वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 51
From जैनकोष
यत्पश्यामींद्रियैस्तंमे नास्ति यंनियतेंद्रिय:।अंत: पश्यामि सानंदं तदस्तु ज्योतिरुत्तमम् ॥51॥
अविकृत उपयोग बनाने के उपायभूत भावना का संकल्प ― इंद्रियों के द्वारा जिनको मैं देखता हूं वे मेरे कुछ नहीं हैं और जब इंद्रियों को संयत करके अपने आपके अंतरंग में जो आत्मानंदमय ज्ञानप्रकाश को देखता हूं वह मैं हूं । यह जीव परपदार्थों में अनासक्त होता हुआ आत्मज्ञान को ही बुद्धि में धारण कर सके- ऐसी कौन सी भावना है ? यह बताना आवश्यक है, क्योंकि आत्मज्ञान से भिन्न अन्य कुछ बात बुद्धि में धारण न करनी चाहिए । जीवन चलाना है, गुजारा करना है, इस कारण कुछ अन्य कामों में फँसना पड़ता है । उसे भी करें, किंतु अन्य कार्य को बुद्धि में बहुत समय तक धारण न करें । ऐसी स्थिति इस जीव में कैसे आ सकती है ? उसके उपाय में यह भावना बतायी गयी है कि इन इंद्रियों के द्वारा मुझे जो कुछ दिखता है वह मेरा कुछ नहीं है ।
दृश्यमान् पदार्थ की अहितरूपता ― क्या दिखता है इन इंद्रियों से ? रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड पुद्गल । अन्य कुछ नहीं दिखता । क्या दिखता है इन इंद्रियों से ? अत्यंत भिन्न ये अचेतन पदार्थ । इन पदार्थों से न मेरे आत्मा को शांति होती है, न हित होता है, बल्कि इन पदार्थों में दृष्टि रहने से यह आत्मा विह्वल हो जाता है । आकुलता का स्थान है तो यह परिचित परस्थान है । तो जो कुछ इन इंद्रियों से दिखता है वह मेरा कुछ नहीं है । भारी फँसाव और अन्य काम करने के एवज में या धर्म के लिए बड़े यत्न करके उन कोशिशों की एवज में सर्वप्रथम यह तैयारी बनाएँ कि दृष्टि में यह बात विशद बनी रहे कि यह सब कुछ मेरा कुछ भी नहीं है ।
अट्ट सट्ट व्यामोह – भैया ! कुछ भी है नहीं अपना, पर मानते जा रहे हैं कि मेरा सब कुछ है और इस तरह से सब कुछ मानते जा रहे हैं कि मेरी दृष्टि में मानो ऐसी बात बसी हो कि यह मेरे से छूटकर जायेगी कहां संपदा ? जब तक जियेंगे तब तक भी रहेगी और शायद मरने पर भी साथ जायेगी अथवा उन्हें इसकी कल्पना ही नहीं जगती कि मरने पर यह संपदा बिछुड़ जायेगी । जो कुछ इन इंद्रियों से दिखता है वह कुछ भी मेरा नहीं है । अनाप सनाप आ गयी कोई चीज घर में उसको ही मान लिया कि यह मेरा है । कुछ भी संबंध नहीं है । यदि यह जीव न आता और कोई आता तो उसी को मान लेता यह मोही प्राणी कि यह मेरा है । कोई भी पर जीव मेरा नहीं है ।
अधिकार्यता की शुमार गाली में – किसी वस्तु को मेरा कहना यह तो उस वस्तु को गाली देने की तरह है । साथ में कोई आदमी हो और कोई पूछे कि यह कौन है ? तो कहे कि यह मेरा आदमी है ― ऐसा सुनकर क्या वह आदमी खुश होगा ? नहीं खुश होगा । मकान अचेतन पदार्थ है, उसे यह जीव कहता है कि यह मेरा मकान है । यदि इस मकान में जान होती तो यह भी झट कह बैठता कि यह मेरा आदमी है, पर बेचारा कुछ बोलता नहीं, जानता नहीं । यह जीव कहता है कि यह मकान मेरा है, यह बिल्डिंग मेरी है । जो कुछ दिखता है वह कुछ भी मेरा नहीं है, ऐसा अंतर्निर्णय आये तो फिर ज्ञानी किसी भी अन्य पदार्थ को अपनी बुद्धि में चिरकाल तक धारण न करेगा । किसी भी परपदार्थ को अपने उपयोग में न बसाये, इसके उपाय के ज्ञान की अंतर्भावनावना दर्शायी जा रही है ।
कल्पना का क्लेश ― भैया ! एक भी भाई को क्लेश है ही नहीं, किसी को नहीं है क्लेश और मान रहे हैं सभी क्लेश । केवल क्लेश का कारण यह है कि अट्ट सट्ट कुछ-कुछ पुद्गल में यह भाव भर रक्खा है कि यह मेरा है । जिसे मान लिया कि यह मेरा है और वह पास रहा नहीं, उसका परिणमन उसके साथ है, वह अपनी परिस्थितिवश बिछुड़ेगा, विमुक्त होगा, भागेगा उस समय यह क्लेश करता है, हाय मेरे हाथ अब नहीं रहा, अथवा वर्तमान में पास भी नहीं है कुछ, पर कल्पना में मान लिया कि यह मेरे संबंध वाला है और न आये पास तो कष्ट होता है कि अरे यह मेरा अब मेरे पास नहीं है, फिर किसको तुम बुद्धि में रमाते हो?
