वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 38
From जैनकोष
णवि अत्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमित्तंपि ।।38।।
942-सम्यग्ज्ञानी का निर्णय—सम्यग्ज्ञानी जीव यह अनुभव करता है कि मैं एक हूँ, अकेला हूँ । कोई भी न पुण्यबंध में साथी है, और न पापबंध में साथी है । जहाँ भी जायेगा जीव अकेला ही जायेगा । स्वर्ग नरक मोक्षादि में जाने के लिए भी इसका माना हुआ इष्ट साथ नहीं दे सकता है । सर्वत्र यह जीव अकेला ही है । दुनियां के प्रत्येक द्रव्य अकेले हैं । इस चौकी में अनेक परमाणुओं का समूह है, फिर भी उनमें से दो परमाणु भी मिल करके एक नहीं हो सकते हैं, यदि एक हो गये तो जुदा हो नहीं सकते । ज्ञान से देखो तो प्रत्येक पदार्थ अलग-अलग है, अखंड हैं, उसका दूसरा टुकड़ा नहीं हो सकता । एक पदार्थ की सत्ता दूसरे पदार्थ में नहीं जा सकती है । दो पदार्थ मिलकर एक नहीं हो सकते हैं । एक पदार्थ अपने से भिन्न पदार्थ कहो नहीं सकता । सभी पदार्थ अपने-अपने चतुष्टय में हैं । यद्यपि लोक में अनंत परमाणु मिलकर एक दिखाई देने लगता है, परंतु प्रत्येक परमाणु की सत्ता न्यारी-न्यारी है, नहीं तो वे अलग हो ही नहीं सकते । मैं एक शुद्ध चैतन्यमात्र ज्ञानमय आत्मा हूँ । मेरे से सभी पदार्थ अलग है । आत्मा अपने द्वारा अपने लिये अपने को परिणमाता है । राग निमित्त की परिणति नहीं है । आत्मा की ही ऐसी योग्यता है कि वह निमित्त को पाये उसी रूप परिणम जाता है । जैसे आपने अरहंत भगवान की प्रतिमा देखी । प्रतिमा को देखकर आपके परिणामों में निर्मलता आ गई यह आपकी ही योग्यता है, अरहंत भगवान की नहीं । अरहंत भगवान का तुम्हारे में कुछ नहीं आ गया । ऐसा भी हो सकता था कि तुम्हारे में निर्मल परिणाम न आकर भगवान की नग्न मूर्ति को देखकर मिथ्यात्व का पोषण हो जाता ! यह योग्यता उपादान की है कि वह निमित्त को पाकर अपने आप में उसी रूप परिणम जाता है । जो आत्मा दर्शन ज्ञान चारित्र में परिणत हो गया है अर्थात् निज शुद्ध स्वभाव का ज्ञान और निज स्वभाव की ओर अनुभव जिसका हो गया है, ऐसा आत्मा कैसा अनुभव करता है—उसका उपसंहार करते हैं— 943-सम्यग्ज्ञानी का अनुभव—मैं निश्चयत: सदा ही एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ, अरूपी हूँ । इस मुझ आत्मा का अन्य परमाणुमात्र भी कुछ भी नहीं है । यह प्राणी अनादिकाल से मोह में उन्मत हो रहा था । इसी कारण अज्ञान में अनेक प्रकार के अध्यवसान करता था । किंतु, है तो यह अनादि से ही ज्ञान व आनंद का पुंज । जब इसकी सुभवितव्यता आई और तत्त्वज्ञ विरक्त एवं परमकरुणा रस पूरित गुरु के द्वारा सदुपदेश मिला बार-बार प्रतिबोध मिला तब यह यो ही शीघ्र प्रतिबोध को प्राप्त हो गया कि अहो कि अहो यह में स्वयं ही तो ज्ञानानंद पिंड हूँ चिन्मात्र ज्योति हूँ । मैं हूँ, एक हूँ । शुद्ध हूँ । दर्शन-ज्ञान मात्र हूँ । अरूपी हूँ । इस प्रकार पाँच प्रकार से आत्मा का अनुभव बता रहे हैं । ‘‘मैं हूँ’’—यह बात अपने आपके प्रत्यक्ष से जानी जा सकती है । मैं हूँ, मैं आत्मा प्रत्यक्ष हूँ, चैतन्यमात्र ज्योति हूँ । जो यह मैं पहले अज्ञानी था ।जिस अज्ञानी होने का कारण अनादि काल से मोह में उन्मत्त पना था । अर्थात् जिस पर्याय में मैं गुजरा, उसी पर्याय को यह मैं हूं—ऐसा मानता रहा; अत: यह जीव अज्ञानी था । पर किसी वैरागी गुरु ने बारंबार समझाया, तब कुछ समझ में आया । किसी तरह समझ गया । मैं अपने आपको इस तरह प्रत्यक्ष हुआ जैसे कि अपनी ही हथेली पर सोने का ढेला रक्खा हो और उसे खुद ही भूल जाये; वह उसके ढूंढने के लिये बाहर यत्न करता था, परंतु जरा भीतर की ओर ख्याल आ जायें कि मैं हाथ ही में लिये था । हाथ देखा तो मिल गया । जैसे भूली हुई चीज हाथ में अनायास मिल गई; अपने ही हाथ में थी, ख्याल आया, मिल गई, उसी प्रकार यह परमेश्वर आत्मा अनादिकाल से खुद में ही आवृत था, मुझे यह परमेश्वर आत्मा मिल नहीं रहा था, परंतु जब उस परमेश्वर आत्मा का ज्ञान हुआ और श्रद्धा हुई कि यही मैं परमेश्वर आत्मा हूँ जैसा परमेश्वर आत्मा दिखा, वैसे ही देखने वाले बन गये, यही उसका आचरण हुआ तो यह आत्मा इस तरह प्रत्यक्ष हो गया कि यह, ‘यह मैं हूँ ।’ अपने आप में अपनी बात भीतर समझ लेना यही धर्म है । इतनी बात समझने के लिये पूजा, दर्शन, भक्ति, जप, तप, दान आदि कार्य करते हैं । परंतु जिनका लक्ष्य यह आत्मा है, उनका पूजा करना धर्म के अंतर्गत है । परंतु जिनका लक्ष्य चैतन्य स्वरूप आत्मा नहीं है, उनका पूजा, दान, तपादि करने की धुन सवार है । जिन्हें यही पता नहीं कि इतना कष्ट करके मंदिर में क्यों आते हैं; क्यों पूजा पाठ-प्रक्षाल, दर्शनादि करते हैं—उनका यह सब धुन सवार ही तो है । करने से धर्म नहीं मिलता है, कुछ भी न करो धर्म मिल सकता है । कष्ट करने से चेष्टा करने से पुण्य या पाप का संचय होता है, जो आस्रव और बंध के भेद, है, न करने से धर्म होता है, जो इष्टसिद्धि विधायक है । धर्म इतना सहज और सरल हैं कि तुम कष्ट न करो, बस, हो गया धर्म । मन-वचन-काय इनसे कष्ट न करो, विकल्प या चेष्टा न करो—यही तो धर्म है । दूकान आदि तो महान् कष्टकर हैं, जरासा भी कष्ट न करो, कष्ट करने में धर्म नहीं है । ऐसे जब ऐसे शुद्ध निज परमेश्वर आत्मा को जाना, तब यह आत्माराम अपने आप आत्मा के प्रत्यक्ष हो जाता है । जिस ‘मैं’ के साथ कोई रूपक बन गया वह ‘मैं’ ‘मैं’ नहीं हूँ । उस मैं का अनुभव करते हुए परीक्षा करो । मैं साधु हूँ, मैं त्यागी हूँ मैं पंडित हूँ, श्रावक हूँ, गृहस्थ हूँ, उसे मैं की चर्चा नहीं है । यह तो मिथ्यादृष्टि का मैं मैं करना है, जहाँ पर ‘यह मैं हूँ’ ऐसा भी मानसिक कष्ट नहीं है, ऐसा सम्यग्दृष्टि आत्मा का अनुभव करता है । 