वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 70
From जैनकोष
गौर: स्थूल: कृशो वाऽहमित्यंगेनाविशेषयन् ।आत्मानं धारयेन्नित्यं केवलज्ञप्तिविग्रहम् ।।70।।
शांतिमार्ग के लाभ का उपाय – मैं गौर हूं, स्थूल हूं, कृश हूं, वृद्ध हूं, बाल हूं आदिक रूप से शरीर के साथ अपने आत्मा को न जोड़कर सदा अपने आपको केवलज्ञानस्वरूप चित्त में लाना चाहिए । जैसे किसी ने सोचा कि मैं मोटा हूं तो मोटापन शरीर के होता है अथवा आत्मा की चीज है ? शरीर की चीज है । शरीर के इस धर्म को अपने आत्मा में जो जोड़ता है, उसे उसके अनुकूल संकल्पविकल्प में जुतना पड़ता है – ऐसे ही मैं गोरा हूं, मैं सांवला हूं आदिक रूप से जो शरीर के धर्म को अपने आत्मा के साथ जोड़ता है, वह भी संकल्प विकल्प से परेशान होता है । जो शरीर के धर्म को आत्मा के साथ न जोड़े और केवल ज्ञानशरीरमात्र अपने आपको निहारे तो वह शांति के मार्ग में बढ़ सकता है ।
प्राकरणिक भेदविज्ञान – जो जाननहार पदार्थ है, वह मैं पदार्थ हूं । जाननहार पदार्थ में रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं हैं । इस आत्मा में अन्य आत्मावों या अन्य पदार्थों का जोड़ नहीं होता, पूर्ण नहीं होता, इस कारण यह आत्मा न मोटा है, न दुबला है, न सांवला है, न गोरा है । किसी भी प्रकार का रूप, रस, गंध, स्पर्श इस आत्मा में नहीं है । आत्मा का तो केवल एक ज्ञायकस्वरूप है । जो आत्मकल्याण चाहते हैं, ऐसे पुरुषों को चाहिए कि वे इस आत्मा को इस पुद्गलपर्याय में एकमेक न करें और इसे अपने रूप न मानकर अपने को कल्याणस्वरूप समझें । इसी का नाम भेद विज्ञान है । जिन जिन जीवों ने शांति पाई है, वह भेदविज्ञान के उपाय से ही पाई है ।
विकट व्यामोह – अहो, कितना मिथ्या आशय मोही प्राणी का है कि प्रकट भिन्न हैं परपदार्थ, किंतु उनसे ही मोही अपना जीवन समझते हैं । कोई ऐसे भी व्यामूढ़ पुरुष होते होंगे कि जिनके बारे में ऐसी बात भी प्रसिद्ध है कि कोई एक भूखा पुरुष एक रुपया लेकर चला बनिये की दुकान पर कुछ आटा घी आदि लेने । सस्ता जमाना था । तौल दिया खाद्य सामान और जब रुपया देने लगा तो बहुत देर से मुठ्ठी में रुपया लिए रहने के कारण से पसीज गया तो उसने रुपये की ओर देखा कि यह मेरा रुपया रो रहा है, आ गया ना पसीना । अब कहता है कि रोवे मत, मर जई हैं, पर तुम्हें न भजई हैं । सो वह तो आटा, दाल, घी आदि छोड़कर वापिस आ गया । होते होंगे कोई ऐसे लोग ।
मक्खीचूस की उपपत्ति – एक कहावत प्रसिद्ध है कि "कंजूस मक्खी चूस ।" मक्खीचूस का मतलब यह नहीं है कि जो मक्खी चूसा करते हैं, उन्हें मक्खीचूस कहते हैं । एक जौहरी की लड़की थी । वह एक घी बेचने वाले के घर ब्याही गयी । उसका घी का बड़ा भारी काम था । घी वाला भी लखपति आदमी था और वह जौहरी भी वैसा ही लखपति था । एक दिन जौहरी की लड़की ने देखा कि घी में एक मक्खी गिर गई, उसके स्वसुर साहब उसे निकाल रहे हैं । मक्खी के कहीं एक बूंद घी चिपका रह गया, उस एक बूंद घी को स्वसुर साहब उस मक्खी को पकड़े हुए टपका रहे थे । जौहरी की लड़की ने जब यह देखा तो उसके सिर में दर्द हो गया, वह आह भरने लगी । ओह मैं कैसे लखपति जौहरी की लड़की और कैसे मक्खीचूस के घर ब्याही गयी ? उसके सिरदर्द का समाचार स्वसुर साहब के पास पहुंच गया । स्वसुर साहब आए तो देखा कि बहू तो बड़ी बैचेन है । बहुत से डाक्टर आये, पर उसका सिरदर्द न मिटा । जब मन के विचार से कोई वेदना हो जाती है तो वह औषधि से नहीं मिटा करती है। उसका सिरदर्द ठीक न हुआ तो स्वसुर पूछा कि बहू यह तो बतावो कि तुम्हारे सिर का दर्द मिटेगा कैसे ?