बेहूदा व्यामोह ― चेतन पदार्थों से कुछ मोहीजनों का राग हो जाना उसमें इतना बेहूदा व्यामोह नहीं है जितना कि इन जड़ पुद्गल पदार्थों में, कंकड़ो में, ढेलों में, वैभवों में यह बुद्धि हो जाना कि यह मेरा है, उनमें राग हो जाना, प्यार हो जाना यह अधिक मूढ़ता की बात है । ये दूसरे जीव तो हम आपकी तरह कुछ चेष्टा करते हैं, कुछ बात करते हैं, चेतन हैं, उनका आकर्षण होता है, हमारी ही तरह जानन देखनहार स्वरूप वाले हैं । राग हो गया उनमें, पर ये धन, मकान, वैभव, सोना, चांदी ये सब पूर्ण अचेतन हैं, इनकी ओर से कुछ जवाब भी नहीं मिलता, संकेत भी नहीं होता, और यह केवल अपनी ओर से उनकी ओर झुका जा रहा है । उनमें ही आकर्षित होना यह तो व्यामोह है । जो कुछ हम इंद्रियों से देखते हैं वे मेरे हैं ही नहीं, फिर मैं अपने उपयोग में किसको बसाये रहूं ?
आत्मज्ञान की तैयारी ― मैं हूं क्या, इसको यदि जानना है तो इसे जानने के लिए भी बड़ी तैयारी करनी होगी । यह यों ही नहीं जान लिया जायेगा । जैसे भोगों का भोगना आसान काम है पर भोगों से विरक्त होना, भोगों का त्याग करना यह शूरवीरों का काम है । यों ही इन इंद्रियों से बाह्य पदार्थों को निरखकर उनकी बात जानते रहना, समझते रहना―यह आसान हो रहा है, किंतु कहा जाय कि तुम बाह्यपदार्थों में न उलझकर अपने अंतर में केवल आत्मा के सहज ज्ञायक स्वरूप को निरखो तो इसमें बड़ा जोर पड़ता है । जो अत्यंत स्वाधीन बात है सुगम है, खुद के खुद यह ही तो धरे बैठे हैं, किंतु अपने आपको जानने भर में इसे बड़ी मेहनत पड़ रही है । आत्मा के ध्यान या चिंतन करने को बैठता है तो यह चित्त मेंढक की तरह कूदकर उछल भागता है । यह सब व्यवहार की बात है । अपने आपको जानना है, समझना है तो कुछ अपनी तैयारी भी करनी होगी । वह तैयारी है भेदविज्ञान का करना और इंद्रियों को संयत कर देना, इंद्रिय के विषयों में प्रीति न जगना, इनकी ओर आकर्षण न होना, इंद्रिय के विषयों में प्रवृत्त न होना । क्या ऐसी तैयारी हो नहीं सकती ?
इंद्रियसंयमन – देखो भोजन करने का रस, स्वाद लेने का काम इस समय आप सबके बंद है, कल्पना तक भी नहीं जग रही है कि मुझे खाना है । जैसे कि इतर लोग जो रात्रि को खाते हैं उन्हें इस समय भी संस्कार बना होगा या तो खाकर आये होंगे अब रात को सो उसका मौज मान रहे होंगे, थोड़ा पेट पर हाथ फेर रहे होंगे कमीज के भीतर हाथ रखकर । कुछ न कुछ वासना संस्कार जरूर उस ओर होगा और न खाया होगा तो चित्त में होगा कि अब जाकर उन रोटियों को खायेंगे । कुछ चित्त व्यग्र होगा, पर जिनका रात्रिभोजन त्याग है उनके कल्पना तक भी न हो रही होगी, उनकी रसना इंद्रिय संयत हो गयी अथवा नहीं ? इस समय आपकी यह रसना इंद्रिय संयत है । जब इस समय यह रसना इंद्रिय संयत है तो क्या अन्य इंद्रियों को संयत नहीं किया जा सकता ? इन आंखों से क्या देखना ? दिख जाय तो दिख जाय, किंतु क्या प्रयत्न करें कि उसमें राग न हो, फँसाव न हो । जो भी चीजें दिखेंगी उनमें कुछ तो कोरी अचेतन हैं कुछ तो पुद्गल हैं, उनकी तो ऐसी दशाएँ हैं उनका क्या निरखना ?
