वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 94
From जैनकोष
विदिताशेषशास्त्रोऽपि न जाग्रदपि मुच्यते ।देहात्मदृष्टिर्ज्ञातात्मा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते ॥94॥
अज्ञानी का जागरण भी अश्रेयस्कर – जिसने सब शास्त्रों को जान लिया हो ऐसा भी पुरुष यदि शरीर में आत्ंबुद्धि रखने वाला है, इस शरीर को लक्ष्य में रखकर कि यह ही मैं हूँ ऐसा जिसका विश्वास बना हो वह आँखों से जागता हुआ भी हो और लोक-व्यवस्था में बड़ी सावधानी बनाये रखता हो अथवा कुछ धर्म के नाम पर व्यवहार भी धार्मिक करता हो, किंतु जिसकी मूल में ही भूल है, अर्थात् जिसने शरीर को ही आत्मा माना है वह जागता हुआ भी मुक्त नहीं होता ।
भावहीन वचनों से अलाभ – कोई पढ़ी-लिखी वेश्या हो और वह व्याख्यान दे सदाचार का, शील का, ब्रह्मचर्य का तो क्या दे नहीं सकती है, किंतु अंतरंग में तो उसके कुछ असर है नहीं । कोई व्यसनी पुरुष, स्त्रीगामी पुरुष ब्रह्मचर्य का व्याख्यान दे तो क्या बढ़िया व्याख्यान दे नहीं सकता है ? दे सकता है किंतु अंतरंग में उसके कुछ उतरा नहीं; तो लोकज्ञान भाषाज्ञान ये सब अल्प चीजें हैं और अंतर में विश्वास होना आत्महित की लिप्सा होना यह अलग बात है । अज्ञानी पुरुष वही कहलाता है, जिसको शुद्ध आत्मीय आनंद का अनुभव नहीं होता है । जिसको पर-पदार्थों से उदासीनता नहीं आयी है, जो निज को निज, पर को पर नहीं जान सकता है ऐसा अज्ञानी पुरुष लोकभाषा के नाम से ज्ञानी भी हो जाय तो भी वह मोक्ष का मार्ग नहीं पा सकता है ।अंतरात्मा का संवरभाव – भैया ! ज्ञानी पुरुष जिसने आत्मस्वरूप को देह से न्यारा अनुभव कर लिया है ऐसा अंतरात्मा पुरुष सोया हुआ भी हो तो भी इसके 41 प्रकृतियों का संवर बना रहता है । चौथे गुणस्थानवाले जीव भी 41 प्रकृतियों का संवर किये हुए हैं । व्रत न हो सोया हो, किन्हीं भोगों में भी लग रहा हो तो भी सम्यग्दृष्टि पुरुष 41 प्रकृतियों का संवर बनाए रहता है । तो उन 41 से तो छूटा हुआ ही है ना, जिनका बंध नहीं हो रहा है । तो ज्ञानी पुरुष सोया हुआ भी मुक्त है, किंतु सर्व शास्त्रों को भी कोई जान ले और हर काम में बड़ा जागरूक रहे, सावधान रहे, लोकव्यवहार की क्रियावों में अवसर पर क्या करना चाहिए इसमें भी बड़ा चतुर रहे तो भी जिसे भेदविज्ञान नहीं है, जिसको देह से भिन्न आत्मा को परखने की रुचि नहीं है उसे मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है । भैया ! छूटना जिसको है उसके प्रति यह विश्वास ही न हो कि यह छूटे हुए स्वभाववाला है तो छूटने का मार्ग कैसे प्राप्त कर सकता है ।