बहू बोली कि क्या बतायें ? जब हमारे घर पर सिरदर्द होता था तो मुठ्ठी भर असली मोतियों को पीसकर उसका लेप मस्तक पर लगाया जाता था । स्वसुर साहब बोले कि यह कौन सी बड़ी बात है ? उसने अपने खजांची को हुक्म दिया कि एक लाख रुपये निकालो व इसी समय बढ़िया मोती ले आवो । थोड़ी ही देर में एक लाख के बढ़िया मोती आ गए । सेठ जब उन मोतियों को पीसने लगा तो उसी समय बहू ने रोक दिया और कहा कि बस पिताजी ! मोतियों को अब मत पीसो, हमारा सिरदर्द ठीक हो गया । अरे ठीक कैसे हो गया ? दवा तो करनी ही पड़ेगी । बहू ने कहा कि दर्द मिट गया । दर्द तो हमारे यों हो गया था कि आप एक मक्खी को पकड़े हुए उसमें लगा एक बूंद घी टपका रहे थे । ऐसे मक्खीचूस को देखकर मेरे सिर में दर्द हो गया था और जब देखा कि आप जरा से सिरदर्द में लाखों रुपये के मोती पीसने जा रहे हैं तो दर्द ठीक हो गया । अब स्वसुर साहब बहू से कहते हैं कि बहू ! अभी तुम नहीं जानती हो कि जब कमाया जाता है तो इस तरह कमाया जाता है और जब खर्च किया जाता है तो इस तरह खर्च करते हैं ।
शान का फैलाव – भैया ! कितने तरह के व्यामोह हो जाते हैं । ये सब व्यामोह शरीर की विडंबना के कारण होते हैं । यह मैं हूं, ऐसा मैं हूं, मुझे लोग समझें कि मैं क्या हूं ? जैसे भिखारियों की जमात होती है तो वे परस्पर शान में मारते हैं कि मैं इस कला से भी मांग लाता हूं, इस तरह की रोती हुई शकल दिखा देता हूं कि बड़े बड़े सेठों का दिल भी हिल जाता है और वे भी कुछ न कुछ दे देते हैं । वे भिखारी भी परस्पर में अपनी शान मारते हैं । ऐसे ही ये सब मोहीजीव भी अपनी शान बगराते हैं । मोही कहो, चाहे मूढ़ कहो, चाहे मूर्ख कहो, इनका सबका अर्थ तो एक ही है । ये सब मूढ़जीव या ये सब मूर्ख जीव भी ऐसे ही मूढ़जीवों में ऐसी अपनी शान बगराते हैं ।
लौकिक अलौकिक जिज्ञासा – ये सब मायाजाल है । इनमें प्रीति करने से क्या हित है ? ऐसी बात सुनकर कोई यह शंका कर देगा तो साहब ऐसे ही अपने घर बैठे रहें, न देश का काम करें, न चुनाव लड़ें, न कुछ करें, ऐसे ही बैठे रहें घर में । ये भिन्न भिन्न रुचियां होती हैं । कोई ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने का उपदेश दे और वहां कोई सोचे कि ऐसे ही अगर सब ब्रह्मचारी बन जाएँ तो फिर संसार कैसे चले ? ऐसे भी शंकाकार होते हैं, जिन्हें दुनिया की ज्यादा फिकर पड़ जाती है । अरे बड़ी बड़ी शुद्ध भावनाएँ, बड़े बड़े प्रयत्न कर लेने पर भी कोई बिरला ही धर्म में स्थिर हो पाता है । यह तो संसार है, असार है, ऐसा कैसे हो सकता है कि सब हो जायें ब्रह्मचारी । ऐसा कैसे हो सकता है कि सभी आत्मकल्याण का यत्न कर लें । मान लो कि कदाचित् सब ब्रह्मचारी हो जायें और संसार न रहे, मिट जाए तो भला हुआ या बुरा हुआ ? अरे सब जीव कहां जायेंगे ? मुक्त हो जायेंगे । संसारी न रहे तो क्या हानि है, क्या चिंता है ? चिंता करो आत्मकल्याण के लिए ।
