वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 8
From जैनकोष
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456-जैसे अनार्य पुरुष को अनार्यभाषा के बिना समझाना शक्य नहीं है उसी प्रकार से व्यवहारनय के बिना परमार्थ का उपदेश करना शक्य नहीं है । जैसे म्लेच्छ भाषा में (अंग्रेजी में) समझाने वाले को अंग्रेजी में समझाया जाता है इसे उस भाषा बिना समझाया नहीं जा सकता, उसी प्रकार इन सांसारिक मोही-जीवों को भी व्यवहार की भाषा में वस्तु स्वरूप का बोध कराने के लिये समझाया है। क्योंकि पर्याय परिचित प्राणी भी व्यवहार के बिना परमार्थ की बात समझ नहीं सकते । जो जोड़ और तोड़ में लगे हुए हैं, वे अज्ञानी हैं । तोड़ में लगा हुआ तो अपेक्षाकृत अच्छा है, किंतु जोड़ में लगा हुआ प्राणी महाअज्ञानी । जो वास्तव में उसी को रखा ज्ञान में तो ज्ञानियों ने आत्मा जोड़ और तोड़ से समझाई जायेगी । इसका सर्वप्रकार का रूप समझाने पर यह पूर्ण समझ में आता है । यह समझावट सब व्यवहारनय में है । वस्तु यथार्थ में कैसी है यह तो जानने का काम है । जानने में जो बात आती है बताने में वह नहीं आ पाती, क्योंकि बताना जोड़ तोड़ बिना नहीं हो पाता । द्रव्य में गुण पर्यायें भी बता डालो, अंत में तो यही कहना पड़ेगा कि जो कुछ कहा उससे जो समझ में आया उन सबके बराबर यह आत्मद्रव्य है । विश्लेषण में क्या समझ में आया उसे अब कहते हैं । 457-आत्मद्रव्य गुण और पर्याय के बराबर—जितने गुण पर्याय हैं, उतने बराबर आत्मद्रव्य है ।आत्मा के गुण, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और अनंत शक्तियाँ हैं । इन गुणों की अवस्थाओं को पर्याय कहते हैं । गुण नित्य माने गये हैं और पर्याय अनित्य मानी गई है । यदि शंका हो कि इससे विषय स्पष्ट नहीं होता है एक कहो । तो सुनो भेद दृष्टि से गुण नित्यानित्यात्मक है । अभेद दृष्टि से द्रव्य नित्यानित्यात्मक हैं । भेदाभेद दृष्टि से गुण नित्य है पर्याय अनित्य है । गुण तो नित्य ही है द्रव्य की जो अन्य अवस्थायें हैं, वे पर्याय हैं वे अनित्य है । गुण और पर्याय के बीच में जो कुछ है, सो द्रव्य है । वस्तु स्वचतुष्टय से है, परचतुष्टय से नहीं है । वस्तु व गुण एकरूप भी है नानारूप भी है । कोई गुण को नित्य कहते हैं । कोई गुण को अनित्य कहते हैं । नित्य और अनित्य के बीच में गुण है, ऐसा कहना चाहिये। जैसे पूछा जाये, कपड़ा क्या है? जो रूप, रस, गंध, स्पर्श शाली है । इन सफेद, तीखा, कोमल इनके बीच में जो है, उसे कपड़ा कहते हैं । गुण और पर्याय इन दोनों को एक शब्द से द्रव्य कहा जायेगा । जैसे आत्मा क्या है? इस तत्त्व को विचारो, भोला शिष्य कहता है:—आत्मा की ज्ञान, दर्शन, चारित्र और अनंत शक्तियां तथा मतिश्रुतज्ञानादि पर्यायें जो कि अनित्य हैं, इनके बीच में जो कुछ है, सो द्रव्य है । यह बात तो व्यवस्थित है ना । इसका समाधान:—यह भी व्यवहारनय की भाषा है । आत्मा के गुण और उनकी पर्यायों के बीच में जो कुछ है, वही द्रव्य है यह समझने को तो ठीक है किंतु सर्वथा यह तुम्हारा कहना ठीक नहीं है । गुण और पर्याय को एक शब्द से कहा जाये, उसे द्रव्य कहते हैं, ऐसा कहना चाहिये । प्रत्येक पदार्थ में अनंतशक्तियां हैं आत्मा में जैसे ज्ञानादि शक्तियां हैं । प्रत्येक समय प्रत्येक पदार्थ की प्रत्येक शक्तियों की अवस्थाएं बदलती रहती हैं । जैसे बालक बढ़ता है । वह प्रतिसमय बढ़ता रहता है, ऐसा नहीं कि बालक एक दिन में 1 वर्ष का या एक इंच बढ़ जायें वह प्रतिसमय बढ़ रहा है । वस्तु का परिणमन स्वभाव है । कोई पापी, यदि धर्मरूप परिणाम बदलना चाहे, तो बदल सकता है । अत: पापी से घृणा मत करो, पाप से करो । जो आज पापी है, वह कल धर्मात्मा भी बन सकता है । 