वर्णीजी-प्रवचन:समाधिभक्ति - श्लोक 13
From जैनकोष
आकृष्टिं सुरसंपदां विदघते भक्ति श्रियो वश्यताम्।
उच्चाटं विपदां चतुर्गतिभुवां विद्वैवषमात्मैनसाम्।।स्तंभंदुर्गमनं प्रतिप्रयततो मोहस्य सम्मोहनम्-
पायात्पंचनमरिक्रयाक्षरमयी साराधना देवता।।13।।
समाधिभक्त का सर्वत्र सम्यग्दर्शन- लोक में एक समता परिणाम ही सारभूत तत्त्व है।न करे कोई समता तो बीतेगी क्या उस पर? आकुलता।किसी बाह्य पदार्थ में राग जगा तो इसे मिलेगा क्या? आकुलता।किसी बाह्य पदार्थ में घृणा हुई तो मिलेगा क्या? आकुलता।केवल एक समता ही सार है।किसी भी प्राणी में रागद्वेष न जगे, किसी भी बाह्य पदार्थ में रागद्वेष उत्पन्न न हो तो वहाँ केवल जाननहार की दृष्टि रहती है और ऐसे ज्ञातापन की स्थिति में उसके समताभाव जगता है।उस समता परिणाम में जिसका दूसरा नाम है समाधिभाव, उस समाधिभाव में उस जीव को विशुद्ध आनंद प्रकट होता है, ऐसा समाधिभाव यह समाधिभक्त संत पंचपरमेष्ठी में निरख रहा है।साधु भी रागद्वेष को दूर करके समता परिणाम के परम उपासक हैं।साधुजन शत्रु और मित्र में समता का भाव रखते हैं।कैसा स्पष्ट भेदविज्ञान है साधुजनों का कि एक तो मित्र है और एक शत्रु है, अर्थात् एक पुरूष तो साधु महाराज की बड़ी सेवा करता है और एक पुरूष साधु को सताता है, दु:खी करता है लेकिन साधु पुरूष की दृष्टि में वे दोनों एक समान हैं, भले ही व्यवहार कुछ जुदे जुदे ढंग का हो जाय, मगर भीतर में न शत्रु के प्रति द्वेष है और न मित्र के प्रति मोह है।वह साधु तो उन दोनों का भला चाहता है।सबका कल्याण हो जब भीतर में विशुद्ध ज्ञानप्रकाश जगता है तब ही आत्मा में ऐसी निष्पक्षता प्रकट होती है।साधुजन महल और श्मशान में समता परिणाम रखते हैं।श्मशान में रहते हुए वे ग्लानि नहीं करते, बल्कि श्मशान में, एकांत में, वैराग्य के स्थान में रहने के कारण जो विशुद्ध ज्ञानविकास होता है, विरक्ति बढ़ती है उससे वे शुद्ध आनंद की वृद्धि ही अपने में पाते हैं।साधु संत श्मशान में रहकर विषाद नहीं मानते और महलों में रहकर मौज नहीं मानते।कभी किसी अच्छे महल में साधु को ठहरा दिया गया, अथवा आहार आदिक के प्रयोजन से किसी महल में पहुंच गए तो महल में रहकर भी वे कहीं मौज नहीं मानते।उनके लिए श्मशान और महल दोनों ही समान हैं।सामने स्वर्ण पड़ा हो अथवा पत्थर, काँच का टुकड़ा पड़ा हो, पर साधु की दृष्टि में उन दोनों का एक मूल्य है।यह तो किसी छोटे बच्चे की दृष्टि में भी आ सकता है।किसी दो चार माह के बच्चे के पास स्वर्ण और काँच दोनों रख दिये जायें तो उसके लिए क्या हैं? क्या वह समझता है कि यह अधिक मूल्यवान है यह कम मूल्यवान है? बच्चे को तो अज्ञान के कारण ऐसा कहा जा सकता है कि कुछ जानकारी नहीं है लेकिन साधु महाराज को प्रयोजन कुछ नहीं है इस कारण दोनों में समता है।साधु ने तो अपने शुद्ध ज्ञानमय आत्मा में ही रमने के लिए जीवन माना है।उसे अब कोई दूसरा काम नहीं है।विषय उसे रूचिकर नहीं लगते हैं, स्वर्ण को वह करेगा क्या और काँच का भी वह क्या करेगा? तो यों साधु महाराज को स्वर्ण और कांच में बराबर की बुद्धि है।कोई निंदा करे अथवा स्तवन करे तो उन दोनों में साम्यबुद्धि है।
समाधिभक्ति का आराधना देवता- समता की मूर्ति पन्च परमगुरू की भक्ति में समता का उपासक लीन रहा करता है।इसी प्रकार आचार्य उपाध्याय भी समता के पुन्ज हैं और अरहंत सिद्ध प्रभु तो प्रकट साम्यमूर्ति हैं, उनकी भक्ति संत करते हैं तो उनकी भक्ति में उनके नाम के जो अक्षर है, पंच नमस्कार मंत्र है, यह भी उसे देवता लग रहा है।णमोकारमंत्र को भी वह देवता समझता है।पन्चनमस्क्रिया क्षरमयी आराधना देवता सबकी रक्षा करें।शरण लेने के योग्य 5 परमगुरू हैं- अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु।इनका जाप तीन अक्षरों में किया जाता है वे अक्षर भी देवता कहलाते हैं।उन अक्षरों के सहारे से जो चित्त में आराधना बनती है उसको भी देवता कहते हैं।यहां समाधिभक्ति का प्रकरण है।ज्ञानी संत को समतापरिणाम ही सर्वोत्कृष्ट इष्ट है।तो उस पंच नमस्कार की अक्षरमय जो यह आराधना है णमोकार मंत्र के सहारे से जो पंचपरमेष्ठी की आराधनारूप परिणति है उस देवता की प्रशंसा कर रहे हैं कि यह नमस्कार मंत्र की आराधना अथवा नमस्कार मंत्र रूप आराधना संपदा के आकर्षण को करती है देवों में प्राप्त होने वाली संपदा को खींचकर इसके समक्ष उपस्थित करती है, अर्थात् पंचपरमेष्ठी की भक्ति के प्रसाद से इतना विशिष्ट पुण्यकर्म का बंध होता है कि देवों के जो इंद्र हैं, जो उत्कृष्ट संपदा के अधिकारी हैं उनकी संपदा को प्राप्त करा देता है।
