वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 415
From जैनकोष
जो समयपाहुडमिणं पडिऊणं अत्थतच्चदो णाउं।
अत्थे ठाही चेया सो पावदि उत्तमं सोक्खं ।।415।।
समयसार के परिज्ञान का फल ― जो भव्य पुरुष इस समयसार ग्रंथ को अच्छे भावों से पढ़कर जानकर इसके अर्थ रूप ज्ञान मात्र अंतस्तत्त्व में ठहरेगा उस भव्य आत्मा के उत्तम सुख होगा। यह फलात्मक, आशीर्वादात्मक और भव्यात्मक वर्णन अंतिम प्रशस्ति में किया जा रहा है। यह समससारभूत भगवान परमात्मा का प्रकाशक है। इस भगवान परमात्मतत्त्व के समस्त मर्म का प्रकाशक होने से यह समयसार ग्रंथ स्वयं शब्द ब्रह्मस्वरूप है। कारणसमयसार तो अर्थब्रह्म है और यह समयसार ग्रंथ शब्दब्रह्म है और इसका जाननहार पुरुष ज्ञानब्रह्म है। ऐसे इस शब्द ब्रह्म की तरह आचरण करने वाले इस समयसार ग्रंथ का अध्ययन कर के समस्त विश्व के प्रकाश ने में समर्थ परमार्थभूत चित् प्रकाशरूप परमात्मा का निश्चय करते हुए अर्थ को और तत्त्व को जानकर इस ही एक अर्थभूत एक विज्ञानघन परमब्रह्मस्वरूप भगवान आत्मा में जो सर्व उपयोग कर के ठहरेगा वह शीघ्र उत्तम सुख को प्राप्त होगा।
तत्त्वबोधकला ― वह उत्तम सुख अनाकुलतास्वरूप है। वह अनाकुलता परमानंदरूप है। आकुलता न होना इतना ही मात्र वहाँ सुख नहीं है किंतु परमानंद से भरपूर ऐसा वहाँ उत्तम सुख है। जो जानेगा इस कारणसमयसार को तो उस के ज्ञान में ही ऐसी कला है कि साक्षात् उसी क्षण से वह चैतन्यैकरस बढ़ता हुआ जाता है अर्थात् उपयोग में चैतन्यरस का स्वाद वृद्धिंगत होता जाता है। उस एक चित्स्वभाव करि निर्भर निज स्वभाव की स्थिति निराकुल आत्मारूप होने से वह भगवान आत्मा परमानंद भाव को स्वयमेव स्वयमेव प्राप्त होगा।
समयप्राभृत की अन्वर्थता ― इस ग्रंथ का नाम है समयप्राभृत। अर्थात् समय नामक राजा से भेंट करने के लिए उपहार का काम देने वाला यह ग्रंथराज है। अथवा उस समय नामक आत्मतत्त्व से भेंट करा देने वाला यह ग्रंथराज है। समय नाम है सर्वद्रव्यों का। उसमें जो सारभूत है वह है आत्मतत्त्व, उसका नाम समयसार है और उस आत्मा के समस्त वर्णन में व्यापे हुए समय विस्तार में यह जो सारभूत है उसका नाम है समयसार अथवा समय नाम स्वयं आत्मा का है। सम और अय अर्थात् जो एक साथ स्वगुण पर्यायों से एकता के रूप से जाने, परिणमे उसे समय कहते हैं।
आत्मबल का उपयोग ― जगत के प्राणियों ने अपने आप के बल का अब तक दुरुपयोग ही किया। यह बल क्या कम बल है? व्यवस्थाएँ बनाना, भोग भोगना, इतने विकल्प मचाना, ऐसे विभाव कर लेना, यह क्या आत्मबल की निशानी नहीं है, पर इसने आत्मबल का दुरुपयोग ही किया। विषयों के भावों से हटकर अपने आप के स्वभावरस में उपयोगी होता तो आत्मबल का भी सदुपयोग कहा जा सकता था। उस दुरुपयोग में अब तक जीव का कोई ठौर ठिकाना नहीं बन सका। यहाँ का भट का वहाँ पहुँचता हैं और भटक-भटक कर कहाँ जन्म लेता है वहाँ ही उस समागम का अनुरागी बनकर अपने आप का विस्मरण कर के हैरान होता है। इसकी हैरानी मिटाने का यदि कोई उपाय है तो वह वही स्वाधीन उपाय है कि स्वयं सुरक्षित, परिपूर्ण, निजतत्त्व का दर्शन करले तो सर्वभय मिट जायेंगे, सर्व संकट टल जायेंगे, पर ऐसा मोह में यह प्राणी कर नहीं पाता।
