वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 25
From जैनकोष
क्षीयंतेऽत्रैव रागाद्यास्तत्त्वतो मां प्रपश्यत:।बोधात्मानं तत: कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रिय:।।25।।आत्मदर्शन से रागादिक का क्षय–परमार्थत: अपने आपको देखने वाले इस मुझ आत्मा में रागादिक दोष तो नष्ट सुगम ही हो जाते है, क्योंकि आत्मतत्त्व को देखा जाने पर यह अनुभव किया गया कि यह मैं ज्ञानमात्र हूँ। ज्ञान जैसे कि अमूर्त भाव है तो ज्ञानस्वरूप ही तो आत्मा है। वह भी अमूर्त है। ऐसे अमूर्त ज्ञानभावमात्र अपने आपके स्वरूप को जिसने निरखा है ऐसे ज्ञानी संत के ये रागद्वेषादिक विकारभाव यों ही विलीन हो जाते हैं। राग को मिटाने का वास्तविक उपाय बाह्यपदार्थों का संग्रह विग्रह अथवा कुछ परिणमन कर देना, हो जाना यह नहीं है। राग का अर्थ है परवस्तु सुहा गई और राग मिटने का अर्थ है कि परवस्तु में सुहा गई ऐसी स्थिति ही न हो। वह स्थिति अपने आपको ज्ञानमात्र अनुभव करने से प्राप्त होती है। मैं ज्ञानमात्र हूँ। जहाँ जाना कि यह मैं केवल जाननहार हूँ, अन्य इसमें वृत्ति होना मेरा स्वरूप नहीं है, तब वह रागद्वेष को क्यों अपनाएगा ? परमार्थ निजस्वरूप को देखने पर रागद्वेष नहीं ठहरते हैं।
रागादिक के क्षय से शत्रुत्व, मित्रत्व की कल्पना का अभाव―भैया ! ये रागद्वेष जीते जाने बड़े कठिन मालूम होते हैं। और ये इसलिए कठिन हैं कि इस जीव पर अज्ञान छाया है। शरीर को ही माना कि यह मैं आत्मा हूँ। सो शरीर को आराम चाहिए, शरीर की खुदगर्जी चाहिए, सब कुछ देखा है इस मोही जीव ने शरीर को। अत: वह इस शरीर को अहित जानकर, विनाशीक जानकर परोपकार में इसे लगाया जाय ऐसी बुद्धि नहीं करता है। अपनी इंद्रियपोषण के लिए और अपने आराम के लिए इसका मन बना रहा करता है। ऐसा विषयाभिलाषी, शरीर में आत्मबुद्धि रखने वाला व्यामोही पुरूष रागद्वेष का कहां से क्षय करेगा ? वस्तुत: अपना ज्ञानमात्र स्वरूप अनुभव में आने पर वहाँ रागद्वेष रहा ही नहीं करते हैं, और जब रागद्वेष क्षीण हो जाते हैं तो वहाँ फिर कौन शत्रु है, कौन मित्र है ? न कोई शत्रु है, न कोई मित्र है।मुग्ध बुद्धि–जब तक यह पुरूष अपना स्वाभाविक निराकुलता रूप स्वभाव का अनुभव नहीं करता तब तक ही इसकी बाह्यपदार्थों में इष्ट बुद्धि व अनिष्ट बुद्धि होती है। और जिन्होंने पर में इष्ट अनिष्ट की बुद्धि की सो वे लोग पर के लिए चिंतित रहा करते हैं। जो संयोग वियोग में साधक हैं उन्हें इष्ट मित्र मान लेते हैं और जो बाधक हैं उन्हें शत्रु मान लेते हैं। परंतु स्वरूप दृष्टि को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि मुझसे सभी अत्यंत जुदे हैं, फिर भी उन्हें अपनाने की बुद्धि इस मोही में पड़ी हुई है। जिस देह के साथ मेरा एक ज्ञेयाकार संबंध बन रहा है, जब मैं उस देह से भी पृथक् हूँ तो प्रकट पराया जो चेतन और अचेतन परिग्रह है वह मेरा कहां से हो सकेगा ? यह आत्मा पक्षी की तरह उड़ता फिर रहा है। आज मनुष्य भव में हैं, कल इस भव को भी छोड़कर अन्य भव में पहुंचेगा, फिर इस भव का समागम