वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 33
From जैनकोष
यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मात्मानमव्ययम् ।लभते स न निर्वाणं तप्त्वाऽपि परमं तप:।।33।।
योगिगम्य अंतस्तत्त्व―इससे पूर्व श्लोकों में इस बात का विस्तृत वर्णन किया गया है कि यह ज्ञानमय आनंदघन निज आत्मतत्त्व देह से सर्वथा प्रथग्भूत है। सर्ववैभवों से सर्वोत्कृष्ट वैभव आत्मज्ञान है। आत्मज्ञान बिना यह जीव अनात्मतत्त्व में अपना संबंध मानकर हैरान होता फिर रहा है। परवस्तु तो पर ही है, न उनके परिणमन से मेरा कुछ बनता बिगड़ता है और न मेरे परिणमन से उनका कुछ बनता बिगड़ता है, लेकिन मोहबुद्धि में पर का स्वामित्व अपने में बनाकर व्यर्थ की परेशानी उठाई जाती है। जिस महाभाग को आत्मज्ञान हो जाय, देह से भी पृथक् निज स्वरूपमात्र आत्मतत्त्व का अनुभवरूप दर्शन हो जाय, उसके वैभव का वर्णन बड़े-बड़े योगीश्वर भी नहीं कर सकते। ऐसे इस आत्मतत्त्व का पहिले कुछ वर्णन हुआ है।विविक्त आत्मतत्त्व के परिज्ञान बिना निर्वाण की अप्राप्ति―अब इस श्लोक में यह कह रहे हैं कि जो पुरूष देह से भिन्न अविनाशी आत्मा को नहीं जानता है वह बड़ा घोर तप करके भी निर्वाण को प्राप्त नहीं हो सकता है। निर्वाण मायने क्या है ? क्लेशों का बुझ जाना। क्लेश कैसे चुभते हैं ? इन क्लेशों का कारण है मोह और कषाय, सो मोह और कषाय की तेल बाती सूख जाय तो क्लेशों की लौ बुझ सकती है। इस जीव में बसे हुए 6 दुश्मन हैं–मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ। जीव अपने इन परिणामों के कारण ही दुःखी रहता है। कोई सा भी क्लेश हो, उन सब क्लेशों में यह निर्णय कर लो कि इसमें मैंने यह गलती की, इसलिए दुःख हुआ।सर्वक्लेशों का कारण स्वयं का अपराध―भैया ! चेतन अथवा अचेतन किसी भी परपदार्थ की त्रुटि से हमें क्लेश नहीं हो सकता है, हमारी ही त्रुटि से हमें क्लेश होता है। यह पूर्ण निश्चित निर्णय है। अपने जीवन में जो इस नीति को अपनाता है कि मेरे को जितने भी जब भी क्लेश होते हैं तो मेरे अपराध के कारण होते हैं, दूसरे का कोई भी अपराध मेरे दुःख का कारण नहीं हो सकता है। रख लीजिए उदाहरण के लिए 10-20 घटनाएं। प्रत्येक घटना में यह निर्णय पायेंगे कि जितने भी क्लेश होते हैं वे सब मेरे अपराध से मुझे होते हैं। कोई भी आप घटना बताएं, उदाहरण पेश करें, इस नियम का उल्लंघन नहीं होगा।मूल अपराध ममता―मान लो कोई ऐसा भी हो कि अपन बहुत सीधे साधे हैं, घर की कमायी है, विशाल धन है, खुद मौज उड़ाते हैं, किसी को सताते नहीं है फिर भी अनेक कुटुंबियों में, रिश्तेदारों में, पड़ौसियों में, राज्यकर्मचारियों में बहुत से ऐसे कारण निकल आते हैं जिनसे वे जो बहुत सताते है, वे सताते नहीं है, वे चाहते है धन, चाहते है कुछ अपना लाभ। सो वे कषायों के अनुसार अपना परिणमन करते हैं और यहां धनी को जो क्लेश हो रहा है उसमें अपराध है धन में ममता का। दुःखी हो रहा है व्यर्थ अपने विकार से। कोई यह कहे, तो क्या करें ? क्या बिल्कुल धन छोड़कर फकीर बन जायें। हम यह नहीं कहते हैं, तत्त्व की बात कह रहे हैं कि दूसरे के अपराध से अपने को क्लेश नहीं होता है। क्लेश होने में अपराध है स्वयं का। यहां के जो परतत्त्व है, परपदार्थ हैं, उनमें ममता परिणाम है इसलिए क्लेश हो रहा है।