वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 30
From जैनकोष
सर्वेंद्रियाणि संयम्य स्तिमितेनांतरात्मना।
यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्त्वं परमात्मन:।।30।।इंद्रियसंयम की प्रथम आवश्यकता―समस्त इंद्रियों को संयत करके परमविश्राम में आकर इस अंतरात्मा के द्वारा क्षणमात्र जो कुछ दिखता है, इस ज्ञानी पुरूष के जो समझ में आता है वही परमात्मा का तत्त्व है। इस परमतत्त्व की प्राप्ति के उपाय में सर्वप्रथम यह बात कही जा रही है कि समस्त इंद्रियों को संयत करें, वश करें। पंचेंद्रिय के विषयों में यह सारा जगत विपन्न हो रहा है। स्पर्शनेंद्रियविषय का परिणाम―देखो एक स्पर्शन भाव के विषय का लोभी बनकर हाथी जैसा विशाल बलवान् जानवर मनुष्य के वश हो जाता है। हाथी पकड़ने वाले लोग जंगल में गड्ढा खोदते हैं, उस गड्ढे पर बांस की पंचें बिछाकर उस पर एक सुंदर झूठी हथिनी बनाते हैं और 50, 60 हाथ दूर पर उस हथिनी के पास दौड़ता हुआ हाथी आ रहा है ऐसी आकृति का हाथी बनाते हैं। जब जंगल का हाथी उस हथिनी के विषय की कामना से दौड़कर आता है, सामने दूसरा हाथी दिखता है, इस कारण और भी तेजी से आता है। उन पंचों पर पैर रक्खा कि वे बांस टूट जाते हैं और हाथी गड्ढे में गिर जाता है। कई दिन तक भूखा वहीं पड़ा रहता है, शिथिल हो जाता है। फिर धीरे से रास्ता निकालकर अंकुश से वश करके हाथी को मनुष्य अपने अधीन कर लेते हैं।रसनेंद्रियविषय का परिणाम―रसना इंद्रिय के विषय के लोभ में आकर ये मछलियां फंस जाया करती हैं। थोड़े मांस के लोभ में आकर कांटे में अपने कंठ को फँसाकर प्राण गंवा देती है। ढीमर लोग बांस में डोर लगाते हैं और डोर के अंत में कोई कांटा लगाते हैं और उसमें कुछ केचुवा वगैरह उस पर चिपका देते हैं, उसे पानी में छोड़ देते हैं। मछली उस मांस के लोभ में आकर मुँह पसारकर उसे खा जाती है, उसमें लगा हुआ कांटा कंठ में छिद जाता है, प्राण गंवा देती है।घ्राणेंद्रियविषय का परिणाम―घ्राणेंद्रिय का विषय देखो―भँवरा शाम को कमल के फूल में बैठ गया सुगंध के लोभ से, अब शाम को कमल बंद हो जाया करता है। सो या तो उस कमल में पड़े-पड़े श्वास रूक जाने से गुजर जाता है, या कोई जानवर हाथी आदिक आये और उस फूल को चबा डाले तो यों मर जाता है। एक घ्राणेंद्रिय के विषय के लोभ में उस भँवरे ने अपने प्राण गंवा दिए।चक्षुरिंद्रियविषय का परिणाम―चक्षुरिंद्रिय के विषयों की बात तो सामने है। जलते दीपक को देखो उस पर पतंगे गिरते हैं और वे मर जाया करते हैं। वे देखते रहते हैं दूसरे मरे हुए पतंगों को, फिर भी उनकी संज्ञा में ऐसी धारणा है कि वे भी उस ही लौ पर गिरते हैं और मर जाते हैं।