वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 91
From जैनकोष
अनंतरज्ञ: संधत्ते दृष्टिं पंगोर्यथांधके ।संयोगादृष्टिमङे्ऽपि संधत्ते तद्वदात्मन: ॥91॥
अविवेकी पुरुषों का आरोप – जो अंतर नहीं जानता है ऐसा पुरुष जैसे संयोग के कारण लंगड़े की दृष्टि में अंधे को आरोपित करता है वैसे ही आत्मा और देह में अंतर को न जाननेवाला आत्मा की दृष्टि को शरीर में आरोपित करता है । कोई लंगड़ा और अंधा पुरुष जलते हुए जंगल के बीच हो तो लंगड़ा तो देखता हुआ भी उस आग से नहीं बच सकता और अंधा चलने की सामर्थ्य रखता हुआ भी आग से नहीं बच सकता । यदि लंगड़ा अंधे के कंधे पर बैठ जाय और वह दिशा बताता जाय और अंधा चलता जाय तो दे दोनों बच सकते हैं इस तरह का कहीं अंधे और लंगड़े का व्यापार चल रहा हो तो लोग उसे देखकर जो अंतर नहीं जानते वे सीधा यों समझ बैठते हैं कि देखो यह पुरुष सावधानी से चला जा रहा है । दृष्टि तो है लंगड़े की और अंधे में लोग आरोपित करते हैं, इस ही प्रकार यह जो जंगम जगत् है यहाँ दृष्टि तो है आत्मा की और लोग शरीर में लगाये फिरते हैं ।अज्ञानियों के माया में यथार्थता का प्रत्यय – अज्ञानी प्राणी समझते हैं कि यह शरीर ही देखता जानता है, इतना ही नहीं किंतु यद्वा-तद्वा क्रियात्मक जानकर, क्या है कुछ निर्णय न करके इस दृश्यमान शरीर को ही लक्ष्य में लेकर अनंतरज्ञ मूढ़ प्राणी जानता है ‘यह देखता है’ इस प्रकार का व्यवहार करता है, दूर से अपरिचित आदमी कोई देखे उस अंधे और लंगड़े के साझे के कार्य को तो वह यों ही जानता है कि देखो, यह अंधा कैसा जल्दी सावधानी से साफ-साफ जा रहा है, ऐसे ही जो व्यामोही पुरुष हैं वे ही इस त्रस और स्थावररूप पयार्य को निरखकर ‘यों ही सब जन्मते हैं मरते हैं, खाते हैं, वासना बनाया करते हैं’ यों समझता है, पर जो अंतर जाननेवाला ज्ञानी है वह जैसे वहाँ यह स्पष्ट जान रहा है कि देखनेवाला तो यह लंगड़ा है और उस लंगड़े की प्रेरणा को पाकर लंगड़े की बताये हुये दिशा का आश्रय पाकर यह अंधा चला जाता है । इसी तरह इन पर्यायों में भी देखने-जाननेवाला तो जीव है और उस जीव की प्रेरणा पाकर यह शरीर चलता है, बैठता है, अनेक काम करता है ।विपर्यासबुद्धि का कारण – इस श्लोक में यह बात बतायी गयी है कि मोही जीवों को इस शरीर में ज्ञाता दृष्टापन जैसा विपर्यास यों हो जाता है कि यथार्थस्वरूप का बोध न होने से उन्हें भेदविज्ञान नहीं हुआ । इस शरीर का और आत्मा का वर्तमान में भी एकक्षेत्रावगाह संबंध है, जहाँ-जहाँ शरीर के अंग हैं उस-उस क्षेत्र में यह आत्मा भी है; एक तो यह कारण हुआ विपर्यास के लिये, दूसरा यह कारण है कि जीव तो अमूर्तिक है दिखने में आने वाला यह शरीर है, शरीर और शरीर की चेष्टाएँ दिख रही हैं इस कारण ऐसे ही सीधा भ्रम हो जाता है कि यह ही सब चलता, उठता, बैठता है, जानता समझता है ।अजंगम की जंगमनेयता – जैसे अजंगम मोटर जंगम के द्वारा चलायी जाती है इसी प्रकार यह अजंगम शरीर आत्मा के द्वारा चलाया जा रहा है । यदि अंदर से इच्छा का, ज्ञान का कोई प्रभाव न हो तो शरीर चल नहीं सकता, जैसे कि मुर्दा शरीर नहीं चलता है जैसा है तैसा ही अवस्थित रहता है । इन क्रियावों में ऐसा भेद कर सके, कोई डाल सके तो वह सही-सही अंतर को जाननेवाला है ।
