वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 87
From जैनकोष
लिंगं देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भव: ।न मुच्यंते भवात्तस्मात्ते ये लिंगकृताग्राहा: ॥87॥
लिंग के आग्रह में मुक्ति का अभाव – जैसे अव्रत और व्रतभाव में जिनका विकल्प लगा हुआ था उनको मोक्ष का मार्ग नहीं मिला; उन विकल्पों से मोक्ष नहीं मिल सका, इसी प्रकार जो देहाश्रित लिंग हैं, भेष हैं उनमें जिनका आग्रह लगा हुआ है, विकल्प लगा हुआ है उनको भी संसार से मुक्ति नहीं होती है । जैसे साधुओं के भेष लोक में देखे जाते हैं, कोई जटा धारण कर लेता है कोई शरीर में भस्म रमाता है तो कोई नग्न भेष रखता है । कोई भी भेष हो, चाहे जटा वाला हो चाहे भस्म वाला हो और चाहे नग्न रूप हो, आखिर हैं तो ये सब देह के आश्रय । और, देह ही संसार है; देह के आश्रित ही ये चिह्न हैं, चिह्नों के नाते से मुक्ति का मार्ग न मिलेगा । यह बात दूसरी है कि जिन जीवों को मोक्ष का मार्ग मिलता है उनके ज्ञान और वैराग्य इतना प्रबल होता है कि उन्हें बाह्य परिग्रह से कुछ प्रयोजन नहीं, अतएव वे सब परिग्रह छूट जाते हैं । जब सब परिग्रह छूट गए तो नग्नरूप तो स्वयं ही बन जाता है, ठीक है, पर जो साधु नग्नरूप रखकर मैं साधु हूँ, इससे मुझे मुक्ति मिलेगी उस नग्नरूप भेष में विकल्प बनाए रहे तो भी मोक्ष नहीं होता है ।विकल्पों के आग्रह में सम्यक्त्व का भी अभाव – जो केवल बाह्य भेष को ही मोक्ष का कारण मानता है वह मिथ्यादृष्टि है, देहात्मदृष्टि है, उसे मुक्ति नहीं प्राप्त होती है । भैया ! अपने आपके मिलन में कितनी बीच में अटकें हैं, कोई इस भेष को ही मान ले कि मुक्ति मिलेगी, मैं साधु बन गया हूँ, मुझे तपस्या करना चाहिए, आदि विकल्प बनाए तो उसने तो यथार्थ ‘मैं’ को जाना ही नहीं । उसे विकल्प से मुक्ति नहीं होती है, जो जीव व्रत और तप को धारण करके मैं अहिंसा महाव्रत पालता हूँ, मैं शुद्ध अचौर्य आदि महाव्रत पालता हूँ, मैं ठीक समितिपूर्वक रहूँगा, साधु को तेरह प्रकार के चारित्र पालने चाहिए, मैं उनका पालन कर रहा हूँ यों सोचे उसको तो अभी सम्यक्त्व ही नहीं जगा है । भैया ! कितने मर्म की बात है । वही काम सम्यग्दृष्टि करता है तो उसे सफलता मिल जाती है और बाह्य में वही काम अज्ञानी मिथ्यादृष्टि करता है तो उसे सफलता नहीं मिलती है ।अज्ञानी द्वारा की हुई बाह्य नकल से अलाभ पर एक दृष्टांत – कोई चतुर व्यापारी व्यापार के काम से किसी धान के मिल पर गया । उसके साथ एक गरीब बेवकूफ भी लग गया कि देखें सेठजी क्या करते हैं । जो सेठ जी करेंगे सो ही हम करेंगे तो हमारे भी लक्ष्मी आयगी । व्यापारी ने क्या किया कि 10-20 गाड़ी धान खरीदा । वह देख रहा है कि यह क्या खरीद रहा है । रूप, रंग, आकार सब समझ लिया । व्यापारी खरीदकर आ गया । अब यह दो चार दिन बाद इधर-उधर से रुपये उधार लेकर उसी मिल पर गया । तो आज कल तो ऐसे बड़े मिल चल गए हैं चावल निकालने के, कि छिलका में से चावल निकल आता है और छिलका ज्यों का त्यों दिखता रहता है । एक तरफ से ऐसा चावल निकल आता है कि छिलका वैसा का वैसा ही बना रहता है । चावल निकलने के बाद उसका छिद्र बंद हो जाता है । देखा कि गाड़ियों में वही चीज पड़ी हुई हैं । मिलवाले से पूछ कि यह चीज हम 10 गाड़ी खरीदना चाहते हैं, क्या भाव दोगे ? इतनी बात सुनकर मिल व्यवस्थापक की समझ में आ गया कि आज भगवान ने किसी बेवकूफ को भेजा है, सो मनमाना भाव बोलकर उसे बेच दिया । जब उसे खरीदकर वह बाजार में बेचने ले गया तो किसी ने न पूछा । लो, उस की सारी रकम चली गयी । तो चतुर आदमी की नकल बेवकूफ, पुण्यहीन करता है तो क्या उसे सफलता मिलती है ?
