वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 67
From जैनकोष
यस्य सस्पंदमाभाति नि:स्पंदेन समं जगत् ।अप्रज्ञमक्रियाभोगं स शमं याति नेतर:॥67॥
निस्पंददर्शन और शांति – ज्ञानी पुरुषों ने अपने आत्मतत्त्व को देह से विविक्त निरखा है । इस विविक्त अवलोकन के अभ्यास से इस ज्ञानी पुरुष को बाह्य जीवलोक में भी इन दृश्यमान् देहों से भिन्न चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व दृष्ट हुआ है तब उसे अंतर में यह सब आत्मस्वरूप निस्पंद अचल ज्ञानस्वरूप प्रतीत होता है । यों जब जिस जीव को ये अनेक चेष्टाएँ करते हुए शरीरादिकरूप यह दृश्यमान् जगत् निश्चेष्ट काष्ठ पत्थर की तरह जड़वत् किंतु क्रिया और सुख दु:ख आदि के दु:खों से रहित मालूम होने लगता है तब इस पुरुष के ऐसी परमशांति उत्पन्न होती है जिसमें न कोई हलन चलन है, न कोई भोग भोगना है, न अध्रुवता है, ऐसी उत्कृष्ट शांति उसे प्राप्त हो जाती है ।
सक्रिय व्यवहार जीवों में अक्रियाभोग का अवलोकन – आत्मप्रगति के लिए यह एक प्रयोग करने की चीज है । इन देहों से भिन्न आत्मतत्त्व को ऐसा ज्ञानप्रकाशमय चित्स्वभावरूप निरखना चाहिए कि फिर यह मालूम पड़ने लगे कि ये दृश्यमान शरीरादिक पुद्गलपिंड चल रहे हैं तो चलो किंतु इनके अंतर में विराजमान जो यह आत्मस्वरूप है वह तो अचल व निष्क्रिय है और कर्तृत्व भोक्तृत्व की तरंगों से रहित है । जब इस प्रकार यह शुद्ध चैतन्यस्वरूप दिखने लगा तब समझना चाहिए कि अब यह मोक्षमार्ग में बहुत प्रगति कर रहा है । लोग तो जरा सी प्रतिकूल बात सुनकर अथवा कुछ मन के विरुद्ध चेष्टा निरखकर आकुलित हो जाते हैं किंतु ज्ञानी उन चेष्टावों को देखकर क्या आकुलित होगा ? वह तो यहां यह देख रहा है कि यह क्रियावान पुद्गल पिंड अलग हैं और जो जाननहार है ऐसा जो तत्त्व है वह निश्चल है, काष्ठ पत्थर की तरह हिल डुल न सकने वाला, न कुछ भोग कर सकने वाला ऐसा शुद्ध ज्ञानप्रकाश स्वरूप है । यह अभ्यास इस प्रकार की दृष्टि का प्रयोग जिसके जितना बढ़ता जाय समझो वह शांति में उतना ही बढ़ता चला जा रहा है । हम कुछ देखें और देखने के साथ ही हमारी समझ में यह आये कि जो कुछ हिलडुल रहा है रूप, रस, गंध, स्पर्शवान स्कंध, वह हिल डुल रहा है किंतु ज्ञाता दृष्टा जानन देखनहार जिससे हमारा प्रयोजन है वह तो निश्चेष्ट कर्तृत्वभोक्तृत्व की तरंग से रहित केवल चित्स्वभावमात्र है । यह तत्त्व बड़ी ऊँची साधना के बाद मिलता है ।
शांति की पात्रता – भैया ! इतना श्रेष्ठ मनुष्य जीवन पाकर मोहममता अहंकार की बातों में इतना लिपट जाना उचित नहीं है । किसी भी समय सर्व परतत्त्वों से शून्य केवल ज्ञानप्रकाशमात्र अपने आपमें परिणमन बन सके, यह प्रयोग ही जीवन की सफलता है, किंतु पर्यायव्यामोह में यह कठिन हो रहा है क्योंकि इस मोही जीव का उपयोग अपने मन के माफिक मन के विषयभूत पदार्थों में ही अटका हुआ है, वह शांति नहीं पा सकता है । शांति का पात्र वही है जो इस चलित व चलायमान् क्रियावान् शरीरपिंड को निरखकर भी यह देखे कि वह तो निष्क्रिय है । कितनी सूक्ष्मदृष्टि है यहां साधक पुरुष की ।