सकलप्रवृत्तियों की क्लेशरूपता―निष्पक्षदृष्टि से देखो भैया संसार में क्लेश तो सदा हैं। खूब आय भी हो रही हो, धन भी है, कोई नुकसान भी नहीं पहुंचता, हंसी खेल में दिन कट रहे हैं, वे भी सब क्लेश ही क्लेश है। हर्ष भी आकुलता बिना नहीं होता, विशाद भी आकुलता बिना नहीं होता। खूब परख लो, एक जैसे भोजन का सुख है, बढ़िया बढ़िया भोजन बना, घर का ही भोजन है, बड़े आनंद से खा रहे हैं पर यह तो बतावो कि यह खाने का जो यत्न है यह शांति के कारण हो रहा है या आकुलता के कारण हो रहा है ? इसका ही निर्णय दो। शांति होती तो किसी भी विषय में रंच भी यत्न न होता। जितने भी विषयों के व्यापार होते हैं वे सब आकुलता के कारण होते हैं।हर्ष में आकुलता―पूर्व समय में कोई एक अंग्रेज था। उसकी आदत थी लाटरी डालने की। 10 रूपये लाटरी पर लगा दिये तो हजार, दस हजार, लाख, दो लाख उसमें नंबर आने पर मिलते है। सो उसने लाटरी के पीछे बड़ा पैसा खो दिया। एक बार सोचा कि हमारा जो चपरासी है उसके नाम 10 रूपये डाल दें, सो चपरासी के नाम पर 10 रूपये का टिकट डाल दिया। भाग्य की बात कि 2 लाख रूपये की लाटरी उसके नाम पर निकली। अब वह अफसर सोचता है कि यह बेचारा गरीब जब यह सुनेगा कि मुझे दो लाख रूपये मिले हैं तो हर्ष के मारे उसका हार्ट फेल हो जायेगा। हर्ष में तो इतनी आकुलता होती कि प्राणों का भी क्षय हो जाता है। तब क्या किया ? कोई सोचते होंगे कि हम न हुए उसकी जगह पर (हँसी) वह ईमानदार था। उसने पहिले चपरासी को बेंत लगाकर खूब पीटा। उसके मध्य में ही यह सुनाया कि तुझे दो लाख रूपये मिले हैं। जान उसकी बच गयी। अगर बिना पीटें सुन लेता कि दो लाख मिले हैं तो हर्ष के मारे कहो प्राण छोड़ देता। वह चपरासी कहता है कि हुजूर हम दो लाख कहां धरेंगे, हम तो कुछ व्यवस्था भी नहीं करना जानते, सो जो करना हो आप करो। सो उसके नाम पर कोई कंपनी खोल दी और स्वयं उसमें काम करने लगा। अब वहीं पर चपरासी मालिक कहलाता।यत्न का स्रोत आकुलता―भैया ! कोई निमित्त भी हो जाय किसी के दुःख का तो ऐसी भी घटनाओं के अंदर भी यही निर्णय मिलेगा कि जो दुःखी होता है वह अपने अपराध से दुःखी होता है। हर्ष में आकुलता, विशाद में आकुलता, सर्वत्र आकुलता है। आकुलता के बिना यत्न नहीं होता। बुखार जिसे न चढ़ा हो वह चार छ: रज़ाई क्यों ओढ़ेगा ? जिसे फोड़ा, घाव न हो तो वह क्यों मलहम पट्टी करेगा ? जितने ये चिकित्सा रूप व्यापार है वे किसी न किसी आकुलता के कारण होते हैं और उन सब आकुलतावों का पोषक है देह में ‘यह मैं हूँ’ ऐसी बुद्धि करना।आकिंचन्यधर्म की उपासना―जो पुरूष देह से भिन्न अपने आपके स्वरूप को नहीं जानते हैं वे उत्कृष्ट तप करके भी निर्वाण को प्राप्त नहीं होते। कितने भी समागम हों, अपनी रक्षा करना, अपना अगला भविष्य भी सुधारना हो और वर्तमान में भी शांति चाहते हो तो ऐसी श्रद्धा और ऐसा ध्यान रक्खो कि मैं आकिंचन्य हूँ, मैं अपने स्वरूप मात्र हूँ, मेरा जगत् में कहीं कुछ नहीं है।