आत्मधर्म ― आचार्यदेव कहते हैं कि इस समयसार को अर्थ से जानकर, पढ़कर और तत्त्व से जानकर समयसार में स्थित करो। केवल पाठ मात्र से वह आत्मज्योति नहीं जगती। हां पाठ करने से केवल श्रद्धा पुष्ट होती है और श्रद्धा के कारण ही पाठ करते हैं। वहाँ पुण्यबंध हो जाता है पर धर्मभाव तो निज सहजस्वभाव का स्पर्श हुए बिना जगता नहीं है। संसार से उद्धार होने का उपाय धर्म का पालन है। यह धर्म प्रथम तो ऐसा स्वरूप रखता है जो केवल आदर्श की चीज अथवा दर्शन का तत्त्व रहता है। वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं और आत्मा के स्वभाव को आत्मधर्म कहते हैं। वह धर्म है चित्स्वभाव । पर कर्तृत्व भोक्तृत्व की कल्पना से रहित, बंध की दशावों से रहित अपने ही स्वभावरूप के कारण अपने ही स्वभावरूप यह है समयसार, कारणसमयसार चित्स्वभाव वह धर्म है। ऐसी धर्म की दृष्टि करने का भी नाम धर्म है। निश्चय से धर्म चित्स्वभाव है, और उस चित्स्वभाव की दृष्टि करना व्यवहार धर्म है और उस चित् स्वभाव की दृष्टि का लक्ष्य रखते हुए कमजोर अवस्था में अन्य धार्मिक क्रियाएँ करना यह व्यवहार धर्म का व्यवहार धर्म है। उन धार्मिक क्रियावों के करते हुए में इस चित्स्वभाव धर्म की याद न हो, इसका लक्ष्य न हो, केवल क्रियाकांडों पर दृष्टि रखकर उसने धर्म कर लिया, उसे व्यवहारधर्म भी नहीं कहते हैं। ऐसे पथ से यह मुमुक्षु निर्बाध मोक्षमार्ग में चलता है। इसका वर्णन इस समयसार अध्यात्मग्रंथराज में भली प्रकार वर्णन किया गया है।
आचार्यदेव का परमोपकार ― आचार्यदेव का हम सब पर यह कितना बड़ा परोपकार है, जिन्होंने अपना अनुभव कर के ऐसा अमूल्य भाव दिया है, तत्त्व लिखे हैं, जिन का अध्ययन और मनन कर के आज भी अनेक मुमुक्षु अपने उद्धार में लग रहे हैं। अन्य प्रकार उपकार करने वाले तो बहुत से हैं, यहाँ से उठाया वहाँ पटका, वहाँ से उठाया यहाँ पटका इस तरह के उपकार करने वाले तो लोक में भरे हुए हैं, पर ऐसा महोपकार, जो उठाए उठाए ही रहे, पटकने का कहीं नाम नहीं है, जो एक मुक्ति के ही मार्ग में ले जाय, ऐसा महोपकार कुंदकुंदाचार्यदेव के द्वारा जो हुआ है हम उसका क्या अनुराग बता सकते हैं और उनका ऋण चुकाने की बात तो दूर ही रहो।
संतप्रवर कुंदकुंदाचार्यदेव की सरलता ― कुंदकुंदाचार्य देव ने अपनी प्रस्तावना में इतने हित मित प्रिय वचनों से सरलता प्रकट की है कि देखो मैं उस एकत्वविभक्त आत्मा को दिखाऊँगा, किंतु यदि दिखा दूं तो अपने ही प्रमाण से प्रमाण करना और यदि चूक जाऊँ तो छल ग्रहण न करना कि आत्मा फात्मा कुछ नहीं है, कुछ आगे भी प्रयत्न करना। कुंदकुंदाचार्य देव समझाने में क्या चूक सकते हैं? यदि समझने वाला योग्य नहीं है तो समझाने में चूक ही जाएंगे। पर इस चूक में समझाने वाले की चूक मानी जाय या समझने वाले की मानी जाय। परंतु बड़े पुरुष अपने मुंह अपनी बड़ी बात नहीं किया करते। अब भी बड़े पुरुष किसी मामले में किसी को कुछ समझा रहे हों और वह न मानता हो, हठ करता हो, वह विरुद्ध बात ही पेश करता हो तो वह समझाने वाला कहता है कि भाई क्या करें? हम आप को बात बताने में असमर्थ हैं, हम समझा नहीं सके आप को और कोई अनुदार पुरुष यों न कहेगा। वह तो यों कहेगा कि तुम्हारी समझ में ही नहीं आता और ज्यादा अनुदार होगा तो यह कहेगा कि हम क्या करें, तुम्हारे दिमाग में भूस भरा है। यहाँ आचार्यदेव ने यह कहा है कि यदि मैं समझाने में चूक जाऊँ तो छल ग्रहण न करना। समझाने में शब्द चूक सकते हैं, कुंदकुंदाचार्य देव का ज्ञान नहीं चूक सकता है।