पुद्गल में क्या देखना― एक बार हम श्रवण बेलगोल की यात्रा करने गये,8वीं प्रतिमा थी, किंतु 8वीं प्रतिमा में ही मैंने पैसा न छूने का नियम रक्खा था कि मुझे अपने हाथ से पैसा नहीं छूना है । दूसरे से कहें कि यह उठा लो, गिनलो, धरलो तो ऐसी स्थिति में हम एक को और साथ ले गये। भले ही खर्च डबल हो जाय । 8वीं प्रतिमा में पैसा रख सकता है, छू सकता है, जेब में रख सकता है । पर हमने पैसा तो रक्खा था, पर छूने का त्याग कर दिया था । सो दोनों के खर्च के लिए पैसा उस दूसरे को मैंने सौंप दिया था । अब वह ही सब करे। उस यात्रा में जब हम चले तो हमारे गुरुजी बोले – देखो मनोहर श्रवणबेलगोला में जाना तो कृष्णसागर देखकर आना, अमुक चीज देखकर आना । उस समय थोड़ा सोचा कि कहां देखने जायें, क्या कह दिया गुरुजी ने, कहां दो मील, चार मील जायें, वह कृष्णसागर कोई पुद्गल ही तो होगा और क्या होगा वहां ? फिर–बोले नहीं, जरूर देखकर आना, अच्छी जगह है, अच्छा स्थान है, जरूर देखकर आना । खैर मैंने यह सोचकर कि गुरुजी का यह भाव होगा कि बिना देखे आ जाने पर इसके फिर कल्पना न जगे सो देखकर आये । तो अचेतन कुछ होगा वह पुद्गल की ही तो कुछ रचना होगी, चमकदार होगा, सफेद होगा, आकार होगा, गोल होगा, चौकोर होगा । उन पुद्गलों का भी क्या अनुराग ?
शरीर में क्या देखना― यदि जीवित शरीर है तो हाड़ मांस रुधिर पसीना के पिंड हैं, उनको भी क्या रुचिपूर्वक देखना ? उसमें भी क्या तत्त्व है ? जब कुछ देखने लायक नहीं है तो ये आंखे सहज कुछ देख लेती हैं तो देख लो, किंतु अनुरागपूर्वक कष्ट करके, श्रम करके किन्हीं चीजों को निरखना व्यर्थ की बात है ।
कोरी चर्चा से अलाभ ― जो कुछ दिखता है वह मेरे से भिन्न है, अहित है, असार है, तो किस परपदार्थ को मैं अपने उपयोग में रक्खूँ ? यहां मेरा कहीं कुछ नहीं है । यहां श्रद्धा, अंतर में निर्णय करते हुए होनी चाहिए । केवल धर्म के प्रसंग में, धर्म की चर्चा में जो अपने मन को बहलाने के लिए ज्ञान विज्ञान की बात कर दी जाय तो उससे कुछ अंतरंग में सार की बात नहीं निकलती; बल्कि यह कोरी सूखी, भावविहीन धर्म की चर्चा अपने भीतर के एबों को छिपाने वाली होती है ।
भावविहीन धर्मचर्चा से मात्र दोषावरण की प्रयोजिका ― जैसे बड़े बड़े धनिकों के दान उन धनिकों के दोष को छिपाने वाले होते हैं । कर दिया किसी जगह दो लाख रुपये का दान। उन्हें क्या टोटा पड़ा है ? बीस लाख का मुनाफा कर लिया था कहीं अट्ट सट्ट ढंग से और दो लाख का दान कर दिया । यदि भावविहीन कोई दान करता है तो वह दान दोषों को छिपाने वाला होता है । यों ही भावविहीन जो पुरुष धर्म में यत्न करता है उसका भी यत्न अंतरंग के दोषों को छिपाने के प्रयोजन को साधने वाला होता है ।
गुप्तज्ञान और आनंद – भैया ! अंतर में निर्णय हो और गुप्त ही गुप्त रहकर किसी को दिखा क्या है, किसी को बताना क्या है ? अपने ही आप में हम कर सकें अंतरंग में हित का श्रद्धान, ज्ञान और आचरण तो वह मुझे मिला है । यों भेदविज्ञान सहित जो धर्ममार्ग में कदम चलाता है, नियतेंद्रिय हो जाता है ― ऐसा पुरुष अंतरंग में एक बड़े आनंद पूर्वक कुछ कुछ देखता है । क्या देखता है ? इसको वह भी बता नहीं सकता । पर वह यह कहेगा कि मुझे बहुत आनंद आया था, तुमने बीच में टोक दिया, मुझे इसमें विघ्न हो गया । मैं अपने एक शुद्ध आनंद में मग्न हो रहा था, कैसा आनंद पा रहा था, वह बता नहीं सकता ।
आनंद के विवरण की अशक्यता पर एक लोकदृष्टांत ― भैया ! बता दो कि आप भी किसी वस्तु का स्वाद न कर सकेंगे, कुछ भी बता दो । आप रोज रोज उड़द की दाल रोटी खाते हैं, जरा बताओ कि उसमें कैसा स्वाद आता है ? अरे, पूड़ी से भी अधिक स्वाद है, मिठाई से भी अधिक स्वाद है । कैसा है ? सही सही बताओ । अरे, मेरे पास उस भोजन के स्वाद को बताने वाले कोई शब्द नहीं हैं । फिर जो इंद्रियों को संयत करके अपने आप में अंतरंग में जो कुछ देखा है इस ज्ञानी ने उसमें जो आनंदानुभव है व उसी आनंद के साथ जो ज्योति प्रकाश दिखा कि मैं तो बस इतना ही मात्र हूं, अन्य कुछ नहीं हूं ।