यहाँ का सब परिकर जो रागवश इकट्ठा किया है, क्या कुछ साथ देगा ? ओह इस मोही जीव के शरीर में कैसे दृढ़ आत्मबुद्धि है कि यह आराम चाहता है, साथ ही अपने नाम की कीर्ति भी चाहता है। सारे जीवन भर यश और कीर्ति के कार्य में लगा रहे और अंत में गुजर गया तो यहाँ का क्या कुछ साथ होगा ? नहीं, फिर भी यह मोही जीव अपने आपकी विकारमुग्ध बुद्धि से अपने आपको सताये जा रहा है। शुद्ध आनंद का अनुभव कर सकने योग्य नहीं है।आत्मा में मित्रत्व शत्रुत्व का अभाव―शत्रु मित्र किसी जीव से बँधें हुए नहीं हैं। अमुक जीव मेरा मित्र ही तो है ऐसा नहीं कहा जा सकता है। आप विषयसाधन में साधन निमित्त हो रहा हैं, तो उसे मित्र मान रहे हैं। इस ही जीवन में ही लो, विषयसाधक न रह सके तो वह शत्रु बन जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण आपको मिलेंगे। जिनका पहिले बड़ा दोस्ताना था कोई साधारण कारण पाकर वे एक दूसरे के प्रबल शत्रु हो जाते हैं। और अभी कहो किसी से शत्रुता हो, एक दूसरे को देखना भी न पसंद करें फिर भी विषयों की साधकता होने पर प्रिय मित्र बन जाता है तब शत्रु और मित्र होना यह कुछ द्रव्य में रहने वाली बात नहीं है, यह तो हमारी कल्पना की अधीन बात है। देवरति राजा की आसक्ति―एक बड़ी प्रसिद्ध कथा है। देवरति राजा था। उसकी स्त्री का नाम रक्ता था। राजा को रानी पर अत्यंत अनुराग था, जिसकी पूर्ति में वह राज्य को भी नहीं संभाल पाता था। तो प्रजाजनों ने, मंत्रियों ने एकचित्त होकर राजा से कहा कि महाराज या तो आप राज्य भार छोड़ दीजिए, हम मंत्रीगण राज्य करेंगे और आप अपनी रानी सहित रहीये या राज्यभार को विधिवत् संभालिए। तो रानी के अनुरागवश राजा ने राज्यभार छोड़ दिया और रानी को साथ लेकर राज्य से बाहर निकल गया। राज्य के बाहर किसी शहर के निकट ठहर गया। राजा तो भोजन सामग्री लेने गया और यहाँ रानी का क्या हाल होता है कि उस जगह कुवें पर एक कूबड़ा चरस हांक रहा था और चरस हाँकते हुए में सुरीला संगीत गा रहा था। आवाज बड़ी अच्छी थी, सो उस संगीत को रानी ने बहुत पसंद किया और उस कूबड़े के पास आकर बोली कि हम तुम्हें अपना मालिक बनाना चाहती हैं या अन्य अन्य बातें कही। तो कूबड़ा कृषक बोलता है कि तुम बड़े राजा की महारानी और हम कूबड़े का क्या हाल होगा, राजा तो दोनों के प्राण नष्ट कर देगा। तो रानी बोली कि यह इलाज तो हम कर लेंगी।रक्ता रानी की अनुचित वृत्ति―अब उस रक्ता रानी ने क्या किया इलाज ? जब राजा आया तो रानी उदास चित्त बैठ गयी। राजा कहता है कि तुम्हारी प्रसन्नता के लिए हम राज्यभार छोड़कर जंगल की खाक छानते फिर रहे हैं, फिर भी तुम उदास हो, यह उदासी मैं नहीं देख सकता हूँ। इस उदासीनता का कारण बतावो। रानी कहती है कि कल के दिन तुम्हारा जन्मदिवस है, जन्मदिवस भी भाग्य से आ गया था। यदि राजमहल में होती तो सिंहासन पर आपको बिठाकर आपका स्वागत करती। अब जंगल में हम आपका कैसे स्वागत करें ? तो राजा बोला कि यहाँ भी तुम जैसी उत्तम विधि बना सको, बनावो। रानी बोली कि आप जंगल से बहुत से फूल लावो, डोरा लावो, हम