वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 86
From जैनकोष
अव्रती व्रतमादाय व्रती ज्ञानपरायण: ।परात्मज्ञानसंपन्न: स्वयमेव परं व्रजेत ॥86॥
क्या क्रम रहता है, उस क्रम का इस श्लोक में वर्णन है । यह जीव अनादि से ही अव्रत-भावों में तन्मय चला आ रहा है । अज्ञानी भी है और अव्रती भी है । प्रथम तो सम्यक्त्व बाधक प्रकृतियों का उपशम आदिक प्राप्त करके याने उसका निमित्त पाकर आत्मतत्त्व की यथार्थ श्रद्धा हो, शुद्ध आत्मस्वरूप का अवलोकन हो, इस तरह तो अज्ञान-अंधकार को दूर करे, अज्ञान-अंधकार को दूर करने वाला यह ज्ञानी पुरुष अव्रतभाव का परित्याग करे, अव्रती जीव व्रत का ग्रहण करे और व्रती जीव फिर ज्ञानभावना में लीन होकर व्रत-अवस्था के विकल्पों का त्याग करे । फिर यह ज्ञानपरायण पुरुष केवलज्ञान से संपन्न होता है, और केवलज्ञान से संपन्न होकर फिर सर्वदा सर्वोत्कृष्ट सिद्धपद को प्राप्त करता है ।
विकास के पंच पद और प्रारंभिक विकास का उद्यम – भैया ! पहले सम्यक्त्व होना, फिर व्रत ग्रहण करना, फिर ज्ञानभावना में लीन होना, फिर केवलज्ञान से संपन्न होना, फिर इस मनुष्यभव को पार करके सर्व कर्मों से विमुक्त होकर सिद्ध पद प्राप्त करना, यों इस श्लोक में पंच पदों का संकेत किया गया है । इन पंच पदों की प्राप्ति से पहिले उसकी प्राप्ती के लिए विशेष उद्यमरूप परिणाम होता है । उत्कर्षमार्ग में चलने वाला भी सर्वप्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है तो यहाँ अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण परिणाम की प्राप्ति होती है । ये तीन परिणामों के नाम हैं, गुणस्थानों के नाम नहीं हैं । ये मिथ्यात्व अवस्था में तीन करण होते हैं । जो जीव सातिशय मिथ्यादृष्टि है, अब निकटकाल में ही सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला है उसके अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणाम होते हैं । ये हुए सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए तीन करणरूप परिणाम ।द्वितीय विकासपद का उद्यम – सम्यक्त्व पाने के बाद दूसरा कदम है व्रत ग्रहण करना । व्रतग्रहण के लिये अध:करण और अपूर्वकरण इन दो परिणामों की प्राप्ति होती है । व्रतधारण करने के लिये तीन परिणाम नहीं होते हैं । इससे यह भी अंदाज कर लीजिए कि जिस कार्य के लिए तीन परिणाम होते हैं वह कार्य सदृश होता है, अनिवृत्त होता है, उसमें न्यूनाधिकता स्थानांतररूप से नहीं पायी जाती है । सम्यक्त्व होने में तीन परिणाम हुए, तो सम्यक्त्व में न्यूनाधिकता क्या ? सम्यक्त्व के तीन भेद हैं – उपशमसम्यक्त्व, क्षायोपशमिकसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्व । इसमें उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए तीन करण होते हैं, किंतु क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पाने के लिए दो करण होते हैं । यही कारण है कि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में चल, मलिन, अगाढ़ दोष के कारण कुछ विविधता रहती है । किसी जीव का क्षायोपशमिक सम्यक्त्व किसी से अधिक निर्मल है किसी से कम निर्मल हैं यह विविधतारूप हो सकती है । कोर्इ यहाँ व्रत ग्रहण करे अथवा अणुव्रत ग्रहण करे वहाँ भी दो करणों की आवश्कता है, क्योंकि उन अनेक वृत्तियों में भी व्रतों के पालने में कमीबेशी हुआ करती है ।