विवेकशौर्य – यद्यपि यह आत्मा हाथ पैर अंग-अंग में विभक्त बना हुआ है । जैसे एक इस शरीर का ढांचा कैसा भिन्न-भिन्न अंगोपांग के रूप में है । एक जीव वृक्ष का ढांचा कैसा फूल-फूल पत्ती-पत्ती, डाली डाली में फूलों के मध्य जो मकरंद रहता है पतले डोरे के माफिक, उन पतले डोरों में मकरंदों में सर्वत्र यह आत्मा कैसा विभक्त होकर फैला है । यह क्षेत्रदृष्टि की गई है, अंत: आत्मपदार्थ के बारे में ऐसा लग रहा है, किंतु जहां ही उस क्षेत्र विस्तार से दृष्टि हटायी, केवल स्वभावमय दृष्टि जमायी तो वहां सर्वविकल्पों से रहित नीरंग निस्तरंग स्वभावमात्र दृष्ट होता है । यह है साधना शांति के मार्ग की । कुटुंब परिवार घर दौलत यही सब कुछ है ऐसी आत्मसमर्पण जैसी बात यह मोही कायर पुरुष की देन है । शूरवीर आत्मा वही है जो पर पदार्थों से अलिप्त रहता है और अपने आपमें बसे हुए सहज चित्स्वभाव की रुचि करता है ।
परमार्थदर्शन का परिणाम – जिस समय अंतरात्मा आत्मस्वरूप का चिंतवन करते-करते अपने आपके आत्मस्वभाव में ऐसा स्थिर हो जाता है कि उसे यह क्रियात्मक संसार, चलता फिरता यह जीव लोक, यह देह पिंड, ये सब पत्थर लकड़ी की तरह स्थिर मालूम होते हैं । ओह ! चल रहा है, कौन चल रहा है, कहां चल रहा है, चलते हुए भी अचल दिख रहा है । ऐसी स्थिति वाले की साधना को कौन बता सकता है ? जैसे जो कुछ दिखते हैं ना भींत, फर्श, पत्थर, कपड़े, दरी, जो कुछ यहां दिख रहे हैं, इन्हीं दिखते हुए पदार्थों में और अंतर में प्रवेश करके परमार्थ सारतत्त्व तो देखो क्या है ? ये दृश्यमान् रूप आदिक पिंड परमार्थस्वरूप नहीं हैं । ये सब अनंत परमाणुवों के पिंड हैं । ये सब कुछ एक पदार्थ ही नहीं हैं । इन सब स्कंधों के रहते हुए भी दृष्टि केवल परिपूर्ण अव्यक्त सहज सिद्ध पुद्गलद्रव्य पर जाय, परमाणु पर जाय और वहां परमार्थभूत पुद्गल ही दृष्ट रहे तो ये भींत, फर्श, पत्थर इस ज्ञाता के उपयोग में नहीं रहे, सब गिर गये, सब विलीन हो गये ।
बेअटक में बेअटक प्रवेश – भैया ! परमार्थज्ञाता के उपयोग में तो परमार्थभूत पुद्गल ही नजर आ रहा है । यह दृष्टि का कमाल है । जैसे हड्डी का फोटो लेने वाला एक्सरा यंत्र मनुष्य के कपड़े, चमड़ी, मांस, खून आदि के फोटो न लेकर, उनका ग्रहण न करके केवल हड्डी का ग्रहण करता है, अस्थियों का ही फोटो ले लेता है । कहीं अटकता नहीं है वह एक्सरा यंत्र अपनी विधिवत् क्रिया करने में । ऐसे ही जानो कि जिनकी परमार्थ की ओर दृष्टि गयी है वे इन दृष्यमान् देहों में अटकते नहीं हैं । ये देह पराये देह अथवा अपना जीवन अधिष्ठित देह ये सुहावने लगें या असुहावने लगें, यह तो दूर की बात है । यह ज्ञानी तो इस चलित देह में इस अचल आत्मतत्त्व को निरख रहा है । ऐसे साधक परमयोगीश्वर संत महात्मा के यह अनुभव में आ रहा है कि यह आत्मतत्त्व निष्पंद है । हाथ बड़े जोर से हिलाया जाय तो हाथ के गोल चक्कर काटने पर आत्मा के उतने प्रदेश भी तो चक्कर काट रहे हैं, गोल फिर रहे हैं, लेकिन ज्ञानी पुरुष को तो यहां वहां चक्कर नहीं दिखते, वह उस ही चीज को तत्त्व की प्रमुखता से जानता है, इसलिए उसे न भिन्न भिन्न रूप में फैलता नजर आता है और न कोई उसमें हानि अथवा कोई वृद्धि नजर आती है । ऐसे इस परमयोगास्पद पुरुष को यह सस्पंद जगत्, चलायमान यह ऐसा दृश्यमान् जीवलोक अचल की तरह प्रतिभात होता है ।