परमोपकारी श्रीमत्कुंदकुंदाचार्यदेव की परमार्थत: भक्ति ― कुंदकुंदाचार्यदेव ने कैसी पद्धति से बताया है, कैसी अनादिकालीन मोह रोग के रोगी की सुकुमार क्रिया की है, इन सब बातों को देखकर हम उन्हें अपने रक्षक बापू कहें, परमपिता कहें, जिन चाहे शब्दों से कह लें, उनका हम जीवों पर अपार दया भाव था और हम हैं उन की संतान जो ज्ञान के नाम पर, शास्त्र के नाम पर, विद्या के नाम पर अपनी चिढ़ रखते हैं। हम धर्म करने में बढ़ेंगे तो मात्र इतने में कि इतना महल खड़ा कर दे अथवा इतना उछाह बना दे, इतना बड़ा मेला बना दें, बस हमने धर्म कर लिया। कुंदकुंदाचार्य देव की हमने कहाँ भक्ति की, जिन का नाम हम मूर्तियों में खोदा करते हैं, कुंदकुंदाचार्य आम्नाये और स्वाध्याय के नाम पर चाहे कोई ग्रंथ को पढ़े तो वहाँ भी कुंदकुंदाचार्य इस रूप से नामस्मरण कर लेते हैं, पर कुंदकुंदाचार्यदेव की आम्नाय क्या यह है कि ज्ञान की ओर से आंख मींचे रहना और उनके नाम पर नहीं किंतु अपने ही नाम के लिए बड़ा श्रम करना। जो प्रभु को नहीं जानता वह प्रभु का भक्त कैसा? जो ज्ञान की परख नहीं करता वह ज्ञान का भक्त कैसा ?
शरण का चुनाव ― भैया ! ध्यान में लावो, इस जगत में कोई भी उद्धारक नहीं है। एक निज की सहज दृष्टि हो जाय तो यही उद्धार करने वाली प्रज्ञा भगवती है, एक निर्णय रखो मन में । ये छोटे-छोटे बालक जिन्हें कि स्वयं ज्ञान नहीं है, ये अन्य मोही जन जो विषय कषायों के पीछे मरे जा रहे हैं इन से उद्धार की आशा रखे हुए हैं। जो कुछ तन है, शरीर कर श्रम है वह इन मोहीजनों के लिए है इसका अर्थ क्या है? जितने विचार हैं कभी अधनींद में भी पड़े हैं, कहीं पड़े हैं तो उन परिजनों और बच्चों का ख्याल है, इसका अर्थ क्या है? जितना प्रेम वचन है, नम्रता का वचन है, नम जाना है वह परिजन और बच्चों के लिए ही हो, गम खाना और दो बातें सुन लेना, औरों की बात तो सूई जैसी चुभे, चाहे वह किसी भी हितरूप हो और स्वयं के परिजन चाहे विपत्ति पर विपत्ति ढाये, फिर भी गम खाना, धैर्य रखना, नम्रता करना, प्रेम वचन बोलना, इन सब का अर्थ क्या है? जितना धन कमाया है वह परिजन के लिए ही खर्च हो, उसे मानते हैं कि यह मेरे धन का सदुपयोग है। उसका तो अन्य जीवों के लिए या अन्य धार्मिक उपकार के लिए कुछ भी चित्त नहीं चाहता, इसका अर्थ क्या? बात स्पष्ट है कि मोह के रंग में इतने गहरे रंग हुए हैं कि मोही जीवों को ही शरण माना है। इसने भले मुख से कहते जाते कि मुझे देव, शास्त्र, गुरु, शरण हैं ये सब ऊपरी बातें हैं। भीतर की बात तो वह है और अंतर में शरण उसे माना है जिस के लिए अपना तन, मन, धन, वचन सर्वस्व समर्पण किया जाय।
कुंदकुंदप्रभु का आशीर्वाद ― कुंदकुंदाचार्य देव बड़े राजघराने के पुरुष थे। समस्त समागम ऐश्वर्य से भरपूर थे। किंतु बचपन से ही इन संगों में प्रेम नहीं जमा। और सुना जाता है कि 11-12 साल की ही आयु में उन्होंने निर्ग्रंथ दीक्षा ली और बड़ी आत्मसाधना की। वे इस ग्रंथ की अंतिम प्रशस्ति में कह रहे हैं। जो पुरुष इस समयसार को पढ़कर समय को जानकर इसके अर्थ में ठहरेगा उसको सच्चा सुख होगा, अतिंद्रिय सुख प्राप्त होगा।
