वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 58
From जैनकोष
अज्ञापितं न जानंति यथा मां ज्ञापितं तथा ।
मूढात्मानस्ततस्तेषा वृथा मे ज्ञापनश्रम:॥58॥
ज्ञानी के कर्तृत्वबुद्धि का अभाव – जिसे वस्तुस्वातंत्र्य की खबर है, प्रत्येक पदार्थ 6 साधारण गुणोंकरि सहित है, इसी कारण प्रत्येक वस्तु स्वयं सत् है, अपने स्वरूप से है, निरंतर परिणमती रहती है । अपने ही गुणों में प्रदेशों में परिणमती रहती है । ऐसे ही स्वातंत्र्य का जिसे परिज्ञान है – ऐसे ज्ञानी पुरुष के, जीवों के प्रति ‘इनका मैं कुछ करूँ’ ऐसी कर्तृत्व बुद्धि नहीं हुआ करती है ।
अकर्तृत्व के वचनों में भी अज्ञानी के कर्तृत्व का आशय – व्यवहार में यों बहुत से लोग कह दिया करते हैं कि बहुत बड़ा काम करने के पश्चात् भी कि मैंने कुछ नहीं किया है, मैं किस लायक हूं, मैं क्या कर सकता हूं ? ऐसा बहुत से लोग कहते हैं, पर यथार्थबोध का परिज्ञान न होने पर उनके ऐसा कहने के भीतर तद्विषयक कर्तृत्वबुद्धि और मिथ्या आशय छिपा हुवा है । इस प्रकार बोलने से शोभा होती है और लोक में यश होता है । ऐसा ही कहना चाहिए कि मैंने कुछ नहीं किया – सब आपकी दया है, आपके प्रसाद से सब हो गया है – ऐसा कहने से यश बढ़ता है और उसके किए हुए काम की प्रशंसा कई गुणी हो जाती है। ऐसा आशय पड़ा हुआ है भीतर में, जिसके कारण सभ्यता के नाते इस प्रकार कह रहे हैं कि मैंने क्या करा, मैं क्या कर सकता हूं, सब आपका प्रसाद है ।
ज्ञानी का व्यवहार विवेक – अब जरा ज्ञानी की बात देखो, इसके मूल में ही यह विश्वास बना हुआ है कि प्रत्येक पदार्थ की सीमा अपने-अपने स्वरूपास्तित्व में है और वह अपने ही स्वरूप में रहता हुआ अपना ही परिणमन कर पाता है । मेरा तो किसी पदार्थ से संबंध ही कुछ नहीं है ऐसा जिसके स्पष्ट बोध है वह व्यवहार में कर कर की क्रियाबोलकर भी करने वाला नहीं है, ऐसा प्रबुद्धचेता ज्ञानी संत इस प्रसंग में यह विचार रहा है कि इन मूढ़ आत्मावों को, इन पर्यायबुद्धि जीवों को मैं बहुत भी प्रतिपादन करूँ तो भी ये जानते नहीं हैं और न प्रतिपादन करूँ, न बताऊं तो भी ये जानते नहीं हैं – ऐसी जिनकी जड़ बुद्धि है, जो व्यामोह के रंग में बहुत रंगे हुए हैं उनके प्रति ज्ञानी सोचते हैं कि मेरे कुछ बोलने का, प्रतिपादन करने का परिश्रम व्यर्थ है ।
ज्ञानियों का विशुद्ध लक्ष्य – इस बात को सुनते हुए कुछ अर्थ सा नहीं जम रहा होगा कि क्या कहा जा रहा है ? चीज ही ऐसी है और सुनने में कुछ बुरी सी यों लगती है कि जो मुग्ध लोग हैं, व्यामोही हैं, मूढ़ पुरुष हैं क्या उनको ज्ञानियों को समझाना न चाहिए ? यह तो आशंका करने वालों की ओर से ठीक हैं लेकिन ज्ञानी पुरुषों का उपादान भी तो तकिये, उन्होंने क्या विश्व के जीवों को समझाने के लिए कमर कसी है, क्या उन्होंने विश्व के प्राणियों को ज्ञान कराने के प्रोग्राम के लिए ज्ञान पाया है, अथवा धर्म धारण किया है, या वैराग्य किया है उन्होंने तो आत्मसाधना के लिए, आत्मशांति के लिए ये सब साधन बनाये हैं, तपस्या की है, ज्ञानार्जन का उद्योग किया है । अब आसानी से सुगमतया निकट भव्यों को जिनका होनहार अच्छा है, जो मोह रंग में अधिक रंगे नहीं हैं, मूढ़ भी नहीं हैं, बुद्धिमान् हैं, हित चाहने वाले हैं – ऐसे पुरुषों को थोड़े श्रम से थोड़े व्यवहार से लाभ पहुंचता है, तो ज्ञानियों की वृत्ति बन जाती है ।