458-द्रव्य में वर्तमान पर्याय का भोग—पहले या बाद के परिणामों को द्रव्य अब नहीं भोगता है । वर्तमान परिणामों का ठीक कर लेना पूर्व पर्यायों (परिणामों) का प्रायश्चित है । पाप और पुण्य, कषाय और अकषाय, राग और द्वेष-इनसे परे चैतन्य स्वरूप की दृष्टि बनाना चाहिये । वह तभी हो सकता है, जब द्रव्य स्वरूप का बोध हो । इस ग्रंथ का, इस यथार्थ अभिप्राय का यह महत्त्व है कि बड़े से बड़े पाप को अंतमूहूर्त में ध्वस्त कर सकता है । लेकिन इसके लिये पर्याप्त परिश्रम करना होगा, सामान्य प्रयत्न से कर्मों का क्षय नहीं हो सकता है । वह प्रयत्न भाविक है अत: इसे मुफ्ती समझो या अमूल्य । आचार्य कहते हैं कि आत्मा की नित्य शक्ति और पर्याय अलग-अलग हैं, उनके बीच में जो रहता है, सो द्रव्य है—ऐसा मत मानो । स्वभाव टंकोत्कीर्णवत् निश्चल है । उसका विकास पर्यायरूप है अत: विकास ही नव्य-नव्य है । 459-आत्मा की टंकोत्कीर्णवत् निश्चलता और स्वयं प्रकाशमानता—एक बड़ा पत्थर है । उस पत्थर में से भगवान् आदिनाथ की मूर्ति निकालना है । उसी आकार की मूर्ति कारीगर को पहले दिखाई है, उसी आकार की मूर्ति कारीगर को उस पत्थर में दिखाई दे गई, जिस पत्थर में से उसे मूर्ति निकालना हैं । वैसे यह आत्मा अरहंत बनेगा, क्या बनेगा अरहंत, यह सम्यग्दृष्टि जीव को अभी से दिखाई दे जायेगा । कारीगर उस मूर्ति को नहीं बना रहा है, वह मूर्तिरूप पत्थर पर से उन पत्थरों को हटा रहा है, जो उस मूर्ति को ढकने वाले हैं । इसी प्रकार आत्मा से इस जीव को रागद्वेषादि रूप कूड़ा करकट दूर करना है । ज्ञानरूप हथौड़ी की चोट से ज्ञान ही की छेनी से यह ज्ञानी रागद्वेषादि रूप प्रखर प्रस्तरों को हटाता जाए तो उस आत्मा का विकास होता जाता है । पर्याय और गुण भिन्न-भिन्न चीजें नहीं हैं । गुण को जब हम शक्ति की अपेक्षा से देखते हैं, तो गुण है । गुण को जब पर्यायदृष्टि से देखते हैं तो वे ही गुण पर्याय हो जाती है । और ये गुण पर्याय भी दोनों आत्मा से भिन्न नहीं है । सहजज्ञान और सहजज्ञान का परिणमन एक शब्द से कहो, वही आत्मा है । ऐसा भी नहीं है कि द्रव्य नित्य है व गुण नये-नये होते और गुण को अलग कर देने पर ऐसी कुछ झलक-सी आ जाती है कि पहला गुण नष्ट हुआ और दूसरे गुण का प्रादुर्भाव हुआ । एक के समाप्त होने का ही मतलब है कि दूसरा गुण प्रकट हो गया दूसरे गुण प्रकट होने का मतलब है पहिला गुण नष्ट हो गया । एक अवस्था परिणमते ही दूसरी अवस्था बन जाती है पहली उसी में निमग्न हो जाती है । नई अवस्था के पैदा होने का ही मतलब पूर्व अवस्था का व्यय होना । जो वर्तमान पर्याय है उसे पूर्व पर्याय की दृष्टि से देखना एक ही बात है उन सबका आधारभूत गुण नित्य है । गुण की ये अवस्थायें अनित्य हैं । यह आत्मा स्वत: सिद्ध है नित्य है, परिणामी है । आत्मा अनित्य भी है । जो आत्मा नित्य है, वह निश्चय दृष्टि का देखा