वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 69
From जैनकोष
प्रविशद्गलतां व्यूहे देहेऽणूनां समाकृतौ ।स्थितिभ्रांत्या प्रपद्यंते तमात्मानमबुद्धय:॥69॥
शरीर की अस्थिरता – यह शरीर स्थिर पदार्थ नहीं है । स्थूलरूप से सभी जानते हैं । यह जीर्ण होता, शीर्ण होता, नष्ट होता, नाना रंग आकार बदलता, छोटा बड़ा होता, यह स्थिररूप नहीं रहता है । यह मोटा दृष्टांत है और बारीक दृष्टि से देखो तो एक ही दिन में, एक ही घंटे में, एक ही मिनट में, एक ही सेकेंड में समझो अनेक परमाणु नवीन आते हैं और अनेक परमाणु पूर्वबद्ध खिर जाते हैं । इस शरीर में अनेक तो नये परमाणु आते हैं और अनेक पहिले के बँधे बँधाए कर्म शरीर से अलग हो जाते हैं ।
पुद्गल के लक्षण – इन पुद्गलों का पूरण और गलन हो रहा है, यह बात शरीर में तो है ही पर उसके अतिरिक्त सभी अचेतन पदार्थों में भी यह बात है । इन स्कंधों में अनेक नवीन परमाणु आते हैं और अनेक खिर जाते हैं इसीलिए इनका नाम पुद्गल है । जितने भी रूपवान् पदार्थ हैं ये सब पुद्गल हैं । कोई लोग तत्त्व की संख्या बनाने में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इनको अलग-अलग तत्त्व मानते हैं । पर ये अलग-अलग कैसे हैं ? जब जल कभी वायु बन सकता है, वायु कभी जल बन जाता, पृथ्वी आग बन जाती, आग पृथ्वी बन जाती याने ये सभी कालांतर में इनमें अन्यरूप हो सकते हैं तब ये अलग-अलग कैसे रहें मूल में ? अलग-अलग पदार्थ वे कहलाते हैं जो त्रिकाल में भी उस रूप न हो सकें । ये सबके सब पदार्थ भी पुद्गल कहलाते हैं । जो रूप, रस, गंध, स्पर्श वाला हो उसे पुद्गल कहते हैं । जो पूरे और गले, संयोग होकर बिखर जाय और बिखरकर छोटा रह जाय, ऐसी स्थिति जिन पदार्थों में रहती है उन्हें पुद्गल कहते हैं ।
पदार्थ के भेद करने की पद्धति – पदार्थ 6 प्रकार के होते हैं – जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । पदार्थों के भेद करने की प्रणाली कितनी युक्तियुक्त है, इसकी पहिचान भेद करने की पद्धति यह है कि जिसका भेद किया जाय वह भाग भी न छूटे और जो भेद किए जा रहे हैं वे परस्पर में एक दूसरे से मिलें नहीं, यह है भेद करने की पद्धति । जैसे संसारी जीव कितनी तरह के होते हैं ? कोई कहे कि दो तरह के होते हैं एकेंद्रिय जीव और संज्ञी जीव । इन दोनों में सब संसारी आ जाने चाहिए तब तो भेद की पद्धति है, पर नहीं आये । अच्छा तो सही भेद बतावो । संसारी जीव के दो भेद हैं एक त्रस और एक स्थावर । इसमें कोई संसारी नहीं छूटा । पहिले किए गये भेद में दो इंद्रिय, तीनइंद्रिय, चार इंद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय ये सब छूट गये थे । इसमें कोई भी नहीं छूटा । एक बात तो यह है और दूसरी बात जो भेद किए जा रहे हैं वे परस्पर में उस पर्याय में लक्षण से मिल न जायें कि कोई स्थावर त्रस भी हो जाय और त्रस स्थावर भी हो जाए, ऐसा मेल न हो जाय तब वह सही भेद कहलाता है । तो द्रव्य के जो 6 भेद किए हैं इन छहों से अलग कोई द्रव्य नहीं है, और ये छहों कभी एक दूसरे रूप नहीं हो सकते हैं ।