अतिंद्रिय सुख का दिग्दर्शन ― कोई मन में शंका करे कि अतिंद्रिय सुख भी हुआ करता है क्या, तो इस लोक में ही देख लो-कोई पुरुष चिंता शब्दों से अलग होकर कहीं एकांत में बैठा है। वह न किसी विषय में प्रवृत्ति करता है, न किसी का स्मरण कर रहा है उस के पास जाकर कोई पूछता है कि तुम सुख से तो बैठे हो ना? तो वह यही बोलता है कि हाँ खूब सुख से बैठे हैं। तो यह अतींद्रिय सुख है। किसी भी विषय को वह नहीं भोग रहा है फिर भी सुख की झलक होती है। वहाँ इंद्रियजंय सांसरिक सुख नहीं है। सांसरिक सुख विषयों के व्यापार के भाव में ही देखा जाता है और पंचेंद्रिय के व्यापार से रहित सुख को अतींद्रिय सुख कहते हैं। उन परमयोगीजनों को अतींद्रिय सुख प्राप्त होता है और मुक्त आत्मावों का जो अतींद्रिय आनंद है वह अनुमानगम्य है तथा आगमगम्य है। होता है अतींद्रिय सुख, पर स्वयं में अतींद्रिय सुख की पद्धति का आनंद कोई जान सके तो उसे स्पष्ट ज्ञान हो सकता है कि है अतींद्रिय सुख।
अतींद्रिय आनंद की निरुपमता ― भैया ! अतींद्रिय सुख की उपमा भी क्या दी जाय? अधिक से अधिक यह कह सकेंगे कि जितने लोक में उत्तम देव और मनुष्य हैं, जितने पहिले हुए थे, जितने आगे होंगे, इन पंचेंद्रिय के सुख के भोगने वाले जितने जीव हैं, उन सब का मिलाकर जो सुख हो सकता हो उससे भी अनंतगुणा सुख वह अतींद्रिय स्वभाविक सुख है। यह भी कहना पड़ा है या कह दिया जाता है। जिसकी जाति भी न्यारी है उसे अतींद्रिय सुख का गुणा देकर उसकी बात करना कोई युक्त नहीं है, पर यह जताने के लिए कि तीन लोक के पुण्यवंतों का जितना भी सुख है इंद्रियगम्य और जितना अनंत काल में हुआ है और भावी अनंतकाल में जितने होंगे, इन सर्व सुखों को मिला जुलाकर उस आनंद की सीमा को नहीं पा सकते हैं। ऐसे अतींद्रिय सुख का कारणभूत यह समयसार ग्रंथ का अध्ययन और ज्ञान है।
ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व की भावना ― भैया ! नयों का वर्णन कर के उस के आधार से इस आत्मतत्त्व को जानकर फिर व्यवहारनय को छोड़कर निश्चयनय का आलंबन कर के फिर निश्चयनय को भी छोड़कर केवल अर्थानुभवनरूप वृत्ति से यह परमात्मतत्त्व दृष्ट होता है। ज्ञानानुभूति ही सर्वसंकटों से मुक्ति पाने का उपाय है, ऐसा जानकर हम सब इस ग्रंथराज के अध्ययन में ज्ञान में और मर्म के चिंतन में लगें और उन्हीं क्रियावों के बीच विकल्प तोड़कर निर्विकल्प चिदानंदस्वरूप इस अंतस्तत्त्व के दर्शन का आनंद भोगा करें। इस प्रकार यह समयसार ग्रंथ अब पूर्ण होने को है। उस के अंत में अब अमृतचंद्र जी सूरि इस समयसार में जो कुछ वर्णन किया गया है उसको एक शब्द में कहते हैं। इस प्रकार आत्मा का तत्त्व ज्ञानमात्र अवस्थित हुआ ज्ञानमात्र की पद्धति से दर्शन करो तो आत्मदर्शन होता है। यह ज्ञानमात्र तत्त्व अखंड है, एक है, अचल है, और अपने ही ज्ञानभाव द्वारा सम्वेदन में आने वाला है, सर्वप्रकार की बाधावों से रहित है, ऐसे इस ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व की ही निरंतर सेवा करो।