स्वयं की स्वयं से ही रक्षा – भैया ! यह सारा अंधेरा है, मायाजाल है, यहां कुछ भी बात सत्यभूत नहीं है, प्रामाणिक नहीं है । यहां किसे अपना नाम दिखाना चाहते हो ? कौन तुम्हारा यहां परमेश्र्वर है, जिसके हाथ में तुम्हारा भविष्य निर्भर है । अन्य को प्रसन्न करने के लिए, अन्य में अपना नाम प्रतिष्ठित रखने के लिए उद्यम करना, यह हित की बात नहीं है। जैसे भयानक जंगल में जहां सामने तो नदी हो, अगल बगल के पहाड़ों में आग लगी हो, पीछे से 100 शिकारी तलवार, बंदूक, धनुषबाण लिए एक हरिण का पीछा कर रहे हों तो बताओ कि हरिण का उस समय व्यवहार में कोई भी रक्षक है ? कहां जाये वह हरिण ? आगे गया तो नदी में कूदकर मरेगा, अगल बगल गया तो जंगल में जलती हुई आग में जल मरेगा और पीछे मुड़ा या वहीं रहे तो बंदूक की गोलियां सहेगा । क्या करे वह हरिण ? जैसे उस स्थिति में वह हरिण अरक्षित है―ऐसे ही इस लोक में आपका कौन सहाय है ? हम आप सभी यहां असहाय हैं, यहां कोई भी रक्षक नहीं है । अपने परिणाम को निर्मल करो तो रक्षा होगी । परिणामों की निर्मलता तब होगी जब मोह न होगा ।
ज्ञानातिरिक्त अन्य आशयों में अशांति – अपनी शांति चाहते हो तो अपना काम भीतर में बना लो । घर में बसते हुए भी सच्चा प्रकाश अपने उपयोग में लावो । इस अमूर्त आत्मा का एक अणु भी कुछ नहीं है । कोई भी जीव मेरा कुछ नहीं है―ऐसी विशुद्ध एकत्वभावना जगे तो अपना पुरुषार्थ अपने को शरण होगा, अन्यथा बहुत दुर्गतियों में भटकना पड़ेगा । अपना भविष्य अपनी प्रतीति पर निर्भर है । मैं अपने को कैसा मानूं तो क्या गुजरेगा यह अपनी प्रतीति पर निर्भर है । कोई यह प्रतीति रख रहा हो कि मैं बच्चों वाला हूं तो क्या उसे बच्चों की सेवा न करनी पड़ेगी ? करनी पड़ेगी । कोई अपने को मानता हो कि मैं इस नगर में एक पोजीशन वाला हूं तो क्या उसे अपनी पोजीशन रखने के लिए दूसरों के अधीन न होना पड़ेगा? जो सोचता हो कि मैं धनवान हूं तो क्या वह धन की वृद्धि के लिए यत्नशील न रहेगा ? रहेगा । और कोई यह जाने कि यह मैं आत्मा मात्र ज्ञानानंदस्वरूप हूं तो क्या वह इस ज्ञानानंदस्वरूप की उपासना में न लगेगा ? लगेगा । ऐसे ही जो पुरुष अपने को इस रूप समझते हैं कि मैं काला हूं, सावंला हूं, मोटा हूं, दुबला हूं, और इस अभिप्राय पर यह समझता है कि मैं सुखी हूं, दुःखी हूं, गरीब हूं, धनी हूं – ऐसा पुरुष अपने आपमें बसे हुए ज्ञानमय चैतन्यप्रभु का दर्शन नहीं कर सकता है जिसमें अतुल शांति और आनंद भरा हुआ है ।
आत्मा की झलक – जो पुरुष अपने आत्मा को इस शरीर के साथ अभेदरूप नहीं करता है एक नहीं मानता है, वह पुरुष केवल ज्ञानमात्र अपने स्वरूप को निरख सकता है । यह कुछ कठिन नहीं है, दृष्टि जाने की बात है । एक बार राजा घोड़े पर चढ़ा हुआ कहीं जा रहा था । रास्ते में मिला दीवान का घर । वह बड़ी विवेक और ज्ञान की बात करता था । राजा के मन में कुछ ऐसा आया कि मैं इस दीवान से कुछ धर्मचर्चा की बात छेड़ूँ । राजा ने कहा – दीवान जी हमें तुम आत्मा और परमात्मा दिखावो । तो दीवान ने कहा कि आप बैठो एक आध घंटे का समय दो, तब सुन लीजिए । तो राजा बोला कि मुझे आथ घंटे का समय कहां है ? तुम 5 मिनिट में बतला सकते हो तो बतावो । तो दीवान बोला कि हमारा कसूर माफ कर दो तो हम 5 मिनिट में नहीं, एक ही मिनट में तुम्हें आत्मा और परमात्मा बता सकते हैं । राजा बोला, हां माफ । सो दीवान ने क्या किया कि राजा के हाथ से कोड़ा छीना और दो चार कोड़े राजा के जमा दिये । राजा कहता है कि अरे रे रे भगवान् तो दीवान कहता है कि जिससे तुम अरे रे रे कह रहे हो वह तो है आत्मा और जिसे भगवान् कह रहे हो वह है परमात्मा । आया समझ में कछु ? तो राजा बोला हां आ गया समझ में । तो जब दुःख आ पड़ता है तो सब समझ में आ जाता है । आराम में मौज में सुख में रहते हुए विषयों के साधन मिलते हुए में धर्म की बात तनिक देर में समझ में आती है ।