नमस्क्रियाक्षरमयी आराधना देवता में प्रभाव का कारण- नमस्कारमंत्र में क्यों इतना प्रभाव चढ़ा है, इसका कारण यह है कि इसमें जिन पवित्र आत्मावों की उपासना की जा रही है वे आत्मा समीचीन दृष्टि से पवित्र हैं, पवित्रता का अर्थ है कि किसी चीज में वही चीजमात्र रहना और दूसरी चीज का संबंध न रहना इसी को पवित्रता कहते हैं।जैसे चौकी पवित्र हैं।चौकी में दूसरी वस्तु का संबंध नहीं है, यही पवित्रता कहलायी।आत्मा पवित्र कौन है? जो आत्मा केवल आत्मा ही हो, उस आत्मा में पर का संबंध न हो उसे पवित्र कहते हैं।जैसे यहां संसार में हम आपके आत्मा के साथ दूसरी वस्तु भी जुडी हुई है।यद्यपि वस्तु स्वरूप के कारण आत्मा में आत्मा ही है, पर में पर ही है, लेकिन संयोग संबंध तो प्रकट जुडा हुआ है।साफ समझ में आ रहा है, हम शरीर में बँधे हैं, कर्म में बँधे हैं, तर्क वितर्क विचार वितर्क ऐसे उत्पन्न होते हैं कि हम अपने सहज स्वरूस्प का ज्ञान भी नहीं कर पाते।ऐसी अपवित्रता है इस समय हम आपकी, किंतु प्रभु में ये अपवित्रतायें नहीं हैं।हम आपके लिए आदर्श कौन है? हम किसकी ओर निगाह रखें कि हमें वैसा बनने में लाभ है, और प्रकार बनने में लाभ नहीं है, ऐसा आदर्श आत्मा है तो यह प्रभु है।तो जो केवल रहे, दूसरे का संबंध न रहे, ऐसे ही पवित्र आत्मा को परमात्मा कहते हैं।दुनियावी लोग तो परमात्मा की, ईश्वर की इसमें तारीफ नहीं जान पाते।वे समझते हैं कि जिसके पास बहुत से देवता आते हों, वह जगत का बड़ा हिसाब किताब भी रखता हो, जो भक्तों को सुख देता हो, जो भक्त नहीं हैं उन्हें दु:ख देता हो, सब जीवों की व्यवस्था जिसने अपने शिर रख ली हो उसको लोग भगवान मानते हैं लेकिन उसमें तो प्रकट अपवित्रता है, क्योंकि वहां पर के प्रति लगाव है।केवल में केवल को समा देने वाला परम आत्मा पवित्र है और उसकी आराधना में प्रभाव है।
पवित्रता में ही शांति का लाभ- पवित्रता को इंगलिश में कहते हैं प्योरिटि।कैवल्य संस्कृत का शब्द है, जिसका दूसरा अर्थ है खालिस।जो आत्मा आत्मा ही रह गया, उसके साथ किसी दूसरी चीज का संबंध न हो उसे कहेंगे पवित्र (प्यौर)।हम आप जब तक ऐसा नहीं बन सकते केवल तब तक संसार में रूलते रहेंगे, यहां के पाये हुए थोड़े से सुख साधनों का कोई महत्त्व नहीं है।ये सब क्षोभ को उत्पन्न करने वाले हैं।जब तक कैवल्य न प्रकट हो तब तक हम आपको शांति नहीं प्राप्त हो सकती।क्या चाहिए? हम हम ही रह जायें, हममें दूसरी चीज का संबंध न हो, बस वही धर्म है, वही धर्म का फल है और वही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति है कि हम जैसे हैं, जितने हैं उतने ही रह जायें, हममें दूसरी चीज का संबंध न रहे, यह चाहिए हम आपको।अब अपने दिल में खोजो, क्या यह निर्णय आपने बना पाया कि हमको क्या बनने में लाभ है? धनी बनने में लाभ है या दुनिया का नेता बनने में लाभ है या बड़ा प्रतिष्ठावान् बनने में लाभ है? यदि धनिक हो गए तो क्या लाभ मिलेगा? आकुलतायें और बढेंगी, राज्यकर्मचारी और सतायेंगे।बंधुजनों के भी हम कृपापात्र न रह पायेंगे सभी लूटने की बात सोचेंगे।मित्रजन इसीलिए मित्रता बनायेंगे।धन का लोभ इस आत्मा के लिये श्रेयस्कर नहीं है।यह तो पुण्योदय से मिलता है, पर धन के कारण जीव को शांति हुआ करती हो सो बात नहीं।कितने ही गरीब लोग बड़े शांत सुखी नजर आते हैं, शांति ही तो चाहिए वह मिलती है बुद्धि से, ज्ञान से, विचार से, न कि वैभव से।बल्कि वैभव तो विकार का आश्रय बन जाता है,