श्रोत्रेंद्रिय के विषय का परिणाम―श्रोत्रइंद्रिय के वश में सांप पकड़े जाते हैं, हिरण पकड़े जाते हैं। इन जीवों को राग का बड़ा शौक है। सपेरे लोग अपना बाजा बजाते हैं और सांप फन फैलाकर उठकर उस गाने को बड़े चाव से सुनते हैं। सपेरा जानबूझकर राग को जरा बेसुरीला कर देता हे। एक अंगुलि भर ही अटपट बैठाने की ही तो जरूरत है, वह बीनबाजा एक सेकेंड के कई हिस्से भाग प्रमाण समय में बेसुरीला राग हो जाता है, तो सांप गुस्से में आकर उस बाजे पर फन मार देता है, उसे नहीं सुहाता है वह बेसुरीला संगीत। इतना शौकीन होता है सांप संगीत का। तो सपेरे लोग संगीत सुनाकर सांप को मोहित करके पकड़ लेते हैं, वश कर लेते हैं, यों ही हिरण पकड़े जाते हैं। यों एक-एक इंद्रिय के विषय में आकर यह जीव प्राण गंवा देता है और यह मनुष्य पंचेंद्रिय के वश पड़ा है तब क्या हालत है ? यहां सामर्थ्य है, पुण्य का उदय है, तत्काल सज़ा नहीं मिलती है सो उस ही व्यामोह में पड़ा हुआ है पर एकदम ही इसका फल सामने आ जाता है। जरूरत है इस बात की कि हम इंद्रिय के वश न रहें, हमारे वश इंद्रियां रहें। यह सब अपनी रूचि और भवितव्य की बात है।गृहस्थधर्म में प्रथम कर्तव्य―व्यावहारिक धर्म दो प्रकार के बताये गये हैं―एक गृहस्थ धर्म और एक साधुधर्म। साधुधर्म तो अगर निभ जाय किसी से तो वह उत्कृष्ट है ही। वहां तो आनंद के झरने ही सदा झरते हैं, किंतु गृहस्थ धर्म भी कोई विधिपूर्वक पालन करे तो उसमें भी कम आनंद नहीं है अथवा धर्मपालन वहां भी बहुत है, पर करे विधि से तो। पहिले बात तो यह है कि जो समागम मिला है, वैभव कुटुंब परिवार मित्रजन जो भी मिला है उसको यों जानें कि यह कभी न कभी बिछुड़ेगा, सदा रहने वाला नहीं है, पहिली बात तो यह गृहस्थ के मन में रहनी चाहिए। अब अपनी-अपनी सोच लो कि हम कभी सोचते हैं या नहीं। जो मिले हैं धन वैभव परिवार वे सब शीघ्र बिछुड़ने वाले हैं। ऐसी मन में याद आती है या नहीं ? फिर ध्यान दो, सोने वाले भाई जग जावें। जो मिला है धन वैभव परिवार वे सब शीघ्र बिछुड़ने वाले हैं, ऐसी मन में याद आती है या नहीं। यदि नहीं आती है तो फिर कहीं शिकायत मत करो अपने प्रभु से, मंदिर में या अन्य किसी के पास कि मुझे बड़ा क्लेश है। अरे क्लेश के उपाय तो बड़े किये जा रहे हैं, फिर शिकायत किस बात की ? शिकायत तो उसकी भली लगती है जो बेकसूर पीटा जाय। यदि यह भाव भरा हुआ है कि जो हमें मिला है वह मेरा बड़प्पन है, मैं बड़ा हूँ, मुझे तो मिलना ही था और इससे ही मेरा जीवन है, और मेरे से कभी अलग हो ही नहीं सकता। मैं तो बड़ा हूँ, इस भाव में संकट बसे हुए हैं पहिली बात तो गृहस्थ में यह आनी चाहिए। प्राप्त समागम नियम से शीघ्र बिछुड़ेगा, ऐसी याद होनी चाहिए।