अंतस्तत्त्व की स्वीकृति का वर्णन – भैया ! जिसकी इस सहज स्वभाव पर दृष्टि नहीं पहुंची, उसको इस श्र्लोक में कुछ नहीं मिल सकता है । क्या सस्पंद और चलते हुए को भी निष्पंद बताया जा रहा है ? दौड़ तो लगा रहे हैं यह सब कोई और इस ज्ञानी को ये सब कुछ काठ पत्थर की तरह अचल नजर आ रहे है । यह कोई बला है क्या । नहीं, यह कोई सी बला नहीं है, किंतु आत्मतत्त्व के अंतरमर्म की, अंत:स्वरूप की दृढ़ स्वीकृति का परिणाम है । इस ज्ञानी पुरुष को यह सब चलता फिरता लोक निश्र्चेष्ट नजर आ रहा है ।
आशय के अनुसार अवलोकन का एक दृष्टांत – जैसे कोई कठिन दुख से जो दु:खी है, जिसका इष्टवियोग हो गया है अथवा किसी जगह अत्यंत घोर अपमान हो गया है, किसी भी कारण जो घोर दुखी पुरुष है, उसको दुनिया के लोगों के चेहरों पर दु:ख ही नजर आता है। उस समय कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनमें विवाह या अन्य कोई खुशी की बातें हो रही हैं और वे हंस रहें हों, खुश हो रहे हों तो भी इस दुखिया को ऐसा लगता है कि ये कुछ मजाकसा हंसकर कर रहे हैं, सुखी नहीं हैं, ये कुछ जबरदस्ती पर सुखी नहीं हो पाते । दुखिया पुरुष को यह सारा जीवलोक दुखी नजर आता है । सुखी भी हो कोई, मौज भी मानता हो कोई तो उसे वह दिल्लगी करने जैसा मालूम होता है । वह अनुभव नहीं कर सकता कि ये पुरुष सुख में प्रवृत्ति कर रहे हैं । विषयसुखीजीव दुखी को देखकर यह नहीं सोचते कि ये दुख में प्रवृत्ति कर रहे हैं ।
अंत: अवलोकन का परिणाम – ऐसे ही जिन्होंने सहजज्ञानानंद स्वरूप का अवलोकन किया है और उसके दृढ़ अभ्यास के बल से सहज उत्कृष्ट आनंद का अनुभव किया है, जो इस परमार्थभूत सत्य आनंद से तृप्त रहा करते हैं, उनको बाहर में कोई जीव दुख करता हुआ व विविध चेष्टा करता हुआ नजर आये तो उन्हें ऐसा लगता है कि ये कोई बनावट कर रहे हैं, नाटक खेल रहे हैं, कोई दुखी नहीं है । जो बात अपने उपयोग में उतरती है, उसके खिलाफ बाहर कुछ नजर नहीं आता है । इस ज्ञानीसंत ने अपने आपमें ऐसे अचल स्वरूप को देखकर सर्वझंझटों से विरक्ति लेकर एक इस आत्मतत्त्व में अपना सर्वस्व लगाया है ऐसे पुरुषों को ये सब कुछ अचलित दिखते हैं । अब यह चल रहा है सो या तो यह कुछ शौक सा कर रहा है या कुछ कौतुक सा कर रहा है । भेददृष्टि की प्रमुखता से आत्मतत्त्व की दृष्टि से यह सब कुछ न कुछ सा नजर आता है । इस ज्ञानी पुरुष पर इन बाह्य पदार्थों की क्रियावों का कुछ भी असर नहीं होता है । अब अनाकुलता और प्रतिकूलता के विकल्प इस ज्ञानी के समाप्त हो जाते हैं ।