कुमार्ग में संकट की अनिवार्यता ― दु:ख के रास्ते में तो आप खुद चले जा रहे हैं, दूसरों के भी कुछ भाग्य लगा है या नहीं, इसका कुछ ख्याल नहीं है, किंतु इनका पालन पोषण करने वाला मैं हूं, यह दुराशय बनाये हैं । जब अहंकार बसाया है तो दु:खी होना ही पड़ेगा । अहंकार बनाये रहें, पर वस्तु के करने वाला भी हम मन में जंचते रहें और सुख शांति भी देखें तो यह नहीं हो सकता । दु:खों के रास्ते से हम खुद चलते हैं और दु:खी होते हैं । बड़ों बड़ों ने राज्य छोड़ा, संपदा छोड़ी और केवल अपने आत्मीय आनंद में लीन होने का यत्न किया । हम अपने पुरुषों की करतूत कुछ नहीं देखते और जो मन में जंचा, उसी बात में बहे जा रहे हैं, तो बताओ दु:ख के रास्ते पर चलने से सुख की आशा करें तो कैसे होगा ?
कांटों भरे रास्ते में नंगे पैर जायें और कांटा लगने पर क्रोध करें, क्यों लगा यह कांटा? अरे कांटों के रास्ते से जा रहे थे, वह तो लगेगा ही । ऐसे ही मोह और अज्ञान के रास्ते से चले जा रहे हैं तो वहां क्लेश आयेंगे ही । क्लेश आने पर खेद नहीं करें, क्योंकि हम खुद ही कुपथ पर जा रहे हैं, इसलिए क्लेश हुआ ।
मेरे लिए बाह्य पदार्थों की अनुपयोगता – जगत् में कोई भी पदार्थ मेरे उपयोग में फँसाने योग्य नहीं है । भीतर से मोह की गांठ टूटनी चाहिए । मोह करके गुणगान न करें कि मेरा लड़का बड़ा आज्ञाकारी है, मेरी यह लड़की बड़ी विनयशील है । अरे, ये प्रशंसाएँ जीव के गुणों को देखकर नहीं कर रहे हो तुम, किंतु मोह के वश कर रहे हो । जिन जीवों के गुण देखकर तुम प्रशंसा कर रहे हो, उनसे हजारगुने अच्छे दूसरे जीव हैं । इनके गुणगान को जिह्वा ही नहीं हिलती । कुटुंब में बसे हुए लोगों से अधिक गुणवान् इस लोक में पाये जाते हैं, उनके गुण बखारने को तुम्हारा मन क्यों नहीं करता ? यह मोह का प्रतिकार है ।
करुणा या व्यामोह ― अपने लड़कों की वेदना को देखकर या स्त्री आदि संबंधियों की पीड़ा देखकर जो करुणा उत्पन्न होती है, दया उत्पन्न होती है, देखा नहीं जाता है, हृदय भर आता है । क्या उसे दया कहेंगे ? पास में ही पड़ौस का आदमी आपके बच्चे से दस गुना दु:खी है, बीमार है, कराह रहा है, उसे देखकर तो अंतर में वेदना नहीं हो रही है । एक स्त्री और पुत्र पुत्री के कुछ थोड़े से द़ु:ख को देखकर चित्त दहल जाता है । हाय कितना दु:खी है, इसे दया कहेंगे क्या ? इसे तो मोह कहेंगे । दया में शुद्धता बसी होती है । इस गृहस्थ की उस अनुकंपा में शुद्धता नहीं बसी हुई है । शुद्धता बसी होती तो पड़ौस का आदमी उससे दस गुना दु:खी है, उसे देखकर दया क्यों नहीं आती ? यह सब मोह की बात है ।
धर्मपालन या व्यामोह – किसी स्त्री और पुरुष को मिलकर पूजा करने का शौक होता है । पुरुष भी पूजा कर रहा, स्त्री भी पूजा कर रही, कुछ द्रव्य चढ़ायेंगे तो अपनी रकेबी में पुरुष लौंग रख लेगा, स्त्री को बादाम दे देगा और बड़ी भक्ति से गद्गद् होकर पूजन करते हैं। ऐसा करें, यह अच्छी बात है, पर जरा दिल को तो टटोल लो कि तुम वहां धर्मबुद्धि से पूजन कर रहे हो या मोह बुद्धि से पूजन कर रहे हो ? मोह बुद्धि से किया गया पूजन धर्म में न आएगा । वहां तो केवल स्त्री का चित्त प्रसन्न करना है, यही उसका उद्देश्य है । तो यों ही समझिये कि जिनमें मोह है, उन पर दया उत्पन्न हो तो वह दया में शामिल नहीं । दयावृत्ति जगी हो तो सबकी ओर दृष्टि जानी चाहिए । जो कुछ दिख रहा है, वह मेरा नहीं है, उसे क्यों उपयोग में बसाते हो ?