बाहरी धर्मशाला―एक संन्यासी जा रहा था। रास्ते में एक सेठ की हवेली मिली। हवेली पर पहरेदार खड़ा था। संन्यासी पूछता है कि यह धर्मशाला किसकी है ? पहरेदार बोलता है कि आगे जाइये, यह धर्मशाला नहीं है। अजी हमको आगे से मतलब नहीं, हम तो यह जानना चाहते हैं कि यह धर्मशाला किसकी है? फिर पहरेदार बोला―साहब यह धर्मशाला नहीं है, आपको ठहरना हो तो ठहर जावो। यह तो सेठजी की हवेली है। इतने में सेठजी ने भी सुन लिया। सेठ ने संन्यासी को बुलाया और कहा, महाराज आप ठहर जाइये। आप ही का तो यह सब है। संन्यासी बोला ‘‘हमें ठहरना नहीं है, हमें तो यह बतावो कि धर्मशाला किसकी है?’’ फिर सेठ बोला ‘‘महाराज धर्मशाला नहीं है, यह तो हमारा घर है।’’ साधु बोला, ‘‘इसे किसने बनाया था?’’ सेठ बोला, ‘‘हमारे बाबा ने।’’ वे बनवाकर कितने दिन रहे थे ? महाराज वे तो पूरा बनवा भी न पाये थे बीच में गुजर गये। फिर किसने बनवाया ? फिर हमारे पिता ने बनवाया। वे कितने दिन रहे थे ? वे कोई 5 वर्ष तक जीवित रहे होंगे फिर गुजर गये। और अब तुम कितने दिन रहोगे ? अब उसे सब ज्ञान जगा कि महाराज शिक्षा के लिए ही सब पूछ रहे थे। हाथ जोड़कर सेठ बोला महाराज कुछ पता नहीं है। संन्यासी बोला ‘‘देखो धर्मशाला के नाम पर जो मकान बना है उसमें तो इतनी गुंजाईश फिर भी है कि मुसाफिर को 10-15 दिन ज्यादा ठहरना हो तो सेक्रेटरी को दरख्वाश्त देकर बढ़वाये जा सकते हैं किंतु यह धर्मशाला इतनी कड़ी है कि जिस दिन जीवन समाप्त हो जायगा तो कोई कितनी ही मिन्नतें करे, स्त्री, परिवार, पुत्र तो एक सेकंड भी नहीं ठहर सकता है।किस पर गर्व?―भैया ! यहां गर्व करने लायक है क्या ? न यह शरीर गर्व की वस्तु है। अपवित्र ही सर्वपदार्थों से रचा हुआ है और फिर विनाशीक है, दुःख का कारण है, अज्ञान का पोषक है। मकान, घर, वैभव अचानक ही किसी दिन मरण हो गया तो सब यहीं के यहीं पड़े रह जायेंगे। कौन सी चीज गर्व करने लायक है ? परमार्थ से विचारो। संसार में यश फैल जाना, लोग जानें कि यह बड़ा चतुर है, महापुरूष है, कलावान् है―ऐसा कुछ यश फैल जाना यह कुछ गर्व की वस्तु हैं? अरे ! यश क्या है? संसार का स्वप्न है और यश को गाते भी कौन हैं? स्वार्थीजन। जिनका विषय सधता हो। संसार में गर्व करने लायक पदार्थ कुछ भी नहीं है।स्वच्छता की प्रथम आवश्यकता―अपने को अकिंचन् समझो। अकिंचनोहं मेरा कहीं कुछ नहीं है। मैं तो यह परिपूर्ण आनंदघन ज्ञानस्वरूप अछेद्य, अभेद्य आत्मतत्त्व हूं−ऐसा अपने को अकिंचन् अनुभवना यह परम अमृत है। इस भावना से ही अंतर में ऐसा घूँट मिलेगा और प्राय: गले से भी सुख झराता हुआ घूँट पीने को मिलेगा जो संतोषपूर्ण होता है। बड़ा तप और क्रियाकांड करने से पहिले अपने अंतर की स्वच्छता कर लेना अति आवश्यक है। कोई पुरूष गंदी भींत पर चित्राम लिखने लगे और वहां भी बड़े ऊँचे रंग से, ढंग से चित्राम बनाने लगे तो वह विवेकी नहीं है। पहिले उसी भूमिका को इतनी योग्य तो बना लेना चाहिए कि वह चित्राम लिखा जाने लायक हो जाय। ऐसा ही मुक्ति मार्ग का कोई यत्न होता है। करना है तो उससे पहिले हमें अपने आपको स्वच्छ बनाना चाहिए। और स्वच्छ बनाने का यत्न यह हैं कि ऐसा अनुभव करें कि मैं तो केवल ज्ञानस्वरूप आनंदघन आत्मतत्त्व हूँ, व्यवहार की बात व्यवहार में है, परमार्थ की बात परमार्थ में है। और ज्ञानी संत कभी व्यवहार भी करता है और कभी परमार्थ दृष्टि भी करता है। दोनों उसकी स्थितियां चल रही हैं, किंतु परमार्थ साधना के समय में व्यवहार को स्थान नहीं दिया है।