वैभव में विकार की आश्रयभूतता का एक दृष्टांत- दो भाई थे।वे परदेश गए धन कमाने के लिए।खूब धन कमा लिया और सोचा कि इस सब धन को घर कैसे ले जायें? सो सारा धन बेचकर दो कीमती रत्न खरीद लिये।चले अब अपने देश को।रास्ते में पड़ता था समुद्र।सो समुद्री जहाज में बैठे हुए जा रहे थे।वे दोनों रत्न बड़े भाई के पास थे।रास्ते में वह बड़ा भाई सोचने लगा कि इस समय दोनों रत्न हमारे पास हैं।घर जाने पर एक रत्न छोटा भाई ले लेगा सो अच्छा होगा कि इसको समुद्र में ढकेल दें।फिर तो हमें दोनों रत्न मिल जायेंगे।थोड़ी ही देर में तुरंत संभल गया और विचार करने लगा- ओह ! धिक्कार है।ऐसे रत्नों के पीछे हमने अपने छोटे भाई की जान लेना सोचा।सो वह अपने छोटे भाई से कहता है- भाई, ये रत्न तुम अपने पास रखो।इनको हम अपने पास न रखेंगे।जब छोटे भाई ने उन रत्नों को अपने पास रख लिया तो थोड़ी ही देर में उसके भी खोटे भाव बने।सोचा कि इन रत्नों को तो मैंने अपने दिमाग से कमाया है, बड़े भाई का तो सिर्फ थोड़ा सा सहयोग रहा और घर जाने पर ये बँट जायेंगे।अच्छा होगा कि हम अपने इस बड़े भाई को समुद्र में ढकेल दें।यह मर जायेगा और ये दोनों रत्न हमारे हो जायेंगे।वह भी तुरंत संभल गया और अपनी गल्ती पर पछतावा करने लगा।उसने भी उन रत्नों को अपने पास रखना स्वीकार न किया।खैर, किसी तरह से घर पहुंचे, तो उन रत्नों को मां को दे दिया।मां वृद्ध थी।उसने उन रत्नों को पाकर विचार किया कि- वृद्धावस्था में कोई सहारा नहीं देता, यदि अपने पास धन रहेगा तो सभी मददगार होंगे।अच्छा होगा कि इन रत्नों को छिपाकर रख दें और इन दोनों बेटों को किसी तरह से मरवा दें।इतने खोटे भाव बनते ही वह माँ भी तुरंत संभल गयी और अपनी गल्ती पर अपने को ही धिक्कारने लगी।उस मां ने भी उन रत्नों को अपने पास रखना स्वीकार न किया।फिर वे दोनों रत्न उन दोनों भाईयों ने अपनी बहिन के पास रख दिये।बहिन भी सोचने लगी कि ये रत्न तो बड़े कीमती हैं।ये दोनों भाई हमसे ये रत्न ले लेंगे।अच्छा होगा कि खाना तो हम ही बनाती हैं।खाने में विष मिलाकर इन दोनों भाईयों को खिला दें।ये मर जावेंगे तो ये दोनों रत्न हमें मिल जायेंगे।थोड़ी ही देर बाद वह भी संभली और अपनी गल्ती पर बड़ा पछतावा किया।उसने भी उन रत्नों को अपने पास रखना स्वीकार न किया।अंत में उन सबने एक दूसरे से अपने मन में उत्पन्न हुए खोटे भाव बताये और यह निर्णय किया कि इस धन से तो वह पहिली वाली गरीबी भली थी।सो उन रत्नों को समुद्र में फिकवा दिया।पहिले की भांति गरीबी में निवास करके सुख से रहने लगे।तो यह धन वैभव बड़े विकार का कारण बन जाता है।इस धन वैभव से शांति नहीं मिलती।शांति मिलती है आत्मस्वरूप की ओर दृष्टि करने में।
कैवल्य पाने के उपाय में सत्समागम की सफलता- भैया ! आप आज बड़े हुए हैं, सुख सुविधायें मिली हैं, अच्छा कुल मिला है, सब बातें अच्छी मिली हैं तो इस आत्मस्वरूप के ज्ञान की कमाई कर लें अन्यथा यह दुर्लभ नरजन्म यों ही बेकार चला जायेगा।तो यहाँ शरण लेने योग्य यदि कोई हो सकता है तो वही हो सकता है जो पवित्र हो।अपवित्र हो उसकी शरण लेने से क्या लाभ? पवित्र वह कहलाता है जो खालिस आत्मा ही आत्मा कहलाता है।उस आत्मा के साथ कोई दूसरी चीज न लिपटी हो।यहाँ हम आपके पास अनंत तो शरीर के परमाणु लिपटे हैं, अनंत मनोवर्गणा के परमाणु लिपटे हैं, अनंत कर्मपरमाणु लिपटे हैं और इन लिपटावों के प्रभाव में विषय कषाय, वान्छा, तर्क वितर्क आदि नाना तरंग उठ रहे हैं जिनसे हम अपने आपको खो बैठे।पहिले आप यह निर्णय कीजिए कि हमें करना क्या है? इसी निर्णय पर धर्मपालन संभव है।हमको बनना है खालिस, जो मैं हूं सो ही बस यही बनने का भाव है।यह बात जिस दिन से चित्त में आ जायेगी, सच्चा मार्ग मिलेगा, मोक्षमार्ग मिलेगा, तभी से शांत रहने लगेंगे।जगत की विडंबना देखकर।किसी भी परपदार्थ का कुछ परिणमन देखकर आकुलित न हों।हमको बनना है केवल, ज्ञानमात्र।अन्य कुछ नहीं।अगर अपना लगाव परपदार्थों से लगा है।उनके प्रति अनेक प्रकार के सोच विचार प्रयत्न किये जा रहे हैं तो क्या केवल बना जा सकता है? पुत्र मित्र स्त्री परिवार घर आदिक में लगाव लगा रहे, उनमें मोह कर रहे, उनकी ओर दृष्टि दे रहे, अपना उपयोग उनमें रख रहे तो क्या इस यत्न से हम केवल बन सकेंगे? क्या खालिस रह सकेंगे? कभी भी संभव नहीं है।इतना तो अभी विचारना चाहिए कि मैं तो खालिस अभी भी हूं।स्वरूप से देखो तो सबसे न्यारा अब भी हूं।मेरे स्वरूप में किसी दूसरी वस्तु का प्रवेश नहीं है।मैं ज्ञानमात्र हूं, अमूर्त हूं।आकाश में रहकर भी आकाश से निराला हूं।अन्य की बात तो छोड़ो।देह में रहकर भी देह से निराला हूं और गृहस्थी के कारण गाँव में, घर में रहते हुए भी ग्राम और घर से निराला हूं।मैं केवलज्ञानमात्र हूं, यह बुद्धि अगर जग जाय तो सचमुच में अमीर हैं, तो ऐसी पवित्रता जहाँ प्रकट हुई है उन परमात्मा की यहां आराधना की जा रही है और ऐसी पवित्रता प्रकट करने के लिए जिन्होंने दृढ़ संकल्प किए हैं जो पूर्णतया प्रयत्नशील हैं ऐसे आचार्य, उपाध्याय और साधुवों की आराधना की जा रही है।यह आराधना देव संपदा को प्राप्त कराने वाली है।