माला बनायेंगी। राजा ने फूल ला दिया। रानी ने मजबूत धागे से दस दस, बीस-बीस हाथ की लंबी कई मालाएँ बनाईं। और कहा―महाराज यहाँ महल तो नहीं है पर यह पर्वत है, इसके शिखर पर चलो, उस शिखर पर आपको विराजमान् कर आपका स्वागत करूंगी। राजा उस चोटी पर पहुंचा। रानी ने उन मालावों से राजा को कसकर बाँध दिया और एक जोर का धक्का लगाया, सो लुढ़कता लुढ़कता राजा नदी में जा गिरा और बहकर दूसरे राज्य के किनारे पहुंच गया।
भाग्य का कदम―भैया ! भाग्य की बात कि उस राज्य में राजा गुजर गया था, उसके कोई संतान उत्तराधिकारी न था। मंत्रियों ने यह विचार किया कि यह गजराज जिसके गले में माला डालेगा और अपनी सूँड़ से उठाकर अपने मस्तक पर बैठा लेगा उसे राजा बनाया जायेगा। गजराज को छोड़ दिया। वह हाथी घूमते-घूमते उसी जगह पहुंच जाता है जहाँ यह देवरति राजा किनारे लगा हुआ था भूखा प्यासा। गजराज ने उस पर माला डाली और अपने सिर पर सूँड़ से उठा लिया। वह देवरति फिर राजा बन गया।रक्ता की अनुचित वृत्ति का परिणाम―यहां रक्ता का क्या हाल हुआ कि एक टोकरी में उस कूबड़े को रखकर और अपने सिर पर लाद कर यत्र तत्र डोलने लगी। वह गाए और रक्ता रानी नाचे। इस नाचने और गाने के एवज में जो कुछ मिल जाय उसी से दोनों का पेट पलता। यह रक्ता रानी यों डोलते डोलते उस दूसरे नगर में भी पहुंच जाती है जहाँ देवरति राजा बन गया था। खबर पहुंची कि एक पतिव्रता नार आई है जो अपने पति को हमेशा सिर पर रक्खे रहती है, पति गाता है और पत्नी नाचती है। उसे राज दरबार में बुलाया गया, देवरति राजा को संदेह हुआ कि यह वही रानी है जिसके अनुराग में मैंने राजकाज छोड़ा था और जिसने हमें पर्वत से ढकेला था। वह विरक्त हो गया। प्रयोजन यह है कि एक बात नहीं, अनेक दृष्टांत ऐसे हैं जिनसे यह विदित होता है कि शत्रु मित्र कोई पेटेन्ट नहीं हैं। पुरूष भी जब जब अपने विषय साधनों के योग्य स्त्री को नहीं समझते हैं तो उसे कष्ट देते हैं, उपेक्षा कर देते हैं। तो यह ऐसा जगत् है। यहाँ किस जीव को तो शत्रु कहा जाय और किसको मित्र कहा जाय ? कोई जीव में नाम खुदा है क्या ? हम ही अपनी कल्पना में जिसे विषयसाधक मानते हैं उसे मित्र समझते हैं और जिसे बाधक मानते हैं उसे शत्रु समझने लगते हैं।आत्मतत्त्व की परिपूर्णता―यह मैं आत्मतत्त्व ज्ञानस्वरूप हूँ। इसमें ज्ञान प्रकाश है और आनंद का अनुभव है। इसमें ज्ञानानंदस्वरूप के अतिरिक्त अन्य कुछ भाव, परतत्त्व मुझमें नहीं है। ऐसे अपने आपके अनुभवने वाले ज्ञानी संत के रागादिक भाव क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। जगत् में क्लेश ही रागद्वेष मोह का है। जीव तो स्वतंत्र है, अपने स्वरूपरूप है, परिपूर्ण है। जो बात इसमें नहीं है वह बात कभी बाहर से आ नहीं सकती। जो बात इसमें है वह इससे कभी छूट नहीं सकती है। ऐसी दृढ़ता केवल आत्मतत्त्व की ही नहीं है किंतु समग्र सर्वपदार्थों में ऐसी दृढ़ता है कि वह अपने स्वरूप को छोड़ता नहीं है, और पररूप को ग्रहण करता नहीं है। जब ऐसा अव्याबाध मेरा स्वरूप है तब किसका भय है ? कौनसी शंका है ?