अहंप्रत्यय ― प्रत्येक जीव अपने आप को किसी न किसी रूप में अनुभव कर रहा है। चाहे स्थावर भी हो, हम नहीं बता सकते हैं उनके बारे में कि वे अपने आप को किस रूप अनुभव करते हैं, पर करते हैं क्योंकि अहंप्रत्ययरूप से यदि अनुभव न हो, उनके वचनों से नहीं, किंतु भावों से तो उन्हें दु:ख हो ही नहीं सकता। कीड़े मकौड़े यह भी अपने को किसी न किसी रूप मानने का अनुभव रखते हैं। मनुष्य में तो बात बिल्कुल स्पष्ट है कि मनुष्य अपने को कुछ न कुछ रूप मान रहे हैं। नींद में सोये हुए किन्हीं का नाम लेकर पुकारे तो वे जल्दी बोल देते हैं। दूसरे का नाम लेकर पुकारें तो इतनी जल्दी नहीं जग पाते हैं। कुछ ऐसी प्राकृतिकता है कि यह जीव अपने को किसी न किसी रूप अनुभव किये हुए है। सुख और दुख का फैसला इस ही बुनियाद पर है हम अपने को किस रूप माना करें कि दु:खी होते रहें और किस रूप माना करें कि आनंद आता रहे? केवल अपने को किसी रूप मानने पर ही यह सुख दुःख आनंद का निर्णय है।
ज्ञानकला पर सुख, दुःख व आनंद की निर्भरता ― भैया ! आनंद पाना कितना सस्ता है और दु:ख भोगना भी कितना सस्ता है? न बाह्य पदार्थों के अधीन दु:ख है और न बाह्य पदार्थों के अधीन आनंद है। बैठे ही बैठे बिना कुछ श्रम किये केवल अंतर में अपने आप को मानने भर का ही काम है कि दु:ख के अनुकूल मानते हो तो तुरंत वही दु:ख ले लो और आनंद के अनुरूप मानना हो तो तुरंत वहाँ आनंद ले लो। धर्म के लिये बड़ी-बड़ी साधनाएँ करनी होती हैं। सारा जीवन साधना में व्यतीत हो जाता है। उस साधना में करना क्या है, इतना ही भर काम है। मैं अपने को किस रूप मानूँ कि आनंद मिले और उस ही रूप मानते रहें, जानते रहें तो आनंद प्राप्त हो।
सामान्य तत्त्व की महिमा ― लोक में विशेष तत्त्व की बड़ी महिमा है और धर्म में सामान्य तत्त्व की बड़ी महिमा है। लौकिक परिस्थितियों में जो जितना विशिष्ट है वह उतना लोक में काम चलाने वाला होता है। लोग भी विशिष्टता बतलाकर उसकी प्रशंसा किया करते हैं―यह डॉक्टर है, यह दार्शनिक है, यह ज्योतिषी है, यह एम.ए. पास है, यह मिनिस्टर है ऐसी विशेषता जानने से उनके लौकिक कार्य बढ़ते हैं और धर्ममार्ग में जितनी विशेषता की होली कर दी जाय और सामान्य में घुल मिलकर न कुछ जैसा रह जाय, समझो उतनी ही अधिक धर्म में प्रगति है। अपने को किस रूप मानें कि आनंद हो, इस विषय को कहा जा रहा है।
विशेष और सामान्यरूप अनुभव के परिणाम ― कुछ अनुभव से देख लो कि कुटुंब वाले वैभव वाले अनेक प्रकार से अपने को मानने पर आनंद हुआ क्या? यह जीव मानने के सिवाय करता कुछ नहीं है। मानने के बाद फिर जो कुछ होता है वह सब निमित्तनैमित्तिक संबंध पूर्वक होता है विशेषरूप से अपने को मानने पर अवश्य वहाँ क्षोभ होता है। विशेषरूप से हटकर एक स्वभाव सामान्य पर पहुंचे तो वहाँ आकुलता नहीं रहती।