गया आत्मा है यदि यह जीव अपनी अवस्थाओं पर उपयोग न दे । यदि पूरे आत्मा का ज्ञान हो जाये, तो जीव को दु:ख का कारण कुछ नहीं है । जीव के दुःख का कारण बाह्य अवस्थावों के ही सर्वस्व को स्वयं मान लेना है । मैं मैं हूँ । मैं अपने आप अपने में ही परिणमता रहता हूँ । जीव अपने राग परिणामों से राग करता है । ऐसा जानकर राग को छोड़कर ज्ञानमार्ग पर चलें तथा स्वतंत्र आत्मा की पहिचान करें, तभी कल्याण है । ऐसा करने में ही बुद्धिमानी है राग करके इस मनुष्य-भव को मत खोओ । 460-द्रव्य की पहिचान—द्रव्य की पहिली पहिचान यह है कि एक परिणमन जितने में हो, उतने में पूरे में होवे, उतने से बाहर न हो, उसे एक चीज कहते हैं । द्रव्य की दूसरी पहिचान यह है कि जिसका दूसरा टुकड़ा न हो कोई अंतर न पड़े, उसे एक चीज कहते हैं । इस प्रकार एक-एक आत्मा करके अनेकानेक आत्मा और एक-एक पुद्गल करके अनेकानेक पुद्गल, एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य, एक आकाश द्रव्य और असंख्यात काल द्रव्य हैं । जितने भी द्रव्य है, उनका क्षेत्र व आकार अवश्य है । जिस द्रव्य का जितना आकार है, वही उसका क्षेत्र कहलाया । यदि आत्मा के छोटे-छोटे हिस्से कल्पित किये जाए तो उसके असंख्यात प्रदेश हो जायेंगे । धर्म, अधर्म व एक-एक जीवों के असंख्यात-असंख्यात प्रदेश हैं । आकाश द्रव्य के अनंतानंत प्रदेश होते हैं । कालद्रव्य का एक प्रदेश होता है । प्रत्येक वस्तु में द्रव्य, गुण, प्रदेश और पर्याय ये चारों चीजें पाई जाती हैं । यह सब हमने अपने आपके समझने के लिए देखी है । द्रव्य निश्चयनय से अवक्तव्य है, कुछ कहा नहीं जा सकता है । द्रव्य का वर्णन करने वाला कोई शब्द ही नहीं है । द्रव्य जाना जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है, परंतु उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता है । 461-द्रव्य की शुद्धता का परिचय परमार्थ दृष्टि से है—निश्चयनय से द्रव्य अवक्तव्य है, पुनरपि कुछ कहा जाये तो अखंड और एक स्वरूप है । जितना भी द्रव्य के विषय में हम लोग कहते हैं, वह सब व्यवहारनय की अपेक्षा से कहते हैं । द्रव्य का पूर्ण ज्ञान प्रमाण से होता है । निश्चय से द्रव्य अभेद जाना जा सकता है । उसके अंश-अंश का ज्ञान व्यवहारनय से होता है । द्रव्य में अमुक शक्ति है अमुक गुण है यह सब व्यवहार की अपेक्षा से है । निश्चयनय से तो कुछ बताया ही नहीं जा सकता है । जो द्रव्य के विषय में बताया जाता है वह सब व्यवहार नय से है । निश्चयनय के शब्दों में कथन को भी व्यवहार कहते हैं । द्रव्य के विषय में कथन करना व्यवहार का विषय है । वस्तु अखंड है, इसी का नाम अध्यात्म भाषा में शुद्ध है । शुद्धआत्मा को जानो, इसका यह मतलब नहीं कि अरहंत, सिद्धभगवान को जानो । शुद्ध को जानने का अभिप्राय अपने शुद्धस्वरूप को एकत्वस्वरूप को जानने से है । आत्मा के अंश करना, अशुद्धता है । आत्मा को अखंड देखना शुद्धता है । अशुद्धता व्यवहार से है, शुद्धता निश्चयनय से है । अथवा निश्चय न कहकर परमार्थ से कहना चाहिए । आत्मा के विषय में ऊंची से ऊंची फिलासफी जिसने बताई है, वह सब प्रमाण और सुनय का प्रताप है । प्रश्न—तो निश्चयनय का ही कथन करना चाहिए । व्यवहारनय का कथन क्यों किया? समाधान—आचार्य कुंदकुंद आठवीं गाथा में कहते हैं—जैसे