944-झूठी हठ में महान आनंद विकास का परित्याग—शांति सुख तो आत्मा में अब भी मौजूद है लेकिन मैं की कल्पना ने उस सुख को छिपा लिया है । सम्यग्दृष्टि तो चाहता है कि मुझे भूखे प्यास भी न लगे । क्षुधा-तुषा संसार के कारण है । खाने-पीने में वह बिल्कुल उपयोग नहीं देता है । वह चाहता हैकि मुझे अब इसके बाद न खाना पड़े । सम्यग्दृष्टि के आत्म प्रत्यक्ष होने पर भूख-प्यास सभी नष्ट हो जायेंगे, अनंतकाल तक इनकी जरूरत नहीं पड़ेगी, ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक संबंध हैं । यह मैं हूँ, यह मैं आत्मा आत्मा के द्वारा प्रत्यक्ष हूँ । यह सम्यग्दृष्टि का निजस्वरूप संचेतन है । आनंद-शांति खुद की खुद में है । यह जगत् इंद्रजाल (धोखे की टटिया) है । वास्तव में जगत् ऐसा नहीं है, इस प्राणी का मोह ही ऐसा है । पदार्थ को देखकर इसे संग्रह किये बिना चेन नहीं है । पदार्थों का संग्रह करना ही तो मौत है । बाह्यपदार्थों की ओर झुकना ही मौत है, न झुको तो निर्भयता है । परंतु यह मन मानता ही नहीं है । यह मन अपनी इच्छानुसार आचरण करता रहता है । किसीने कोई बात कही, उसका ख्याल न करें; उसे गुनगुनाना थोथी चीज है—इसी में आत्मा की रक्षा है । उसी बात में विचलित हो जाने में अपना बड़ा भारी नुकसान है । मोही लोग ऐसा कहेंगे कि इन्होंने ऐसी-ऐसी बातें कह डाली, इनकी क्या इज्जत रही—यह सब उनका (मोही का) थोथापन है । ज्ञानी विवेकी लोग यदि किसी की बात नहीं सहना चाहते तो उसका कारण यह हो सकता है कि अपनी लोक में जीविका व्यवहार चलाने के लिये अज्ञानियों की बातों का उत्तर दे देते हैं । लौकिक जीवन को चलाने के लिये उनका विरोध करना उपयुक्त भी है । विरोध वे अपनी इज्जत में बट्टा लगने के भय से नहीं करते हैं; क्योंकि उन्हें अपने मानापमान का ख्याल नहीं होता है । ख्याल होता है उन्हें अपनी आत्मा का । क्योंकि वह जानता है कि अपनी इज्जत को मैं स्वयं खराब कर सकता हूँ; अन्य कोई मेरी क्या इज्जत खराब करेगा? अत: किसी ने जो बात ज्ञानी को कही उसे से ज्ञानी की इज्जत तो नहीं बिगड़ती, अपितु इज्जत बिगाड़ने वाले की ही इज्जत बिगड़ती है; परंतु उसका मुकाबला न करने से उसके लौकिक जीवन निर्वाह में फर्क आ सकता है, अत: वह अज्ञानी की बातों का विरोध करता है । सम्यग्दृष्टि जीव सहज विरक्त है । जिन-जिन बातों से उसके रहन-सहन, जीवन निर्वाह में कोई फर्क नहीं पड़ता है, उन-उन बातों पर वह कोई उपयोग नहीं देता है । टुच्ची टुच्ची बातों पर वह मन में कलुषता नहीं आने देता है । क्योंकि उसे विश्वास है कि मेरी इज्जत अन्य कोई खराब नहीं कर सकता है । मैं ही स्वयं अपनी इज्जत अपने आप खराब करता हूँ । सम्यक्त्वी आत्मा को आत्मा समझता है । 945-समझ का फेर—यह आत्मा अपने आपको अनादिकाल से भूला हुआ था वह इसी पर्याय को आत्म मानता रहा है, केवल समझ का फेर है निजतत्त्व की भूल के कारण इस जीव पर अनेक विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ता है । आंख, कान, नाक, हाथ, पर आदि से यह शरीर बन गया, जिसकी रक्षा के वास्ते भोजन करना पड़ता है, एक दूसरे से संबंध (Relations) हो गये, घर बनाना पड़ा—इस चैतन्य आत्मा के लिये ये विपत्तियाँ क्या कम विपत्तियाँ हैं? इन सब विपत्तियों का कारण समझ का फेर है, पर्यायबुद्धि है । एक बादशाह था । उसके कई दरबारी थे । उनमें एक उसका साला और एक सेठ भी था । बादशाह सेठ को खूब पुरस्कार देता था । एक दिन मेम साहबा ने बादशाह से कहा, इस अपने साले को प्रश्रय क्यों नहीं देते हो, यह सेठ तुम्हारा क्या लगता है? बादशाह ने कहा कि इस साले में कोई ऐसा गुण नहीं है, जो हम से प्रश्रय ले सके । फिर भी मेम साहबा के बार-बार आग्रह करने पर उसने वजीर से कहा कि इस साले को भी कुछ प्रश्रय (पुरस्कारादि) दिया करो । वजीर ने कहा कि पहले इस साले की परीक्षा तो लेनी चाहिये कि इसमें सम्मान प्राप्त करने की योग्यता है या नहीं? एक दिन सेठ से और साले से कहा गया कि तुम्हें 500) रुपये में अपनी-अपनी दाढ़ी बेचैनी होगी । साले साहब ने कहा कि इससे बढ़कर हमारे योग्य क्या सेवा हो सकती है? उसने नाई को बुलाया और दाढ़ी उतरवाकर बादशाह को सौंप दी और 500) प्राप्त कर लिये । अब बनिये का (सेठ का) टर्न आया । सेठ ने कहा अच्छा हमने राजा साहब को अपनी दाढ़ी बेच दी लाओ 500) रुपये । सेठ को 500) दे दिये गये । अब बुलाया गया नाई । जब नाई बनिये की दाढ़ी बनाने लगा तो सेठ ने नाई के गाल पर एक चपत रसीद किया और कहा, अबे, तुझे इतनी भी अक्ल नहीं है कि हम यह दाढ़ी बादशाह को बेच चुके हैं, इस पर तू अपना हाथ क्यों फेरता है । यह दाढ़ी तो बादशाह की है, इसकी ये इज्जत करता है । चपत खाते ही नाई ने कहा कि मैं तो इसकी दाढ़ी बना चुका (असमर्थ हूं) और वहाँ से चपत खाकर चंपत हुआ । अब बनिये की लड़की की शादी होनी थी । उसने बादशाह के पास बिल बनाकर भेज दिया कि बादशाह की दाढ़ी की रक्षा के लिए लड़की की शादी में 3 लाख रुपये की आवश्यकता है । बादशाह की लड़की की शादी में भी इतना ही खर्च होता था, इस अजमायस के लिये पुराने बही खाते देखे गये और 3 लाख रुपये का चेक कटा कर भेजना पड़ा । सेठ को जिस कार्य के लिये भी रुपयों की आवश्यकता होती रही, वह बिल बनाकर भेजता रहा और उसे रुपये मिलते रहे । यह देखकर उस मुसलमान भाई को (साले को) गुस्सा आया, तो उसने चिढ़ कर आकर कहा कि लो ये अपने 500) रुपये, हमें अपनी दाढ़ी नहीं बेचनी है । साले साहब की दाढ़ी वापिस दे दी गई देखो, सेठ ने अपनी दाढ़ी का एक बाल भी नहीं दिया और उसे बादशाह की ओर से बड़ी से बड़ी सहायता मिलती रही और साले साहब ने अपनी दाढ़ी भी कटा ली और वह 500) रुपयों से भी हाथ धो बैठा । अत: भैया, समझ ही का तो फेर है । समझ है तो उत्कर्ष है और समझ नहीं है तो हानि है । 946-पर्याय में आत्मबुद्धि सारी विपत्तियों का पहाड़—अतः पर्यायबुद्धि को बलात् मन से दूर करने का सफल यत्न करो । यह मैं आत्मा आत्मा के द्वारा प्रत्यक्ष चैतन्यमात्र ज्योति हूँ । मैं अकेला हूँ, कोई किसी बात में मेरा साथी नहीं है । यह विश्वास रखना कि मैं किसी का उपकार नहीं करता, किसी का पालन नहीं करता हूँ । अपितु जैसी हमारी योग्यता है, उस योग्यता के अनुकूल हमारी चेष्टायें बन जाती हैं । मैं किसी का कुछ नहीं करता । जैसे अन्य लोग कषाय वाले हैं; वैसा ही मैं भी हूँ । उस कषाय रूप मेरा परिणमन हो जाता है, उस मेरी कषाय से दूसरे का भला-बुरा हो जाये, यह उसी की योग्यता पर निर्भर है । परंतु मैं किसी का भला-बुरा नहीं कर सकता हूँ । मेरी कषाय की चेष्टायें दूसरे के भले बुरे में कारण बन गई, यह योग्यता-विशिष्टता उसी में है, मेरे में नहीं है । मैं किसी का भला बुरा नहीं कर सकता, मेरे में तो चेष्टायें होती रहती हैं—मेरी चेष्टायें किसी के भले में हेतु हो गई—यह उसी की योग्यता पर आश्रित है । 947-निजस्वरूपसंचेतन—यह मैं एक हूँ । यद्यपि आत्मा में अनंत गुण और अनेक पर्यायें समझ में आ रही हैं, अब इस गुण ने यह जाना, इस गुण ने यह किया, उसने वह किया, फिर भी क्या इन गुणों ने अपने चैतन्य स्वरूप में कभी भेद डाला है? नहीं इसमें भेद नहीं पड़ता है । यह आत्मा अभिद्यमान होने से एक है, अकेला है । यह सम्यग्दृष्टि का निज स्वरूप संचेतन है कि अपने आप में यह कैसा संचेतन करता है मैं मैं हूँ, मैं ज्ञाता हूँ, दृष्टा हूँ, स्वतंत्र हूँ, निश्चेष्ट हूँ, निष्क्रिय हूँ—वह इन विकल्पों को करता हुआ अनुभव नहीं करता है, परंतु जब कब उसमें ऐसा अनुभव होता रहता है । इस आत्मा के साथ पचासों परिस्थितियां लगी रहती हैं, परंतु परिणमना तो आत्मा कोही पड़ता है, इसमें किसी बाहर की चीज का प्रवेश नहीं है । अत: यह मैं एक आत्मा हूँ, ऐसा अखंड सत् है । जैसा यह मैं आत्मा के द्वारा प्रत्यक्ष हुआ, इतना ही मात्र मैं हूँ, ऐसा सम्यग्दृष्टि अपने आप में सचेतन करता है । 948-मूल भूल की बड़ी विडंबना—दुःख लाये जाते हैं, सुख मिलता है, दुःख बनाये जाते हैं । सुख स्व से निकलता है । दुखपरायत्तता से प्रकट होते हैं सुख स्वतंत्र हैं सुख स्वयं हैं । कितनी विपत्तियों से यह आत्मा लिप्त रहता है । कैसे इस आत्मा में नाना प्रकार के रोग-व्याधियाँ होती रहती हैं । पर इन सब विपत्तियों-की जड़ समझ का फेर है, पर्याय को ही पूर्ण द्रव्य मान लेना हैं । इस जरासी, परंतु बड़ी भूल पर इतनी विपत्तियों की ढेर इस जीव पर आड़ लेता है । जैसे:—एक बार एक कुम्हार ने एक सिंह को गधा जानकर पकड़ लिया । सिंह भी अपने आप अनायास ही पकड़ में नहीं आता है उसने अंधेरी का सुन रक्खा था कि जितना शेर का डर नहीं होता जितना अंधेरी का होता है । वह अंधेरी के भ्रम में आकर पकड़ा गया । शेर पर कुम्हार ने बर्तन लाद दिए । शेर पर इतनी विपत्तियां जो पड़ गई, केवल इसी समझ के कारण कि कहीं मुझे अंधेरी ने तो नहीं पकड़ लिया । इस समझ के फेर से सिंह भी कुम्हार के वश में हो गया । ये सब विपत्तियाँ बोध होते ही, कि यह कुम्हार है और मैं जंगल का राजा ‘‘शेर’’ हूँ, छूट जायेगी और पहले की तरह से स्वतंत्र विहार करने लगेगा । इसी प्रकार इस संसारी जीव पर ये आपत्तियां जरासी भूल पर राज्य जमा रही हैं । मोह में पड़कर यह अज्ञानी इसी पर्याय को पूरा आत्मा मानता है, इस गलती पर सारा संसार अपना दु:ख इस जीव पर ढाल रहा है । सम्यग्दृष्टि से यह सब पर्यायबुद्धि छूट चुकी है । इस प्रकार आज ‘‘मैं एक हूँ’’ का वर्णन हुआ, कल ‘‘मैं शुद्ध हूँ’’ का प्रकरण चलेगा । 