द्रव्यों की शाश्वत परस्पर विभिन्नता – जीव का लक्षण चैतन्य है, इस रूप में पांचों द्रव्य हो ही नहीं सकते । पुद्गल का लक्षण है पूरना और गलना, जुड़कर पिंड बन जाना और बिछुड़कर अलग हो जाना, यह बात किसी भी दूसरे द्रव्य में नहीं है । पुद्गल ही एक ऐसा है जो पूरता है और गलता है । क्या कभी 10 जीव मिलकर एक पिंड बन सकेंगे ? यह मोही जीव मोह कर करके हैरान हो जाता है और इतना व्यामोह करता है कि मैं और पुत्र ये दोनों एक ही जीव हैं और चाहते हैं कि एक बन जायें, पर बन सकते नहीं हैं एक पिंड । ऐसे ही अन्य कोई भी द्रव्य न पूर सकता है, न गल सकता है । पुद्गल में ही यह स्वभाव है कि वह मिल कर पिंड बन जाय और गलकर अलग हो जाय अथवा पुद्गल उसे कहते हैं जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श पाये जायें । यह स्वरूप भी अन्य द्रव्य में नहीं है । धर्मद्रव्य एक अमूर्तिक पदार्थ है जिसके होने पर जीव और पुद्गल गमन कर पाते हैं । सर्वत्र लोकाकाश में भरा है ऐसे ही अधर्म द्रव्य भी भरा है जिसके होने पर चलता हुआ जीव पुद्गल ठहर सकता हैं । आकाशद्रव्य तो कुछ जल्दी समझ में आ जाता है और लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य सदा अवस्थित रहता है । ऐसे इन 6 प्रकार के द्रव्यों में कोई एक दूसरे रूप नहीं होता । अगर हो जाय तो वह भेद नहीं है ।
शरीर में स्थिरता के भ्रम का कारण शरीर की सीमित समाकारता – ये पृथ्वी, जल, आग, हवा आदि कालांतर में एक दूसरे रूप हो जाते हैं इसलिए मूलत: ये भिन्न-भिन्न पदार्थ नहीं हैं, ये सब एक पुद्गल जाति में गर्भित हैं । यह शरीर पुद्गल है, इसमें अनेक परमाणु आते हैं और अनेक निखरते हैं । ऐसे इस बिगड़ने वाले इस देहपिंड में इन मूढ़ आत्मावों की क्यों आत्मबुद्धि हो गयी ? उसका कारण भेद विज्ञान का अभाव है । कहीं नये परमाणु के आने से कभी यह शरीर बछड़ा जैसा नहीं बन जाता है । कहीं मुह में कुछ लंबे ढंग से परमाणु चिपक जायें तो यह बछड़ा का मुँह बन जाय ऐसा नहीं देखा जाता है । कितने ही परमाणु आते हैं और जाते हैं, फिर भी समान आकार रहता है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह शरीर तो वही का वही है जो कल था जो सुबह था, भिन्नता नहीं नजर आती है । ऐसी स्थिरता दिखने के कारण भी यह व्यामोही जीव इसको आत्मरूप से मानता है ।
अजीव को स्थायी मानने की जीव में प्रकृति – भैया ! हम आप सब जीवों में इतनी बात तो भलीहै कि हम उसे मानते हैं अहं, जो स्थिरता से रहता हो । अस्थिर चीज में मैं मानने की तैयारी नहीं होती । यह एक भीतरी प्रकृति है जीव की । यह जीव किसी अस्थिर रूप अपने को मानना नहीं चाहता । इसको शरीर के बारे में यदि यह पता रहे कि वह अस्थिर है तो इसमें स्वतत्त्व की बुद्धि न कर सकेगा । इस व्यामोही जीव को इस शरीर में जो कि समान आकार वाले हैं इस कारण से स्थिति की भ्रांति हो गयी कि यह शरीर सदा रहने वाला है, सदा टिकने वाला है, मैं वह हूं जो सदा टिक सकूँ सो इस प्रकार से इसने इस देह को आत्मा माना है । अभी किसी गरीब को ही कहा जाय कि तुमको हम एक दिन के लिए लखपति बनाये देते हैं । ये सारे मकान, सारी जायदाद तुमको देते हैं और दूसरे दिन जो कुछ तुम्हारे पास भी है उसे भी छुड़ा लेंगे और निकाल देंगे । तो वह क्या मंजूर करेगा ? न मंजूर