परमार्थसाधना के समय व्यवहार को स्थान का अभाव―एक नगर का राजा किसी शत्रु पर चढ़ाई करने चला गया रानी को राज्य शासन देकर। इतने में किसी दूसरे शत्रु ने रानी के राज्य पर आक्रमण कर दिया। तो रानी ने सेनापति को हुक्म दिया कि इस सेना का मुकाबला करो। सेनापति जैन था, पर कर्तव्य तो निभाना ही था। सेना सजाकर चल दिया। रास्ते में जब शाम हो गयी तो हाथी पर चढ़े ही चढ़े अपना भक्ति, भजन, पूजन, ध्यान करने लगा। किसी पेड़ पत्ती को मुझसे कष्ट हुआ हो तो क्षमा करना, किसी कीड़े, मकौड़े, मछली, ततैये को मेरे द्वारा कष्ट हुआ हो तो क्षमा करना। एकेंद्रिय, दो इंद्रिय वगैरह सबसे प्रार्थना करने लगा, प्रतिक्रमण करने लगा। कुछ चुगलखोरों ने रानी से चुगली की कि आपने ऐसा सेनापति भेजा जो कि कीड़े मकौड़ों से भी माफी माँगता है, वह क्या विजय करेगा? एक सप्ताह के अंदर ही शत्रु को परास्त करके सेनापति आ गया। रानी पूछती है कि हमने तो यह सुना था कि तुम कीड़े मकौड़ों से भी माफी माँगते हो, तुमने कैसे विजय प्राप्त की ? तो सेनापति उत्तर देता है कि ‘‘हम आपके राज्य के सेवक 23 घंटे के हैं। सोते समय में भी काम पड़े तो ड्यूटी बजायेंगे, खाते हुए में भी काम पड़े तो खाना छोड़कर कर्तव्य निभायेंगे, परंतु एक घंटा समय हम अपनी सेवा के लिए निकालते हैं। वह है ध्यान और सामायिक का समय। वहां हम अपनी दया रखते हैं। हमारी आत्मा का हित इसी में है। सो वह मेरी आत्मकरूणा का समय था, और जब युद्ध का समय हुआ तो उसमें सारी शक्ति लगाकर युद्ध किया। तो जैसे आत्मकरूणा के समय में अन्य चिंताएं न रखनी, इस ही प्रकार परमार्थ दर्शन की विधि में व्यवहार को स्थान नहीं देना चाहिए।अप्रकृत चेष्टा―मान लो चर्चा तो चल रही है कि देह से न्यारा आकाशवत् अमूर्त निर्लेप ज्ञानज्योतिर्मय परिपूर्ण चैतन्यस्वरूप हूँ। सोच तो यों रहा है या सुन रहा है और बीच में बोल दे हमारा लड़का। अरे ! रंग में भंग क्यों करते हो ? परमार्थ आत्मतत्त्व में लगने जा रहे हो तो कुछ अपने आप पर दया करो। तेरा तो कहीं कुछ है ही नहीं। किस वस्तु पर अधिकार है ? कोई दावा करके कह दे कि ईंट पत्थर पर, धन पर, मित्र पर, संयोग है, अनुकूलता है, उदय का निमित्तनैमित्तिक भाव है, रहा आये समागम, किंतु समागम के काल में भी अधिकार आपका किसी भी पदार्थ पर नहीं है। जो जन अपने आपको विविक्त शुद्ध चित्स्वरूप नहीं समझते हैं और मैं साधु हूँ, त्यागी हूँ, संन्यासी हूँ, मुझे ऐसा तय करना चाहिए, मुझे ऐसा त्याग करना चाहिए, ऐसे विकल्पों में पड़ा है वह आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ है। कितने भी वह क्लेश कर ले पर उन क्लेशों का लाभ उसे निर्वाण मार्ग के रूप में नहीं हो सकता।