पन्चनमस्क्रियाक्षरमयी देवता में मुक्तिश्रीकारिता व चतुर्गतिदु:खहारिता- पन्च परम गुरु सभी आत्मा मोक्ष से संबंधित हैं, सिद्ध भगवान को साक्षात् मोक्ष प्राप्त हुआ है।अरहंत भगवान को भी घातक कर्मों से मोक्ष प्राप्त हो तो गया है, पर अभी अघातिया कर्म के संबंध से मोक्षस्थान में नहीं हैं।यहाँ ही दुनिया में विहार कर रहे हैं, लेकिन वे भी मुक्त हैं, आचार्य, उपाध्याय, साधु यद्यपि इस समय मुक्त नहीं हैं, लेकिन वे मोक्षमार्ग में लगे हुए हैं।तो चूंकि मोक्ष मार्ग से मोक्ष से इन पंच देवताओं का संबंध है अतएव इनकी आराधना करने से मुक्तिश्री वश में हो जाती है, अर्थात् जो भक्तिभाव से स्वरूप विचार कर पंचपरमेष्ठियों की आराधना करता है उसे मुक्ति प्राप्त होना अवश्यंभावी है।पंच नमस्कार की वर्णोंमय यह आराधना चारों गतियों में उत्पन्न हुई विपदाओं का विनाश कर देती है।वस्तुस्वरूप का सत्यज्ञान होना, परपदार्थ पर ही है, यह ज्ञानमय अंतस्तत्त्व यह ही मैं हूं, मेरे से अतिरिक्त अन्य पदार्थ अत्यंत निराले हैं, ऐसा जिसका दृढ़ श्रद्धान हो और जिसका यह निर्णय हुआ कि केवल ज्ञानमात्र आत्मा के रहने में ही वास्तविक शांति है और ऐसा ही इसका होना है उस पुरूष की इन केवल आत्माओं में रूचि जगेगी और जहाँ ज्ञानमात्र आत्मा में भक्ति जगी वहां चारों गति के संकट अवश्य नष्ट होंगे।
स्थावरों के क्लेश- गतियों में कितना घोर दु:ख है।इस जीव की सबसे पहिली स्थिति निगोद की थी।निगोद कहते किसे हैं? ये संसारी जीव दो प्रकार के हैं- त्रस और स्थावर।जहां दो इंद्रिय हों, तीन इंद्रिय हों, चार इंद्रिय हों, 5 इंद्रिय हों वे तो त्रस कहलाते हैं और जहां जीभ, नाक, आँख, कान आदिक कुछ न हों, केवल एक शरीर ही शरीर हो उसे स्थावर कहते हैं।जैसे- पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, पेड़ वनस्पति वगैरह।अब वनस्पति के दो भेद होते हैं- एक हरी वनस्पति और दूसरी निगोद वनस्पति।हरी वनस्पति फल, फूल, पेड़ वगैरह कहलाते हैं और निगोद नाम की वनस्पति जो हरी नहीं है, जिसका सूक्ष्म शरीर है, जो एक श्वास में 18 बार जन्ममरण करके घोर दु:ख भोगता है वह निगोद कहलाता है।हम आप सब जीव सबसे पहिले अर्थात् अनादिकाल से निगोद पर्याय में थे।अब आप यहाँ यह जान सकेंगे कि हम संसार की कितनी दुर्गतियों को पार करके आज इस श्रेष्ठ मनुष्यजन को धारण किए हुए हैं।ये जीव सर्वप्रथम निगोद अवस्था में थे।उस निगोद से तो ये 5 स्थावर अच्छे हैं।निगोद की दशा इन 5 से भी बुरी है।निगोद से किसी तरह निकले तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पति हुए।ये पांचों ही पर्याय निगोद से कुछ अच्छी हैं, लेकिन हैं ये एकेंद्रिय ही।जिनका ज्ञान अत्यंत हीन है ऐसी पर्यायों में बहुत काल व्यतीत किया।
त्रस जीवों के क्लेश- कुछ शुभ उदय आया है कि स्थावर से निकलकर दो इंद्रिय जीव हुआ।अब दो इंद्रिय जीव में रस लेने की शक्ति आयी।रस का भी सुख लेने लगा।कोई भय की चीज हो तो उससे अलग हटने की भी उसमें सामर्थ्य आयी।पैर तो नहीं हैं मगर छाती के बल पर जैसे केचुवा जोक शंख कीड़ा वगैरह चलते रहते हैं।कुछ ज्ञान और बढ़ा तो दो इंद्रिय से तीन इंद्रिय में आ गया।वहाँ नासिका भी प्राप्त कर ली, जैसे चींटा चींटी वगैरह कुछ और ज्ञान बढ़ा तो तीन इंद्रिय से चार इंद्रिय हो गया।इस चार इंद्रिय जीव के चक्षु और बढ़ गए, जैसे पतंगे, मक्खी, मच्छर, टिड्डी, ततैया आदिक।चार इंद्रिय से निकलकर पंचेंद्रिय हुआ, उसके कान भी बढ़ गए।अब सुनने का भी ज्ञान करने लगा।लेकिन मन न हो तो उनका भी जीवन इन्हीं विकलत्रयों की तरह है।पंचेंद्रिय असंज्ञी जैसे पानी में रहने वाले साँप वगैरह होते हैं।वहाँ से निकलकर मन वाला हुआ।मन वाला भी यदि सिंहादिक क्रूर जानवर हुआ तो वहाँ भी पाप करके दु:खी हो गया और कदाचित् हो गया निर्बल तो बलवान जानवरों के द्वारा खाया गया।इन पशुवों के भी दु:ख की कहानी क्या कहें? अनेक के दु:ख तो आँखों दिखते हैं।सूकरों पर कौन दया करता है? तुच्छ लोग तो यह निर्णय किए बैठे हैं कि इनको लोग मारें और खायें।पहिले तो उनसे कुछ काम लेते हैं, जब कुछ काम कर सकने योग्य न रहें तो उन्हें मार डालते हैं।