विशेषरूप अनुभवने में आकुलता की प्राकृतिकता ― जैसा यह माना कि मैं गृहस्थ हूँ, इतने बाल बच्चों वाला हूँ तो ऐसी मान्यता में करना क्या पड़ेगा? उन की खुशामद, पालन, आजीविका का व रागद्वेष के अनेक प्रसंग। किसी माना कि मैं तो मनुष्य हूँ, तो मनुष्य मानने पर करना क्या पड़ेगा? मनुष्य जैसा व्यवहार। उसमें भी अनेक उलझने हैं। इसकी खबर लो उसके दु:ख में शामिल हो, इसको समझावो, वहाँ प्रेम करो, झगड़ा शांत करावो पचासों विडंबनाएँ करनी पड़ती हैं और कोई माने कि मैं साधु हूँ तो वहाँ भी क्या करना पड़ेगा? पचासों विडंबनाएँ। ये लोग गृहस्थ हैं, हम साधु हैं, यह पूजने वाले हैं, हम पूजने वाले हैं, यह कमी क्यों रखते हैं? हमारा आर्डर ये क्यों नहीं स्वीकार करते है? लो विकल्पों के मारे पचासों आफतें लें ली। जब तक अपने को किसी न किसी विशेषरूप अनुभव किया जायेगा तब तक आकुलता होना प्राकृतिक बात है।
सामान्यरूप अनुभवने में सहज अनाकुलता ― अच्छा लो अंतर में साधु की मान्यता अपने में नहीं रही कि मैं साधु हूँ, मुझे केवल आत्मसाधना ही करनी है, ठीक है, पर साधुत्व की श्रद्धा है तो वहाँ अंत:साधना नहीं बनी। वह भी विशेष तत्त्व है अपने को विशेषरूप जब तक अनुभवेगा यह आत्मा, तब तक क्षोभ रहेगा इसको। तब फिर और गहरे चलो। न अपने को गृहस्थ मानना, न अपने को मनुष्य मानना, न अपने को साधु मानना, न अपने को किसी का साधक मानना। जब इससे और गहरे उतरते हैं तो यह अपने को ज्ञानमात्र अनुभवते हैं। मैं केवल जाननस्वरूप हूँ। आत्मा का सहजस्वरूप है, बेलाग―बेदाग। अपने ही स्वभाव से जो कुछ भी आत्मस्वरूप है उस स्वरूप की दृष्टि रखकर मात्र ज्ञानमात्र चित्स्वभावमय अपने को अनुभवे तो वहाँ कोई आकुलता नहीं रहती है।
किसी रूप की स्वीकारता में अन्य स्वरूप का विस्मरण ― बच्चे लोग खेल में घोड़ा बनते फिरते, अच्छा लो बन गये घोड़े। अब एक लड़ का घुटना और पैर जमीन पर रखते हुए बाहर से आ रहा है एक बाहर को जा रहा है। किन्हीं लड़कों ने मान लिया कि मैं घोड़ा हूँ और इतने अधिक आशय में आ गए कि वे भूल गए कि हम लड़ के हैं। पास में आए, मुँह में मुँह मिलाया, हिनहिनाया, टाप मारा या काट खाया और आपस में बड़ी लड़ाई हो गयी। सो भैया ! जब जिस रूप अपने को मानने में लग गये तब फिर ध्यान में नहीं रहता है।
भावस्वीकारता के अनुरूप प्रवृत्ति ― ब्रह्मगुलाल ने जब सिंह का रूप धारण किया तब कैसे ही बना हो पर यह भाव तो रखना ही होगा कि मैं सिंह हूँ, उस कल्पना में ब्रह्मगुलाल हूँ ऐसा भूल गया होगा। जब राजपुत्र ने जो थोड़ासा अपशब्द बोला कि एकदम पंजा मारकर गिरा दिया। यहीं देख लो। मान लो कल तक बच्ची की शादी नहीं हुई, रात को ही भांवर पड़ी तो सुबह देखो तो सब लट उसे अपने आप आ गए। घूँघट मारकर चले, सिर नीचा कर के चले, सिमट-सिमट कर चलती, छुप-छुपकर चलती, स्वसुर दिख गया तो किवाड़ में छिप जाय तो उसने अपने को मान लिया कि मैं वधू हूँ। इस मान्यता से ही ये लट के उसे अपने आप आ गए। सो आप भी सोचो कि अपने को कैसा माना जाय कि मैं आनंदस्वरूप रहूं।
यथार्थ आत्मभावना का प्रसाद ― भैया ! यह बताने की तो जरूरत है नहीं कि अपने को कैसा माना जाय कि मैं दु:खी होऊँ। वह तो सब विदित है, मान ही रहा है। अपने को ज्ञानमात्र ही स्मरण रखे तो वहाँ आनंद प्रकट होगा। इस ज्ञानमात्र की मान्यता में देह का ध्यान न रहेगा, और कोई पंचेंद्रिय को संयत कर के विश्राम से बैठ जाय तो कुछ काल तो आप को भी यह पता न रहेगा कि यह शरीर भी है क्या? अच्छा जावो आँखे मींच कर न पैर पर पैर छूते हुए की मुद्रा में हो, न हाथ पर हाथ रखे हो, पैर भी छुट्टा हाथ भी छुट्टा और आँख मींचकर बैठे हो तो आपको भी पता न रहेगा कि देह भी है यह और जिसकी अंतर में आत्मसाधना चलती है उसको तो एक आत्मभावना ही रहती है। केवल एक ज्ञान ज्योति जानन ही जाननमात्र है।