तृतीय, चतुर्थ और पंचम विकासपद – व्रत ग्रहण करने के बाद अब यह ज्ञानपरायण होता है । जब परम पद्धति से ज्ञानपरायण होता है तो उसी का नाम है श्रेणियों पर चढ़ना । सो इस सप्तम गुणस्थान में अध:करण, अष्टम में अपूर्वकरण और नवम में अनिवृत्तिकरण परिणाम होता है । इन परिणामों के फल में कुछ ही समय बाद क्षीणमोह होकर केवलज्ञानी बन जाता है । यही है परमात्मज्ञान । परमात्मज्ञान से संपन्न होकर अर्ंतबाह्य सर्वथा निर्लेप शुद्ध होने के लिए, सर्वथा अबद्ध होने के लिए सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती वृत्ति चलती है । केवलीसमुद्घात भी इस ही कर्मक्षय के लिए पूरक है । 14वें गुणस्थान में इन कर्मप्रकृतियों का क्षय होकर फिर परमदशा प्राप्त होती है । यों यह जीवन अज्ञान अवस्था से उठकर सिद्ध अवस्था तक पहुँचने के लिए यह क्रम पाता है । इस क्रम का कहीं भंग नहीं होता है । हाँ इतना तो हो जाय, कदाचित् कि सम्यक्त्व और व्रत इन दोनों का एक साथ ग्रहण हो जाय, इसीलिए इस श्लोक में अव्रती शब्द देकर अज्ञान अवस्था का और अव्रतभाव का दोनों का इसमें अंतर्धान कर दिया है ।क्लेशमूल इंद्रजालों से आत्मविमोचन – पूर्व श्लोक में यह कहा गया था कि इस जीव को क्लेशों में जोड़ने का कारण कल्पना-जाल है । यह कल्पनावों से ही अपना क्लेशजाल पूरता है, लोग कहते हैं कि ये सब इंद्रजाल सरीखे मायामय दृश्य हैं । वह इंद्रजाल क्यों कहलाता है ? इंद्र मायने है आत्मा का और जाल का अर्थ है अयथार्थ मायामय विपरिणमन । जब यह आत्मा भ्रम के वश होकर अपनी विडंबनाएँ फैलाता है तो उन सब विडंबनाओं का नाम है इंद्रजाल । कल्पनाजाल, इंद्रजाल, मायाजाल ये सब जीवों के क्लेशों के कारण हैं । उन विकल्पजालों से हटकर निर्विकल्प सिद्ध पद को प्राप्त करें तो उसका यह क्रम है कि अव्रती से तो व्रती बनें और व्रती से फिर ज्ञान-भावना में लीन हो और ज्ञान भावना में लीन होकर केवलज्ञान को प्राप्त करें, और केवलज्ञान से संपन्न होकर सिद्धपद होगा ही ।कल्पनापरिहार से विकास की उद्भूति – इस प्रसंग में अव्रतभाव को भी त्यागें, और व्रत को भी त्यागें यह कहा गया है । सो व्रत को त्यागने का मतलब है उत्कृष्ट ज्ञानभावना में लीन होकर व्रत का भी विकल्प त्यागें । व्रत त्यागने का मतलब कहीं यह नहीं है कि अहिंसाव्रत लिया था तो अहिंसाव्रत को छोड़ दो या सत्य आदिक व्रत लिया था तो सत्य आदि व्रतों को छोड़ दो, किंतु अहिंसा के पालन करने में जो विकल्प चल रहा था, सत्य व्रत के पालन करने में जो विकल्प और प्रवृत्ति चल रही थी उस विकल्प का परित्याग कर दो, यह उसका भाव है । अव्रतभाव 5 होते हैं – हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह । उन पापों में जो अनुरागी हैं ऐसे जीवों को कहते हैं अव्रती । ये जीव प्रकृत्या अनादि से अव्रत परिणाम में अनुरागी होते चले आ रहे हैं । अब ये क्या करें, अव्रत को छोड़ दें, व्रत को ग्रहण कर लें । वहाँ भी यह अर्थ लेना है कि अव्रत संबंधी जो विकल्प कर रहे थे उस विकल्प को त्याग कर दें ।