गृहस्थ का द्वितीय कर्तव्य―दूसरी बात गृहस्थ के लिए परिग्रह का प्रमाण है। यह अत्यंत आवश्यक है शांति के अर्थ, क्योंकि परिग्रह जोड़ना संचय करना इसकी तो कोई सीमा नहीं है, फिर आराम कहां मिलेगा ? लाख हो गए तो 10 लाख की चाह है, 10 लाख हो गए तो 50 लाख की चाह होगी, 50 लाख हो गए तो करोड़ की चाह होगी। उसकी कहां तक हद है और जब परिग्रह परिमाण नहीं है तो उस तृष्णा में उसे आकुलता ही मिलेगी, शांति न मिलेगी, बल्कि बनी बनाई रोटी भी सुख से नहीं खा सकेगा। तृष्णा में वर्तमान भोग भी सुख से नहीं भोगा जा सकता है। परिग्रहपरिमाणव्रत में कर्इ पद्धतियों में शांतिलाभ―परिग्रह के परिमाण में इतनी बात आ जाती है कि जितने का अपना परिमाण किया हो, 10, 20, 50 हजार का जो भी किया हो उससे अधिक धनी कोई दूसरा देखने में आए तो उसे बड़ा न मानना और उस पर आश्चर्य न करना। वहां यह समझना कि यह इतना अधिक कीचड़ में चिपटा है इस दृष्टि से निहारना उसे जो अपने से अधिक धनी हो। परिग्रहपरिमाण में ही से सब बातें गर्भित है। परिग्रहपरिमाण में ही यह बात भी आ जाती है कि उसमें जो आय हो उसके अंदर ही अपना बटवारा करना और गुजारा करके विभाग बनाने पर धर्म और दान को किसी भी परिस्थिति में स्थगित न करना, चाहे कैसी ही हालत हो पर ज्ञानधर्म का पालन करें और पाये हुए के मुताबिक विभाग के अनुसार उस ही में गुजारा बनायें, यह काम है गृहस्थ का दूसरा।
ज्ञान साधना का कर्तव्य―अब आगे चलिए अब ज्ञानमार्ग में वह बढ़े, धन से भी अधिक लोभ ज्ञान का करे। जैसे धन में यह देखा करते हैं―अब इतना आ गया, अब इतना हमारे पास है, अब इतना और इसमें जोड़ना है ऐसे ही ज्ञान में देखें कि मैंने इतनी तो तरक्की की, इतना तो ज्ञान पाया, अब और इससे अधिक चाहिए। धन की तृष्णा न होकर यदि ज्ञान की तृष्णा हो जाय तो यह लाभदायक बात होगी। ज्ञानसाधना में अब गृहस्थ विशेष लगे। इस ज्ञान साधना के उद्यम में वे सब बातें गर्भित हैं―सम्यक्त्व होना, सच्चा श्रद्धान् बनना ये सब बातें उस ही से संबंधित हैं, यह तीसरी बात है।
गृहस्थ का अहिंसा व्रत―चौथा उद्यम होना चाहिए―अणुव्रतों का पालन। व्रतों का पालन आत्महित की दृष्टि से होता है। अहिंसाव्रत, त्रस हिंसा का त्याग और स्थावर की वृथा हिंसा न करना यही तो अणुव्रत है, यह व्रत इंद्रियों को वश में करने वाला ही पाल सकता है। आज के समय में यदि परसेन्ट के हिसाब से पूछा जाय कि मांसाहारी मनुष्य कितने हैं, तो परसेन्ट तो आयेगा नहीं, प्रति हजार में शायद आ जायेगा एक प्रति हजार मनुष्यों में एक मनुष्य आज की इस परिचित दुनिया में अमांसाहारी होगा। यहां समुदाय जरा अच्छा बैठा है, आप हम जिस गोष्ठी में रहते हैं मांस से बहुत दूर रहते हैं। यहां सुनने में तो ऐसा लगता होगा कि एक प्रतिहजार कह रहे हैं, यहां तो सारे अमांसाहारी दिख रहे हैं, पर दुनिया की निगाह करके देखो-अपने ही देश में देख लो पंजाब, बंगाल, मद्रास इत्यादि कितने लोग