अंग्रेज राजा की सभा में कोई संस्कृत को जानने वाला विप्र जाय और राजा के लिये ‘स्वस्ति’ आशीर्वाद देवे तो क्या अंग्रेजनृप उस आशीर्वादात्मक शब्द को समझ जायेगा? नहीं समझेगा । तो उसको समझाने के लिए एक ही उपाय हो सकता है । कोई या स्वयं (विप्र) अंग्रेजी और संस्कृत जानता हो और उसे अंग्रेजी में एक्सप्लेन करके समझाए, तभी वह राजा समझ सकेगा । आत्मा चित्स्वरूप है, अखंड है, यह भी कहना व्यवहार ही है । केवल आत्मा, आत्मा, आत्मा कहते रहो, यह निश्चय की भाषा है । तो क्या यह अज्ञ संसारी जीव आत्मा कहने से आत्मस्वरूप को समझ जायेगा? नहीं समझेगा उसको उसी की व्यवहार की भाषा में समझाना पड़ेगा । ऐसा कहें जो जाने, जो देखे, जो कषाय या अकषायरूप प्रवृत्ति करे, वह आत्मा है तभी वह समझेगा । वैसे ध्यान तो निश्चय का करना । लेकिन प्रारंभ में आत्मतत्त्व को समझने के लिये व्यवहार से ही काम लेना पड़ेगा । 462-व्यवहार में परमार्थ की साधकता—जैसे रात्रि में माता उंगली के संकेत से अबोध शिशु को चंदामामा कहकर चंद्रदर्शन कराती है । इसका मतलब यह है कि शिशु अंगुली के संकेत से चंद्रमा को देख ले । जब शिशु चंद्रमा का दर्शन कर लेता है तो उसे उंगली के संकेत की आवश्यकता नहीं रहती है । इसी प्रकार जब कोई निश्चयनय को समझ जाये तब व्यवहारनय की आवश्यकता नहीं रहती है । यदि कोई निश्चय को नहीं समझ पाया, उसे व्यवहारनय से ही समझाया जायेगा, तभी वह पश्चात् निश्चय-नय को समझ सकेगा । जब सब पदार्थों का व्यवहार से बोध हो जाता है, तभी जीव निश्चयनय को समझ सकता है । मैं अज्ञानी नहीं हूँ, मैं धनी नहीं हूँ, मैं स्त्री नहीं हूँ, मैं पुरुष नहीं हूँ—ये सब पर्याय भाव हैं । मैं इन सबसे पृथक् हूँ । ऐसा पर्यायों में जीव का निषेध करते-करते वह स्वानुभव कर लेता है । आत्मानुभव होने के पश्चात् उसे क्रोध कषाय, विषयेच्छादिक विकार नहीं सताते हैं । आत्मानुभव होने में ही सुख है । बिना आत्मानुभव के सुख कोशों दूर है । परंतु इस बात को समझने के लिये हमें व्यवहारनय का आश्रय लेना पड़ेगा, उसके बिना निश्चयनय को नहीं समझ सकते । निश्चय के समझे बिना उद्धार का अन्य कोई साधन नहीं । इसको समझने के लिये अनेक प्रकार के उद्यम करने पड़ते हैं तत्त्व एक ही है, मैं अपने आत्मस्वरूप को समझूँ, यही तत्त्व है । रमण किसमें किया जाता है ‘राम’ किसे कहते हैं, ‘रमंते योगिनो यस्मिन् स इति राम:।’ अर्थात् जिसमें योगिजन रमण करे, उसे राम कहते हैं । योगिजन आत्मस्वरूप में रमण करते हैं, भगवान में नहीं भगवान के ध्यान में रमण कर सकते हैं । जैसे—यह चौकी किसी को अच्छी लगी, तो वह व्यक्ति चौकी में तो नहीं रमेगा । वह तो उसके अच्छेपन के अनुभव में रम सकता है ।
शंका — जैसे जलते दीपक से बुझे हुए दीपक को जला दिया जाता है, उसी प्रकार भगवान के ध्यान से अपने में ज्योति आ जायेगी । समाधान—यहाँ पर जलते हुए चिराग ने बुझे हुए दीपक को नहीं जलाया । बुझा हुआ दीपक जलते दीपक को निमित्त पाकर स्वयं देदीप्यमान हो गया । प्रज्वलित दीपक तो उसी प्रकार जलता रहा । जैसे हम लोग अग्नि पर पानी गर्म करते हैं । लोग कहते हैं, अग्नि ने पानी गर्म कर दिया लेकिन ऐसा नहीं है । जल अग्नि को निमित्त पाकर स्वयं उष्ण हो गया । अग्नि ने तो अपना स्वरूप जलाया, जल उस स्वरूप में आकर उष्ण