करेगा। वह तो यही कहेगा कि हमें तो ऐसी स्थिति मंजूर है जो सदा रहे । ऐसी गरीबी ही वह तो मंजूर करेगा । एक दिन को धनी कबूल करके फिर अपनी भी निधि गांठ से लुटा दे ऐसी स्थिति को मंजूर नहीं करेगा । यह चाहता है कि मैं तो वह रहूं, जो सदा रह सकता हूं, वह होऊं । इससे अंतरंग की प्रवृत्ति समझ लीजिए कि इसकी चाह है, इसकी प्रतीति है कि मैं वह हूं, जो सदा रह सकता हूं, इतनी तो अच्छी बात है, किंतु इस शरीर को ही इसने ऐसा समझ लिया कि यह सदा रह सकता है, क्योंकि समान आकार का बना रहता है, इससे इस शरीर में आत्मबुद्धि कर ली हैं ।
अतिनिकट काल में शरीर के विनाश की संभावना में धर्मानुराग की प्रगति – नीतिकार कहते हैं कि धर्म वही पाल सकता है, जो यह विश्वास रखता हो कि मृत्यु तो मेरी चोटी पकड़े हुए है, जब चाहे झकझोर दे और तब ही मुझको यह शरीर छोड़कर जाना पड़ेगा―ऐसी जिसमें प्रतीति है, वही धर्मपालन कर सकता है । जो यह जानता है कि ऐसा मैं सदा रहूंगा, जैसा वैभववान हूं, परिवारवान् हूं, शरीर वाला हूं―ऐसा मैं सदा रहूंगा तो उसे धर्मपालन की उत्सुकता न होगी । कभी देखा भी होगा कि कोई बड़ा तेज रोग हो गया हो या किसी विकट दंगे में फस गया है। या कहीं आग का सामना हो गया हो या समुद्र आदिक में कुछ डूबने की आशंका हो या घर में बड़ा तेज रोगी होकर पड़ा हुआ हो, जंगल में बहुत भटक गया हो, जहां यह आशंका हो कि किसी भी समय कोर्इ सिंह आदि आकर मुझे खा सकता है―ऐसी जब कोई स्थिति आती है तो प्राय: यह जीव धन की, परिजन की याद न करके यह याद करता है कि ओह ! इन संकटों से मैं बच जाऊँ तो खूब धर्मधारण करूँगा और अपने जीवन को सफल करूँगा । जब यह भावना होती है कि मृत्यु तो मेरे सिर पर खड़ी हुई है, जब चाहे मैं झकझोरा जा सकता हूं तो इसकी धर्मपालन की दृष्टि होती है और यह ज्ञान धारण करता है ।
शरीरस्थिति के भ्रम में आत्मभ्रांति – जिसने इस अस्थिर परमाणु के समूह में स्थिर बुद्धि कर ली है, वह तो अबुद्धि बनकर इसको ही आत्मा मानता है कि यह ही मैं हूं । जो जिसको अहंबुद्धि से स्वीकार करता है, वह उसकी प्रगति में रहता है । जिस ज्ञानी संत पुरुष ने इस देह से भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप इस चेतनतत्त्व को ही मैं आत्मा हूं―ऐसा मान लिया, वह इस चेतनतत्त्व के विकास में ही अपना कल्याण समझेगा । एक इस चिद्विलास में ही उत्सुकता बनेगी और जिसने शरीर को माना है कि यह मैं हूं―ऐसा हट्टा कट्टा, दुबला, पतला, गोरा, सांवला, ठिगना, लंबा, किसी भी रूप इस शरीर को यह मैं हूं ऐसा मान लेता है तो अब वह इस शरीर की प्रगति में रहेगा । शरीर जैसे राजी होता है―पंचेंद्रिय के विषयों का जिसका प्रयोजन होता है यों समझ लीजिए अलंकार में, इस शरीर को जिसने आत्मरूप में स्वीकार कर लिया है, वह उसकी प्रगति के लिए यत्नशील रहता है । ये प्रवेश करने वाले और गमन करने वाले अणुवों के समूहरूप देह में समाकृति होने के कारण जिनको स्थिरता का भ्रम हो गया है कि यह जीव तो सदा रहने वाला है, तब यह मैं हूं―इस प्रकार की उन सब अज्ञानियों की बुद्धि बनती है ।