नारक मनुष्य व देवगति के क्लेश- तिर्यन्च गति से निकलकर किसी तरह नरकगति में पहुंचे तो वहाँ के दु:ख क्या कहना? जहाँ इतने दु:ख होते हैं कि हजारों बिच्छुवों के काटने से भी उतना अधिक दु:ख न हो।ठंड गर्मी का दु:ख, आपस की लड़ाई का दु:ख, असुर कुमार के देव भिड़ाते हैं उसका दु:ख, भूख प्यास के दु:ख।यों दु:ख ही दु:ख में अनगिनते वर्षों की आयु व्यतीत होती है।वहाँ से निकलकर कदाचित् मनुष्य हुए तो मनुष्य होकर भी दु:ख ही दु:ख पाया, गर्भ का दु:ख, गर्भ से निकलते समय का दु:ख, बचपन का दु:ख, जवानी का दु:ख, बुढापे का दु:ख।कहीं ज्ञान नहीं प्राप्त किया।मनुष्य होकर मरे, फिर किसी गति में गए।कदाचित् यह देव भी हुआ तो देवों का शरीर वैक्रियक होता है।उनके शरीर में हाड़, मांस, खून आदिक नहीं होते, भूख प्यास भी नहीं लगती, हजारों वर्षों में कभी भूख प्यास भी लगी तो उनके कंठ से अमृत झड़ जाता है और वे तृप्त हो जाते हैं।ऐसे सुख साधनों में भी जीव गया लेकिन तृष्णा के कारण वहाँ भी दु:खी रहा।कषायें 4 होती हैं क्रोध, मान, माया, लोभ।क्रोध कषाय की तीव्रता नारकियों में पायी जाती है, मानकषाय की प्रबलता मनुष्यों में, माया कषाय की प्रबलता तिर्यन्चों में और लोभ कषाय की प्रबलता देवों में पायी जाती है।भला बतलावो जिन देवों को कोई रोजगार, व्यापार, खेती, आदि नहीं करना है, कल्पवृक्षों से अपने आप मनचाही चीजें प्राप्त होती हैं फिर भी अपने से अधिक ऐश्वर्य वाले देवों को देखकर वे मन ही मन कुड़ते हैं और विकट तृष्णा के कारण वे दु:खी रहा करते हैं।उनको इष्ट वियोग भी नहीं होता।अगर कोई देवी मर गयी तो अंतर्मुहूर्त में ही दूसरी देवी उत्पन्न हो जाती है और अंतर्मुहूर्त में ही वह जवान हो जाती है।तो वहाँ इष्ट वियोग का भी दु:ख नहीं, पर तृष्णावत वे निरंतर दु:खी रहा करते हैं।तो अपने आपको यह जान गये होंगे कि मनुष्यों में यह मानकषाय कितनी प्रबल है।मान होना चाहिए फिर यह जीव राजी।यह मनुष्य धन से राज़ी नहीं है, धन तो मान के लिए बढ़ाना चाह रहा है।चूंकि ऐसा मान रख है कि दुनिया में धन के कारण इज्जत बढ़ती है इसलिए लोग धन बढ़ाने के प्रयत्न में रहा करते हैं।वह धन का बढ़ाना भी मानकषाय के पोषण के लिए है।कहीं अपमान हो रहा हो तो अपना मान रखने के लिए लोग धन के खर्च होने की परवाह नहीं करते।तो मनुष्यगति में मानकषाय की तीव्रता है।
निर्मान होकर पवित्रता पाने का अनुरोध- अपना प्रयत्न यह होना चाहिए, ज्ञान ऐसा बनना चाहिए कि मानकषाय हमारी मंद हो।काहे का मान? ये संसार की सब चीजें अपवित्र हैं।यहां पवित्र तो प्रभु हैं जो केवल ज्ञानस्वरूप हैं।जिनके साथ कोई झंझट नहीं लगा है।जिनके साथ न शरीर का संबंध है, न कर्म का।वे ही पुरूष इस जगत में पूज्य हैं।जो पुरूष ऐसे पवित्र आत्मा की आराधना करता है उसके चारों गतियों के संकट दूर हो जाते हैं।जो पंच परमगुरू की पूजा में उपासना में लगा हो, इन पंच गुरूओं के गुणों में लगा हो उस पुरूष में पाप नहीं ठहर सकते।भला उपयोग तो एक है।जब हम अपने उपयोग में निर्मोह आत्मा के गुणों को नहीं बसाते हैं तो प्रकृत्या मोह में ही उपयोग फंसेगा, और वहां पाप है।जब निर्मोह, पवित्र, ज्ञानमय आत्मा की वंदना में उपयोग रहता है, उनके गुणों का स्मरण उपयोग में रहता है, तब यह पाप नहीं हो सकते, तो पंच गुरूवों की यह आराधना पापों से विद्वेष रखती है।तो जहां पंच गुरूवों की आराधना बस रही हो वहां पाप नहीं ठहर सकते, हम आपका वास्तव में रक्षक है अपने आप के स्वरूप का स्मरण, ध्यान, आराधना, और बाह्य में अगर कोई रक्षक है तो परमात्मा और गुरू।देव और गुरु, इसी कारण हम आपको देव और गुरु के संबंध में कोई भ्रम नहीं रखना चाहिए।देव का जो सत्यस्वरूप है उसे समझकर उसे देव मानें।देव वह होगा जो पवित्र हो।पवित्र वही कहलायेगा जो बाह्यसंबंध से रहित हो और अपने सत्यस्वरूप में हो, अर्थात् वीतराग और सर्वज्ञ वही देव कहला सकता है।