949-सम्यक्त्व में ज्ञानचेतना—सम्यक्त्व के लक्षण में अनेक बातें बताई गई, सार यही है कि सम्यग्दर्शन का लक्षण ज्ञान चेतना है । नि:शंकितादि अंग भी सम्यक्त्व के लक्षण हैं, लेकिन ये आठों अंग ज्ञान चेतना के होने पर ही होते हैं । ज्ञानचेतना के बिना होनेवाले अंगाभास हैं । नि:शंकितादि अंग सम्यक्त्व के बाह्य लक्षण हैं । सीधा लक्षण ज्ञान चेतना है । सम्यग्दृष्टि जीव अपने को ज्ञानमात्र संचेतन करता है । चेतना तीन प्रकार की है:—(1) कर्म चेतना (2) कर्मफल चेतना और (3) ज्ञान चेतना । ज्ञान के सिवाय सारी बातों में मैं इन्हें करता हूं—यह सचेतन होना कर्म चेतना है । मैं ज्ञान करता हूँ, यहाँ तक तो ठीक है, इसके बाद मैं दूकान करता हूँ आदि कर्तृत्व की बात लगाना कर्म चेतना है । मैं ज्ञान का ही अनुभव न करता हूँ, यहाँ तक तो ठीक है । ज्ञान के सिवाय न किसी को करता हूँ । न किसी को भोगता हूँ । ज्ञान से सुख-दुख का अधिक संबंध है । यदि धन से सुख दुख होता तो करोड़ पतियों को तो दुनियां भर का सुख मिल जाना चाहिए था, किंतु नहीं मिलता इसका कारण, अन्य धनियों पर दृष्टि है गरीब पर दृष्टि डालोगे, कैसे-कैसे वे अपना गुजारा करते हैं । उनके तन पर कपड़ा नहीं है, कल के लिए घर में आटा नहीं है आदि दिक्कतें पड़ती हैं, उनकी तरफ दृष्टि हो तो संतोष हो जाए ना? अत: धन से दु:ख सुख नहीं है, ज्ञान की स्टाइल से सुख दु:ख का संबंध है । ज्ञान के सिवाय मैं सब बातों को भोगता हूँ, बरतता हूँ यह बुद्धि होना कर्मफल चेतना है । मैं ज्ञान को ही करता हूँ, ज्ञान को ही भोगता हूँ ऐसी बुद्धि होना ज्ञान चेतना है ज्ञान चेतना सम्यग्दृष्टि में पाई जाती है । शेष दो चेतनायें सम्यग्दृष्टि में गौण रूप से पाई जाती है । कुछ उसे घर का, दूकान का, समाज का, देश का काम भी करना पड़ता है ऐसा राग आ जाने का कारण कर्म का उदय है । अत: उसके थोड़ा यह तो विचार मौजूद है कि मैं यह करता हूँ, अत: उसके कर्म चेतना भी है । तथा जैसे शरीर में व्याधि हो गई, उसे उसका उपचार भी करना पड़ता है, वहाँ कुछ वेदने का विकल्प तो है ही । अत: उसके कर्म फल चेतना भी गौणरूप से है । उसकी दृष्टि में उपादेय ज्ञान चेतना है । सम्यग्दृष्टि का लक्षण तो ज्ञानचेतना ही है मगर ज्ञान चेतना किसी के समझ में नहीं आती उसका बाह्य चिन्ह बताने के लिए प्रशम अनुकंपा, संवेगादि अनेक गुणों का वर्णन किया गया है । अंग भी सम्यग्द्दष्टि के बाह्य चिन्ह हैं । सम्यग्दर्शन भी-2 प्रकार का है:—(1) व्यवहार सम्यक्त्व, (2) निश्चय सम्यक्त्व । परंतु ये भेद प्रयोजनवश किए गए हैं । व्यवहार सम्यक्त्व सराग है, सविकल्प है । निश्चय सम्यक्त्व वीतराग है, निर्विकल्प है? 950-सम्यम्दर्शन का लक्ष्य आत्मा के स्वभाव पर पहुंचना—अपने में सम्यग्दृष्टि जो भी प्रतीति करता है, वह स्वभाव रूप से प्रतीति करता है । मैं (आत्मा) एक हूँ, शुद्ध हूँ । शुद्ध के माने यहाँ पर यह लिया है कि इस आत्मा मैं अनेक मनुष्य नरक, तिर्यंचादि पर्याय चल रही हैं ये व्यंजन पर्याय कहलाती हैं ।आत्मा में काम-क्रोध-राग-मोहादि पर्याय भी चल रही हैं ये अर्थ-पर्याय कहलाती हैं । इस प्रकार अनेक पर्याय आत्मा में चल रही है । पर्याय आत्मा की दशा है । यह दशा हमेशा नहीं रहती है, यह आत्मा एक पर्याय को छोड़कर दूसरी को अपनाता रहता है । इन पर्यायों से आत्मा का स्वरूप विलक्षण है । वह ज्ञायकस्वभावरूप है । ज्ञायक स्वभाव आत्मा से अत्यंत भिन्न है, अत: आत्मा शुद्ध है । शुद्ध माने यहाँ, जो अनंत काल तक एक अपरिणामी तत्त्व है वह है । शुद्ध स्वभाव पर दृष्टि डाले, वह शुद्ध है । जैसे अंगुली न टेढ़ी है न सीधी है । परंतु अंगुली को बिना टेढ़ी और बिना सीधी रूप में दिखला नहीं सकते हैं । हाँ, यदि कोई कहे कि अंगुली सीधी होती है, तो अंगुली के टेढ़ी होने पर अंगुली का सीधापन कहां रहा? यदि कोई कहे अंगुली टेढ़ी होती है तो उसे सीधी करके समझा सकते हैं कि अंगुली सीधी भी होती है । शुद्ध अंगुली टेढ़ी से भी अलग है, सीधी से भी अलग है । शुद्ध अंगुली न टेढ़ी है और न सीधी ही है । वह अंगुली टेढ़ी और सीधी होकर भी किसी भी एक पर्याय में नहीं है । अंगुली का लक्षण न टेढ़ापन है न सीधापन । इसी प्रकार से यह (शुद्ध) जीव न संसारी है, न मुक्त है । यदि कहे कि जीव संसारी है, तो हम सिद्ध भगवान का दृष्टांत दे सकते हैं, क्योंकि वे संसारी नहीं हैं मुक्त है । यदि कहा जाए कि जीव मुक्त है, तो संसारी जीवों को प्रत्यक्ष देखकर भी अंधा बनना क्या न्यायसंगत है । यदि स्वरूप पर दृष्टि दो तो वह जीव शुद्ध है । मैं शुद्ध हूँ । नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आदि जीव विशेष और अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष आदि सब व्यवहारिक तत्त्व हैं । इनसे मैं परमार्थत: अत्यंत विवित्त हूँ । मैं तो ज्ञायकस्वभावमात्र हूँ, टंकोत्कीर्णवत् निश्चल एवं स्वत: प्रसिद्ध हूँ ऐसे शुद्ध स्वभाव पर जो दृष्टि डालता है, वही मोक्षमार्ग पर