जानन के जानन में एकरसता ― उपासक जानन के जानन में ऐसा घुल जाता है जैसा पानी में नमक की डली पड़ जाय तो नमक की डली स्वतंत्र कहीं नहीं रह पाती है। पानी में घुलकर एकरस हो जाती है। यों ही यह डली के माफिक उपयोग जो बाह्य जगहों में रहता है तो डली के माफिक जुदा जुदा बना रहता है। जैसे कि नमक की डली तेल में डाल दे तो नहीं घुलती है, ज्यों की त्यों बनी रहती है, यों ही यह उपयोग बाह्य पदार्थों को जानता है तो वहाँ भी उपयोग घुलता नहीं है, न्यारी डली के माफिक वहीं पड़ा रहता है। जब यह उपयोग जाननस्वरूप जलनिधि में प्रवेश करे तो उस जाननस्वरूप में ऐसा घुल जाता है कि वहाँ ज्ञाता ज्ञेय ज्ञान की पृथक् स्थिति नहीं रहती है।
विशेषपरिहार और सामान्योपादान ― सुख प्राप्त करने के लिए इस जीव ने अनेक यत्न किये, मगर वे सब विपरीत हुए। इन अनंत जीवों में से दो चार जीवों को छांट लिये कि ये मेरे हैं और तन, मन, धन, वचन सब कुछ केवल चार जीवों के लिए ही है, ऐसा निर्णय बनाए रखना और ऐसा ही करना, यह क्या आप पर कम विपत्ति है? जो लोग संयोग में हर्ष मानते हैं, फूले नहीं समाते हैं, अपने को पुण्यवान समझते हैं वियोग तो उनका नियम से होगा ही। वियोग होने पर जो 20 वर्ष सुख भोगा है उसकी कसर 5 मिनट में निकल जाती है। क्या समागम मिला? कोई अपूर्व चीज है क्या? मायामय जीव पदार्थ जिस का कुछ संबंध नहीं, जिस पर कुछ अधिकार नहीं उसमें अपना स्वामित्व माना जा रहा है। फल तो खुद को ही भोगना होगा। सर्व विशेष रूप अनुभव का परित्याग कर के अपने आप को एक ज्ञान सामान्यरूप अनुभव करना है।
मैं क्या हूं? ― किसी ने पूछा कि तुम कौन हो, तो उसका उत्तर क्या निकलेगा? क्या निकलना चाहिए? उत्तर देने की भी जरूरत नहीं है। अपने आप में अपने को उत्तर दे देना चाहिए। तुम कौन हो? कोई कहेगा कि मैं अमुक चंद हूँ, कोई कहेगा कि मैं गृहस्थ हूँ, प्रोफेसर हूँ, डाक्टर हूँ, मिनिस्टर हूँ, कोई कहेगा कि मैं धर्मात्मा हूँ। पचासों तरह के उत्तर मिलेंगे पर यह भी उत्तर मिले किसी का तो देख लीजिए। मैं वह हूँ जो सब हैं, मैं हूँ एक चित्स्वभावमात्र चैतन्यपदार्थ। यों अपने आप में सामान्यरूप अनुभव हो तो वहाँ आकुलता का क्या काम है ?
जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम। विष्णु बुद्ध हरि जिस के नाम।।
राग त्यागि पहुंचूं निज धाम। आकुलता का फिर क्या काम।।
आत्मा के ये नाम हैं ― जिन―जो कर्म शत्रु को जीत ले, शिव―जो स्वभावत: कल्याणमय और आनंदघन है। ईश्वर―जो अपने सहज ऐश्वर्य का स्वामी है। ब्रह्मा―जो अपनी समस्त सृष्टियां रचने वाला हो। राम―जिस स्वरूप में बड़े योगीजन रमण किया करते हैं। विष्णु―जो लोक और अलोक में सर्वत्र व्यापता है अथवा व्यापने की प्रकृति रखता है। बुद्ध―जो ज्ञान के रस हैं। हरि―जो पापकर्मों को हर लेता है, दूर कर देता है। हर―जो भाव कर्म जैसे अंतरमल को भी धो डालता है, ऐसे ये जिस आत्मा के नाम हैं, यदि मैं अन्यविषयक राग छोड़कर इस अपने स्थान में तेज में पहुंच जाऊँ, तो फिर वहाँ आकुलता का क्या काम रह सकता है ?