हम रागद्वेषी को भगवान (देव) के रूप में स्वीकार न करें। आजकल लोग सोचते हैं कि चाहे कोई भी भगवान (देव) हों, सब भगवान (देव) एक समान हैं, सब गुरु एक समान हैं, किसी भी मजहब के हों। लेकिन यह सोचिये कि हमको करना है आत्मकल्याण। अर्थात् हमें बनना है खालिस आत्मा। मैं ज्ञानमात्र आत्मा ही रह जाऊँ, मेरे साथ अन्य झंझट न रह जायें ऐसा पवित्र आत्मा मैं बन जाऊँ तो ऐसा बनने के लिए हमें आदर्श उनको मानना होगा जो रागद्वेष से रहित हों। जिनके साथ स्त्री पुत्रादिक हों वे मेरे देव नहीं। जो हाथ में शस्त्र लिए हों, शुद्ध भी करते हों वे मेरे देव नहीं। जो दोष करने वालों को दंड आदिक की व्यवस्था करते हों वे मेरे देव नहीं। ऐसे देवों की आराधना करने से हमारे प्रयोजन की सिद्धि कैसे हो सकती है? अर्थात् मैं आत्मा केवल ज्ञानमात्र रहूं यह तो हम चाहते हैं और हम अज्ञानी, मोही, परिग्रही देवों की सेवा करते हैं तो उससे कुछ भी सिद्धि न होगी; पुण्य भी न बनेगा। इसी प्रकार गुरूवों की भी बात सोचो, जो विकृत भेष बनाये हों, सिर में बड़े-बड़े जटा रखाये हों, शरीर में भस्म रमाये हों, चिमटा त्रिशूल आदि रखे हों, साथ में हाथी घोड़ा आदिक आडंबर रखे हों, महंत हों, जिनके पास बाग़ बगीचे भी हों, झौंपड़ी हो, खाने पीने के साधन भी जो अपने साथ लिए फिरते हों, उनको अपना गुरु मानकर हम कुछ भी सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकते। मेरा प्रयोजन है कि मैं मैं ही रह जाऊँ, मुझमें दूसरी चीज का संबंध न रहे तब ही तो मैं शांत रह सकूँगा। तो ऐसा बनने के लिए हमें ऐसी ही धुन वाले गुरु चाहिए, जिनकी सेवा करके हम अपना उद्देश्य सही बना सकें और अपने विचारे हुए उद्देश्य को सफल कर सकें। ऐसी बात हम आपको इन पंचगुरूवों में ही मिलेगी अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इसी कारण इनके गुणों की भक्ति से हम संसार के समस्त संकटों को दूर कर लेते हैं।
दु:ख के कारणभूत छह शत्रु- प्राणियों के जितने भी कष्ट है वे हैं मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, इन 6 विकारों के कारण जिसके मोह है उसको चैन वहाँ? और साथ ही वह मोह है अज्ञान के कारण, विपरीत परिणाम। तो जहाँ पर में दृष्टि है, पर को निज मानने की दृष्टि है, पर को अपनाने की दृष्टि बनी है, वहाँ चूंकि वे पर अनर्थ हैं, भिन्न हैं, उनका समागम उनके मन के अनुकूल नहीं हो पाता अतएव वे निरंतर बैचेन रहते हैं। लेकिन यह बात यदि हो भी जाय तो वह निभेगी कब तक? वियोग तो उसका होगा ही। यह जीव मोह में बैचेन है। बड़े-बड़े महापुरूष भी जब तक मोह करते रहे तब तक बैचेन रहे। तो इस जीव के अंत: ये 6 भाव हैं। बाहर में कहाँ कोई बैरी दिखता है? दूसरा बैरी है काम? इस काम को मनोज कहते हैं। यह विकार केवल मन से उत्पन्न होता है। जहाँ मन नियंत्रित न रहा वहाँ वह खोटा भाव उत्पन्न हो जाता है, और उस खोटे परिणाम के कारण यह जीव बैचेन रहता है। क्रोध कषाय में यह जीव खुद का भी विनाश कर लेता है और दूसरे का भी विनाश कर देता है। कोई महिला अगर मिट्टी के हाँडे में 3-4 किलो घी लिए है तो गुस्से में आकर उसे भी पटक देती है। गुस्से में आकर उसे कुछ विवेक नहीं रहता है। यह क्रोध एक बहुत बड़े अनर्थ का कारण बन जाता है। द्वीपायनमुनि ने क्रोध में आकर अपनी नगरी को जला दिया था जिसमें खुद भी भस्म हो गए थे। तो यह क्रोध भाव भी इस जीव के लिए बड़ी बेचैनी का कारण है। अभिमान भी जीव की बड़ी बेचैनी का कारण है। यह अभिमान किसी का जम नहीं सकता, क्योंकि सभी प्राणी अपना-अपना बड़प्पन चाहते हैं। अभिमान में सिवाय दु:ख के कुछ लाभ नहीं प्राप्त होता। मायाचार भी जीव के लिए बड़ी बेचैनी का कारण है। इससे अंत: ही अंत: चिंता, शोक, परेशानियाँ बनी रहा करती हैं। और लोभ कषाय को सभी लोग समझते हैं। जीवन में अनेक बार अनुभव भी किए होंगे। कभी थोड़ा सा लोभ किया तो उसके बदले में सैकड़ों हजारों का नुकसान सहना पड़ता है तो इस प्रकार से ये सभी खोटे भाव इस जीव के दु:ख के कारण हैं।