चल पाता है । जो शुद्ध पर दृष्टि देता है, उसी का पर्याय निर्मल होता है जैसे मनुष्य निश्चयत: न बच्चा है, न जवान है, न बूढ़ा है । यदि तुम जवान को मनुष्य कहो तो जवानी मिटने पर मनुष्य ही मिट जाएगा । क्या बूढ़े और बच्चे मनुष्य नहीं हैं? यदि तुम बूढ़े को मनुष्य कहो तो बूढ़ों से पहिले वह मनुष्य न कहावेगा । क्या बच्चे और जवान मनुष्य नहीं हैं । अतः मनुष्य न बच्चे को कहते, न बूढ़े को कहते और न जवान को कहते । यदि तुम्हें मनुष्य का ठीक-ठीक लक्षण समझना है तो जो बच्चा, जवान, बूढ़ा इन सब अवस्थाओं में से गुजरता रहता है, वह एक है, वह मनुष्य है । शुद्ध मनुष्य को न बूढ़े की शक्ल में देखो, न जवान के आकार में और न बच्चे के रूप में वही मनुष्य है । मनुष्य को अशुद्ध देखा तो उसे बूढ़े के रूप में देखा या बच्चे के रूप में देखा या जवान के आकार में देखा । जो मनुष्य इन अवस्थाओं रूप दिखाई दिया, वह अशुद्ध मनुष्य है । जीव को किसी एक पर्याय से देखना अशुद्ध देखना है । यदि तुम्हें मनुष्य ही दिखा तो तुमने अशुद्ध देखा । यदि तुम्हें जवान दिखा तो, वह अशुद्ध दिखा कहने का मतलब यह है कि मनुष्य को पर्यायरूप से देखा तो अशुद्ध दिखा, शुद्धरूप से देखा तो शुद्ध दिखा । इसी प्रकार जीव निश्चयत: न नरक है; न मनुष्य है न तिर्यंच है और न देव है तथा न सिद्ध है । यदि तुम इनमें से जिस एक को जीव कहोगे तो बाकी पर्यायों में वह जीव न कहावेगा । अत: जो इन सब पर्यायों में अनुगत है वह जीव है । अथवा जो इन सबसे विविक्त है शुद्ध चेतनामात्र है वह जीव है । 951-सम्यग्दृष्टि का शुद्ध ज्ञानमात्र स्व का अनुभव:—जीवा जीवाधिकार की अंतिम गाथा में सम्यग्दृष्टि जीव अपने आपका किस रूप अनुभव करता है; यह बताया जा रहा है। मैं मैं हूँ, मैं एक हूँ और शुद्ध हूँ । अपने को अशुद्धरूप में मानने ही में तो संसार बढ़ रहा है । मैं त्यागी हूँ, मैं साधु हूँ मैं श्रीमान् हूँ मैं पंडित हूँ आदि—इनमें से कोई भी विशिष्टता अपने अंदर अनुभव की, समझो दुःख का पहाड़ टूट पड़ा । जहाँ यह अनुभव हुआ कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, चैतन्यमात्र हूँ तो समझो दुःख वहाँ ठहर भी नहीं सकते । कोई शरीर में व्याधि हो जाये उस समय यह अनुभव कर लिया जायें कि मैं उपयोगमात्र हूँ, ज्ञानमात्र ही हूँ तो वह रोग कुछ कम हो जाता है; धीरे-धीरे वह रोग नष्ट भी हो जाता है । यह अनुभव करने से सारी विपत्तियां दूर हो जायेगी । किसी पर द्वेष करने की कितनी भी कुबुद्धि उत्पन्न क्यों न हो रही हो, मैं ज्ञानमात्र हूँ, चैतन्यमात्र हूँ, यह अनुभव उत्पन्न हो जाये तो कुबुद्धि भी दूर हो जाये आत्मा के पास वैभव की कमी नहीं है, परंतु यह आत्मा बाह्य में दृष्टि गड़ाकर अपने को दु:खी अनुभव कर रहा है । 952-सब पर्यायों में जाता हुआ भी मैं सब पर्यायों से अलग हूँ:—मैं चैतन्यमात्र हूँ । जो मैं सामान्यरूप से चेतता हूँ, वह दर्शनरूप है । विशेष से चेतता हूँ तो वह ज्ञान रूप है । मैं निरंतर चेतता रहता हूँ और विशेष-सामान्यमय हूँ, अत: आत्मा दर्शन ज्ञानमय है । आत्मा में दु:ख है तो कर्तृत्व बुद्धि का है । भैया ! किसी ने यदि तुम्हें कुछ कह दिया तो तलवार तो नहीं मार दी । कोई देखने वाला कहेगा कि देखो व्यर्थ में यह अपने को दुःखी अनुभव कर रहा है । यह सब यह कर्तृत्व बुद्धि ही कराती है । एक धुनिया था । वह वायुयान में बैठकर कहीं से आया था । जहाँ पर वह उतरा, वहीं पर उसी वायुयान से हजारों मन रूई भी उतरी । इतनी रूई को देखकर उसे चिंता हो गई कि यह सारी रूई मुझे ही धुननी पड़ेगी । इस प्रकार चिंता कुलित होकर वह बहुत अधिक बीमार हो गया । बड़े-बड़े डाक्टर वैद्यराज और हकीम बुलाये गये, लेकिन कोई भी उसके रोग को न पहिचान सका । एक कुशल वैद्य आया । उसने पूछा, तुम कहा गये थे, वहाँ क्या देखा आदि? धुनिया बोला, मैं, आज सुबह यान से आ रहा था, तो मैंने उस यान से उतरती हुई हजारों मन रूई देखी । कुशल-वैद्य जान गया कि वह धुनिया है, इसने रूई देखी, अत: इसे यह बीमारी हुई है । वैद्य ने यकायक कहा कि अरे, वह जो आज सुबह वायुयान से रूई आ रही थी, उसमें तो आग लग गई है । यह सुनते ही धुनिया की सारी आधि व्याधियां जाती रही । धुनना पड़ेगी, यह कर्तृत्वबुद्धि ही तो दु:ख था सिवाय; कर्तृत्व-भोक्तृत्व बुद्धि के दु:ख नहीं है । 