ज्ञानी गृहस्थ का परमार्थ और व्यवहार―भैया ! पर्याय का कर्तव्य और आत्मतत्त्व के नाते ये दोनों अलग-अलग है। और इसमें परस्पर झमेला भी चला करता है, पर यह सत् पुरूष कभी व्यवहार की बात को निभाता है और कभी परमात्मतत्त्व का अनुभव करता है। जैसे आप यहाँ हैं, मरण करके किसी अन्य देश में पहुँचे तो मेरे लिए यह देश क्या रहा ? आप जिस कुटुंब में हैं उसका राग करते हैं। और मरण करके किसी अन्य जगह में पहुँचे तो यहाँ के कुटुंब का राग फिर कहां मिलेगा ? बल्कि जहाँ पहुँचे उसका पक्ष रहेगा, और उसके मुकाबले में इस पूर्वभव के कुटुंब से द्वेष रक्खेंगे। जैसे आज यहाँ इस देश में हैं, भारतवर्ष में हैं और यहाँ से मरण करके भारत के शत्रु देश में जन्म ले लिया तो उसके लिए फिर उस नए देश से अनुराग हो जायगा और भारतवर्ष से शत्रुता हो जायगी। परमार्थ दृष्टि से देखो तो यह बात है और व्यवहारदृष्टि से देखो तो क्या राष्ट्र प्रेम न रखना चाहिए ? क्या राष्ट्र आक्रमण ही प्रिय है ? फिर गुजारा कैसे होगा ? यह एक लौकिक बात है। ज्ञानी संत पुरूष इन दोनों ही बातों को निभा लेते हैं, और जब जो करने योग्य है वह सब इसमें हो जाता है। यह सब आत्मतत्त्व के प्रसाद का प्रताप है। परमार्थ और व्यवहार दोनों बातों में ज्ञानी संतपुरूष परमार्थ की बात प्रमुख रखते हैं और पदानुसार करते हैं परमार्थ और व्यवहार दोनों ही बातों को।आत्मा में भव की उलझन और सुलझन―यह समाधितंत्र ग्रंथ है। इसमें समाधि के उपाय बताये जा रहे हैं। मैं केवल भावना ही कर सकता हूँ, अन्य पदार्थों में, मैं कुछ भी परिणमन नहीं कर सकता हूँ, तब भाव ही तो बनाया है। मैं अंतर में ही बसा बसा केवल भाव किया करता हूँ, कल्पनाएं बनाया करता हूँ, अन्य पदार्थों का कुछ नहीं करता हूँ। ऐसी स्थिति में इसको रागद्वेष करने का अवसर कहां से आयगा ? यह तो जानता है कि मेरा किसी ने कुछ सुधार बिगाड़ नहीं किया। यह मैं अपने आप ही अपनी प्रज्ञा से कभी उलझ जाता हूँ तो कभी सुलझ जाता हूँ। जैसे मंदिर के शिखर पर लगी हुई ध्वजा में ध्वजा के ही कारण कभी डंडे में पूरा लिपट जाता है और कभी उस डंडे से छूटकर फहराने लगता है। उस जगह उस ध्वजा को उलझाने वाला कौन है ? और सुलझाने वाला कौन है ? उस हवा की प्रेरणा पाकर यह ध्वजा अपने आप में ही उलझ जाता है और अपने आप में ही सुलझ जाता है। ऐसे ही इस आत्मा को उलझाने वाला कौन दूसरा है, और सुलझाने वाला भी कौन दूसरा है ? यह अपने ही स्वरूप से उलझ जाता है और अपने ही प्रज्ञाबल से सुलझ जाता है। कितनी सुगम यह कला है, आराम विश्राम से रहकर अपने आपमें ही रहकर अंतर में कुछ भावना बनाता है। उस भावना के प्रसाद से जो कुछ निरंतर होने योग्य है वह होने लगता है और जो नहीं होने योग्य है वह सब छूट जाता है।