दु:खों से छुटकारा पाने की चिंतना- अब विचार कीजिये कि क्या संसार के इन दु:खों को मेटने का कोई उपाय भी है? हाँ उपाय तो है। यही उपाय है कि ये छहों विकार भाव न रहें, या जो ऐसे स्वरूप वाले हैं जिनमें ये छहों विकार नहीं रहे उनके स्वरूप का ध्यान करें, उनकी उपासना करें। इस ही उपाय से ये सभी दु:ख मिट सकते हैं। जैसे खून का दाग कभी खून से नहीं धुल सकता, जल से ही धुलेगा, इसी प्रकार इन छहों प्रकार के विकार भावों का दु:ख इस णमोकार मंत्र से धुल सकता है न कि विकारवान परिजन, मित्रजन के संपर्क से। तो इन समस्त दु:खों के मेटने के लिए विकाररहित जो अपना सहज स्वरूप है उसको दृष्टि में ले तो यहाँ इस विकारजन्य दु:ख से भयभीत हुआ समाधिभक्त संत भावना कर रहे है पंच परमगुरूवों की और उन परम गुरूवों के गुणों का स्मारक जो नमस्कार मंत्र है उसकी आराधना करता है। वह इस स्वरूप की आराधना को देवता समझता है और महिमा गा रहा है कि यह पंच नमस्कार के अक्षरमय आराधना जीव को दुर्गमन से बचाती है। वह दुर्गमन क्या? इन छहों प्रकार के शत्रुवों से घिर जाना यही इस जीव का दुर्गमन है। चारों गतियों में यह नाच दिख रहा है अज्ञान का। यह अज्ञान बडा़ घमंड करता हुआ सारे विश्व को कुचलता हुआ नृत्य कर रहा है। इसका सब प्राणियों पर राज्य है। ऐसा एक मद में ही आकर यह अज्ञान नृत्य कर रहा है। इससे छुटकारा वह ही मनुष्य प्राप्त कर सकेगा जिसने यथार्थ ज्ञान किया। सम्यग्ज्ञान की ऐसी महिमा है कि एक बार भी यदि झलक जाय तो फिर चाहे किसी प्रकार के कर्म विपाकवश गिर भी जाय लेकिन उसकी स्मृति रहेगी। तो किसी दिन अवश्य ही संकटों से वह मुक्त हो लेगा।
णमोकारमंत्र में शुद्ध तत्त्व व शुद्ध हित का दर्शन- यह एक णमोकार मंत्र है जो प्राय: पूजन दर्शन के समय सब लोग गाते हैं- णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं, णमो आउरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमोलोए सव्वसाहूणं।। इस मंत्र में किसी का नाम नहीं लिया गया। ऋषभदेव, महावीर, श्रीराम, हनूमान आदिक किसी भी भगवान का इसमें नाम नहीं लिया गया, क्योंकि जिसका नाम रखा वह भगवान नहीं है और जो भगवान है उसका नाम नहीं होता। भले ही यहां हम आप लोग नाम रख लेते हैं कि यह अमुक राजा के पुत्र थे, अमुक वंश के थे, अमुक जगह उत्पन्न हुए थे, पर जो आत्मा सर्वप्रकार के कर्मों का, सर्व विकार भावों का परित्याग करके शुद्ध हुआ उसका कोई नाम भी है क्या? पहिले गृहस्थावस्था में उनका जो नाम रख दिया गया था उस नाम को लेकर उनकी महिमा हम आप लोग गाते हैं। पर साक्षात् रूप से देखो तो भगवान ज्ञानपुंज को कहते हैं। यह तो अज्ञान है जो मनुष्यों में परस्पर में धर्म के नाम पर लडाईयां होती हैं। सभी लोग अपने-अपने धर्म की बातें गाते हैं, पर धर्म नाम है किसका और धर्म के लिए करना क्या है, किसे जपना है, इसका यदि यथार्थ स्वरूप समझ में आ जाय तो कलह की कोई गुन्जाइश नहीं है। पहिले तो हम आप लोग यह निर्णय करें कि हम जीव है, दु:खी हैं, हमें सुखी होना है, शांत होना है, सदा के लिए संकटों से छुटकारा पाना है, बस यही हमारा उद्देश्य है। यदि यह निर्णय न रखकर पर्यायबुद्धि किए हैं, जाति कुल, मजहब आदि में दृष्टि है, तब यदि अपने धर्म का प्रचार करते हैं तो इससे जीव का उद्धार न हो सकेगा। अपने आपके अंदर सोचे कि मैं जीव हूं, आत्मा हूं, जानन देखनहार एक पदार्थ हूं, मैं हो गया मनुष्य यह बहुत बडा़ भाग्य है। अब मुझे ऐसा उपाय बनाना है कि इस जन्ममरण से हमें छुटकारा प्राप्त हो जाय। भीतर में यदि यह भाव जगे तब तो धर्म की समस्या सुलझ सकती है और यदि शरीर को निरखकर ही अपने जातिकुल, धर्म के प्रचार की कोई बात करे तो उससे धर्म की समस्या सुलझ नहीं सकती। जिस मजहब में हम पैदा हुए हैं उसका बहुत प्रचार हो, जाय, इससे हमें क्या मिलेगा? यदि वास्तविक तत्त्व है कुछ तो उसका प्रचार हो। तो उससे इन विपत्तियों से छुटकारा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हो सकता है। तो पहिले यह बात चित्त में आना चाहिए कि मैं आत्मा हूं, मुझे शांति चाहिए। कोई भी हो, लोक प्रसिद्ध किसी भी जाति में उत्पन्न हुए हों, आखिर जीव हैं, सब एक समान हैं। स्वरूपत: देखो, सबकी एक सी गति है, सबका एकसा स्वभाव है। तो पहिले यह निर्णय होना चाहिए कि मैं जीव हूं और मुझे शांति चाहिए। अब शांति के लिए वह यत्न करें वह परख करें। अपने आपकी परख करें कि मैं क्या हूं?