ज्ञानी के बहिर्मुखता का परिहार – भैया ! क्या यह समाधान कुछ कठिन लग रहा है ? पर इसका समाधान बड़ी जल्दी हो जाता होगा कि जिस ग्राहक के संबंध में यह जानते हैं कि इससे कोई बात पट ही नहीं सकती और यह अयोग्य है, इससे कुछ पूरा पड़ेगा ही नहीं, तो उससे उपेक्षा कर लेना, यह बात जैसे जल्दी समझ में आ जाती है ऐसे ही समझो कि ज्ञानियों ने दुनिया के जीवों को ज्ञान देने के लिए त्याग नहीं किया है । जैसे कोई यह कह बैठे कि किसी त्यागी से कि साहब दो दफे, तीन दफे कुछ पढ़ावो समझावो अथवा दो तीन बार प्रवचन का प्रोग्राम रक्खो और त्यागी कहे कि भाई इतना तो नहीं बन सकता, तो सुनने वाले लोग कह दें कि आप तो इसीलिए त्यागी हुए हैं । तो क्या कोई इसीलिए त्यागी हुआ है ? घर छोड़ते समय अथवा वैराग्य के अभ्युदय में जो कुछ भी चिंतन किया हो, क्या उसमें यह भी शामिल था कि लोग ऐसी सभा में जुड़ेंगे और मैं उनको समझाऊंगा और जगह-जगह जाकर प्रतिबोध करूंगा, जबरदस्ती करूंगा । तुम ऐसा समझ लो, तुम यह चीज छोड़ दो, तुम अमुक चीज न खावो, ऐसा व्रत करो, क्या यह पहिले से सोच रक्खा था ? अगर किसी ने सोच रक्खा हो पहिले से तो मेरे ख्याल से उसका त्यागमार्ग के लायक आशय ठीक न था । जिसने भी ज्ञान और तपस्या की साधना में उद्योग किया है उसका तो आशय आत्मशोधन का रहता है ।
ज्ञानी की अंतर्वृत्ति –देखो भैया ! इतनी बड़ी तो आपत्ति पड़ी है खुद पर, अष्टकर्मों का लदान लदा है, शरीर का जमाव लगा है । खुद तो दुखी हैं, परेशान हैं, मलिन हैं, और कल्पित मौज पर इतरायें तो यह कितनी विडंबना है ? भले ही पुण्य का उदय कुछ हो और वर्तमान में कुछ इज्जत हो, पूछताछ हो, आराम हो, किंतु ये कितने देर की बातें हैं ? क्या होगा अंत में किसी ज्ञानी विरक्त पुरुष की लौकिक महिमा देखकर ? अज्ञानी पुरुष भले ही कुछ ईष्या करे कि इनको बड़ा आराम है, बड़े प्रेम से, भक्ति से लोग आदर करते हैं और खूब दिलभर मनमाना सुंदर भोजन बनाकर खिलाते हैं, इनको तो बड़ी मौज है । पर ज्ञानी आहार कर चुकने के बाद जब अपने स्थान पर बैठता है या कहीं भी खड़ा बैठा हो या वहीं हो मानो, तो वह तो यह सोच रहा है कि कितने दिनों तक चलेगा ऐसा नटखट, कहां तक पूरा पड़ेगा, यह तो रोग है । इस ओर विकल्प रहता है, उपयोग लगता है तो यह तो आपत्ति है और पूरा भी क्या पड़ेगा ? क्या विपरीत उदय न आयेगा, क्या दूसरा जन्म न लेना पड़ेगा ? यहां तो ऐसा विचार ज्ञानी पुरुष कर रहा है और कुछ लोग सोचते हैं कि ये महाराज तो बड़े मजे में है, कितने ही लोग इनको पूछने वाले हैं । लोग हाथ जोड़-जोड़कर बहुत सुंदर आहार कराते हैं, पर इस ज्ञानी की तो कुछ और ही धुन है । इस वर्तमान मौज में मौज ही नहीं लेता । वह तो जानता है कि यह थोड़े समय का ठाठ है, इसके बाद क्या हाल होगा ? यों ही समझो अज्ञानीजन कहें कि ये त्यागी इसीलिए तो हुए हैं कि हम लोगों का उपकार करें, दो तीन बार कुछ सुनायें, पढ़ायें लिखायें, कुछ आगे की बात जानते हों तो बतायें, हम लोगों के संकट महाराज टालें । महाराज इसीलिए तो त्यागी हुए हैं । इस श्लोक में इन्हीं आशंकाओं का ही तो यह समाधान दिया गया है । आसानी से, थोड़े उपाय से यदि कोई प्रतिबोध को प्राप्त होता है, ज्ञान हासिल कर सकता है तो कर ले । ज्ञानी तो अपनी साधना में जुटा है ।