रागियों का संकट में धर्म की ओर ख्याल – भैया यहां धर्म करने की इच्छा ही कहां होती है। संकट हो, कष्ट हो तब धर्म की भावना होती है । बिरले ही ज्ञानी विवेकी पुरुष होते हैं ऐसे जो कि सुख सामाग्री की स्थिति में भी धर्म का बड़ा ध्यान रखते हैं, अन्यथा तो ये सब कष्ट ही समझते हैं अच्छे मार्ग में चलने को । गुरुजी ने एक कथा सुनाई थी कूंजड़ी की । राजा कहीं जा रहा था, बाजार में कहीं कूँजड़ी की लड़की बैठी थी, तो राजा के मन में आया कि इस लड़की के संग शादी करनी चाहिए । राजा ने भेजे दो चार मंत्री अफसर आदि कूँजड़ी के घर । कूँजड़ी से उसकी लड़की के लिए कहा कि राजा शादी करना चाहता है । तो उसने कहा कहां से आये अड़वों के भड़वे । कई गालियां उसने सुनाई । दूसरी बार भी राजा ने सिपाहियों को भेजा तो फिर उसने गालियां सुनाईं । एक बार एक छोटा सिपाही राजा के पास गया, बोला महाराज क्यों चिंता करते हो ? तो राजा ने सारी कहानी सुनाई । सिपाही बोला कि यह कौन सी बड़ी बात है, हम शादी करवायेंगे । सिपाही ने जाकर उस कूँजड़ी को घसीटा पीटा । कूंजड़ी हाथ जोड़कर कहती है कि अरे भड़वे बात तो बताओ । तो सिपाही ने कहा कि तुझे अपनी लड़की की शादी राजा के साथ करनी है । तो वह कूंजड़ी कहती है कि पहिले इस तरह से क्यों किसी भड़वे ने न समझाया तो ये जगत् के जीव लौकिक सुखी होकर भी शांतिसमृद्धि में नहीं है । इनके तो जब कोई संकट सिर पर आता है तभी थोड़ा ख्याल होता है कि धर्म करना चाहिए ।
न मैं को मैं मानने की दुर्बुद्धि – इतना व्यामोह है इस शरीर के साथ मुग्ध प्राणी का कि यह शरीर से भिन्न अपने आपके स्वरूप को समझता ही नहीं है । किसको "मैं" बोल रहा है यह बहिरात्मा पुरुष ? इसे अंतर की दृष्टि तो है ही नहीं । किसको "मैं" कह रहा है यह ? कल्पनाओं की उत्पत्ति का जो स्रोत है उसकी तो खबर नहीं है और जो इसकी प्रतीति में और दृष्टि में आ रहा है उसके कल्पना होती नहीं । तो कौन बोल रहा है कि मैं आया, मैं आऊंगा, यह मैं हूं । कोई आधार नहीं है । सब मायारूप है । शरीर को भी वह मैं नहीं कहता, आत्मा को भी मैं नहीं कहता । शरीर शरीर है, ऐसा जानकर वह मैं नहीं बोल रहा है। इस शरीर को और आत्मा को एकमेक निरखकर फिर वह बोलता है कि यह मैं हूं, यह मैं आया – ऐसा मैं मैं चिल्लाता है । उसका क्या परिणाम है ? कष्ट ही कष्ट है ।
स्वगुप्ति – अरे भैया ! न होते आज हम आप लोग इस मनुष्यभव में तो इस मुझ के लिए यहां के राग रंग ये कुछ भी न थे । अब सुयोगवश यह मनुष्यभव मिला तो इसका ऐसा ही लाभ लूट लो कि मेरे लिए यहां पहिले भी कुछ न था और अब भी कुछ नहीं है । योग्यता पायी है तो अपने में गुप्त रहकर, अपने इस गुप्त स्वरूप की उपासना करके गुप्त ही अपना गुप्त कल्याण कर लें, ऐसी भावना अंतरात्मावों के हुआ करती है । शरीर के धर्म को आत्मा के साथ न जोड़कर केवल ज्ञानस्वरूपमात्र अपने आपको विचारने से ये सब समृद्धियां स्वत: उत्पन्न हो जाती है ।