निर्मोहता में ही विवेककला का प्रसार – यह सब सस्पंद जगत् जिसे काठ पत्थर की तरह निश्चेष्ट नजर आ रहा है, जिसे ऐसे शुद्ध आत्मस्वरूप का प्रतिबोध हुआ, ज्ञान हुआ और उस ही में वैराग्यभाव से गमन किया वह वीतराग भाव को प्राप्त होता हुआ सहज आनंद का अनुभव करता है । इस मर्म को इस दृष्टि को बहिरात्मा जीव कैसे प्राप्त कर सकता है ? यह मूढ़, पर्यायमुग्ध जीव तो आकुलता के लिए ही जिंदा है । उसने आकुलता का कभी कुछ सोचा ही नहीं है । चाहता तो है शांति, पर काम बन जाता है उससे अशांति के जैसा । जिस पुरुष को कुछ बोलना ही नहीं आता हो, बोलता तो बहुत हो मगर बेजड़ बोलता हो, अपना लक्ष्य भी अपनी भाषा में बता सकने का साहस और योग्यता जिसमें न हो तो वह बोलना तो चाहता है भले के लिए, मगर बोल ऐसा उठ आता है कि जिससे काम ही बिगड़ता है । दिल में चाहता हुआ भी आगे यत्न नहीं कर सकता है ।
उपादान के अनुसार प्रवर्तन – एक गुरु था । वह जरासा तोतला था । तोतला बोलने वाले से स का उच्चारण ठीक नहीं हो सकता । तोतले कई तरह के होते हैं । कोई कम तोतले कोई अधिक । मगर कम से कम भी जो तोतला है वह स नहीं बोल पाता है । स को ट बोलता है। तो ऐसा ही कम तोतला वह गुरु होगा । शिष्यों को पढ़ाने बैठा तो प्रारंभ के पाठ में एक शब्द आया सिद्धिरस्तु । जिसका अर्थ है कि सिद्धि हो, पर वह सिद्धिरस्तु बोल नहीं सकता था क्योंकि तोतला था । वह मन में जानता था कि इसका सही उच्चारण सिद्धिरस्तु है, वह मन में बोल लेता था, मगर मुख से सही-सही न बोल पाता था । जैसे कि कोई ऐसे गाने वाले होते हैं कि मन ही मन में गायें तो बढ़िया राग आ जाता है और जब उनके श्रीमुख से वचन निकले तो बेहूदा स्वर निकल आता है । यों ही तोतले को अंतर में बहुत स्पष्ट बोध रहता है कि इसका यह उच्चारण है । तो वह गुरु शिष्यों को यह समझाना चाहता था कि हम चाहें टिद्धिरस्तु कहें तुम सिद्धिरस्तु समझना । सो वह शिष्यों को कहता है कि देखो हम चाहे जो कुछ कहें, पर तुम उसे टिद्धिरस्तु समझना । वह कहना तो चाहता है सिद्धिरस्तु मगर मुख से निकलता था टिद्धिरस्तु । जब तक दृष्टि विशुद्ध नहीं होती है तब तक अनाकुलता की बड़ी इच्छा भी है, यथार्थ धर्मपालन की बड़ी मंशा भी है, फिर भी वह ऐसी ही क्रिया कर बैठता है कि जिन क्रियावों से शांति पाना तो अलग रहा अशांति ही उसे प्राप्त होती है ।
स्वभाव की दृष्टि व लब्धि की स्थिति – भैया ! मोह ममता एक व्यर्थ का रोग है, एक विडंबना है । इसका जिसने परिहार नहीं किया और शुद्धभावात्मक केवल ज्ञायकस्वरूप, आकाश की तरह अमूर्त केवल चिद्विलासात्मक आत्मतत्त्व जिसको दृष्ट नहीं हुआ, कितना भी वह यत्न कर ले शांति को प्राप्त नहीं कर सकता है । इस स्वभाव के परिचय के अभ्यास में यहां तक वृत्ति हो जाती है कि उसे यह चलता फिरता हुआ भी जीवलोक चलता नजर नहीं आता है किंतु निष्पद, अप्रज्ञ, कर्तृत्वभोक्तृत्व से रहित क्रियावों से भी शून्य केवल ज्ञानप्रकाश ही दृष्ट होता है, ऐसा ज्ञानी ही परमार्थ स्वभाव को प्राप्त करता है, अन्य बहिरात्मा जन उस आनंद को प्राप्त नहीं कर सकते हैं ।