मांसाहारी हैं और सफर करते हुए में अगर बहुत लंबे चले जावो तो देखो यह बात बहुत अधिक फिट बैठ जायेगी कि ठीक है, एक प्रति हजार लोग अहिंसा अणुव्रत पालते हैं। इंद्रियों को संयत करें तो अणुव्रतों का पालना हो सकता है। अहिंसक वृत्ति से रहें। गृहस्थ एक संकल्पी हिंसा का त्यागी नियम से होता है और शेष आरंभी उद्यमी विरोधी हिंसावों का त्याग भी यथापद होता है, पर पालते हैं वे भी अहिंसा व्रत।गृहस्थ का सत्य एवं अचौर्यव्रत―सत्य अणुव्रत, सच बोलना, किसी की निंदा न करना, चुगली न करना, पीठ पीछे दोष न करना, अहितकारी वचन न बोलना ये सब गृहस्थ के कर्तव्य हैं। करे कोई गृहस्थ अपने व्यवहार में ऐसी वृत्ति तो वह स्वयं शांति का अनुभव करेगा। यह होड़ किससे लगाते हो ? किसी भले से होड़ लगावो तो वह अच्छी है। पर यहां तो प्राय: सभी मोही है, तृष्णावान् हैं, मिथ्याभाव कर भरे हैं, होड़ लगावो तो किसी ज्ञानी संत की या प्रभुवर की। मैं भी ऐसा बनूंगा, होऊंगा। इस संसार में बाहर में किसकी होड़ लगाते जा रहे हो ? न वैभव हुआ ज्यादा तो क्या हर्ज है ? वैभव ज्यादा हो तो छोड़कर जाना, कम हो तो छोड़कर जाना, रही सही जिंदगी को संतोष और शांति से बिना लेना, यह सामने काम बड़ा है, संचय का काम नहीं है। इस सद्गृहस्थ के परवस्तु के चुराने का भाव भी नहीं होता है। जिसको ज्ञान की प्राप्ति होती है उसको दूसरी चीजों के जोड़ने का परिणाम भी नहीं होता है। वह अणुव्रत का पालक होता है। गृहस्थ का स्वदारसंतोष व्रत―गृहस्थावस्था एक अशक्त अवस्था है। इस अवस्था में साधु के सिंहवृत्ति की नाई निर्भय और स्वतंत्र रह सके यह कठिन बात है। इसी कारण गृहस्थ ने विवाह किया है जिससे कि वे संसार की समस्त परनारियों के विषय में मलिन भाव करने से बच जायें। उसमें भी एक धर्मधारण का अभिप्राय है। रहते हैं वे स्वदारव्रत से।स्वयं का कर्तव्य―यहां यह चर्चा चल रही है कि गृहस्थ धर्म में भी सुख और शांति कैसे प्राप्त हो ? करे बिना क्या होगा ? घर में कभी बीच की छत गिर जाय, आँगन में कूड़ा गिर जाय तो कोई दूसरा उस कूड़े को साफ करने न आयेगा, आपको ही साफ करना होगा या प्रबंध आपको ही करना होगा। अपने आप में जो अहित और विषयकषायों की विपत्तियां ढाई हुई हैं इस कूड़े कचड़े को कोई दूसरा मित्र अथवा प्रभु साफ करने न आ जायेगा। हम ही को सफाई करनी होगी। यों इन आचारों का पालन करो।सद्वृत्ति और सहज भान―इन आचारों का पालन करने में सामर्थ्य बने, उत्साह बने, इसके लिए प्रतिदिन षट्कर्तव्य करें―देवपूजा, गुरूवों की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान। ऐसी सद्वृत्ति से गृहस्थ रहे तो उसका यह व्यवहारधर्म भी इसकी शांति के लिए बहुत कुछ साधक होगा। यों जो भी आत्महित करना चाहे उसको इंद्रियों का वश में करना यह प्रथम आवश्यक होता है। इंद्रिय के विषयों में इतना तो समय गंवाया, कुछ लाभ मिला, कुछ हाथ रहा, कुछ ज्ञान बड़ा, कुछ बल बढ़ा ? कोई हित का साधन बढ़ा हो तो बतलावो। मिला कुछ ही नहीं, खोया सब कुछ है। तो अब कुछ क्षण उन समस्त इंद्रियों के विषयों का विकल्प तोड़कर अपने आप में स्तमित होकर, परमविश्रांत बनकर जरा देखो तो स्वयं सहज अपने आप में क्या भान होता है।