953-आत्मा की उपयोगस्वरूपता:—मैं आत्मा दर्शन ज्ञानमय हूँ । मैं रूप को जानता तो हूँ, पर मुझ में रूप नहीं आ जाता, मैं गंध को सूंघता अवश्य हूँ, परंतु गंध मुझ में नहीं आ जाती, इसी प्रकार मैं रस को चखता तो हूँ परंतु रस मेरी आत्मा में नहीं पहुँच पाता । मैं रूपरस-गंध-स्पर्श को जानता तो हूँ; पर जानकर मैं उन रूप परिणाम थोड़े ही जाता हूँ । बस, मैं तो जान भर लेता हूँ । परमार्थ से देखो तो मैं अरूपी हूँ । जैसे कहते कि हमने पकवान खाया । परंतु पकवान आत्मा में चिपकता नहीं है । पकवान का रूप रस गंध स्पर्श पकवान में ही रहता है, आत्मा में नहीं पहुंच पाता, परंतु आत्मा में ऐसी शक्ति है कि वह रूप रस गंध स्पर्श का ज्ञान कर लेता है । यह आत्मा अमूर्त है, फिर भी यह चबा कर ही रस का ज्ञान कर पाता है, देखो कैसी विडंबना है । और भगवान् तो दूर बैठे-बैठे पकवान को बिना चखे रूप रस, गंध, स्पर्श का ज्ञान कर लेते हैं । संसारी आत्मा के साथ कैसी विडंबना है कि जानने का काम होते हुये भी द्रव्येंद्रियों के साथ कैसा संपर्क लगा रक्खा है और फिर जान पाता है । ऐसा वेदन होकर भी आत्मा में रस नहीं पहुंच पाता है । बड़ा मीठा लग रहा है ऐसी भाषा न बोलो । ऐसी भाषा न बोलो कि इसकी मीठी पर्याय का ज्ञान हो रहा है । वह तो बेहोशी है । ऐसी भाषा बोलो कि आत्मा रस का ज्ञान कर रहा है । स्वाद का ज्ञान होने में और लगने में फर्क है । यह आत्मा रूपरस-गंध-स्पर्श का ज्ञान करके भी उस रूप नहीं परिणम पाता । सबसे पहले प्रतीति करे कि यह शरीर मैं नहीं हूँ, यही मानने से आत्मा में आनंद आयेगा । मैं आत्मा अमूर्त हूँ । यह पौद्गलिक शरीर मैं नहीं हूँ । मैं एक हूँ । मैं चैतन्यमात्र हूँ । रूप रस गंध स्पर्श से रहित अमूर्त आत्मा हूँ । किससे किसका कब तक संबंध रहेगा । जो इसे आत्मा को पदार्थ मिले हैं, शरीर के साथ कब तक संबंध रहेगा? बाह्य शरीर की बात विचारकर मोह में पड़ना पड़ता है । करोड़ों काम कर डालो शांति ज्ञान से ही मिलेगी । 954-जिस दिन से ज्ञानमार्ग में लगे उस दिन से हमारी उन्नति का प्रारंभ शुरू:—आत्मा का वैभव ज्ञान ही है । वैभव की समृद्धि होने पर आत्मा की भी उन्नति है । मगर जब तक जड़ का ज्ञान रहता है तब तक मोह की स्थिति रहती है । जहाँ पर पदार्थों से मोह हटा, भेद जान पाया कि आत्मद्रव्य से समस्त पदार्थ जुदे हैं कि आनंद उमड़ आता है । कोई किसी का परिणमन नहीं करता, मैं स्वयं की शक्ति से विभावरूप परिणमता जाता हूँ । मैं अपनी ज्ञान-दर्शन शक्ति से अपना परिणमन स्वयं कर सकता हूँ अन्य मेरा परिणमन नहीं कर सकता है । मेरा परिणमन ज्ञानरूप हुआ करता है । मैं ज्ञान के सिवाय अन्य को नहीं भोगता हूँ और न किसी पदार्थ को करता हूं—ऐसी बुद्धि के निर्विकल्प पद्धति से होने को ज्ञान चेतना कहते हैं । मैं स्पर्श रस गंध वर्ण का ज्ञान करता हुआ भी, उन रूप नहीं परिणम जाता । रूपादि का परिणमन रूपादि में है, मेरा परिणमन मुझमें है । मैं एक हूँ । शुद्ध हूँ, केवल एक निज अखंड स्वभावरूप हूँ जहाँ यह विश्वास हो गया, ऐसी प्रतीति करने वाले मेरे निज का एक अणुमात्र भी नहीं है । सारा विश्व मेरे ज्ञान में आता है परंतु अणुमात्र भी मैं नहीं हूँ, न अणुमात्र मेरा है । सम्यग्दृष्टि के ऐसी ज्ञान चेतना होती है । जीव का अजीव कुछ भी नहीं है इस तरह की बात बताते हैं कि एक अणुमात्र भी मेरा नहीं है । जो कि जगत् के ये पदार्थ भावक बनकर या ज्ञेयरूप से मुझ में मिलकर मेरे में मोह उत्पन्न करें, ऐसा हो नहीं सकता । बाह्य पदार्थ मेरे में लोभ उत्पन्न करते, बाह्य ही मुझे क्रोध दिलाते—ऐसी बुद्धि बनी थी, जब वस्तु का स्वरूप जाना तब बुद्धि ठिकाने आई तो यह ज्ञान हुआ कि इन पदार्थों में से मेरा कोई रिश्ता नहीं है । सम्यग्दृष्टि जीव अपना अनुभव करता है और मोह को नष्ट कर देता है । 955-ज्ञान चेतन का सम्यक्त्व से संबंध—सम्यक्त्व के होने पर ज्ञान चेतना होती है और सम्यक्त्व के न होने पर ज्ञान चेतना भी नहीं होती है । शंका—ज्ञानचेतना वीतराग सम्यग्दृष्टि के हो सकती है, सराग सम्यग्दृष्टि के हो यह संभव नहीं जंचता । समाधान—जैसे दूध में उफान आ रहा हो तो दूध में जल डाल देना चाहिए । इसी प्रकार तुम ( शिष्य) बड़े उफान में बात कर रहे हो, अतएव अब तुम्हें ठंडी-ठंडी बातें सुनाकर तुम्हारा उफान शांत कर दें । यह तो तुम बुद्धि पूर्वक नहीं कह रहें हो कि सराग सम्यग्दृष्टि के ज्ञानचेतना नहीं होती है । हाथी जैसे भोजन करता है तो उसे कोई विवेक नहीं होता वह हलुआ और घास को जैसे एक साथ मिलाकर खाता है; इसी प्रकार रे जिज्ञासु, तू राग और सम्यक्त्व में भेद न समझकर उनको मिलाकर कह रहा है कि ज्ञान चेतना सम्यग्दृष्टि के नहीं होती है । सम्यग्दृष्टि अब क्या अनुभव करता रहता है, इस बात से तुम अनभिज्ञ हो । अत: तुमने यह शंका की कि ज्ञान चेतना वीतराग सम्यग्दृष्टि के ही हो सकती है, सराग सम्यग्दृष्टि के नहीं । राग का स्वरूप और ज्ञान का स्वरूप जिसने भले प्रकार निश्चित कर लिया है, वह कैसे राग में ढुल जायगा । राग यद्यपि आत्मा में उठते हैं, तो भी राग आत्मा के निमित्त से नहीं होता है । राग के उत्पन्न होने में कारण कोई कर्म का उदय है । अतएव राग आत्मा का स्वभाव नहीं है । आत्मा का स्वभाव तो ज्ञान चेतना है । राग का काम आकुलता है, जबकि ज्ञान का काम अपने को ज्ञाता दृष्टा देखने का है । सम्यक्त्व का यह प्रभाव है जिसके होने पर परिस्थितियां कुछ भी रहें, पर अनुभव होता रहता है, कि अंदर ज्ञान है । वे परिस्थितियां क्यों होती हैं? जिसे सम्यग्दर्शन हुआ है, वह आत्मा अज्ञान मोह के वश होकर नाना प्रकार के प्रवर्तनों में लग रहा था, आज सम्यक्त्व के होने पर भी उनसे एक दम हट नहीं पाता है तथापि रुचि ज्ञान स्वभाव की ही है । इस कारण सम्यग्दृष्टि जीव अपने को ज्ञानमात्र अनुभव करता है । उसे परमाणुमात्र भी आत्मीय नहीं प्रतिभास होता है । अब उसके भाव में मोह से ममता नहीं है । अब ऐसी स्थिति का अवसर नहीं है कि मोहनीयकर्म की भावकरूप से एकता स्थापित हो अथवा ज्ञेय पर पदार्थों या ज्ञेय विकल्पों की ज्ञेयता रूप से चलकर एकता स्थापित हो । अब मोह कैसे उत्पन्न हो । सम्यग्दृष्टि जीव यह अनुभव करता है कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ मेरा परमाणु मात्र भी कुछ नहीं है—ऐसा जो भाव रखता है, उसके मोह एकदम दूर हो जाता है । उसके ज्ञान एक साथ स्फुरित हो जाता है । 