हो गया । स्वयं द्रव्य, गुण, प्रदेश, पर्याय में ही वस्तु का कार्य हो सकता है उसके बाहर नहीं । जैसे—कहते हैं, सूर्य ने इतनी चीज प्रकाशित कर दी । किंतु ऐसा नहीं है । सूर्य की किरणों को निमित्त पाकर अंधकार की अवस्था में पड़े हुए पदार्थ अपनी प्रकाश की अवस्था में आ गये । जैसे—एक लड़का दूर खड़े हुए दूसरे लड़के को अपनी उंगली मटकाकर चिढ़ा रहा है । इसमें उस लड़के को चिढ़ाने में पहला लड़का कारण नहीं है । वह तो दूर खड़ा हुआ केवल अपनी उंगली मटका रहा है लेकिन उसको निमित्त पाकर दूसरा लड़का अपने परिणामों को बदल कर अपने आप चिढ़ रहा है । जैसे पुत्र ने पिता को सुखी किया । ऐसा नहीं है । पुत्र की आत्मा ने पिता के सुख के लिये कुछ नहीं किया । पिता के पुण्य का उदय था, पिता के पुण्यरूप सुख में पुत्र निमित्त बन गया । जैसे उँगली ने होल्डर को सरकाया होल्डर के सरकने में उँगली ने कुछ नहीं किया । उंगली तो स्वयं चल रही थी । उसके चलते हुए के बीच में होल्डर भी था, तो होल्डर भी उंगली के हिलाने को निमित्त पाकर चल पड़ा ।
463-पदार्थ जितना है उसी सत् में देखने का महत्त्व—कुम्हार ने घट बनाया । कुम्हार ने तो अपने हाथ ही चलाये । उसके बीच में मिट्टी थी तो वह घड़े रूप बन गई । घड़े में कुम्हार के हाथ का या अंगुली का कोई हिस्सा थोड़े ही पहुँचा । मृन्मय है । पर्याय सारी एक होती है । 343 घन राजू यह लोक है उसको कोई कहाँ तक परिणमाएगा? वस्तु का स्वभाव स्वत: परिणमने का है । अत: वस्तुओं के परिणमन में कभी भूल नहीं होती । वे प्रतिसमय परिणमती रहती हैं । चाहे कोई वस्तु कहीं भी पड़ी रहे यह वहीं पड़ी-पड़ी स्वयं परिणमती रहेगी । जैसे हम सदा परिणमते रहते हैं, तो किसी न किसी चीज को निमित्त पाकर परिणम जाते हैं । सिद्ध की आत्मा भी सदा परिणमती रहती है, लेकिन उसे हम यहाँ जैसा प्रकट नहीं जान सकते । सिद्ध का परिणमन शुद्ध परिणमन है । सिद्ध की आत्मा शुद्ध है । उसकी आत्मा की पर्याय भी वैसी ही शुद्ध है । जैसे आत्मा में पहले समय में ज्ञान का परिणमन हुआ वैसा ही प्रतिसमय होता है । सिद्ध भगवान् पदार्थों को जानते भर हैं । उनके ज्ञान में परिणमन आने से आत्मा में राग-द्वेष का भाव नहीं आता है, अत: सिद्ध भगवान का विशुद्ध परिणमन कहलाया । इन सब आत्मा के कर्मों को व्यवहारनय बिना नहीं बताया जा सकता । 464-परमार्थ के अज्ञान और ज्ञान का प्रभाव—जैसे म्लेच्छ (अंग्रेज) को ‘स्वस्ति’ के वाच्यवाचक-संबंध का ज्ञान नहीं रहता है वह उसके (विप्र के द्वारा उच्चार्यमाण स्वस्ति के) अर्थ को नहीं समझ पाता है । अब वह अंग्रेज मेष (मेढ़े) की तरह विप्र की ओर आंख निकालकर देख रहा है, परंतु जब कोई द्विभाषिया (अंग्रेजी व संस्कृत को जानने वाला) उसे अंग्रेजी का (म्लेच्छभाषा का) आश्रय लेकर समझाये कि यह विप्र आपके लिये कल्याण का आशीर्वाद दे रहा है, तब अंग्रेज उसके (विप्र के स्वस्ति के) अर्थ को समझ जायेगा । जब वह उसके अर्थ को समझेगा तो बहुत जल्दी आनंद की वर्षा करेगा। उसकी आंखों से हर्ष के अश्रु निकल पड़ेंगे । वह जान जाता है कि यह बात हमारे कल्याण कामना से कही गई थी । उसी प्रकार विषय वासनांनद में डूबा यह संपूर्ण विश्व ‘आत्मा’ कहने मात्र से आत्मा का ज्ञान नहीं कर पाता है । वह मनुष्य यह सोचेगा कि यह आत्मा-आत्मा क्या