अनात्मतत्त्व का असहयोग―भैया ! धर्मामृतपान के प्रकरण में समस्त परद्रव्यों को अपने उपयोग से हटा दें। जो कुछ भी इस ज्ञान में आये तुरंत कहो-जावो हम ज्ञान में नहीं चाहते है। मैं तो कुछ भी न जानूं ऐसी स्थिति बनाने का दृढ़़ संकल्प होकर बैठा हूँ। जावो जी तुम भी। परतत्त्वों को अपने ज्ञान में न लो। ऐसी स्थिति में एक परमविश्राम मिलेगा। उस विश्राम में अपने आप ही सहज अपने आपमें जो कुछ भान होगा वह होगा ज्ञानस्वभाव का भान। उस ज्ञानस्वभाव के भान के समय जो अनाकुल अवस्था का अनुभव होगा बस ऐसा ज्ञानानंद मात्र ही तो परमात्मतत्त्व है, जिस तत्त्व के अनुभव से सकल बाधाएं टल जाती हैं किताब में से देखना है पेज 17 परमतत्त्व की भक्ति के प्रसाद से कर्मकलंक टले और उन्हें मुक्ति प्राप्त हई।सहज तेज―यह मैं शुद्ध सहज परमात्मतत्त्व हूँ जिस तेज में लीन होकर अनेक संत पुरूषों ने निर्वाण प्राप्त किया। जो तेज समस्त रागादिक विकारों से परे है, जिस तेज में ऐसी अपूर्व सामर्थ्य है कि अनेक भव के संचित कर्म भी इसके आगे टिक नहीं सकते। ऐसे परम तेजोमय परमात्मतत्त्व का भान इस अंतरात्मा के होगा।सत्य का आग्रह और परमात्मतत्त्व का दर्शन―देखो भैया ! इंद्रिय को वश न करे और इंद्रियों की आज्ञा में चले तो थोड़ी देर बाद फिर स्वयं को ही पछताना पड़ता है। कोई अधिक पछताये, कोई कम पछताए, पर प्राय: इंद्रियविषयसाधन के बाद कुछ न कुछ पछतावा की बात आ जाती है। और कोई बड़ा ही मूर्ख हो, मूढ़ हो, मोही हो, तो वह पछतावे की स्थिति से भी अधिक बुरी स्थिति में आ जाय, तिस पर भी उसे पछतावे की बुद्धि नहीं होती है। ये समस्त इंद्रियविषय इस जीव को बरबाद करने के ही हेतु हैं। इस कारण सब इंद्रियों को संयत करके, वश करके, नहीं देखना है कुछ, आंखें बंद किए बैठे हैं। नहीं सुनना है कुछ, विमुख होकर बैठे हैं। नहीं सूंघना है, उस ओर उपयोग नहीं दे रहे हैं। नहीं चखना है कुछ, नहीं छूना है कुछ। अपने आपमें अपने आपको ही दर्श पर्श करेंगे ऐसे संकल्प के साथ सर्वइंद्रियों को संयत कर दें, विषयों को रोक दें तो वहां इस जीव को क्षण भर जो तत्त्व दिखेगा बस वही तत्त्व परमात्मा का मर्म है, परमात्मा का स्वरूप है। ऐसा इस परमात्मातत्त्व के बारे में संकेत किया गया है।