वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 24
From जैनकोष
यदभावे सुषुप्तोऽहं यद्भावे व्युत्थित: पुन:।अतींद्रियमनिर्देश्यं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।।24।।
मैं क्या हूं–जिस शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति न होने पर मैं मोह निद्रा में सो जाया करता हूँ, और जिस शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति होने पर मैं जाग जाया करता हूँ, ऐसे अतिंद्रिय अपने आपके द्वारा ही ज्ञान में आने योग्य मैं आत्मतत्त्व हूँ। अनादिकाल से बराबर इस जगत के प्राणियों पर अज्ञान अंधकार छाया चला आ रहा है जिसमें इसने अपने आपके स्वरूप की प्राप्ति नहीं की। जैसे जब घोर अंधियारा हो जाता है तो अपने ही हाथ पैर अंग अपने को नहीं दिखते, फिर यह तो आत्मा का अँधेरा है जिसमें आत्मस्वरूप कैसे दिखेगा। जब नहीं दिखा आत्मतत्त्व तो यह मोह निद्रा में सो गया, अर्थात पदार्थों का यथार्थज्ञान न हो सका, हित के मार्ग में यह न चल सका, बेहोश खोया पड़ा है और जब इस जीव को अपने सहज ज्ञानस्वरूप की याद होती है, अनुभव होता है तब यह जागृत हो जाता है, सावधान हो जाता है। वस्तुस्वरूप को यथार्थ जानने लगता है।सुप्तदशा में बंध–भैया ! आप लोग सोचते होंगे कि सोना है तो अच्छी चीज, मगर सो जाय तो फिर सो ही जाय जिंदगी भर को तो फिर अच्छा रहेगा (हंसी) और यह क्या कि 6 घंटे को नींद आयी, फिर जग गए। ऐसा सोना अच्छा होगा क्या ? कोई तो यह जानते होंगे कि सो गए, वहाँ कुछ काम नहीं करते तो कर्मबंध कम होता होगा। सोई हुई अवस्था में भीतर में जो संस्कार बसे हैं वे सब संस्कार बेलगाम भीतर ऊधम मचाते हैं। पर बेहोशी है इसलिए वह अनुभव में नहीं आते और वहाँ बंध बराबर चलता रहता है।आत्मा की ज्ञानानंदस्वरूपता–जैनसिद्धांत में आत्मा को ज्ञानस्वरूप और आनंदस्वरूप ज्ञानानंदस्वरूप माना है। जिन लोगों ने इस ब्रह्म को ज्ञानस्वरूप ही माना है अथवा इस ब्रह्म को आनंदस्वरूप ही माना है, जरा उस मंतव्य में कल्पना तो कीजिए कि आनंद बिना, ज्ञान क्या महत्त्व रखता है और ज्ञान बिना आनंद क्या स्वरूप रखता है ? ज्ञान न हो और आनंद ही आनंद है वह आनंद कैसा ? ज्ञान को छोड़कर आनंद नहीं रहता है और आनंद को छोड़कर ज्ञान नहीं रहता। ज्ञानानंदस्वरूप एक साथ एक आधार में अमूर्त भावरूप शाश्वत रहा करता है। इसको लौकिक भाषा में कहा जाय तो आत्मा का जगमग स्वरूप है। आज तो बड़ा जगमग हो रहा है। जग के बिना मग नहीं होता और मग के बिना जग नहीं होता। जगमग एक साथ चलता है। जग मायने ज्ञान और मग मायने आनंद। मग्न हो गए, छक गए।आत्मा का जगमगस्वरूप–जैसे बिजली या दीपक अपने प्रकाश का काम करता है तो वहाँ जगमग दोनों चलते हैं। लोग बोलते भी हैं कि यह दीपक जगमगा रहा है। उस जगमग का अर्थ है कि यह दीपक अपने में समाया हुआ रहता और बाहर में उजेला देता हुआ रहता है। इसमें दोनों काम चल रहे हैं। कभी-कभी तो यह बात समझ में भी आती है कि देखो अब यह दीपक अपनी ओर सिकुड़ा और अब यह दीपक बाहर में प्रकाश फैलाने के लिए हुआ। खूब सूक्ष्म दृष्टि करके देखो तो दीपक में जगमग दोनों बातें पायी जाती हैं―इसी तरह आत्मा में जगमग दोनों बातें हैं―ज्ञान और आनंद। प्रभु का स्वरूप जब बखानते है तो कहते हैं ना―सकल ज्ञेयज्ञायक तदपि निजानंदरसलीन। प्रभु सकल ज्ञेय के ज्ञायक हैं, यह तो है जग का स्वरूप और अपने आनंदरस में लीन है यह है मग का स्वरूप। ऐसा जगमग स्वरूप प्रभु अपना विकास बनाए हुए है। इस आत्मतत्त्व का यह स्वभाव है।