ज्ञानी का परमें अनाग्रह – ज्ञानी पुरुष यदि धर्मोपदेश भी देता है तो अपने आप को लक्ष्य करके जो कुछ कहे उसका फायदा खुद को मिले इस पद्धति से देता है । ऐसा करते हुए अन्य लोगों को उनके समागम से लाभ हो यह भली बात है । उन्हें लाभ हो जाय तो हो जाय, पर कमर कसे हों कि हमें तो इतना करना ही चाहिए, हम लोगों को जोड़ें, जगह ठीक करें, लाउडस्पीकर न आया हो तो उठाकर ले आयें, आदमी कम आये हों तो दुकान पर जाकर सबसे प्रेरणा करें कि आवो, हम व्याख्यान करेंगे । हम तुम्हें कुछ समझावेंगे, अच्छी बात बतावेंगे, जिससे संकट टलेंगे । भला सोचो तो सही, इतनी रागवृत्ति जिसके है वह अनेक प्रकार के ऐसे श्रम करे तो उससे उसे कुछ फायदा नहीं है और जनता को भी लाभ नहीं । ज्ञानी तो अपनी साधना किया करता है । जो फायदा उठाना चाहे वह उससे उठा सकता है ।
ज्ञानमय उपेक्षा का प्रभाव – जैसे प्रभु वीतराग सर्वज्ञ की स्थापना प्रतिमा में की गयी है, उनको हम आप कितना-कितना पूजते हैं, फिर भी वह प्रतिमा किसी को कभी कुछ समझाती नहीं, किसी से कभी बोलती नहीं, हम आप ही उनके गुण का स्मरण कर उनके चरणों में शीश झुकाते हैं, उनका पूजन करते हैं, समारोह करते हैं । प्रभु के ज्ञान की परकाष्ठा है, पूर्ण ज्ञान का उदय है । इस कारण इतना वैराग्य है, इतनी उपेक्षा है । जब देखो यह बोलते भी नहीं हैं तो भी उनके पादमूल में आकर जो जनभक्ति करते हैं वे सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं । ये अरहंत देव पूर्ण आप्त हैं । आप्त उसे कहते हैं जो पहुंचा हुआ हो । देव हैं सर्वज्ञ हैं और उन्हीं के छोटे भाई तो ज्ञानी संत पुरुष हैं । जिनेश्वर के लघुनंदन जिसे पुकारा गया है ऐसे ज्ञानी पुरुष में भी यदि इस उपेक्षा का अंश भी न आया हो तो उससे मोक्षमार्ग का कुछ प्रकाश भी न हो पायेगा । ऐसी स्थिति है उस ज्ञानी पुरुष की । जिसके परम उपेक्षा है, वैराग्य भाव है, ज्ञान की भी झलक क्षण-क्षण में होती रहती है, ऐसे ज्ञानी पुरुष के बारे में ये आचार्यदेव कह रहे हैं कि मूढ़ आत्मावों के प्रति संबोधने का, समझाने का व्यायाम व्यर्थ है ।
योग्यव्यवहार पद्धति – यहां यह आशंका अब भी श्र्वास ले रही है कि आत्मतत्त्व का स्वयं अनुभव करके ज्ञानी होता है, वह जड़बुद्धि को आत्मतत्त्व क्यों न समझेगा ? भैया ! समझाने का निषेध नहीं है, पर हठ करके कमर कसकर समझाने को यहां समझाना कहा गया है । ज्ञानी पुरुष बोल रहे हैं, समझा रहे हैं, वहां सभी तरह के पुरुष हैं, सबका उपकार हो रहा है, पर छांट छांटकर कहीं जड़बुद्धियों को ही बैठाल दो तो ज्ञानी पुरुष योग्य आशय बिना कैसे अपनी ज्ञानावृत्ति का उपयोग कर सकेगा ? देखिये बात थोड़ी थोड़ी न्याय की हर जगह होती है । भगवान सर्वज्ञदेव तीर्थंकर प्रभु के समवशरण में गणधर देव न हो तो उनकी दिव्यध्वनि न खिरे – ऐसा कहीं पढ़ा होगा, वहां तक भी कोई मनचला संदेह करने लगे कि देखो भगवान् को भी बड़ा रागद्वेष है कि लाखों आदमी तो बैठे हैं और एक गणधर नहीं है । गौतम गणधर नहीं आया था तो केवलज्ञान के बाद 66 दिन तक दिव्यध्वनी नहीं खिरी ।