मिथ्याज्ञान का महासंकट व कुरस का स्वाद – भैया ! मिथ्याज्ञान से बढ़कर कोई दुनिया में संकट नहीं है । संकट तो उसे कहते हैं, जहां यह आत्मा बैचेन हो, असंतुष्ट हो । यह संकट अज्ञान से भरा हुआ है, अत्यंत भिन्न है, जिसका मुझमें कुछ वास्ता ही नहीं है – ऐसे इन धन संपदा आदिक पदार्थों में ‘यह मैं हूं, यह मेरा है’ ऐसी जो बुद्धि लगाता है, वह संकट में है, अज्ञान अंधेरे में है । सम्यग्ज्ञान से बढ़कर कुछ वैभव नहीं और मिथ्याज्ञान से बढ़कर कुछ संकट नहीं । स्वाद तो उसका ही आएगा, जिसकी ओर दृष्टि है, जिसकी रुचि है । यह जीव भावात्मक पदार्थ है और भावों को ही करता है, भावों को ही भोग सकता है । जैसा इसका भाव होगा, तैसा ही इसे स्वाद आएगा । जैसे एक अल्प कथानक कि राजा ने भरे दरबार में मंत्री से कहा कि मंत्री जी! रात्रि में मैंने ऐसा स्वप्न देखा कि हम तुम घूमने जा रहे थे । रास्ते में दो गड्ढे मिले । हम तो गिर गए शक्कर के गड्ढे में और तुम गिर गए मल के गड्ढे में । मंत्री ने कहा कि महाराज ! ऐसा ही हमने भी स्वप्न देखा, पर थोड़ा इसके आगे और देखा कि हम तुम्हें चाट रहे थे और तुम हमें चाट रहे थे । अब यह बतावो कि राजा को क्या चटाया ? मल । और स्वयं ने क्या चाटा ? शक्कर । जैसी जिसकी दृष्टि होती है, उसके अनुसार उसे रस आता है, अनुभूति होती है । हमारी दृष्टि अज्ञानभरी है तो वहां स्वाद अज्ञान का है । मोह विष का ही स्वाद है ।
ज्ञानदृष्टि में ज्ञानसुधार का स्वाद – भैया ! हमारी दृष्टि ज्ञान से भरी है तो भले ही हम देह में फंसे हैं, लेकिन स्वाद आयेगा उसका ही, जिस ओर हमारी निगाह है । हम यदि इस शरीर से भेदभावना करके विविक्त ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व को निरख रहे हैं तो वहां एक भी संकट नहीं है। जहां इस आत्मस्वरूप से चिगकर अन्य पदार्थों में ‘यह मेरा है, मैं इसका हूं’ ऐसी कुबुद्धि की जाती है तो संसारसमुद्र में गोते ही खाते रहना पड़ेगा । मोह से बढ़कर दुनिया में कुछ संकट नहीं है । व्यर्थ का मोह है । मेरा मेरे स्वरूप के सिवाय कौन है ? स्वभावत: सब जुदे हैं,
एक दूसरे से विमुख हैं । किसी में मैं मिला हुआ नहीं हूं । मुझे कौन कब सहारा हो सकता है ? सब भिन्न हैं – ऐसी दृष्टि नहीं की जा सकती है मोह में । इतना साहस नहीं बनता है कि जो बात जैसी है, उसे उस ही प्रकार हम मान लें । अज्ञान में रहेंगे तो केवल क्लेश ही भोगने पड़ेंगे । यदि ज्ञानभाव में रहेंगे तो हमारे सब संकट छूट जायेंगे ।
संसारमार्ग व मोक्षमार्ग का मूल देह के संबंध व असंबंध का विनिश्चय –जो ज्ञान का विस्तार होगा, अज्ञान का विस्तार होगा, उन सबका मूल साधन देह और जीव के परस्पर संबंध और असंबंध देखने का है । जैसे कहीं दो तीन सड़क सामने फूट गए हैं तो जहां से फूटे हैं, उससे पहिले का जो मार्ग है, वह मूल में है, उसके ही बाद फिर रास्ता फूट गया है। ऐसे ही इस देह और जीव के प्रसंग में यह मूल बात है कि संबंध माने तो इन समस्त संकटों का विस्तार बनता जाता है और संबंध को न माने तो सब के सब संकट समाप्त होते हैं । यह अज्ञानी जीव मिलते जुलते रहने वाले परमाणुओं के समूह को स्थिर बताया करता है और इसी कारण से यह मैं हूं, यह मैं हूं, यह मैं अमुक हूं―ऐसी कल्पना बनाता है, यही उसके सर्वसंकटों का मूल है ।