इंद्रियविजय के उपाय के वर्णन का संकल्प―सोहं की भावना में जिस शरणभूत कारणपरमात्मतत्त्व का लक्ष्य किया जाता है उस तत्त्व की प्राप्ति का उपाय क्या है ? इस संबंध में यह वर्णन चल रहा है। समस्त इंद्रियों को संयत करना सर्वप्रथम काम है। ये हतक इंद्रिय जिसे कि लोभ क्षोभ में आकर कहते हैं हत्यारी इंद्रियां, ये जीव का अहित करने वाली हैं। इन इंद्रियों को अहितकारी जानकर संयत करने का उद्यमी पुरूष क्या कार्य करता है ? इस संबंध में उपाय कहा जा रहा है, बड़े ध्यान से इसका उपाय सुनिये जो कि अमोघ उपाय है।इंद्रियविषयोपभोग में त्रिगुट्ट का सहयोग―सर्वप्रथम यह जानों कि ये इंद्रियां जब उद्दंड होती हैं तब अपने विषयों में इस आत्मा को लगाकर बरबाद करने पर तुली हुई होती हैं, उस समय स्थिति क्या होती है ? आकुलता होती है, यह तो फलित बात है, पर हो क्या रहा है इस प्रसंग में ? तीन बातें समझनी हैं। द्रव्येंद्रिय की प्रवृत्ति, भावेंद्रिय की वृत्ति और विषयों का संग। किसी भी इंद्रिय का विषय भोगा जा रहा हो, उसमें तीन बातें आया करती हैं―विषयों का संग होना, द्रव्येंद्रिय की प्रवृत्ति होना और अंतर में भावेंद्रिय का वर्तना।त्रिगुट्ट का परिचय―भैया ! इस त्रिगुट्ट को स्पष्ट यों समझिए। जैसे रसना इंद्रिय का विषय भोगना है तो रसना इंद्रिय के विषयभूत साधन रसीले पदार्थ हैं, उनका समागम होना। प्रथम बात न हो कुछ रसीली चीज तो रसविषय को भोगा कैसे जाय ? सो प्रथम बात तो विषयों का संग होना आवश्यक है। विषय पास में पड़े हैं पर यह लपलपाती हुई जिह्वा उस विषय का स्पर्श न करे, उस विषय में यह जीभ प्रवृत्ति न करे तो उपभोग कैसे होगा ? इसलिए द्रव्येंद्रिय भी लग गयी, पर अंतर में भावेंद्रिय न प्रवर्ते तो यो मुर्दे के शरीर पर भी भोजन रख देने पर भोग तो नहीं होता। सो अंतर की खंड ज्ञानभावना है इसकी भी वृत्ति होना आवश्यक है। लो, यों विषयप्रसंग में तीन बातें हुईं। अंतर में खंडज्ञान का उदय अर्थात् भावेंद्रिय की प्रवृत्ति, दूसरी बात द्रव्येंद्रिय की प्रवृत्ति, चमड़े पर जो इंद्रियां लगी हैं, जीभ है, नाक है, आँख हैं, इनकी प्रवृत्ति और तीसरी बात है विषयों का संग मिलना। यह विषय तो इंद्रियविषयभोग की बात का है। अब इंद्रियविजय की बात सुनिये।त्रिगुट्ट के विजय का उपाय परमोपेक्षा―इंद्रिय के विषयों को विजय करना है तो स्वयं पर पुरूषार्थबल करो तो विजय होगी। विषयों पर विजय होना, द्रव्येंद्रिय पर विजय होना और भावेंद्रिय पर विजय होना यही अपूर्व पुरूषार्थबल है। इसके विजय की तरकीब क्या है ? तरकीब बिल्कुल सीधी है। जिस पद्धति में भोग होता है उसका उल्टा चलने लगे, लो विजय हो गयी। कोई दुष्ट साथ लगकर पद-पदपर दुःख का कारण होता हो तो उसके विजय का साधन, कारण उपेक्षा कर देना है। कोई मनुष्य दुष्ट की उपेक्षा तो न करें, स्नेह जताए और फिर उससे पिंड छुड़ाना चाहे ऐसा नहीं हो सकता। तो तीनों की उपेक्षा करे उसमें इंद्रियविजय होती है।