धर्मपालन की शीघ्रता ― भैया ! मोह ममता में पूरा कभी न पड़ेगा, अर्थात् अमूल्य दिन रात क्षण ये बिल्कुल व्यर्थ ही गुजर रहे हैं। मरकर छोड़ दिया तो क्या छोड़ा, जीवन में ही उन को छोड़ दे तो सही पूरा पड़े। विपत्ति आने पर धर्म की कसम खायी तो क्या खायी? अरे जब बल है, रोग ने नहीं घेरा है, बुढ़ापा नहीं आया है तब तक धर्म कर लें। जिसने अपनी युवावस्था में धर्मसाधन में चित्त दिया है उसकी वृद्धावस्था भी सुवासित रह सकती है। धर्म वह यही है कि अपने को अन्यरूप न मानकर ज्ञानमात्र अनुभव करना।
आत्मतत्त्व की अखंडता ― कैसा है यह ज्ञानमात्र निज अंतस्तत्त्व? अखंड है, न द्रव्यद्रष्टि से इसका खंडन है, न क्षेत्रदृष्टि से इसका खंडन है, न कालदृष्टि से और न भावदृष्टि से इसका खंडन है। यह तो एक निज सहजस्वरूप मात्र है, अखंड ज्ञानमात्र है। हम आप जो ज्ञान किया करते है, घर जान लिया, दुकान जान लिया, इतिहास भूगोल ये सब ज्ञान खंड ज्ञान हैं, अखंड ज्ञान नहीं हैं, और इसी कारण ये विवाद के कारण बन जाते हैं। ज्ञानस्वभाव मात्र अपने को अनुभवना, यहाँ अखंड पद्धति से ही अनुभव किया, वहाँ अखंड जो ज्ञानमात्र ज्ञात हुई दशा में यह ज्ञानमात्र हूँ और एक हूँ, मैं नाना नहीं। गिरगिट की तरह रंग नहीं बदलता हूँ। अनादि अनंत एक चित्स्वभावमात्र हूँ, ऐसा अपने आप को अनुभव करे वहाँ क्लेश काहे का ?
आत्मतत्त्व की अचलता ― यह मैं ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व अचल हूँ। पर्यायमुखेन बड़ी चलायमानता है, इतने पर भी पर्याय की सेना के भीतर उस सेना को चीरफाड़ कर वेगपूर्वक अंतरगृह में प्रवेश करे तो इसे विदित होगा, अहो यह तो मैं अचल हूँ, न कभी इस चित्स्वभाव से चलित हो स का और न हो सकूँगा। द्रव्य का स्वरूप ही ऐसा है। यदि कोई कभी स्वरूप से चलित हो जाता है तो आज यह दुनिया देखने को न मिलती। इसका लोप हो जाता, शून्य हो जाता। है सब कुछ, यही इस बात का प्रमाण है कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है, मैं आत्मा ज्ञानमात्र हूँ और अचल हूँ।
अंतस्तत्त्व की स्वसंवेद्यता ― यह मैं ज्ञानमात्र इस ज्ञानमात्र स्व के द्वारा ही ज्ञान में आ सकने वाला हूँ। जानने वाला भी ज्ञान और जानने का साधन भी ज्ञान और जो जाना जाने वाला है वह भी ज्ञान और किसलिए जानना है वह प्रयोजन भी ज्ञान और कहाँ जानना है वह भी ज्ञान, ऐसा जहाँ ज्ञान ही ज्ञान का चारों और उजेला हो, ऐसे ज्ञानमात्र अनुभव की दशा में इस जीव को भी अलौकिक आनंद प्रकट होता है जो भव-भव के संचित कर्मों को क्षण मात्र में ध्वस्त कर देता है। अपने जीवन का एक निर्णय बनाओ मोह में जिंदगी नहीं बिताना है। मोह से अब तक रुलते आए, इसमें सार तत्त्व कुछ न निकलेगा। मोहरहित, रागद्वेषरहित सर्वविकल्प चिंताजालों से परे ज्ञानमात्र निज सहज स्वरूपमात्र अपने आप को अनुभवना, यही है सर्वसंकटों से दूर होने का उपाय।
अंतस्तत्त्व की अबाधितता ― यह मैं ज्ञानमात्र आत्मा स्वसम्वेद्य हूँ और अबाधित हूँ, दिया की ज्योति हवा चलने से बुझ जायेगी बुझ जावे। मैं दिया की ज्योति की तरह लचड़ ज्योति वाला नहीं हूँ, यह मैं ज्ञानभाव अबाधित हूँ। अनंत कार्माणवर्गणाएँ इसमें धावा बोलें तब भी इस स्वरूप में बाधा नहीं आती। यह जीव यद्यपि बड़े वेग से यत्र तत्र जन्म मरण करता रहता है, इतने पर भी इस आत्मा में वह स्वभाव अबाधित है। इस अबाधित स्वभाव को जो संभाल पाया, वह अब परिणति में भी अबाधित बन जाता है।
‘अखंड, अचल, स्वसंवेद्य, अबाधित यह मैं ज्ञानज्योतिमात्र हूँ।’ ऐसा अनुभव करना, सो धर्म का पालन है। इस धर्म के प्रताप से सर्वसंकटों से मुक्ति मिलेगी, मोक्ष प्राप्त होगा।
♥इति समयसार प्रवचन पंद्रहवां भाग समाप्त ♥