बक रहा है । फिर ज्ञानी आचार्य जो कि निश्चय और व्यवहार को जानते हैं उस मोही को ऐसी व्यवहार भाषा में समझाते हैं कि जो जानता है, जो देखता है जो श्रद्धा करता है—वह आत्मा है । ऐसा कहने पर वह समझ जायेगा कि आत्मा क्या है? ऐसा जानकर उसे महान् आनंद की उपलब्धि होगी । दृष्टांत की अपेक्षा से यह सारा मोही विश्व म्लेच्छ है और व्यवहारनय म्लेच्छ भाषा है । उस विश्व-म्लेच्छ को व्यवहार-म्लेच्छ भाषा से समझाया जाये तभी वह ‘आत्मा’ को समझेगा । जैसे नट रस्सी पर आने जाने के अभ्यास के लिये बांस का आश्रय लेता है । जब वह सीख जाता है, लोगों को दिखाते समय तो उसे बांस के आश्रय की आवश्यकता नहीं होती है । उसी प्रकार शीर्षासन करने वाला भी सीखते समय पहले भीत का सहारा लेता है । अभ्यस्त हो जाने पर सहारा की आवश्यकता नहीं । इसी प्रकार जो निश्चयनय को नहीं समझते हैं, पहले उन्हें व्यवहारनय की भाषा से समझाया जाता है । 465-शांत परिणामी बनने का अनुरोध—ज्ञानी जीव प्रत्येक समय यही सोचता है कि मैं चिदानंद चैतन्य आत्मा हूँ उसकी दृष्टि में भेद अभूतार्थ है वह किसी बात का बुरा नहीं मानता । पर कैसा ही परिणमों; वह शांति से चलित नहीं होता । यदि एक शांत रहता है, दूसरा अपने आप ही शांत हो जायेगा । कहावत है, एक चुप सौ को हरावे—अर्थात् यदि एक शांत रहता है, सौ आदमी भी उसको गाली दे-दे, बाद में अपने आप थककर शांत हो जायेंगे । ज्ञानी बाह्य परिणति को देख प्रवाह में नहीं बह जाता । अशांत रहने से कभी लाभ नहीं होता है । क्रोध करके सदा मनुष्य दुःख पाता है बर्बाद हो जाता है । क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों का फल बर्बाद होना ही है । कषाय से आत्मा का पतन होता है । कषाय करके आत्मा का आज तक कल्याण होता नहीं देखा गया है । कषाय से अभाव के लिये निज स्वभाव का परिचय प्रथम आवश्यक है । एक परमाणु द्रव्य है । प्रत्येक परमाणु अपने में स्वत: परिणमता है एक परमाणु दूसरे परमाणु में परिणमन नहीं कर सकता है; दूसरे परमाणु के परिणमन में निमित्त बन सकता है । इसी प्रकार यह संसार प्रारंभ से परिणमता आया है और आगे भी परिणमता रहेगा । इस परिवर्तनशील संसार में कोई भव्य आत्मा होता है, जो अपनी आत्मा का कल्याण कर लेता है । आत्मा में आत्मा द्वारा आत्मा को उपयुक्त रखना कल्याण है । एक बार ऐसी पूर्ण शुद्धि होने पर यह शुद्धि अनंतानंत काल तक बनी रहती है । 466-व्यवहारनय की कदाचित् कार्यकारिता—वास्तव में कार्यकारी तो परमार्थ है । परंतु व्यवहार से ही मोक्ष का बोध होता है । स्वभाव की परख से ही जीव का कल्याण होता है । जिसको जीव की परख हो गई, वह सम्यग्दृष्टि है । यद्यपि सम्यग्दृष्टि संसार के सभी भोगों से दूर रहता है फिर भी उसके जो भोग भोगने पड़ते हैं उनमें वह उपयोग नहीं लगाता है । सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि की तरह भोग नहीं भोगता है, यदि भोगता भी है, उनसे बहुत दूर रहता है । सम्यग्दृष्टि के किसी चीज का स्वाद भी होता है, उससे भी विरक्त रहता है । सम्यग्दृष्टि के जो इंद्रिय विषय भोग रहता है, उसमें राग नहीं है लेकिन विरक्त भाव है । यह सब उसके सम्यक्त्व का फल है । जितना उसमें राग भाव पाया जाता है वह चारित्रमोहनीय का फल है । उसमें राग भाव है, अत: कर्मबंध हो रहा है । विरक्त भाव है अत: कर्म झड़ भी रहे हैं । जैसे यदि कोई सम्यग्दृष्टि पर आक्रमण करे सम्यक्त्वी शस्त्र लेकर भी प्रत्याक्रमण करे और शत्रु शस्त्र से मर भी जाये तो भी सम्यक्त्वी में विरक्तभाव रहता है । फिर भी वह अविरत सम्यक्त्वी विरोधी हिंसा का त्यागी नहीं है । संकल्पी हिंसा का तो वह त्यागी होता है । सम्यग्दृष्टि, जिनेंद्र भगवान ने जैसा कहा है, उस पर वैसा ही श्रद्धान करता है । इसके विपरीत जिनेंद्र भगवान की बात को झूठी कहना मिथ्यात्व है । जिनेंद्र ने जितनी बातें युक्ति वाली कहीं वे सब सत्य हैं तो जिन में युक्ति नहीं चल सकती ऐसी परोक्ष बातें भी सभी सत्य है ऐसा सम्यग्दृष्टि श्रद्धान करता है । 467-युक्ति श्रद्धा के बल से ज्ञानी की निःशंकता—भगवान की दिव्यध्वनि को बिखरे आज से 2।। हजार वर्ष हो गये । आचार्यों की परंपरा में किन्हीं-किन्हीं विषय में दो प्रकार की बातें आ गई, दोनों मानो तो कोई हर्ज नहीं । किंतु प्रयोजनभूत तत्त्व में ऐसा नहीं है, जिनेंद्र ने ऐसा कहा है सो इस कारण मान लो ऐसा मानना कमजोरी है । तत्त्व को युक्ति से सिद्ध करके मानना चाहिये, क्योंकि वे युक्तियुक्त है । लेकिन जिनमें युक्ति की गति नहीं है, उनसे श्रद्धा करना ही भक्ति है । रावण से युद्ध प्रसंग में यह तक कहा कि हम तुम्हें नहीं मारेंगे यदि तुम हमारी सीता वापिस कर दो । सम्यग्दृष्टि के मारते समय भी मारने के भाव नहीं रहते । गृहस्थ भी यदि बनना है तो गेही पै गृह में न रचै ज्यों जलतै भिन्न कमल है ऐसे बनो । परंतु यह बात सम्यक्त्व के बिना संभव नहीं है अत: सज्जनों, सम्यक्त्व की प्राप्ति प्रथम तथा प्रधान लक्ष्य होना चाहिये । यह सब ज्ञान द्वारा साध्य है । पदार्थों के यथार्थज्ञान को बतलाने के लिये कि वह कैसा है, व्यवहारनय का अवलंबन प्रयोजनवान् है, किंतु वहाँ इतना प्रयोजन लेना कि यह व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक है । 468-व्यवहारनय की प्रयोज्यता—जैसे कोई अंग्रेजी भाषा का जानकार पुरुष हो और कोई प्राचीन सभ्य संस्कृत भाषा से सुपरिचित विद्वान उसे संस्कृत भाषा में आशीर्वाद रूप में कुछ कहता है - मानो स्वस्ति कहा, जिसका अर्थ है—भला हो, कल्याण हो, अविनाश हो, यों अर्थ तो भला है मगर वह संस्कृत भाषा से अपरिचित होने के कारण उसकी बात न समझ सका, तो वह यों ही देखता रह जाता है कि क्या कह रहा है यह? कुछ बुरा तो बोल न रहा होगा, क्योंकि उसकी आंखें इसकी मुद्रा, इसकी प्रसन्नता ये जाहिर करते हैं कि यह कह तो कुछ अच्छा ही रहा है । सोचा कि हमें जानना चाहिये कि यह क्या कह रहा है, सो अपनी अंग्रेजी भाषा में पूछ कर उसका अर्थ जानना चाहा । तो चूंकि वह संस्कृत का शब्द बोलने वाला व्यक्ति अंग्रेजी भाषा भी जानता था सो वह उस शब्द का अर्थ बता देता है—तुम्हारा भला हो, कल्याण हो, तुम्हारा अविनाश हो आदि तो उस संस्कृत का शब्द बोलने वाले की बात सुनकर अंग्रेजी जानने वाले के रोम-रोम प्रसन्नता से खिल उठे तो जैसे जिस भाषा का जो जानकार हो उसे उस भाषा में समझाया जाने पर उसकी भलाई हो सकती है उसी प्रकार जिसे आत्मा नाम की चीज का कुछ परिचय नहीं है उसे अखंड भाषा में आत्मा शुद्ध ज्ञायक स्वभावी चैतन्यमात्र है आदि शब्द बोलकर आत्मा नाम की चीज का परिचय नहीं कराया जा सकता है । उसे तो उसकी ही भेद