956-ज्ञान में शुद्ध चिन्मात्रता की प्रतीति का कथन—जो पुरुष धर्मादिक ज्ञेय पदार्थों से अपने को निराला समझ रहा हे, रागादिक विकार भावों से अपना स्वरूप निराला समझ रहा है वह अपने दर्शनज्ञान चारित्र में परिणत हो रहा है अपने आपको निरख रहा है, उसमें ही परिणत हो रहा है उसमें ही तृप्त हो रहा है इसलिए ज्ञानी पुरुष को इस प्रकार का स्वरूप सचेतन होता है । यह उपसंहार सहित इस गाथा में दिखाया गया है । मैं एक हूँ, अकेला हूँ, कैसे इसे इस एकत्वस्वरूप का बोध हुआ है कितना जल्दी सुगम विधि से बोध हुआ है जैसे कि किसी पुरुष के हाथ में मुट्ठी में अँगूठी हो और वह उस अँगूठी को भूल गया । वह सब जगह देख रहा है, बक्स खोलकर भी देख रहा है । रोज दाहिने हाथ से खोलता था आज बायें हाथ से खोल रहा है, इतने पर भी अकल नहीं चल रही कि इस हाथ से खोलें । वह बड़ा बेचैन हो गया । उस घबड़ाहट में उसे इतना तक भी उपाय नहीं जंचता और थोड़ा ख्याल आ जाय, बँधी हुई मुट्ठी को खोलकर देखें तो देखते ही उसे तुरंत मिल गई और बड़ा प्रसन्न हो गया । तो आप बताओ उसकी वह अँगूठी गुमी कहाँ थी, थी उसके ही पास किंतु उसका ज्ञान न था । ज्योंही ज्ञान हुआ तो प्रसन्नता सहित वह कहता है कि ओह यह है अंगूठी । यों ही यह आत्मा खुद तो है ज्ञानानंद का निधान पर अपनी इस निधि का परिचय न होने के कारण यह जीव बाहर अपने को खोज रहा है । परपदार्थों में ज्ञान ढूंढना अथवा आनंद ढूंढना इसी का अर्थ है कि पर में अपने को खोज रहा । कभी सुयोगवश कुछ इसकी बुद्धि निर्मल बने, थोड़ी झांकी आने लगे और इसकी झलक में आ जाय कि ज्ञानानंद स्वरूप से ही तो रचा गया मैं हूँ, मुझ में ज्ञानानंद के सिवाय अन्य कुछ नजर ही नहीं आ रहा । जिसके लिए मैं भटक रहा उतना ही मात्र मैं हूँ, उससे आगे यहाँ कुछ नजर नहीं आता । जहाँ ही उसे अपने ज्ञानानंद स्वरूप का परिचय होता है तो वह प्रसन्नता के साथ सब कुछ निरख रहा है, ओह ! यह हूँ मैं एक अद्वैत चैतन्यमात्र । ऐसे चिन्मात्र स्वभाव को निरखकर देखा जा रहा है जो कि अखंड है, जिसके कभी पर्याय के भेद से भी खंड नहीं कर सकते । है ही नहीं इसमें अन्य कुछ । फिर उसमें आस्रव आदिक तत्त्व या मार्गणा आदिक के भेद, गुणस्थान के भेद में क्या यहाँ पड़े हैं । जब स्वभाव को निरख रहा है तब स्वरूप को देखने के समय उसे यह कुछ नहीं जच रहा । इससे भी निराला ऐसा मैं शुद्ध चिन्मात्र हूँ । 957-ज्ञानी का हितमय चिंतन—अब फिर क्या हूँ मैं? कुछ थोड़ा सा भेद करके बढ़ रहा है फिर एकदम भेद में आ जायगा । भेद दृष्टि से कह रहा—अपने ज्ञानदर्शन रूप हूँ । वह चेतना बहिर्मुख रूप से काम कर रही है वह तो, है ज्ञान वह अंतर्मुख रूप से काम कर रही है वह है दर्शन यहाँ बहिर्मुख आशयपने से नहीं कह रहे हैं, वह तो मिथ्यादृष्टि की बात होगी परंतु वही चेतना-चेतना का काम जब बहिर्मुख रूप से करती है तो यह है पदार्थ, उनकी व्यक्तियाँ चेतने में आय, उनका स्वरूपसत्त्व ज्ञान ने आये यह है बहिर्मुख रूप से चित्प्रकाश और जहाँ पदार्थों का यह है, व्यक्तियाँ है, यह विशेष है ऐसा प्रतिभास नहीं हो रहा और नहीं हो रहा तो स्वयं जायगा कहाँ? स्वयं प्रतिभास में आ रहा, ऐसे अंतर्मुख चित्प्रकाश को कहते हैं दर्शन में । ज्ञानदर्शनमयी हूँ, और बढ़ते हैं तो ये बाह्यपदार्थ जो कुछ ये ज्ञेय हो रहे हैं ये क्या मैं हूं? ये मैं नहीं हूँ, ये देहादिक रूपी पदार्थ जिनका तगड़ा संबंध बना हुआ जच रहा है क्या ये मैं हूं? ये भी मैं नहीं हूँ । मैं तो अरूपी हूँ, अरूपी होकर ज्ञानदर्शनात्मक हूँ, मेरा अन्य कुछ भी परमाणुमात्र भी नहीं है, अर्थात् मेरा रंच भी कुछ नहीं है । ऐसा ज्ञानी जीव ज्ञेय पदार्थों से निराला आत्मा के इन विकारभावों से निराले केवल विशुद्ध ज्ञानमात्र अपने आपको लख रहा है । जब ऐसा अपने आपको देख रहा तो चैतन्यमात्र के निरखने में बड़ा प्रताप प्रकट होता है । विशुद्ध आनंद तो तुरंत जगता है; रागादिक विकार ध्वस्त हो जाते हैं फिर अन्य की तो कथा क्या । इस प्रकार बड़े प्रताप से जब यह बढ़ रहा है तो उसको केवल एक निज अद्वैत का अनुभव हो रहा है । अब न तो रागादिक विकार इसमें अदंडता मचा सक रहें हैं, न मोह कर्मों का उदय इतनी अदंडता मचा सकता है और न ये ज्ञेय पदार्थ इसमें एकमेक हो रहे । यह ज्ञान उद्योत प्रकट होता जाता है, ऐसे ज्ञान मात्र निजस्वरूप को निरखकर ज्ञानी की यह भावना होती है कि ओह ! इस ज्ञानभाव से सारा जगत मग्न हो जायगा । क्यों यह जगत दु:खी हो रहा है । स्वयं ज्ञानानंदस्वरूप होकर ये जगत के प्राणी अपने आपमें मग्न हो जाये । समझ लोना, क्यों क्लेश पा रहे हैं । इस प्रकार सब जीवों के प्रति इस ज्ञानी के यह भावना जगती है और वह इस ज्ञानभाव से स्वयं तृप्त हो रहा है । और, जब अन्य जीवों पर दृष्टि जाती है तो ऐसा ही आनंद और तृप्ति पाने के लिये उनके प्रति भी चिंतन करता है । 