अज्ञानी द्वारा की हुई ज्ञानी की वृत्ति की बाह्य नकल में लाभ का अलाभ – विवेकी व्यापारी की तरह बड़े पुरुष ज्ञानी संत, मोक्षमार्गी साधुजन क्या करते हैं उनकी क्रियावों को देखकर कोई रसोईया, बैल हाँकने वाला, पानी भरने वाला किसी कारण से देखकर सोचे कि जो यह करता है सो हमें करना चाहिये । इस विधि से हम दु:खों से छूट जायेंगे । और कर ले वही काम, मुनि बनकर, नग्न रूप रखकर अपने में अहंकार रखकर कि मैं साधु हूँ, अब मुझे साधुव्रत मिला है, अब चर्या को इस तरह उठाना चाहिए, इतनी निगाह रखना चाहिये, और जो लिखा भी न हो वह भी बढ़ावा करे तो कितना ही वह इस व्रत से रहे, पर अंतरंग में तो अभी सम्यक्त्व भी नहीं जगा है । यह लिंग मायने यह भेष, यह चिह्न तो देह के आश्रित है उस चिह्न से, उस भेष से ही मोक्षमार्ग माने तो इसका यह अर्थ हुआ कि इस शरीर को ही मोक्षमार्ग मान लिया । जो भेष में आग्रह बनाता है वह पुरुष भी संसार से मुक्त नहीं हो सकता है । इस भेष का आधार देह है और देह ही इस आत्मा का संसार है । देह का अभाव हो तो संसार नहीं है । जब तक देह है तब तक संसार है । तो देह संबंधी इन विकल्पों को करता हुआ यह शांति चाहे, मुक्ति चाहे तो कहाँ से मिल सकती है ?
समस्त एबों का मूल देह का लगाव – भैया, सारे ऐबों की जड़ इस देह का लगाव है । कोई गाली सुना गया तो बुरा क्यों लग गया ? इस देह का लगाव है, इस कारण ये विकल्प उठ रहे हैं, इसने मुझे यो क्यों कह दिया ? अब उन विकल्पों के कारण सब बात अपने ऊपर घटाता और दुःखी होता है, देह में लगाव है तब तो स्त्री, पुत्र, घर, संपदा इनको यों मानता है कि ये मेरे हैं । देहरहित अमूर्त आत्मतत्त्व को माने कि यह मैं हूँ तो वह यह नहीं श्रद्धा कर सकता है कि ये पुत्री, स्त्री मेरे हैं, जिसने अपने अंतर में स्थित ‘मैं’ को पहिचाना है उसको बाह्य में ममता नहीं जग सकती है । सारे क्लेशों का मूल कारण इस देह में आत्मबुद्धि है । लोग शांति के लिए रात-दिन अथक प्रयत्न करते हैं । इतना काम कर लें, पर शांति नहीं मिल पाती है । विपरिणति में शांति की भी कुछ पद्धति नहीं है, कैसे शांति मिले ।वैभव विभाव के परिहार से ही महत्त्व -―कल्पना करो कि जितना आपके पास धन हो उससे दुगुना तिगुना चौगुना हो जाय तो कौन सी बड़ी विशेषता अंत में प्राप्त हो जायगी । आज थोड़ा विकल्प है, थोड़ा धन होने से थोड़ी फिकर है, रक्षा आसानी से होती है । धन अधिक हो गया तो विकल्प और अधिक बढ़ गए । कौन-सा लाभ पाया ? अरे ! हिम्मत करके इस धन-संपदा को पुण्य पर निर्भर कर दो, इस लक्ष्मी की अटकी हो तो मेरे घर आये, न अटकी हो तो न आये । हम पुराणों में बड़े आदर्श चरित्र सुनते हैं, अमुक महापुरुष ने ऐसे संकट भोगे । जिसने संकट भोगा उनका ही तो चरित्र पुराणों में लिखा है कि भोगविषय-साधनों में जो जीवनभर लिप्त रहे, उन्हीं साधनों में मर गए उनका भी चरित्र कहीं आदरणीय हुआ है ? कहीं नहीं लिखा है । अगर लिखा भी है किन्हीं मलिन पापी पुरुषों का चरित्र पुराणों में, जिनने अन्याय किया अथवा जीवन-भर विषय-साधनों में रहे तो किसी विशिष्ट पुरुष के पुण्यचरित्र का मुकाबला दिखाने के लिए लिखा है, उसके लिये नहीं लिखा है, अथवा ऐसा खोटा चरित्र होकर भी फिर अपने जीवन में कभी सुधर गया तो उसका चरित्र लिखा गया है ।