"मैं" के निर्णय पर शांति की निर्भरता और एतदर्थ प्रथम कदम – मैं क्या हूं ? इस निर्णय पर शांति का मार्ग निर्भर है । मैं जो हूं, उसका निर्णय प्रायोगिक ज्ञान द्वारा है । उसके लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि आत्मतत्त्व का और अनात्मतत्त्व का भेदविज्ञान हो, कल्याणार्थी पुरुष को कम से कम इतना तो ज्ञान होना ही चाहिए कि मैं आत्मा चेतन हूं और अन्य समस्त पदार्थ जो दृश्यमान हैं, वे अचेतन हैं और जो अन्य जीव हैं, वे मुझसे अत्यंत भिन्न हैं । इतना भेद तो प्रथम ही आवश्यक है । यह भेद विज्ञान मन में घटित हुआ होना चाहिए। वैसे तो आबाल-गोपाल, सभी लोग, देहातीजन, सभी प्रकार के मनुष्य जीव न्यारे हैं, शरीर न्यारा है ऐसा कहते हैं ।
किसी की मौत हो गई तो स्पष्ट कहते हैं कि देखो यह चोला छोड़कर चला गया । जीव न्यारा है, पर सबसे विविक्त यह जीवतत्त्व अपने आपमें एक ज्ञानज्योति को लिए हुए प्रकट होवे तो यह उत्तम बात होगी । सो प्रथम आत्मा और अनात्मा का भेदविज्ञान होना चाहिए । यह है कल्याणार्थी पुरुष का पहिला कदम अपने आपके स्व के अनुभव के लिए ।
कल्याण के प्रयोग – ज्ञानी का कल्याण के अर्थ दूसरा कदम होता है इंद्रियों को संयत करना । ये इंद्रियां बाह्यरूप में स्वच्छंद होकर न प्रवर्तें ऐसा नियतेंद्रिय बनने के लिए यह उपाय किया जाता है, जो भेदविज्ञान से संबंधित है । यह विषय स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द आदि पदार्थ मेरे नहीं हैं । इनसे मेरा कोर्इ सुधार अथवा बिगाड़ नहीं होता है । ऐसे निर्णय के बल से इंद्रियों को उनमें न लगाना मुमुक्षु पुरुष का दूसरा कदम है । इससे नियतेंद्रिय यह हो गया । अब परपदार्थ को उपयोग से हटावे और निजपदार्थ को उपयोग में लाये । इस उपाय के बाद अपने आप में स्वयं एक विश्राम बनेगा और वहां आनंद सहित यह उत्तम ज्योति उपयोग में प्रकट होगी । यह ही स्वानुभूति है, यह ही परम आनंदस्वरूप कल्याणरूप है ।
मोही जीव का अविवेक – इस जीव ने अब तक क्या से क्या नहीं किया ? आहार, नींद, भय, मैथुन इन चार संज्ञाओं से पीड़ित होकर भव भव में इन संज्ञाओं का काम किया । स्वयं तो यह ज्ञानानंदस्वरूप है, किंतु अपने स्वरूप का आदर न करके इन संज्ञाओं के ही पोषण में अपना समय गंवाया । जो धुन कीडे़ मकौड़ो की है, जो धुन पशु पक्षियों की है ― खाते ही रहना, नींद लेना, डरना, कामसेवन करना, यदि यही धुन इस मनुष्य भव में रही तो पशु पक्षियों से इस मनुष्य में क्या विशेषता रही ? इस जीव को यह ही विडंबना चली आ रही है और यह इसमें ही अपनी चतुराई मानता है । पांच इंद्रियां और छठा मन ऐसे इन छ: प्रकार के विषयों की साधना में जिसने जितनी चतुराई पायी, वह जानता है कि मैं बहुत बड़ा हूं और मैं होशियार हूं । यह विदित नहीं है कि विषयों में जितनी वृत्ति बनायी है वह मेरे अहित के लिए है ।