भावात्मक जीव की भावात्मक परिणति – यह जीव भावात्मक है । इसके हाथ पैर आदि कुछ अंग तो हैं नहीं । इसके रूप, रस, आकार, प्रकार तो हैं नहीं । यह किसी से छिड़ता है, न छिदता है, न भिदता है, न जलता है, न डूबता है, न उड़ता है । यह तो एक शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप चैतन्य तत्त्व है । यह भावात्मक है, अपने भाव करता है – चाहे वह कल्पनारूप भाव हो और चाहे ज्ञातादृष्टा रहनेरूप भाव हो । भाव के सिवाय और यह जीव कर क्या सकता है ? अव्रत अवस्था में इस जीव ने अव्रत संबंधी विकल्पों को किया और उन्हीं विकल्पों के कारण इस जीव को पाप का बंध हुआ चूंकि ऐसा कभी हो नहीं सकता कि यह जीव अव्रत संबंधी विकल्प न करे और जीव को सताता रहे, इसी कारण जीवों को मारना-पीटना, सताना इसे बुरा कहा गया है । मर्म वहाँ यह पड़ा हुआ है किसी जीव को मारने पीटने विषयक जो इस जीव के कल्पना जगी है वह कल्पना पाप है, किसी पर वस्तु के परिणमन से पाप नहीं होता । मान लो, किसी की पीठ पर आपने मुक्का घाल दिया तो वहाँ पुद्गल पुद्गल का ही तो संघात हुआ । वहाँ पाप कैसे लगा ? वहाँ पाप यों लगा कि मुक्का मारना जिस आत्मा के भाव का निमित्त पाकर हुआ उस जीव ने अपने में कल्पना मचायी, विकल्प-जाल किया वह विकल्प-जाल पापरूप है सो पाप का बंध हुआ । तो अव्रती जीव अव्रतविषयक कल्पनावों को किया करता है । उन कल्पनावों का परित्याग करना सो अव्रतभाव का परिहार करना कहलाता है ।
हितमार्ग में ज्ञानभाव के आश्रय का प्रसार – अब यहाँ जीव के व्रत की कल्पनाएँ आ गयीं । अब शुभ भाव दया, दान, संयम जीवरक्षा आदि अनेक शुभ भावों के विकल्प आ गये । अब यह जीव आगे का उत्कर्ष पाने के लिए उन व्रत आदिक शुभ विकल्पों का भी परिहार करे और एक शुद्ध ज्ञानभावना में परायण हो । यहाँ यह बात विशेष जानने की है कि ज्ञानस्वभाव की दृष्टि बिना तो मोक्षमार्ग ही नहीं चलता है, व्रत भी नहीं होता है अव्रत का परिहार नहीं कर सकता है, सो उस अव्रतपरिहारोद्यमी ने ज्ञान की झलक पाली है ऐसी स्थिति निकटपूर्व थी अब व्रत धारण करके उसने बहुत से दुर्विकल्पों का अभाव कर डाला । असंयत, अव्रत, अनर्थ विकल्पों का परित्याग किया, अब उसने ऐसा अवसर पाया । अब निज ज्ञानस्वभाव की अधिकाधिक उपासना कर डाली । अब उसे ज्ञानभावना का अवसर प्राप्त हुआ, सो व्रती बनकर व्रत का भी विकल्प तोड़कर केवल शुद्ध ज्ञानभाव की भावना में लीन रहता है । इसमें प्रथम दो शुक्ल ध्यान की अवस्था आती है, फिर ज्ञानपरायण होकर यह जीव स्वयमेव ही परात्म ज्ञान संपन्न होता है ।