पदार्थों में स्वकीय भावक्रियात्मकता – जितने भी पदार्थ हैं, सब में भाववती शक्ति होती है । पदार्थ 6 जाति के हैं जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । छहों प्रकार के पदार्थों में भाववती शक्ति है अर्थात् प्रत्येक पदार्थ भाववान् है, केवल जीव और पुद्गल इन दो पदार्थों में क्रियावती शक्ति भी होती है । तो एक जगह से दूसरी जगह चल सके ऐसी बात एक जीव और पुद्गल में मिलेगी । यह शरीर भी चलने में सामर्थ्य रखता है, यद्यपि है अचेतन फिर भी जो स्वयं चलने की सामर्थ्य न रक्खे उसे दूसरा कोई कितनी ही प्रेरणा दे वह चल नहीं सकता । जो स्वयं कुछ सामर्थ्य नहीं रखता उस पर कितने ही निमित्त आ जुटें क्रिया नहीं हो सकती । जिस अनाज में, वनस्पति में पकने की ताकत है वह अग्नि का, गरम जल का संयोग होता है तो पक जाता है, जो चीज नहीं पकने वाली है उसे कितना ही पकाओ, कितना ही आग और पानी का निमित्त जुटाओ पर वह नहीं पक सकती है । ऐसे ही इस पुद्गल में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाने की सामर्थ्य है । स्कंधों में कम चलने की सामर्थ्य है और जितना हल्का परमाणु, स्कंध होता जायगा तो उसमें अद्भुत गति होती जायेगी । एक परमाणु एक समय में 14 राजू गमन कर सकता है यह पुद्गल में स्वयं सामर्थ्य पड़ी हुई है सो इस शरीर-स्कंध में भी चलने की सामर्थ्य है, अब निमित्त जुटा है, जीव का संयोग, जीव की इच्छा जीव का ज्ञान । तो जैसी यह इच्छा और ज्ञान करता है उस प्रकार से इस शरीर का भी चलना-उठना हुआ करता है । भैया ! यद्यपि जीव व पुद्गल दोनों में क्रियावती शक्ति है फिर भी वहाँ यह अंतर डाल सकना कि यह जीव की क्रिया है और यह पुद्गल की क्रिया है । यह भेदविज्ञान से ही हो सकता है ।
मोही जीव की पर में अपनायत – मोह का एक कारण यह भी है कि स्वरूप का अपरिचय होने से हम यहाँ यह अंतर नहीं डाल सकते हैं और इसी कारण जो मैं नहीं हूँ उसे मैं मान बैठता हूँ । यह शरीर मैं नहीं हूँ पर अंतर न मालूम होने से यह मैं हूँ ऐसा इसको विश्वास रहता है । जैसे लोग कहते हैं कि मेरी बात नहीं रही, इनकी बात रह गयी । भला उस बात का स्वरूप तो बतावो जो बात रह गयी । आपकी कल्पना की हठ रह गयी इसी के मायने बात रह गयी । यह मोही जीव इस बात को भी अपनाता है । मेरी बात नहीं रही तो मैं जिंदा ही कैसे रह सकता हूँ । बात को भी यह मानता है कि यह मैं हूँ । बात मायने रागद्वेष-विकल्प कल्पना; वितर्क विचार । यह भी परमार्थत: मैं नहीं हूँ । जो मैं नहीं हूँ उसे मान लेना यह अंतरज्ञान का प्रताप है अर्थात् भेदविज्ञान न होने से वह ऐसा समझता है और इसी के कारण सारे क्लेश हैं ।