आत्मपरिचय बिना मुग्ध बुद्धि–जगमगरूप चैतन्यचमत्कारमात्र अंत:चकचकायमान् प्रकाशमय आत्मतत्त्व का जब परिचय नहीं होता तो यह प्राणी मोह नींद में ज्ञेयासक्त हो रहा है। यह मेरा है यह फलां का है, यह बड़ा है, इसकी रक्षा करना है, उसमें बड़प्पन मानते हैं। है कुछ नहीं, जंजाल बढ़ गए। विकल्पों में पड़ा है, तो क्या यह कम संकट माना जायेगा ? सोया हुआ है, अपना चेतन ही है, परिपूर्ण ज्ञानानंद स्वभावी आत्मतत्त्व हूँ―ऐसा उसे स्मरण भी नहीं है। जिसके अभाव में यह आत्मा सो जाता है अर्थात बेखबर हो जाता है वह मैं आत्मतत्त्व हूँ और जिसकी दृष्टि होने पर यह आत्मा जग जाता है, सावधान हो जाता है वह मैं आत्मतत्त्व हूँ।आत्मा की अतींद्रियता―यह मैं आत्मतत्त्व अतिंद्रिय हूँ, इसमें इंद्रिय नहीं है, इंद्रियों के द्वारा ज्ञात भी नहीं होता। भावेंद्रियरूप खंडज्ञान भी इसमें नहीं है। यह मैं शुद्ध ज्ञानस्वरूप हूँ, अखंड ज्ञानस्वरूप हूँ। इस आत्मतत्त्व के बताने में बड़ी हैरानी होती है क्योंकि यह अनिर्देश्य है। इंद्रिय से जान ली जाने वाली बात हो तो कुछ जोर चलावें कि जान जायें इसे। पर यह आत्मतत्त्व तो अनिर्देश्य है, किसी भी उपाय से निर्देश में नहीं आ सकता।इंद्रियज नीयत ज्ञान―कोई कहे आग गरम है। अजी हम नहीं मानते, आग तो ठंडी है, पानी भी ठंडा होता है, वह भी पुद्गल है, आग भी पुद्गल है, वह भी ठंडी होती है। अजी नहीं, देखो वह रक्खी है आग, वह तो गरम है। हम नहीं मानते। तब क्या करो कि ज्यादा झगड़ा उससे न मचावो, चिमटे में आग पकड़ो और उस निषेधक का हाथ खोलकर धर दो। वह समझ जायगा―अरे ! रे रे यह तो गरम है। ऐसी ही रसना की बात है, अमुक चीज कड़ूवी है, अजी कड़ुवी नहीं है, खिलाना नहीं चाहते इसलिए बता रहे हो कि कड़ुवी है, अरे ! तो जीभ पर धर दो, अभी कह देगा कि यह बड़ी कड़ुवी है। तो इंद्रिय से परखी जाने वाली कोई बात हो तो उसे जोर देकर समझाया जाय।इंद्रियज ज्ञान व अतिंद्रिय ज्ञान में अंतर–भैया ! जैसा हम जानते हैं वैसा भगवान् नहीं जानते और जैसा भगवान् जानते वैसा हम नहीं जानते। तो हमारा जानना सच्चा कि भगवान् का जानना सच्चा, पर चित्त में यह बात बैठी है कि जो हम जानते हैं सो ही सच है। यह खंडज्ञान है, पर्यायज्ञान है, मायारूप ज्ञान है, यह सब इंद्रियों द्वारा ज्ञात होता है। प्रभु इंद्रियों द्वारा नहीं जानता। यह आत्मतत्त्व अनिर्देश्य है। इंद्रिय की बात क्या कही जाय ? झूठ भी हो सकती है। लोग कानों सुनी बात को झूठ बताते हैं। अजी यह कानों सुनी या आंखों देखी बात है ? हमने तो कानों सुनी है, अरे ! तो इसका क्या विश्वास ? आंखों देखा हो तो बतावो। तो कानों सुनी बात को लोग झूठ मानते हैं और आंखों देखी बात को लोग सच मानते हैं। पर कोई-कोई बात आंखों देखी भी तो झूठ हो सकती है। अच्छा बतावो आसमान में जो तारे दिखते हैं वे कितने बड़े हैं ? तो यही बतावेंगे कि जो कांच की गोलियां होती हैं ना खेलने की उससे भी छोटे, किंतु हैं वे कम से कम तीन कोस के। ज्यादा के कितने ही हों।चाक्षुषज्ञान से भी असत्यता की संभावना–एक कथानक है। राजा का नौकर राजा का पलंग सजाता था, बड़ा कोमल स्प्रिंगदार था और उस पर गद्दा पड़ा था। बड़ा कोमल गद्दा था। एक दिन सोचा कि इस पर राजा लेटता है, मैं भी तो जरा दो मिनट को देख लूं, कैसा गुदगुदा है, सो वह नौकर चादर तानकर दो मिनट को लेटा कि उसको नींद आ गयी। अब रानी आयी, सो जाना कि रोज की तरह राजा हैं, सो वह भी चादर तानकर लेट गयी। दोनों को नींद आ गयी। राजा आया तो देखा कि यह क्या मामला है ?