वृत्ति की लक्ष्यानुसारिता―कोर्इ एक चौबीस घंटे की समाधि लगाने वाला योगी राजा के यहाँ पहुंचा। राजा से कहा, ‘‘महाराज हमारी आप चौबीस घंटे की समाधि देखो।’’ राजा ने कहा ‘‘अच्छा दिखावो अपनी 24 घंटे की समाधि, फिर जो चाहोगे वह इनाम दूंगा। तुरंत ही साधु ने सोच लिया कि मुझे यह इनाम लेना है। क्या लेना है सो समाधि पूर्ण होने पर एकदम तुरंत वही कह देगा। लगायी समाधि। आँखें बंद, नकुवा बंद, साधु बैठा है समाधि लगाए। जैसे ही 24 घंटे हुए तुरंत कहता है ‘‘लावो काला घोड़ा।’’ उसने पहिले ही सोच लिया था कि राजा का काला घोड़ा बहुत अच्छा है, यही लूंगा। उसका लक्ष्य उसी पर था, जिसने लक्ष्य जिसकी सिद्धि का किया है उसको पद पद में वही दिखेगा जिसका जो लक्ष्य बना है वह बात यहां वहां की करके भी अपने भी अपने मुद्दे पर आ जायगा।तप का मर्म―तपस्या क्या है? ज्ञाता दृष्टा रहें, रागद्वेष दूर हों, अपने स्वरूप में स्थिर हों, अपने स्वरूप से चलित न हों, बाहर में कहीं उपयोग ही न जाय, अंतर्मुख हो जायें यही तो वास्तविक तप है, और बहिरंग तप जितने हैं वे सब इस परमार्थ तप की साधना के लिए हैं। जो देह से भिन्न अविनाशी इस कारणपरमात्मतत्त्व को नहीं जानता है वह उत्कृष्ट तप करके भी निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। निर्वाण की सिद्धि निश्चय तप के बिना नहीं है।द्रष्टव्य और प्राप्तव्य―भैया ! तप करके क्या पानी है ? क्या कोर्इ नई चीज पीनी है? नया तो कुछ बनता ही नहीं है, जो सत् है उसका अभाव नहीं होता है, जो असत् है उसकी उत्पत्ति नहीं होती। आनंदमय होने के लिए, निर्वाण पाने के लिए करना कुछ नहीं है किंतु करना को ही छोड़ना है। अपने स्वरूप से अनभिज्ञ होकर विकल्प विषयकषाय, रागद्वेष, मन, वचन, काय की जो चेष्टाएं की जा रही हैं, इनको समाप्त करना है, नया कुछ नहीं करना है। जितना उल्टा चल रहे हैं, उतना मुकरना भर है। यह कारणपरमात्मतत्व तो मुझ उपयोग को सुखी करने के लिए अनादि से ही तैयार है। प्रतीक्षा मानों कर रहा हो कि रे उपयोग ! तू एक बार मेरी ओर दृष्टि तो करले, फिर मेरा तो पूरा वश चल सकता है कि तुझे संसार के संकटों से बचा दूं, किंतु मैं समर्थ हूँ इस मुझसे तू विमुख है तो मैं तुझे बचा नहीं सकता। रे उपयोग ! तू इस मुझ कारणसमयसार की ओर रूचि तो कर, फिर मैं तेरे शुद्ध परिणमन का निर्माण करूंगा पर पहिली बार एक बार तो तू मेरी ओर उन्मुख हो।निर्वाण का कारण परमशरण का आलंबन―अहो ! यह कारणपरमात्मतत्त्व इस मुझको सुखी और उन्नत बनाने के लिए अनादिकाल से साथ है, पर यह मैं उपयोगात्मक इस अंत:प्रकाशमान् प्रभुता पर दृष्टि नहीं दे रहा हूँ। देखो इस देह देवालय में विराजमान् है। अपना परमशरण परमात्मा, प्रियतम, वल्लभ पर इसकी दृष्टि हुए बिना धर्म के नाम पर भी कितना ही श्रम किया जाय किंतु उससे मुक्ति का मार्ग प्राप्त नहीं होता है। इससे यह निर्णय रखना कि मैं अधिकाधिक समय इस ध्यान में बिताऊं कि मैं यह निरखा करूं अंतर में कि इन चर्मचक्षुवों से, देह से सबसे अस्पृष्ट यह चित्स्वभावमात्र मैं आत्मतत्त्व हूं–ऐसा जो जानता है वह निर्वाण को प्राप्त हो सकता है।