि से इन गुणों की रक्षा है और बाह्यपदार्थों में ऐसा करने के द्वार से इस आत्मा का घात है। विषयकषायों से विराम लो और निर्विकल्प, निष्कषाय ज्ञानमात्र अहेतुक इसकारणसमयसार की उपासना करो। जैसे किसी को क्रोध आता हो, दूसरे पर क्रोध करे, और अपना अपराध न विचार सके तो कोई तीसरा दृष्टसाक्षी पुरुष ही जानता है कि यह व्यर्थ ही क्रोध कर रहा है। इसी प्रकार विषयों के लोलुपी पुरुष अपने आप के अपराध को नहीं पहिचान सकते हैं। यह ज्ञानी संतों की वाणी ही कही जा रही है कि ये विषयकषाय के लोलुपी अपने आप को भूलकर संसारगर्त में गिर रहे हैं। अपने को भूलकर यह जीव आप ही विकल्प करता है।
पर में आत्मभ्रम का कुफल ▬एक छोटा कथानक है कि एक जंगल में एक शेर रहता था। वह प्रतिदिन बहुत से जानवारों को मार डालता था। सभी जानवरोंने सलाह की कि अपन लोग बारी-बारी से उस सिंह के पास पहुंच जाया करेंगे जिस से सभी जीव निशंक होकर तो रहेंगे। सो सभी जीव बारी-बारी से उस सिंह के पास पहुंच जाते थे। इस तरह बहुत जानवर मारे गए। एक दिन एक लोमड़ी की बारी आयी। सोचा कि अब तो मरना ही है सो कुछ अपनी कला खेलें, सो मान लो पहुंचना था 8 बजे और पहुंची 10 बजे। सिंह गुस्से से भरा हुआ बैठा था। लोमड़ी से गुस्से में आकर पूछा कि तू इतनी देर कर के क्यों आयी? सो वह कहने लगी कि महाराज रास्ते में एक बहुत बड़ा मुकाबला करना पड़ा दूसरे सिंह से। मैने बड़ी मिन्नत की कि अपने मालिक के पास हाजिरी दे आऊँ, फिर लौटकर आऊंगी तब खा लेना। इस तरह से उस सिंह से बचकर आयी हूँ। दूसरे सिंह की बात सुनकर उस सिंह को और क्रोध आ गया। बोला, कहाँ है वह दूसरा सिंह? वह लोमड़ी तो चाहती ही थी कि किसी तरह चले। सो लोमड़ी उसे एक कुवें के पास ले गयी और बोली महाराज ! यह देखो दूसरा सिंह आप के भय से कुवें में घुस गया है। सिंहने झांककर देखा तो उसी की परछाई उसे दिख गई । सिंहने दहाड़ मारी तो प्रतिध्वनि हुई अब तो गुस्से में आकर वह सिंह उस कुवें में फांद गया और मर गया। लोमड़ी चली आयी। इतना ही तो काम उसे करना था। तो जैसे भ्रम कर के शेरने जान दे डाली, इसी प्रकार भ्रम कर के ये जगत के जीव इन विषयों में अपना घात किया करते हैं।