सोचा कि दोनों का सिर उड़ा दूं। ध्यान आया कि किसी संत ने बताया था कि कानों सुनी भी झूठ हो सकती है, आंखों देखी भी झूठ हो सकती है। तो पहिले रानी को जगाया। सो यह मामला देखकर रानी बड़े अचरज में पड़ गयी कि यह मामला क्या है ? मैं तो जानती थी कि आप हैं। और जब नौकर को उठाया तो बेचारा डर के मारे कांपे। उसे यह लगा कि मैं राजा के पलंग पर सो गया। पलंग पर सोने का मैंने बड़ा अपराध किया। सच बात जानने पर राजा समझ गया कि ठीक है।युक्तिमत् ज्ञान और अनुभव में विशेषता–अच्छा तो युक्ति पर उतरी हुई बात सही होगी क्या ? कानून में आयी हुई बात सही होगी क्या ? तो कानून की बात भी झूठ हो सकती है। राजा के पास दो सौतों का न्याय आया, एक के लड़का था और एक के न था। उसने दावा कर दिया कि यह लड़का मेरा हैं। वकील दोनों जगह के आए। युक्ति बताई किंतु पति की संपत्ति पर स्त्री को पूरा अधिकार होता है कि नहीं ? दोनों का होता है, तो यह लड़का पिता का भी है, इसका भी तो है। तो घर, धन वैभव, सब पर स्त्री का अधिकार होता है या नहीं ? होता है ठीक है। अब राजा सोच में पड़ गया कि क्या न्याय करें ? लड़का तो एक ही का होगा। उसे युक्ति समझ में आयी। उसने शस्त्रधारी पहरेदारों को बुलाया, और कहा कि देखो यह लड़का इस स्त्री का भी है और इस स्त्री का भी है सो इस लड़के को ठीक बराबर के दो हिस्से करो। एक टुकड़ा इसे दे दो और एक टुकड़ा इसे दे दो। तो जिसका लड़का था वह कहती है―महाराज मेरा लड़का नहीं है, यह तो इसका ही है, पूरा का पूरा इसको दे दो। और जिसका लड़का नहीं था, वह खुश हो रही थी कि आज अच्छा न्याय बन गया, मरने दो सुसरे को। तो यहाँ कानून ने काम नहीं दिया, यहाँ तो अनुभव ने काम दिया।
आत्मा की स्वसंवेद्यता―राजा ने निर्णय दिया कि जो मना करती है उसका लड़का है, उसे दिला दिया। तो इंद्रियों द्वारा जानी हुई बात भी यथार्थ नहीं होती, और प्रभु तो जानता ही नहीं है इंद्रियों द्वारा जानने योग्य चीजों को, क्योंकि वे सत् स्वरूप नहीं हैं, मायारूप है। वह असत् को नहीं जानता। सो ऐसा ही यह मैं आत्मतत्त्व अनिर्देश्य हूँ और अपने आपके ज्ञान द्वारा अपने ही ज्ञान में सम्वेदन करने योग्य हूँ, ऐसा यह मैं आत्मतत्त्व हूँ, जिसकी सुध आने पर अंतर्जल्प और बहिर्जल्प दोनों प्रकार के ऊधम छूट जाते हैं और आनंद का अनुभव होता है।
स्वसम्वेदन में व्यक्त आत्मतत्त्व–यह मैं आत्मतत्त्व अतिंद्रिय हूँ, इंद्रियों द्वारा गम्य नहीं हूँ, द्रव्येंद्रिय और भावेंद्रिय से रहित हूँ और इसी कारण अनिर्देश्य हूँ, किसी चिन्ह के द्वारा मैं निर्देश किया जाने योग्य नहीं हूँ। ऐसे वर्णन को सुनकर यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि तब क्या मैं किसी प्रकार ज्ञान में आ नहीं सकता ? इसका समाधान स्वसम्वेद्य शब्द में दिया गया है। मैं आत्मा ज्ञानमय हूँ और ज्ञान का ही काम करता हूँ और इस ज्ञानमय निज को ही जानना है तो इस ज्ञानस्वरूप को जानने का साधन अन्य तत्त्व नहीं हो सकता है। मैं अपने आपके ही द्वारा स्वसम्वेदन किया जाने योग्य हूँ। ऐसा यह मैं आत्मतत्त्व गुप्त अंत:प्रकाशमान् हूँ। जिसने देखा उसको व्यक्त और अज्ञानी को अव्यक्त, ऐसा स्वरूपास्तित्त्व मात्र चित् स्वरूप हूँ। यहाँ तक आत्मस्वरूप का वर्णन बहुत कुछ किया गया है। इसके पश्चात् अब यह बतला रहे हैं कि आत्मस्वरूप का जो अनुभव कर लेता है ऐसे आत्मा में रागद्वेषादिक दोष नहीं रहते और इसी कारण उसकी दृष्टि में शत्रु और मित्र की कल्पना नहीं रहती है।