भावेंद्रिय के विजय का उपाय―अब किस तरह इस त्रिगुट्ट की उपेक्षा करें, एतदर्थ पहिले इसका स्वरूप जानों। भावेंद्रिय का स्वरूप है खंडज्ञान। जैसे रस को भोगा जा रहा है और कोई पुरूष सारे विश्व को जानें उस काल में रस को भोग सके, क्या ऐसा हो सकता है ? केवल रस का ज्ञान करे, रस में ही आसक्ति रक्खे तो रस का भोग होगा। यह भावेंद्रिय है खंडज्ञानरूप। इस भावेंद्रिय पर विजय करना है तो अपने आपको अखंड ज्ञानस्वरूप विचारो। अखंड ज्ञानस्वरूप अपने आपका ध्यान किया तो खंडज्ञान पर विजय हो जायेगी। देखो ना, विषयवृत्ति से उल्टा चले तब विजय मिलेगी।द्रव्येंद्रिय के विजय का उपाय―द्रव्येंद्रिय का स्वरूप है जड़ पौद्गलिक अचेतन, सब जानते हैं। जो चाम पर बनी हुई इंद्रियां हैं वे सब जड़ हैं, अचेतन हैं। इन जड़ अचेतन द्रव्येंद्रियों पर विजय हो सकती है तो जो इनका अचेतनस्वरूप है उसके विपरीत अपने को सोचने लगें। ये द्रव्येंद्रिय अचेतन हैं, मैं चेतन हूँ। जहां रही सही लिपटी मित्रता दूर हुई, तहां चैन हुई। पर की मित्रता समाप्त होना आनंद के लिए है। यह जगत का मोही प्राणी इन भावेंद्रिय, द्रव्येंद्रिय एवं विषयों में राग बनाए हुए है। जब तक इन तीनों का राग नहीं छूटता तब तक इंद्रियविजय कैसे हो सकती है ? ज्ञानकला तो जगह नहीं और बाह्यपदार्थ का हम त्याग करें तो फल यह होगा कि छोड़ दिया मीठा, किंतु इच्छा यह लगेगी कि किसमिस छुहारा कुछ चीज तो लावो संग में, काम कैसे चलेगा ? कुछ फोड़े ऐसे होते हैं कि ठोस जगह के फोड़े को यदि दबा दो तो दूसरी जगह फोड़ा निकलेगा। उस फोड़े का नाम क्या है, हम भूल गए, किंतु ऐसा होता तो है न, यों ही ज्ञानकला बिना बाह्यपदार्थों के त्याग का लक्ष्य भी बनायें तो वस्तुत: त्याग नहीं हो पाता। यह इंद्रियविजय का अमोघ उपाय आध्यात्मिक ज्ञानी संत पुरूषों की परंपरा से चला आया हुआ है। द्रव्येंद्रिय का विजय होता है अपने आपको चेतन मानकर अपने को ज्ञास्वरूप अनुभव करने से।
विषयविजय का उपाय―विषयों का नाम है संग, इन संगों का विजय करना है तो अपने को असंग ध्यान करने लगो। मैं असंग हूँ, विविक्त हूँ, समस्त पदार्थों से त्रिकाल न्यारा हूँ, किसी भी समय अणुमात्र भी परद्रव्यों से मेरा मेल नहीं है। यों अपने को असंग चेतन अखंड ज्ञानस्वरूप अनुभव करने के परिणाम में इंद्रियविजय होती है। जब तक इंद्रियसंयम नहीं होता तब तक इस जीव को परमात्मतत्त्व का दर्शन नहीं हो सकता है। यों परमात्मतत्त्व के दर्शन के प्रकरण में इंद्रियसंयम का उपाय कहा गया है किताब में से पेज 20
होता है यही तो परमात्मा का तत्त्व है। इतने जानने के बाद अब ज्ञानी जीव की क्या स्थिति होती है अथवा उसका क्या एक निर्णय रहता है ? इस विषय को अब कह रहे हैं।