तोता रटंत – जो पर्यायबुद्धिवाले जीव हैं, देह में आत्मा का विश्वास करने वाले हैं उनका शास्त्रज्ञान तोते की रटन की तरह है । जैसे पिंजड़े में पला हुआ तोता उसे जो सिखावो वही रटता रहता है । तोते को सिखा दो कि अय तोते ! नलिनी पर नहीं बैठना, नलिनी पर बैठ भी जाना तो दाने चुगने के लिए न झुकना, दाने चुगने को झुक भी जाना तो उलट न जाना, उलट भी जाना तो छोड़कर उड़ जाना । इतना सिखा दिया । है तो यह जरा लंबा वाक्य, मगर इतना भी सीख सकता है । सीख गया । वह तोता उतने शब्द बोल लेता है । सीख गया है ना, सो दिनभर में दस बीस बार बोलता है । अब बड़ा प्यारा हो गया वह तोता । मालिक को बड़ा विश्वास हो गया । जब विश्वास हो जाता है तो पिंजड़े का दरवाजा बंद किया न किया, ज्यादा ध्यान नहीं रखा जाता । तो एक बार पिंजड़े का दरवाजा खोलकर चला गया, मौका पाकर तोता उड़ गया, और उड़कर वह वही पहुँचा जहाँ पर नलिनी लटक रही थी ।करतूत का फल – देखो भैया, तोता उस नलिनी पर बैठ गया और वही पाठ रट रहा है – ऐ तोते ! नलिनी पर नहीं बैठना, बैठ भी जाना तो दाने न चुगना, दाने चुगना तो उलट न जाना, उलट भी जाना तो छोड़कर उड़ जाना । इतना पाठ वह पढ़ता जा रहा है । दाने की ओर वह झुक गया, नलिनी पर भी औंधा लटक गया । अब औंधा लटकने के बाद तोते को यह डर है कि कहीं छोड़ देने से हम गिरकर न मर जायें सो उसे अपनी उड़ने की कला पर विश्वास ही उस समय नहीं रहता कि इसे छोड़ दें तो उड़कर भाग सकते हैं । लटक गया औंधा, पाठ पड़ रहा है उतना ही और डर रहा है, शिकारी आया और उसने तोते को पकड़ लिया ।भावभीना स्तवन – भैया, तोता रटंत विद्या से कहीं विपदा छूट नहीं सकती है । हमारी यह पूजा, विनती, पाठ आदि तोता रटंत से हो गए हैं । विनती शुरू से पढ़ते हैं, पता ही नहीं पड़ता कि कब क्या पड़ा और कितनी देर में खतम हो गया । कभी भाव भी लगा लें, पर जिसके धर्म की रुचि नहीं है और र्इमानदारी के साथ प्रभुभक्ति में नहीं आया है, लोकरीति से अथवा घर की खुशियाली के लिये आया है, उसकी वह प्रभुभक्ति तो नहीं कहलाती । अरे ! उससे तो अच्छा है कि तुम बोल-चाल में भगवान के गुण गावो । किसी के बनाए हुए भजन का सहारा लेकर जरा अपनी बोलचाल में बोल लो । भगवान तुम अनंतज्ञानी हो, निर्दोष हो, इस शरीर की आफत से भी छूट गए हो, हम कैसी आफत में पड़े हैं । हम पर मोह लगा है तुम्हारे मोह नहीं है, जो मन आए सो अपनी बोलचाल भगवान से बोल लो । ऐसा बोलने में तुम्हारा दिल मदद देगा । जो मन में होगा सो कहोगे । वह हार्दिक स्तुति है । जो पद्यमय विनती है पूजा है, जैसी रोज-रोज कहते रहे वैसे ही आज भी रटी हुयी कहते जाते हैं, मोह में चित्त रहता है सो क्या कहा, पता भी नहीं पड़ता । इसके मायने यह नहीं है कि उन स्तुतियों को न पढ़े, न पढ़ें तो करें क्या ? उनको पढ़कर भी किसी दिन मन लगता है पर इन रचनाओं के पढ़ने में आध घंटा समय लगाते हो तो एक मिनट भी अपनी बोलचाल में भगवान से बोल लो । यह काम रोज-रोज का रख लो तो उसकी अपेक्षा इसका प्रभाव विशेष बनेगा ।