तत्त्व ज्ञान और देह का परस्पर विरोध – जीव को क्लेश क्या है ? यह स्वयं ज्ञानस्वरूप है, आनंदमय है, कहाँ इसमें कष्ट पड़ा हुआ है, पर अपने स्वरूप का प्रतिबोध न होने से बाह्य पदार्थों में इसका सुख के लिये आकर्षण हुआ, वे रहते हैं नहीं अपने मनमाफिक तो हम उनकी विरुद्ध परिणति निरखकर अंतर में दुःखी रहा करते हैं । यों यह जीव आत्मा की दृष्टि को शरीर में लगाये फिरता है और इसी कारण इसको इस शरीर के साधनों से प्रीति हो गयी है । शरीर के साधन हैं विषय भोग, उनमें इसे अनुराग हो गया है, और जो शरीर के साधन नहीं हैं, उनसे द्वेष हो गया है । शरीर के दुश्मन हैं ज्ञान और वैराग्य । ज्ञान और वैराग्य हों तो शरीर का मूल से निकट भविष्य में नाश हो जाता है । मानते हैं अपने को शरीररूप और इस शरीर का दुश्मन है तत्त्वज्ञान और वैराग्य । सो जो शरीर का व्यामोही है उसे ज्ञान से अरुचि होती है । ज्ञान की उपेक्षा करना, ज्ञान में घबराहट होना यह तो प्राकृतिक ही बात है । अत: जो शरीर के साधन हैं; खाना-पीना और कल्पित सुख के साधन, पंचेंद्रिय के विषय व मन का विषय उनमें उसकी प्रीति उत्पन्न होती है ।
मैं मैं का व्यामोह – जैसे यथार्थ बात से अपरिचित पुरुष लंगड़े की दृष्टि को अंधे में लगाता है ऐसे ही यथार्थ मर्म से अपरिचित पुरुष, व्यामोही जीव इस आत्मा की सारी क्रियावों को शरीर में लगाता है । कोई सभा सोसाइटी में या किसी अन्य अवसर में जब किसी को दिलासा देना होती है तो अपनी छाती ठोककर कहता है कि जब तक मैं हूँ तुम्हें क्या फिकर है । घबराओ नहीं, यह मैं आया । यह किसको मैं बोलता है ? आत्मा यदि कुछ विचारेगा तो आत्मा के लिये विचारेगा । अपनी-अपनी बिरादरी में रहना सभी पसंद करते हैं, पक्षी-पक्षी अपनी बिरादरी के पक्षियों में बैठेंगे । आत्मा का जो कुछ चिंतन होगा वह आत्मा के बारे में होगा सो भी वहाँ यह परआत्मा है और मैं उसका विचार करूँ ऐसा नहीं है, किंतु आत्मस्वरूप में ऐसा विचार रखेगा जिससे स्व और पर का कोई लक्ष्य न हो । यह अज्ञानी जीव छाती ठोककर मैं मैं जिसे कहता है वह कहता है इस दृश्यमान शरीर को लक्ष्य में लेकर और, जिस दूसरों को बचाने का भाव करता है वह दूसरा भी शरीररूप ही इसके लक्ष्य में है क्योंकि शरीर का और जीव का इसने कुछ अंतर नहीं समझा ।ज्ञान ज्ञेय में मिश्रण का अविवेक – भैया ! पर के आकर्षण में काम तो चूंकि जीव का बिल्कुल बनेगा नहीं और ज्ञेय में है उसका राग, तो ज्ञेय सो ज्ञान, दोनों में मिला कर यह करता है काम किंतु ज्ञान की दृष्टि को तो बिल्कुल छोड़ देता है यह अज्ञानी जीव और ज्ञेय की दृष्टि ही प्रमुख रखता है । मोही पुरुष किसी बाह्य वस्तु को जान रहा है तो उसमें क्या केवल बाह्य वस्तु की ही कला है ? यह ज्ञान यदि बाह्य ज्ञेय को विषय न करे तो क्या यह जानन हो जायगा । यह मोही का जो जानन बन रहा है वह ज्ञान बन रहा है, वह ज्ञान और ज्ञेय का मिश्रणरूप हो रहा है, क्योंकि उस उपयोग में तो ज्ञेय बसा है और जान रहा है यह उपयोग ही । पर व्यामोही पुरुष उस जानन के संबंध में साझेदारी तक भी नहीं मान सकता कि इससे मुझ ज्ञान का भी ज्ञान है, और ये ज्ञेय विषय हैं क्योंकि केवल ज्ञेय को प्रमुखता दी है इसने ।मिश्रण पर हस्ती का दृष्टांत – यह व्यामोही पुरुष एक हस्ती की तरह विवेक नहीं कर पाता । जैसे हाथी के आगे हलुवा और घास दोनों रख दो तो उसकी ऐसी वृत्ति न होगी कि इस समय थोड़ा हलुवा का ही स्वाद ले ले, घास छोड़ दे । वह हलुवा और घास दोनों को एक साथ लपेट कर खा जाता है । जैसे वह कुछ भी विवेक नहीं कर सकता है यों ही यह मत्त प्राणी ज्ञान और ज्ञेय में विवेक नहीं कर पाता है, मिश्रित स्वाद लिया करता है । यों आत्मा और शरीर के भेद को ठीक-ठीक न समझनेवाला मोही प्राणी इस प्रकार भ्रम का शिकार हो रहा है ।