वैभव के लगाव से शांति का अभाव – भैया ! क्या होता है संपदा से ? जितना यत्न करके दूसरों से आशा करने में समय गँवाते हैं, धन-संपदा की रक्षा चिंता और स्वयं में समय गँवाते हैं उसका कुछ भी अंश यदि ज्ञानाभ्यास में, आत्मस्वरूप की निगाह में बनाने में, ध्यान में, चिंतन में, सत्संग में बिताया जाय तो उससे शांति मिल सकेगी । शांति संपदावों से नहीं मिलती है । आखिर संपदा छोड़ तो सभी जायेंगे, आगे की भी शांति का अवसर नहीं रहा और वर्तमान में भी कुछ वैराग्य न होने से, तृष्णा की बुद्धि होने से शांति नहीं मिली तो यह मानव-जीवन किस लिये पाया गया है । सब एबों का मूल इस शरीर में आत्मबुद्धि करना है । जो जीव इस देह में आग्रही है, इस देह के भेष में आग्रही है, जिसने इस भेष को ही मुक्ति का कारण माना है, जो संसार को अपनाए हुए हैं वह मुक्ति नहीं पा सकता है, फिर तो बतावो जो विषय-भोगों के आग्रही हैं, जो परिग्रह, तृष्णा के आग्रही हैं, धन बढ़े तो उसी में ही जो अपना बड़प्पन समझते हैं उनकी क्या गति होगी, वे संसार से क्या सुलटने लायक हैं ? जड़ ही जड़ उपयोग में बसाये हुए हैं, चैतन्य तो बसा ही नहीं है ।स्वप्न के क्लेश – अहो ! मोह-नींद का कितना विकट स्वप्न है । जैसे स्वप्न में किसी ने कोई दुःख भरी घटना देखी तो वह तो दुःखी ही है । उसके दुःख को दूसरा कौन मेट सकता है । जैसे मान लो आप अपने अच्छे कमरे में, हाल में पड़े हुए हैं, जहाँ गद्दी तवकी अच्छी बिछि हुई है, जाड़े के दिन हैं, अच्छे किवाड़ भी लगे हैं, बिजली से गरम किया हुआ है । बड़े आराम से सोये हुए हैं , रंच भी कष्ट नहीं है । और कदाचित् स्वप्न आ जाय आपको चलो जी सैर करने चलें, एक समुद्र की सैर करें, बांबे चलें और आपके घर के सभी लोग आग्रह करें कि हमें भी बंबई दिखलावो । लो, सब घर बांबे पहुँच गया, घर के द्वार पर खूब मजबूत ताले लगा दिये, समुद्र की सैर करने चले स्वप्न की बात सुना रहे हैं । आप पड़े हैं अपने हाल में फिर स्वप्न ऐसा आ जाय कि सपरिवार आप समुद्र की शैर करने गये । नाव में बैठ गए, एक मील तक जहाज अच्छी तरह गया । किंतु अब वहाँ बड़ी भँवर उठ गयी । जहाज उसमें चक्कर खाने लगा । डूबने वाला हो तो आप गिड़गिड़ा रहे हैं उस नाव खेने वाले से । अरे भाई ! किसी तरह से बचा दो, तुम्हें 5हजार देंगे, 10हजार देंगे । वह कहता है कि मालिक तुम तो दयालु हो, यह जहाज नहीं बच सकता है, यह डूबेगा, हमें छुट्टी दो, हम तो छलांग मारकर तैरकर पार हो जायेंगे ।स्वप्न के क्लेश मिटने का उपाय – देखो भैया ! पड़े हैं आप अपने अच्छे हाल में और स्वप्न आ रहा है ऐसा बुरा । अरे ! मैं भी मरा, मेरा परिवार भी गया, ऐसा सोचकर वह कितना दुःखी हो रहा है । अरे ! जिसका सर्वस्व डूब रहा हो उसके दुःख का क्या ठिकाना ? अब आपके इस दुःख को कौन मेटे ? नौकर-चाकर भी फिर रहे हैं, दोस्त भी बैठे हुए हैं कि सेठ जी जगें तो दो चार गप्पें हों, चित्त प्रसन्न करें, सारे वहाँ साधन हैं, पर सेठजी का तो हाल बुरा है । स्वप्न में वह ऐसा दब गया है कि महा संकट उस पर छाया हुआ है । उस दुःख को दूसरा कौन मेटे । उस दुःख के मिटने का केवल एक ही उपाय है कि उसकी नींद खुल जाय । लो, सारे दुःख मिट गये । उस नींद में पड़ा हुआ जो स्वप्न दिख रहा है उसका ही तो यह सारा क्लेश था । नींद मिटी, देखा कि हम तो बड़े अच्छे हाल में पड़े हैं, बड़े ढंग से हैं, सारी अपनी संपदा को देख रहे हैं, सारा दुःख मिट गया ।