भावभासी की विशद वृत्ति – जैसे तोते ने रट किया, पर भावभासना नहीं हुई । मैं क्या कह रहा हूँ, इसका क्या मतलब है यह उस तोते को जैसे नहीं मालूम है ऐसे ही शास्त्र-ज्ञान कर लेने पर भी भावभासना यदि नहीं आती है तो उससे आत्महित की साधना नहीं होती है । आज आपने कोई नया नौकर रखा हो, उससे कह दिया कि वहाँ जाना है यों कहकर आवो । अब उसे कुछ पता नहीं है घटनावों का कि क्या मामला है, इससे मालिक का क्या संबंध है, उसे तो जितनी बात कह दी उतनी ही बात पकड़ ली और उससे कहने के लिए पहुँच गया । उसे भावभासना नहीं है कि मामला क्या है और एक पुराना कोई नौकर हो उसे भावभासना है, जरा-सा इशारा कर दिया कि वहाँ चले जावो, यह बात कह आवो । लो, थोड़े से ही वह सारी बात समझ गया । अब कोई प्रश्न भी करेगा तो वह उत्तर दे करके आयगा । भावभासना और ऊपरी ज्ञान इन दोनों में बड़ा अंतर होता है । तो उस तोते को वह सब रटते हुए भी भावभासना नहीं है । ऐसे ही जिस शास्त्रज्ञानी विद्वान् पंडित को भावभासना नहीं है वह बोलकर भी आत्महित का साधन नहीं कर सकता ।भावरहित की विपरीत वृत्ति – भैया ! अक्षरविज्ञों का भावभासना तो रहो, ऐसा शास्त्रज्ञानी पुरुष बोलने के बाद जब मित्रों में बैठा है तो अपने मुँह से खुलासा कहता है कि वह तो शास्त्र की बात थी, वहाँ तो व्याख्यान में यों कहना पड़ता है । रात्रि के समय उनका व्याख्यान रख दीजिए कि रात्रि-भोजन-त्याग पर बोलना है, रात्रि-भोजन-त्याग पर खूब बढ़िया बोल देंगे । इससे स्वास्थ्य का नुकसान है, धर्म का नुकसान है, परेशानी है, सब बोल देंगे । शास्त्र समाप्त हुआ कि थोड़ी ही देर में पेड़ा ले आइए, दूध ले आइए । अरे अब क्या हो गया । अरे ! वह तो एक ज्ञान था, उसकी कला दिखा दी है कि लोग सुनकर दहल जायें कि रात्रिभोजन बुरी चीज है ।
भावरहित की विपरीत वृत्ति पर एक दृष्टांत – इस पर एक कथानक भी प्रसिद्ध है – कहते हैं ना कि भाई जी के भटा । एक भाई जी थे एक दिन उनका शास्त्र-व्याख्यान हुआ । तो व्याख्यान में भटा अभक्ष्य है इस विषय पर बोला । क्या दोष हैं ? इसमें ऐसी पर्त होती हैं कि दो-दो अंगुल की छेद भी कर दो तो भी कीड़ा किसी जगह छुपा रह सकता है । भटे में सबसे बड़ा ऐब यह है, और भी दोष बताया, और कहा कि इसे न खाना चाहिए । इस भटे का तो जिंदगी भर के लिए त्याग करना चाहिये । उस भाई साहब को उन भाई साहब की स्त्री भी सुन रही थी । सो उसने सोचा कि जल्दी घर पहुँचें, उन भटों को फेंक दें नहीं तो भाई जी आयेंगे तो नाराज होंगे क्योंकि इन्होंने आज भटा त्याग की बात कही है । वह झट घर पहुंची और उन भटों को उठाकर नाली में डाल दिया । भाई जी आये तो स्त्री ने सब खाना तो परोसा, पर भटा न परोसा । तो भाई जी कहते हैं कि आज भटा नहीं बनाया है क्या ? स्त्री बोली कि भटा बनाया तो था पर आपका उपदेश सुना तो यहाँ आकर भटों को उस नाली में फेंक दिया । तो भाई जी बोले अरे ! वह तो दूसरों के लिए बोला था, अपने लिए थोड़े ही बोला था, जा ऊपर-ऊपर के भटे उठा ला । तो शास्त्रज्ञान से कर्ममुक्ति नहीं होती है । भावभासना हो तो मुक्ति होती है । यों यह अज्ञानी पुरुष बड़े-बड़े शास्त्रों का ज्ञान रखता हो, बड़ा सावधान रहता हो लेकिन तत्त्वभासना नहीं होने से कर्मों से वह मुक्त नहीं होता है ।