अंतर्ज्ञानी का भाव – जिसे अंतर में ज्ञान जगा है वह सबको अपरिचित देखता है और अपने को भी यों समझता है कि मुझे भी कोई जाननहारे नहीं हैं । न मैं दूसरों को जान रहा हूं, न दूसरे मुझे जान रहे हैं । अपरिचित दुनिया में कषायें ज्यादा नहीं जगा करतीं । जब दुनिया परिचित होती है तो कषायें जगती हैं । इसने मुझे छोटा समझ लिया, मैं कहां छोटा हूं । दो आदमियों में सम्मान और अपमान का भाव बनता है । जो अपने को अकेला ही जान रहा है उसमें सम्मान अथवा अपमान का क्या प्रकरण है, एकत्त्व ही अमृत है । जितना अधिक इस एकत्व का आदर होगा, एकत्व स्वरूप में ही अपने उपयोग की पहुंच रहेगी, उतना ही इसके मोक्षमार्ग प्रकट है और यह शांति के निकट है । तो भेदविज्ञान करके इंद्रियों को संयत करके समस्त बाह्य पदार्थों को हटाकर अपने आपमें अपने को जोड़कर जो एक आनंदघन विज्ञानमय निजज्योति का अनुभव जगता है वह ही ज्योति मेरी सदा काल रहो ।
ज्ञानी का यत्न और भावना – जब यह अंतरात्मा पुरुष भेदविज्ञान की दृष्टि के बल से इन दृश्यमान पदार्थों को अपना नहीं मानता है और ज्ञानानंदघन निजस्वरूप के अनुभव के लिए ही यत्नशील होता है तो समस्त इंद्रिय व्यापार रुक जाते हैं । अंतरंग में अपने उत्तम ज्ञानज्योति का दर्शन होता है । फिर तो उसका मन सर्व पदार्थों से हटता है और अपने आपकी आराधना में लग जाता है, ऐसी ही भावना ज्ञानीसंत पुरुष करता है कि मेरे को तो ऐसी उत्तम ज्ञानानंद ज्योति प्रकट रहा करो । ऐसे आत्मज्ञान को छोड़कर किसी अन्य कार्य को बुद्धि में अधिक देर धारण करना युक्त नहीं हैं ।
ज्ञानी का प्रयोजनवश क्वचित् व्यापार – भैया ! प्रयोजनवश किन्हीं में पलना पड़े, फंसना पड़े तो उसे यों समझें जैसे लोग कहा करते हैं एक अहाने में कि ‘गंले पड़े बजायसरे’। इस अहाने का क्या अर्थ है ? बहुत से मित्र साथ-साथ थे । मजाक आपस में हो रहा था । एक मित्र ने एक मित्र के गले में तासा बाजा डाल दिया । समझलो जैसे कोई बजाता है ना तासा वैसे ही उसके गले में डाल दिया । जब गले में बाजा डाल दिया मित्रों ने, तो यहां तो लोगों ने मजाक की कि ऐसी मजाक से सारे मित्र खुश होंगे और सभी मित्र इसे मजाक मान लेंगे । पर उसने उस मजाक को टालने के लिए कुछ और ही चेष्टाएँ कीं । उसने सोचा कि लोग यों न समझ पायें कि इन्होनें मजाक किया, सो उसने पास से दो डंडियां उठाकर तासे को ढंग से बजाना शुरू कर दिया । नहीं तो शरम करके कहीं छिप जाता पर शरम न करके वह उसे बजाने लगता है । अरे गले में ढोल तासा किसी ने डाल दिया तो बजाने से ही पिंड छूटेगा । यों ही जब परपदार्थों में इस जीव की स्थिति बन गयी है तो उसे निभाना ही पड़ेगा। पर धन्य हैं वे ज्ञानी गृहस्थ जो घर में रहते हुए भी निभाने जैसा ही समझते हैं । अंतरंग में उन्हें मोह नहीं है, निर्मोह गृहस्थ कभी व्याकुल नहीं होते, यह बात बिल्कुल सत्य जानो । कुछ भी स्थिति आ जाय । क्या स्थिति आयेगी ?