अरे ! इसमें राग की बात नहीं है । जो बात जिस पद्धति से होनी है, वह उसी पद्धति से होती है । ज्ञानी पुरुष भी हालांकि इतने महान विकास वाला नहीं है, लेकिन नीति की सदृशता बतला रहे हैं । जड़बुद्धि-जड़बुद्धि सब छांट छांटकर बैठा दिये जायें और उनका परिचय भी हो कि ये सब इस तरह के हैं, अब कहां से वह अपना प्रवचन विकास करेगा, अपनी कला करेगा ? खुद ही सोच लो ।
रागविरागभाव के अनुकूल ज्ञानी को वृत्ति का न्याय – यों ही यहां सोच लो कि ज्ञानी पुरुष के कैसे यह श्रम हो सकता है कि मूढ़ जड़बुद्धियों के पास जा जाकर उनसे ही चिपकता कहता फिरे, जरा सुन तो लो इस संसार से परे होने की बात कह रहे हैं । ऐसी वृत्ति ज्ञानियों के होती नहीं हैं, क्योंकि वे दुनिया का उपकार करने की कमर कसने का भाव रखकर ज्ञानी नहीं हुए । उनका लक्ष्य आत्मस्वभाव का है । ऐसे ज्ञानी पुरुष की बात कह रहे हैं कि वह चिंतन कर रहा है कि इस मूढ़ आत्मपुरुष को हम अपनी बात समझाएँ । अपनी बात के मायने हैं आत्मतत्त्व की बात ।
जैसे यह बिना समझे नहीं जानता है, यों ही बहुत समझाया जाने पर भी नहीं जानता है, ऐसे जड़बुद्धि वाले के प्रति उसे समझाने का श्रम व्यर्थ है । इस संबंध में कितनी ही शंकाएँ बनायी जा सकती हैं । अरे जो बहुत समझदार हैं, उनको समझाने से क्या फायदा ? लेकिन जो जड़ हैं, लठ्ठ बुद्धि वाले हैं, उनको समझाना चाहिए । उपकार तो वहीं पर है । बात तो ठीक है, पर ज्ञानी की गांठ में इतना तीव्र राग हो तो यह सौदा पटे । मूढ़बुद्धि वाले को समझाने में अपना निरंतर श्रम करे―ऐसा दोनों के बीच का सौदा तब ही तो पटे, जब ज्ञानी के चित्त में भी उतना अधिक राग हो कि ‘मान न मान, मैं तेरा मेहमान’, किंतु ज्ञानी तो ज्ञाता व सहज उदासीन रहता है ।
ज्ञानियों की साधना और प्रवृत्ति – ज्ञानी की सब सहज वृत्ति होती हैं । इस कारण कहीं कहीं तो इतना तक भी कहा गया है कि ऐसे जड़बुद्धियों से, ऐसे निपट असंयत जनों से तो संभाषण भी न करना चाहिए । इन शब्दों से भी कहीं कहीं साधकों के लिए शिक्षा दी गई है। जैसे यह बात तथ्य की है कि नीच पुरुष यदि उच्च बन सकें तो उन नीचों के संपर्क में और व्यवहार में अधिक रहना चाहिए ।
भैया ! यह ठीक है और यदि उच्च भी नीच बन जाए, नीच के संसर्ग और व्यवहार में रहकर तो क्या ऐसी परिस्थिति में भी बड़ों का यह काम है कि उन नीच पुरुषों में घुसे रहें ? यह कल्याण की चाह के स्थल पर की बात कही जा रही है । इसलिए लौकिक भाषा में जैसे कि आज की दुनिया में यह बात फिट न बैठेगी, लेकिन ज्ञानियों की चूंकि सहज वृत्ति होती है, आत्मसाधना का मुख्य लक्ष्य होता है, इसलिए इसी वृत्ति से वे सफल होते हैं और उनके संसर्ग में जो आया, वह भी फल प्राप्त करता है । इसी तरह से मुमुक्षुओं की ऐसी बुद्धि जगती है कि जड़बुद्धियों में, तीव्र व्यामोहियों में उनका व्यवहार नहीं होता है ।