मोहनींद के विकल्प स्वप्न के क्लेश और उसके मिटने का उपाय – भैया ! जैसे नींद में स्वप्न आया उसमें क्लेश हुआ तो उस दुःख को मिटाने में समर्थ निद्रा का भंग है, इसी प्रकार मोह की कल्पना में जो ये सारे क्लेश व्यर्थ के आ गए हैं – मेरा तो मेरा यह तन भी नहीं है अन्य कुछ तो क्या होगा मेरा फिर भी बाह्य पदार्थों में यह कल्पना बसायी है मेरी संपदा है, मेरा परिवार है, मेरे मित्र हैं, मेरी इज्जत है । ये स्वप्न देखे जा रहे हैं, मैं–मैं, मेरा-मेरा कर रहे हैं और ये पर पदार्थ हम आपकी इच्छा के अनुकूल परिणमन कर नहीं सकते, वहाँ तो जो होगा सो होगा । अब उन्हीं कल्पनावों के सहारे ये चिंताएँ उत्पन्न हो गयी हैं – हाय ! ये मेरा कोई कहना नहीं मानते, ये सब प्रतिकूल हो गए यों दुःखी होते रहते हैं । इस दुःख को कौन दूसरा मेटे ? इस दुःख को मेटने का उपाय केवल एक ही है, यह मोह की निद्रा टूट जाय; वस्तु का यथार्थ ज्ञान हो जाय, प्रत्येक पदार्थ की जो स्वतंत्रता है वह ज्ञात हो जाय । किसी पदार्थ का किसी पदार्थ में कोई प्रवेश नहीं है, अत्यंताभाव है निमित्तनैमित्तिकभाव में भी निमित्तभूत अर्थ बाहर बाहर ही रहता है, भीतर इसका प्रवेश नहीं है । इतनी आजादी ध्यान में आये तो ममता टूटे, अहंकार मिटे; तब वहाँ इस जीव को शांति का मार्ग मिल सकता है ।
बाह्य निमित्त पोजीशनों में भी अज्ञान का साम्य – अज्ञान के नाते से सब अज्ञानी समान हैं । एक गृहस्थ अज्ञानी है जो धन संचय में, पोजीशन बनाने में, इज्जत रखने में अपनी धुन बनाये हुए हैं और एक नग्नभेषी, जटावाला भस्मभेषी या अन्य कोई प्रकार के स्वरूप का अज्ञानी हो तो यह अपनी कल्पना किए हुये चारित्र में धुन लगाये हुये हैं । मुझे यों करना है । तो यह भी देहात्मदृष्टि बनकर अज्ञानी ही रहा । कर्मों की निर्जरा शरीर की क्रियायें निरखकर नहीं होती । वहाँ तो उस प्रकार का परिणाम आत्मा का होना चाहिये जिसका निमित्त पाकर कर्मनिर्जरा हुआ करती है । ये भेष के आग्रही पुरुष भी देह में आग्रही हैं, संसार के आग्रही हैं, इनको भी संसार से मुक्ति प्राप्त नहीं होती है ।
देहलिंग के आग्रह के परिहार का अनुरोध – भैया ! जैसे व्रत-पालन के विकल्प होते संते मोक्ष नहीं मिलता है ऐसे ही इस शरीर के भेष के रखने में भी मोक्ष नहीं मिलता है । व्रत का विकल्प तो शुभ भाव भी है वह तो कुछ लाभकारी भी है, पर देह का भेष बनाकर यह मैं साधु हूँ, यों देहाश्रित वृत्ति करके उसमें मग्न रहा करे तो वहाँ तो भाव भी शुद्ध नहीं रह पाता है । भीतर अज्ञानभाव है इस कारण इस लिंग के आग्रह को भी छोड़कर ज्ञानमात्र अपना दर्शन करे । यह आत्मदर्शन ही दृढ़ होकर मोक्ष का साक्षात् कारण होता है ।