क्लेश का कारण मोह – भैया ! किसी भी स्थिति में यदि कोई गृहस्थ दु:खी हो रहा है तो समझो उसके कारण किसी न किसी पदार्थ का मोह है । पद्मपुराण में एक घटना आयी है – उदयसुंदर की बहिन वज्रभानु को ब्याही थी । जिस ही साल शादी हुई, वज्रभानु लिवा ले गया तो 15-20 दिन बाद में उदयसुंदर बहिन को लिवाने पहुंचा तो वज्रभानु के इतना दु:ख हुआ वियोग का कि उस स्त्री के साथ ही साथ ससुराल चल दिया । अब साथ में तीन व्यक्ति हैं । उदयसुंदर, वज्रभानु और वज्रभानु की स्त्री । तीनों जंगल में से गुजरते हैं तो जंगल में एक साधुमहाराज जो युवक और कांतिमान् था, उसकी मुद्रा में आनंदरस टपक रहा था । उस साधु को वज्रभानु टकटकी लगाकर देखने लगा और मन में सोचने लगा कि धन्य है यह महापुरुष, कितना आनंद लूट रहा है यह और मैं पापी अधम जो स्त्री के इतने तीव्र मोह में हूं कि थोड़े दिनों का भी वियोग नहीं सह सकता, इसके साथ जा रहा हूं । उसने अपने आप को धिक्कारा और उस साधु की अंतरंग चेष्टा में उसका मन लगा ।
निर्मोहता का अभ्युदय – वज्रभानु साधु की मुद्रा को बहुत देर तक देखता रहा । साला दिल्लगी करता है – क्या मुनि बनना चाहते हो ? वज्रभानु के मन में साधु बनने की ही बात आयी हुई थी, पर थोड़ा सा इस संकोच में था कि साथ में ये दो हैं, इनको मैं क्या कहकर बनूँ मुनि ? लेकिन साले ने जो दिल्लगी किया कि क्या तुम मुनि बनना चाहते हो ? तो उसे थोड़ा सा मौका मिल गया जवाब देने का । बोला ― मैं मुनि बनूँगा तो क्या तुम भी बनोगे? उदयसुंदर कहता है ― हां तुम बनोगे तो मैं भी बन जाऊँगा । उदयसुंदर को बनना न था, किंतु जानता था कि यह इतना आसक्त मोही पुरुष क्या मुनि बनेगा ? लो, वज्रभानु सारी वेशभूषा उतार कर साधु हो गया । ऐसी अचरज भरी घटना देखकर उदयसुंदर का भी चित्त बदल गया । वह भी निर्मोह हो गया और साधु बन गया । जब मोह हट जाता है तो यह फिकर नहीं रहती कि अब यह स्त्री रह गयी है । अकेली यह क्या करेगी, कहां जायेगी ? उन दोनों को यों साधु होते देखकर स्त्री के चित्त में भी विचित्र परिवर्तन हुआ, वह भी वहीं पर आर्यिका हो गयी । देखो अचानक ही क्या कर दिया ? सकल संन्यासी हो गये ।
अकर्तृत्व का दर्शन – भैया ! अधिक कुछ पुरुषार्थ न हो तो इतना तो मानों कि गृहस्थावस्था में कभी भी ऐसे ख्याल मत बनावो कि मैं ही इनको पालता पोषता हूं, मैं ही इनको सुखी दु:खी करता हूं । अरे घर के सभी जीवों के साथ अपना-अपना भाग्य लगा है । मैं भी एक जीव हूं । अपना ही सब कुछ अपने में लिए हुए हूं । मेरा मेरे से बाहर किेसी अन्य से रंच भी संबंध नहीं है । होता स्वयं जगत परिणाम । सबके भाग्य है, उनके कर्मोदय से उनका जीवन–मरण सुख अथवा दु:ख होता है । मैं उनका कुछ करता नहीं हूं । मैं भी केवल अपने विभाव विचार बनाया करता हूं । कोई दिन तो ऐसा होगा कि सर्व कुछ छोड़कर मैं अकेला बन जाऊँगा । शरीर भी साथ न निभायेगा । और परमार्थता तो यहां घर में बसकर, कुटुंबियों के बीच रहकर भी मैं अकेला ही हू्ं – ऐसा अपने एकत्त्व का आदर हो गृहस्थ के तो उसे आकुलता नहीं हो सकती । जहां यह बात मन में बैठी है कि मुझे तो इन नाक थूक भरे हुए चेहरों में यह जताना है किे मैं भी कुछ हूं । जहां ऐसी भावना जगी कि क्लेश वहां से शुरू हो जाते हैं ।
ज्ञानी और अज्ञानी का विलास – अहो, ज्ञानी संत की वृत्ति अलौकिक होती है । जैसे किसी वस्तु में गहरा स्वार्थ भरा हो तो वह उस स्वार्थ के कारण बेशरम हो जाता है, अपनी ही बात रखता है, चाहे लोक में कितना ही अपयश हो जाय ? यों ही जिसे इस ज्ञायकस्वभावी आत्मा को ज्ञान में उतारने की धुन लगी है, ज्ञानानुभूति के परिणमन का ही उत्साह जग रहा है, ऐसे ज्ञानी पुरुष को दूसरे आदमियों का संकोच नहीं रहता है । यह अज्ञ मनुष्य दूसरों की दया करने के लिए घर में नहीं फंसा है किंतु उसे स्वयं ही एक मोह की वेदना ऐसी लगी है कि वह अपने को सबसे विविक्त समझ ही नहीं पाता है । ऐसी स्थिति में क्या हाल होगा ? हाल यही होगा कि दुखी होता चला जायगा, कोई उन्नति की बात नहीं हो सकती है ।
अकारण स्वरूपभ्रष्टता – गृहस्थों को ध्यान देने योग्य एक बात यह भी है कि जिस बात के लिए तड़फन मच रही है, किस बात के लिए कि मैं धनी बन जाऊँ और लोक में मेरी इज्जत बन जाए, ये दोनों ही बातें उसके ऊपर निर्भर नहीं हैं । लोक में इज्जत बढ़ जाना भी इसके हाथ की बात नहीं है । यहां तो अपना सदाचार कीजिए, फिर जो होगा वह स्वयं होगा। कोई अपनी किसी बात पर सम्मान बुद्धि बढ़ावे तो क्या सम्मान होता है ? कोई अपनी इज्जत व पोजीशन को अक्ल का दिवाला खोलकर मन, वचन, काय से बढ़ाने का यत्न करे तो क्या इज्जत बढ़ जाती है ? ये दोनों ही बातें इसके अधिकार की नहीं हैं । फिर किसलिए स्वरूपभ्रष्ट होकर इन बाह्यअर्थों में लगा जाए ?