ज्ञानप्रकाश―भैया ! आत्मा की ऐसी बड़ी निधि को प्राप्त करने के लिए परपदार्थ की अणुमात्र भी आवश्यकता नहीं है किंतु विश्वास की दृढ़ता की आवश्यकता है। जिसका विश्वास दृढ़ नहीं है, पौरूष नहीं बनता है वह सदा कल्पना बना बनाकर दुःखी रहा करता है। मैं ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व हूँ और मात्र ज्ञान द्वारा ही अपने आपका अनुभवन करने वाला हूँ, ऐसा यह मैं आत्मतत्त्व अपने आपमें अपने आपका अनुभवन करता हुआ मोक्षमार्ग में कदम बढ़ाऊं। परमार्थ से ज्ञानस्वरूप मुझ आत्मा को मैंने देख लिया तो वहाँ रागादिक भाव ठहरते नहीं हैं, क्षय को प्राप्त हो जाते हैं, और जब रागादिक न रहे तो शत्रु और मित्रता की कल्पनाएं सब समाप्त हो जाती है। किसी को अपने घर के कुटुंबी से उतना अनुराग नहीं होता जितना कि अन्य पुरूष से, अन्य ग्राम में रहने वाले पुरूष से अनुराग अधिक बन जाता है। यहसब आत्मा में आत्मीयता का ही सौदा है। कोई जबरदस्ती बनाने सेयह बात नहीं बना करती है। मैं स्वयं सहज ज्ञानस्वरूप हूँ, इसमें तो क्लेश की गुंजाइश भी नहीं है। राग और द्वेष का वहाँ पर स्थान भी नहीं है।आत्मयत्न―भैया ! अब मोह की नींद छोड़ें, आत्मतत्त्व में स्थिर होने का यत्न करें, क्योंकि समय बड़ी तेजी से बीता जा रहा है, किसी परतत्त्व को अपने उपयोग में ले लेने से हम कौनसी महिमा पा सकेंगे ? यहाँ तो सारा न्याय न्याय से हुआ करता है। जैसा अंतर में परिणाम है, वैसा ही परिणमन प्रवर्तन और फल आगे प्राप्त हो जाता है। मैं सर्व कर्म और कर्मफलों से दूर हूँ, ऐसा आत्मानुभव करने वाले पुरूष के ये दो बातें हो जाती हैं। एक तो रागादिक भावों का विनाश और दूसरे पर जीवों में शत्रु और मित्र की कल्पना का अभाव। ये दो बातें जहाँ प्रकट हुई है वहाँ सहज ही आनंद जग रहा है। किसी से उस आनंद के पूछने की आवश्यकता नहीं है। हमारा कर्तव्य है कि हम कुछ क्षण तो सर्वपदार्थों का ख्याल छोड़कर निर्विकल्प अखंड सहज ज्ञानस्वरूप के अनुभवन में लगें, यही मात्र अनुभव ही इस संसार के समस्त संकटों से पार कर सकता है।