958-ज्ञानानुभव का उत्साहन—आचार्य महाराजा ज्ञान की भक्ति करते-करते ज्ञान के विषय में कहते हैं कि हे संसार के मोही प्राणियों ! तुम सबके सब एक साथ ज्ञान शांत रस में डूब जाओ । जहाँ केवल ज्ञान और केवल दर्शन का ही कार्य है, जहाँ आत्मा का ही मात्र प्रतिभास है ऐसे शांत रस में डूब जाओ । उस शांत रस में सारा लोक एक साथ छलक रहा है । किसी को न जानो किसी को उपयोग में न लाओ सबका जानना और उपयोग छोड़ दो केवल आत्मा का अनुभव करो उसका फल यह होता है कि सारा विश्व इसके अंदर छलक जाता है । हे लोक के प्राणियों ! ऐसे शांत रस में तुम सब एक साथ डूब जाओ । केवल एक भ्रम की चादर का ही आवरण है, अत: वह शांत समुद्र तुम्हें प्रवेश करने को नहीं मिलता है । इस पतलीसी भ्रम की चादर को हटाओ तो यह विज्ञान सागर झलक जाता है । जैसे पहाड़ के ज्ञान को एक छोटासा तिल रोक देता है, इसी प्रकार यह भ्रम की पर्यायबुद्धि इस जीव को समस्त क्लेशों का कारण बन रही हें । इस भ्रमरूपी चादर को ज्ञान सिंधु में अंतर्मग्न कर दो । और अपने को ज्ञानमात्र अनुभव करो । जिस समय मूसलाधार वर्षा हो रही हो, आले पड़ रहे हों, आधी उठ रही हो, उस समय कोई कमरे से बाहर निकलना नहीं चाहेगा । ऐसे निज के कमरे में जिसे स्थान मिला है ऐसे जीव को, ऐसे स्थान में जहाँ आपदा, चिंता और शल्य की वर्षा हो रही हो वहाँ से कोई ले जाना चाहे, वह इस घर से बाहर नहीं जाना चाहेगा । सम्यग्दृष्टि यदि विवश होकर निकल भी जाता है तो भी उसका उपयोग इसी ओर बना रहेगा । सराग और वीतराग सम्यग्दृष्टि के, दोनों के ज्ञान चेतना है । कर्मफल भोग करके भी मैं ज्ञानमात्र हूं—ऐसा विश्वास क्या नहीं किया जा सकता है ? जब विश्वास किया जा सकता है तो राग के होने पर भी मैं ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा अनुभव किया जा सकता है । यद्यपि सम्यग्दृष्टि के ज्ञान चेतना मुख्य है तो भी सम्यग्दृष्टि के कर्म चेतना और कर्मफल चेतना भी गौणरूप से कहनी ही पड़ी । बस, इस ज्ञानसिंधु में डूब जाओ ।
959-अपने आत्मा को जानो—मैं शरीर से जुदा हूँ शरीर जल जाने वाली चीज है । शरीर को लोग बांध सकते हैं । आत्मा अमूर्त है, शरीर को सुख देकर, शरीर की प्रवृत्तियाँ करके इस आत्मा को सुख न मिलेगा, किंतु इस आत्मा को जानकर यह आत्मा सुख पा सकता है । आत्मा की शांति स्वभाव में बसी है । केवल निज को निज और पर को पर ही जानना है । मैं तो एक चैतन्यमात्र हूँ, जहाँ इस स्वभाव पर एकाग्रता आ गई, वहाँ इस जीव को अन्य कुछ करने को नही, है । हे आत्मन्, तुम करते ही क्या हो, किसी की परिणतियां तुम कर नहीं सकते । पर अखंड सत् है, तुम भी अखंड सत्ता वाले हो । तुम्हारी क्रियायें तुम्हारे में ही हो सकती हैं । तुम्हारे में जो कुछ होता है, वह तुम्हारे ही द्रव्य गुण पर्याय में होता है, इससे बाहर तुम्हारा कुछ नहीं होता है । प्रत्येक पदार्थ अपने ही द्रव्य गुण पर्याय में परिणमते चले जाते हैं । कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ में परिणमन नहीं कर सकता है । यदि तूने इन्हीं विषय-प्रसंगों में समय गुजार दिया तो तू इस संसार के बंधनों में ही जकड़ा रह जायेगा । यदि तूने अपने को अपने ही आपमें रक्खा तो इसमें तेरा उत्कर्ष है । मत अपने को मानो कि मैं त्यागी हूँ, साधु हूँ, पंडित हूँ, धनी हूँ आदि । गरीब को देखकर मैं धनी हूँ इस प्रकार के विचार आना—यह प्रवृत्ति आपको पतन की ओर ले जाने वाली है । गरीब को देखकर अपने को गरीब से भी गरीब जानकर आचरण करो । याने आकिंचन्य भावना भावो । सर्व विकल्पजाल तोड़ कर अपने आत्मा का परिचय करो । 960-ज्ञानसिंधु में अवगाह का कर्तव्य—आत्मा का स्वभाव पर्यायबुद्धि-रहित है । पर्याय में तुम इस बात को आदर दोगे तो अकल्याण तुम्हारा है । जगत के समस्त प्राणी आनंदमय हैं । जिसकी जो परिणतियां हैं, वह अपनी परिणतियों के अनुसार चलता है । वस्तु के आत्मस्वभाव तक पहुँचने वाला व्यक्ति ज्ञानस्वभाव के नाते से व्यवहार करेगा, हमें इसमें द्वैत दिखाई देगा? इस स्वभाव की दृष्टि इतनी प्रबल बनाओ कि जो भी तुम्हें दिखाई देता है, वह सब इंद्रजाल मायामय मालूम पड़े । अपने स्वभाव की इतनी प्रबल धुन करो कि उस दृष्टि में रहते हुए ज्ञप्ति अपनी बनो या दूसरे की बनो वह आत्मा में घर किये रहें । जो चीज बोली जाती है, वह चीज कहीं-न-कहीं होती है । हे भोले प्राणियों । तुम इस भ्रम की चादर को दूर करके इस ज्ञानसिंधु में अवगाह कर समस्त संसार सलय को दूर कर ले ।
❀ समयसार प्रवचन द्वितीय पुस्तक समाप्तम् ❀