भ्रम का विकट संकट – इस जीव पर भ्रम का विकट संकट है । आपके लिए जैसे हम हैं तैसे ही आपके घर में बसे हुए लोग हैं । कुछ भी तो अंतर नहीं है । हम आपसे उतने ही भिन्न हैं जितने भिन्न आपके घर के लोग हैं । स्वरूप का किला सबका दृढ़ बना हुआ है । किसी के स्वरूप में किसी अन्य का प्रवेश नहीं है । मोह कर-करके मोही जन प्राप्त क्या कर लेते हैं ? कुछ विवरण करके तो बतावो । उस कुटुंब से क्या सुख पा लेते हैं, क्या शांति संतोष अथवा ज्ञान पा लेते हैं ? क्या पाते हैं सो विवरण करके तो दिखावो ? अरे ! जब यह मोही कुटुंब से मोह कर सकता है ? आत्मा को विषय बनाकर अपने आपकी दृष्टि भ्रम में पाड़कर मोहरूप परिणामों से रंगा करता है । वह कुटुंबियों से मोह नहीं करता है । वह तो अपने आपमें ही कल्पना बनाकर गुनगुनाहट करके एक मोह का रंग-रँगीला बनाते जाता है, दूसरों पर क्या कर सकता है ? जब यह दूसरों में मोह कर ही नहीं सकता है, प्रेम ही नहीं कर सकता है तो दूसरों से इसे मिलेगा ही क्या ?
एक की दूसरे में क्रिया का अभाव – भैया ! विभाव के कारण यह अपने क्षेत्र में पड़ा-पड़ा दुःखी होता है । कुटुंबी जन अपने क्षेत्र में पड़े-पड़े दुःखी होते हैं । जैसे दो पुरुष परस्पर में लड़ें तो लड़ने वाले एक दूसरे का क्या बिगाड़ कर लेते हैं ? जैसे कोई लड़ाई ऐसी होती है कि वे अपने ही घर के दरवाजे पर ही खड़े-खड़े क्रोध कर रहे हैं और दोनों ही आपस में बहुत ज्यादा बातों से लड़ रहे हैं पर वे लड़ ही नहीं रहे हैं । वे अपने दरवाजे पर खड़े-खड़े अपने में अपना व्यायाम कर रहे हैं, कसरत कर रहे हैं । दोनों ही इसमें एक दूसरे का क्या कर हैं ? कदाचित् वे दोनों पास में आकर भिड़ जायें तो भिड़ जाने पर भी वे एक दूसरे में कुछ नहीं करते, यह अंतरज्ञानी पुरुष ही पहचान सकता है । देखने वाले लोग तो प्राय: यह कह देंगे कि वाह ! इसने इसको पीटा है; यह कैसे कहते कि एक ने दूसरे का कुछ नहीं किया । किंतु भैया ! आत्मस्वरूप जितना है उतने को लक्ष्य में लेकर बतावो तो सही कि यह आत्मा अपनी इच्छा, अपना ज्ञान और अपने प्रदेश का कंपन इन तीन बातों के सिवाय और कुछ कर भी रहा है क्या ? भले ही इन तीन बातों का निमित्त पाकर यह शरीर चल उठे और इसके उस प्रकार का चलन पाकर दूसरे शरीर में कुछ प्रभाव बनाये लेकिन इस आत्मा ने तो जिस शरीर में यह रुका हुआ है उस शरीर में भी कुछ नहीं किया, दूसरे का तो करेगा ही क्या ? ऐसा मर्म स्वरूपज्ञानी पुरुष ही जान सकते हैं और स्वरूप से अनभिज्ञ जन तो यों ही देखा करते हैं कि यह बोला, यह चला, इसने जाना, उसने समझा । जो दृश्यमान शरीर हैं उन शरीरों को ही लक्ष्य में लेकर ऐसा बखान किया करता है मोही जीव ।
अज्ञानी और ज्ञानी के विवरण की संधि – यहाँ यह बताया गया है कि यह जीव भ्रम से शरीर को आत्मा मानता है और उससे संबंध बढ़ाता है और दुःखी रहा करता है । अब इसके विपरीत यह बतायेंगे कि जिसे भेदविज्ञान हो जाता है वह ज्ञानी पुरुष क्या किया करता है ?