स्वयं की स्ववशता – मैं तो एक ज्ञानानंदमात्र आत्मज्योति हूं । यह अपना समस्त धर्मपालन इसको मौन रहकर गुप्त रहकर अपने आपके ही अंतरंग में अंतर्ज्ञान के उपाय से किए जाने की बात है । मैं दूसरों को कुछ दिखा दूं ― ऐसा परिणाम बहुत कलुषित परिणाम है । धर्म का पालन जहां दूसरों को बताने के लिए किया जा रहा हो, वहां धर्म का पालन नहीं होता । यहां कोई मेरा प्रभु नहीं है कि मैं कैसा चलूं, कैसा बनूं, लेकिन कोई अन्य मेरा उद्धार कर दे – ऐसा किसी दूसरे के वश का नहीं है । फिर किसमें मैं अपने उपयोग को फंसाऊँ ? ऐसी भेदवासना सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान में रहा करती है ।
तमसो मा ज्योतिर्गमय – सीधी सी बात यह है कि परिजन और वैभव का मोह न होना चाहिए । यदि मोह होगा तो मोह की प्रकृति तो आकुलता को उत्पन्न करने की है । ये सब ज्ञान की बातें हैं । घर छोड़ने की बात तो यहां कही नहीं जा रही है । इस दृष्टि में यह मनुष्य घर को कब पकड़े है ? जब घर को पकड़े हुए नहीं है तो घर को छोड़े कैसे ? यह तो अपने प्रदेशों में बसता हुआ विकार बनाया करता है । किसी अन्य वस्तु से यह जीव फँसा नहीं है, किंतु अपनी अज्ञानमय कल्पना से यह जीव फंसा हुआ है । मोह करें और सुख की आशा को रक्खें तो यह त्रिकाल में तो हो ही नहीं सकता ।
सत्य ज्ञान हो जाये कि मैं इतना हूं, केवल हूं – ऐसा अंतरंग में निर्णय और अनुभव जग जाय तो यह हुआ कल्याण का मार्ग । मैं तो केवल ज्ञानप्रकाशमात्र हूं, ऐसा निज को अनुभवता है अर्थात् मुझे अंतरंग में सुख को उत्पन्न करती हुई एक शुद्ध ज्ञानज्योति बनानी है । बस इस प्रकार का उत्तम ज्योतिस्वरूप ही मैं होऊँ, अब मैं अन्य कुछ भी तो नहीं होना चाहता हूं ।
अंतर में आशय का स्वाद – देखो भैया ! अंतर में आशय शुद्ध है तो उसको आनंद का अनुभव होता है और यदि अंतर में आशय मलिन है तो उसे क्लेश का अनुभव होगा । एक राजा ने मंत्री से मजाक किया सब लोगों के बीच कि मंत्री ! मुझे ऐसा स्वप्न आया कि हम तुम दोनों घूमने जा रहे थे । रास्ते में दो गड्ढे मिले । एक गड्ढे में गोबर व मल भरा हुआ था और एक गड्ढे में शक्कर भरी हुई थी । हम तो शक्कर के गड्ढे में गिर गए और तुम गोबर व मल वाले गड्ढे में गिर गए । मंत्री बोला कि महाराज ! हमने भी बिल्कुल ऐसा ही स्वप्न देखा कि हम तो गिर गए गोबर व मल के गड्ढे में और तुम गिर गए शक्कर के गड्ढे में, पर इससे आगे थोड़ा स्वप्न और देखा कि हम तो तुम्हें चाट रहे थे और तुम हमको चाट रहे थे ।
अब यह बतलाओ कि राजा को क्या चटाया ? मल व गोबर । स्वयं ने क्या चाटा ? शक्कर। तो देखो राजा पड़ा तो है शक्कर के गड्ढे में, पर स्वाद ले रहा है गोबर और मल का । मंत्री पड़ा तो है गोबर और मल के गड्ढे में, पर स्वाद ले रहा है शक्कर का । यों ही गृहस्थ को होना चाहिए कि गृहस्थी में रहकर आत्मस्वरूप का ध्यान रक्खे । अरे इस दुर्लभ नरजन्म से वास्तविक आनंद लूट लो । वह वास्तविक आनंद क्या है ? सर्वबाह्यअर्थों को भूलकर निज के सहजज्ञानस्वरूप का अनुभव कर लो । एक क्षण भी, एक सेकिंड भी और एक पल भी इस निजज्ञायकस्वरूप का अनुभव कर लो तो उस ज्ञानामृत का स्वाद आएगा, जिसमें भगवान निरंतर छके हुए रहते हैं ।