शुभविकल्पमय और निर्विकल्प उद्यम – भैया ! जहाँ तक रागभाव था वहाँ तक हित के कार्य में इसकी जान-बूझकर प्रवृत्ति होती थी । अव्रत से व्रत अवस्था में आया और व्रत अवस्था से ज्ञानपरायण होने का उद्यम किया, यहाँ तक तो विकल्प मदद दे रहा था किंतु अब ज्ञानपरायण अवस्था में विकल्प नहीं रहा । अब जो कार्य होगा वह बिना यत्न किए, समझिये स्वयं होगा । ज्ञानपरायण यह जीव परमात्मज्ञान से युक्त होता है इस ज्ञान का नाम है केवलज्ञान । केवलज्ञान का अर्थ है जहाँ केवलज्ञान है; ज्ञान रहे, कोई रागद्वेष आदिक किसी भी तरंग का लेश मात्र भी न रहे, संस्कार भी न रहे । ऐसे परभाव से सर्वथा मुक्त ज्ञानभाव रह गया । जब यह परभाव से मुक्त होता है तो ज्ञान में ऐसा स्वभाव पड़ा है कि वह तीन लोक, तीन काल के समस्त पदार्थों को स्पष्ट जान लेता है । यह हुई इसकी सर्वज्ञ अवस्था । इस अवस्था को हजारों नामों से पुकारा गया है । यह केवलज्ञानी पुरुष स्वयंभू होता है, जो कुछ हुआ वह स्वयं होता है, किसी दूसरे पदार्थ का आश्रय करके नहीं होता है । इसने तो विशुद्ध निजस्वरूप की भावना की, उस ज्ञानभावना के प्रसाद से यह निर्दोष अवस्था प्रकट हुई है ।भेदविज्ञान और ज्ञानविलास – इस ज्ञानभावना की प्राप्ति के लिए भेदविज्ञान की प्रथम आवश्यकता है । मैं समस्त विश्व से न्यारा हूँ, केवल निजस्वरूपमात्र हूँ, निरंतर परिणमता रहता हूँ । मेरा किसी भी अन्य पदार्थ के साथ रंच संबंध नहीं है । मैं अपने आपको ही करता हूँ, किसी पर पदार्थ को नहीं करता हूँ । मैं अपने आपके द्वारा अपने आपका ही परिणमन कराता हूँ, किसी अन्य पदार्थ को मैं प्रेरणा नहीं दिया करता हूँ । मैं हूँ ज्ञानस्वरूप और साथ ही परिणमनशील । यह परिणमता रहता है ज्ञानभावरूप से और उसी ज्ञान का स्वभाव जानन का है, सो उसी परिणमन को जान भी रहा है । परिणमना और जानना ये दोनों एक साथ इस आत्मपदार्थ में ही हो सकते हैं । इसी कारण इस आत्मा का नाम समय कहा गया है । यद्यपि समय शब्द सभी द्रव्यों का स्वरूप बताने के लिए भी है । जो अपने आपके एकत्वरूप में रहकर परिणमन को प्राप्त किया करे उसे समय कहते हैं । सम् उपसर्ग है और अय धातु है । सभी पदार्थ अपने आपके एकत्व स्वरूप में रहकर परिणमते रहते हैं । यह आत्मपदार्थ भी अपने स्वरूप में एकत्वरूप से रहकर निरंतर परिणमता रहता है । यों तो समय शब्द के पहिले अर्थ में सभी द्रव्यों का समानरूप से ग्रहण है, पर दूसरा अर्थ सम् याने परिणमन के साथ ही साथ जो अपने को जानता है उसको समय कहते हैं ।समय की स्वसमयता – यह आत्मा निरंतर परिणमता रहता है और इस ही को अभेदरूप से वर्तकर जानता रहता है । वहाँ परिणमन और जानना इन दोनों का कैसे भेद किया जाय ? जो कुछ होना है सो हो रहा है । उसको परखनेवाला ज्ञानी जीव सम्यक्त्व को प्रकट करता है । सो यह पुरुष पहिले अव्रत के विकल्पों का परित्याग करके व्रतभाव को ग्रहण करे, फिर व्रत संबंधी विकल्पों का भी परिहार करके ज्ञानभावना में परायण हो और फिर उस शुद्ध ज्ञान की अभेद उपासना के प्रसाद से स्वयं ही केवलज्ञान होगा और केवलज्ञानसंपन्नता के बाद स्वयं ही यह सिद्ध पद को प्राप्त करेगा यों यह जीव अज्ञान-अंधकार से उठकर इस विधि से उत्कर्ष करता हुआ परमोत्कृष्ट शुद्ध सिद्धपद को प्राप्त करता है ।