भाषा में जब समझाया जायगा कि देखो—जो जाने, देखे, आनंद का अनुभव करे उसे आत्मा कहते हैं, तो उसे झट आत्मा नाम की चीज का परिचय हो जायगा । और उस बात को समझकर उसके रोम-रोम प्रसन्नता से खिल उठेंगे । तो निश्चयनय के विषय को समझने का उपाय व्यवहारनय है, इस कारण व्यवहारनय की बात कहनी पड़ती है । एकत्व भाव अतिसुंदर हैं, विसम्वादरहित है उसमें बंध की कथा नहीं है तिस पर भी क्या करें, केवल उतने एकत्व स्वभाव को कहते रहें तीर्थ की प्रवृत्ति नहीं चल पा रही । बहुत-बहुत समझाना पड़ता है और कुछ पढ़ाना पड़ता है तब वह अखंड शुद्ध ज्ञायकस्वभाव की बात समझ में आती है । हाँ इतनी बात अवश्य है कि बिना प्रयोजन के एक अपनी मातृभाषा को, संस्कृत भाषा को, उत्तम भाषा को छोड़कर क्लिष्ट बनावट करके उत्पन्न की गई भाषा का प्रयोग करे तो वह इसी माया चक्र में रह कर अपनी बरबादी कर लेता है । सो व्यवहार का प्रयोग जब आवश्यक न रहा तो न करना चाहिये । आवश्यक निश्चयनय का प्रयोग तो है । 469-शुद्ध आत्मतत्त्व की आदेयता—मैं शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व हूँ ऐसा सुनते हुए दिल न ऊबेगा, बल्कि उस झलक में नई किरण धारा मिलने से उससे भी अधिक तृप्ति और आनंद में रहेगा । तो इस कथन से यह शिक्षा लेना है कि व्यवहारनय भी उपयोगी है, व्यवहारनय का भी अनुसरण करना चाहिये परमार्थ तत्त्व को समझने के लिए । जैसे खामखां किसी एक उच्च भाषा के जानकार को तुच्छ भाषा में बोलकर समय न गुजारना चाहिए यों ही समझिये कि जिसने अपने स्वरूप का अंत: अवलोकन कर लिया उसे अब व्यवहारनय के प्रयोग की मुख्यता नहीं रहती । इस प्रसंग में यह बताया जा रहा है कि सुंदर तो परमार्थ एकत्व है जो कि सुलभ नहीं है जीव को । कषाय के आवेश में जो कुछ परिणाम किया, बाहर में कार्य का संबंध जोड़ा, यह सब यद्यपि वस्तुत्व से बहिर्गत है लेकिन वह भी किसी हद तक उपयोगी बनता है । व्यवहार भी परमार्थ का प्रतिपादक है, संकेत भी वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादक हैं । समझने वाला तो दूसरा ही है । चाहे शब्द सुनकर समझ ले चाहे अंगुली का इशारा देखकर समझलें, शब्द से समझने पर भी शब्द ने नहीं समझाया । कोई समझता है तो अपने ज्ञान से । ऐसे ही कुछ संकेतों से समझाया जाने पर भी संकेतों से नहीं समझ लिया, वहाँ भी समझा है अपनी बुद्धि से । तो समझते हैं सब अपनी-अपनी योग्यता से और बुद्धि से, लेकिन जिनके मोह बसा हुआ है, जिन्हें आत्मस्वरूप का परिचय नहीं मिला वे बाह्य पदार्थों को ही अपनाते रहते हैं और दुःखी होते रहते हैं । व्यवहार के रास्ते से चल रहे हैं और चलियेगा । शुभ को छोड़कर अशुभ में लगने से कोई लाभ नहीं है लेकिन संसार संकटों को उलट देने वाला जो भेद विज्ञान है उसे न छोड़ियेगा । व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक बन गया, इसके लिये उन पर अनेक दृष्टांत आये हैं तिस पर भी आचार्यदेव ने करुणा करके बताया है कि व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक कैसे होता है । 470-व्यवहार में परमार्थ प्रतिपादकता के दृष्टांत की उत्थानिका—आत्मा को ही जानता है इसको बताने के लिये व्यवहार का आश्रय करके समझाया जाता है । जैसे पूछा जावे कि श्रुतकेवली वास्तव में किसे जानता है तो उत्तर इस प्रकार होगा ।