अंतर में निर्णय से सर्व निर्णय- देखिये सारे निर्णय और सारे मार्ग, अपने हित के सारे प्रयत्न अपने आपमें सही निर्णय बनायें उससे बन सकेंगे। मैं क्या हूं? मैं अपने आप अपने ही सत्त्व के कारण क्या हूं? कैसा हूं? अब यह निष्पक्ष होकर जानकारी करने लगा, क्योंकि बाहर में इसने मोह नहीं रखा। मैं जीव हूं, मुझे शांति चाहिए, इस उद्देश्य को लेकर बढ़ रहे हैं तो सभी समस्यायें सुलझ जायेंगी। मैं क्या हूं? मैं एक जानने देखने वाला आत्मा हूं। और दु:ख मानने वाला मैं नहीं हूं क्या? हाँ मान तो रहा हूं दु:ख, पर दु:ख मेरा स्वरूप नहीं है। यदि दु:ख मेरा स्वरूप होता तो एक रूप से रहना चाहिए था। उसका ताँता न टूटना चाहिए थे। तो संसार के दु:ख रूप मैं नहीं। और संसार के सुख रूप भी मैं नहीं, क्योंकि यदि संसार के सुख रूप मैं होता तो फिर सुख का भी ताँता न टूटना चाहिए था। तो ये संसार के सुख दु:ख तो विकार हैं। मैं इन रूप नहीं। मैं तो किसी भी स्थिति में रहूं- केवल ज्ञानरूप हूं, ऐसी समझ यदि बने तो समझो कि धर्म यही है काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, मोहादिक विकारभाव करना, यह मेरा धर्म नहीं, केवल जानन देखनहार रहना, यही मेरा धर्म है। और, जो केवल जाननहार हैं वे हमारे लिए आदर्श हैं, पूज्य हैं, उपासनीय हैं। ऐसे उपासनीय भगवान को निरखकर हम भी अपने उद्देश्य में बढ़ें तो वे सब समाधान पा सकते हैं।
पन्च परम पदों का संक्षिप्त स्वरूप और णमोकार मंत्र में निष्पक्षता का दर्शन- जो विकार हित हैं, शुद्ध ज्ञानमात्र हैं, ज्ञानपुन्ज हैं ऐसे समृद्ध हैं कि जिनको तीन लोक, तीन काल के समस्त पदार्थ एक साथ स्पष्ट ज्ञात हो रहे हैं वह है भगवान का स्वरूप। ऐसे भगवान जब शरीर सहित रहते हैं तो उन्हें कहते हैं अरहंत और जब शरीर रहित हो जाते हैं तो उन्हें कहते हैं सिद्ध। तो इसमें कोई पक्ष की बात नहीं आयी। भगवान के स्वरूप का इसमें निर्णय है। भगवान का यह स्वरूप है और ऐसे विकास को प्राप्त करने के लिए जो प्रयत्नशील हैं उनका रूप क्या होता? घर से उन्हें प्रयोजन नहीं है। घर छूट गया, परिग्रह से उन्हें प्रयोजन नहीं, परिग्रह छूट गया। कोई काम काज से, आरंभ से उन्हें कुछ प्रयोजन नहीं रहा। केवल एक आत्मस्वरूप, ब्रह्मस्वरूप, सहजस्वरूप ज्ञानज्योतिमात्र के ध्यान करने का ही प्रयोजन है तो आरंभ भी छूट गया। केवल शरीरमात्र परिग्रह है और अपने आपके उस ज्ञानस्वरूप के ध्यान में यत्न करते वे कहलाते हैं आचार्य, उपाध्याय और साधु। तो इन पंच परम गुरूवों में किसी का भी नाम नहीं दिया गया, आत्मा के विकास का नाम है। अविकार आत्मविकास यही भरा है पंच परम गुरूवों में, इसी कारण इस णमोकार मंत्र का इतना माहात्म्य है कि जो श्रद्धा पूर्वक इसे जपता है उसके लौकिक संकट भी क्षण भर में दूर हो जाते हैं। तो मंत्र में सामर्थ्य इसी कारण आयी है कि जिनका जाप जपा जा रहा वे गुरु विकार रहित ज्ञान आत्मा हैं। कितना इस ज्ञानी संत का निष्पक्ष मार्ग है? नाम तक का भी जहाँ लगाव नहीं हैं। जो ज्ञानपुन्ज है, ज्ञानमात्र है वह भगवान है। देखिये आत्मा के नाते से भगवान का स्वरूप निरखा है उसने। इस अविकारी दृष्टि से भगवान का स्वरूप देखें, तो यह आराधना, यह अविकार ज्ञानस्वरूप की उपासना दुर्गमन का निवारण करा देती है और मोह को भी समाप्त कर देती है।
मोह से बरबादी और निर्मोहता से अभ्युदय- यह मोह इन सारे विश्व के प्राणियों पर ऐसा छा रहा है कि ये सब प्राणी बेहोश पडे़ हैं। लेकिन इस ज्ञानस्वरूप की उपासना में वह माहात्म्य है कि इसके प्रताप से यह मोह भी स्खलित हो जाता है। नष्ट हो जाता है तो जिस पुरूष को समता परिणाम में रूचि जागृत हुई है, जो चाहता है कि मैं रागद्वेष के सब झंझटों से अलग रहकर केवल जाननहार रहूं, ऐसा पुरूष अपने में इस स्वरूप को निरखता है और बाहर में तो समता के पुन्ज है उनको निरखता है। वे हैं ये पंच गुरु सशरीर भगवान, शरीररहित भगवान। और, साधक संन्यासियों के मुख्य मालिक, साधक संन्यासियों को पढ़ाने वाले साधु और साधु ये सब निर्मोह हुए हैं या निर्मोह होने के मार्ग में लगे हुए हैं। मोह ही एक ऐसा शत्रु है जो हम आपको बरबाद किए जा रहा है, हमें उस मोह को त्यागना है, यह दृष्टि होनी चाहिए। जीवन कितना है, कितनी पर्यायें पायीं, सब भवों में मोह किया, पर उस मोह से लाभ कुछ न हुआ अब तक जन्ममरण की परंपरा बनाते चले जा रहे हैं। इस मोह को दूर करने से ही लाभ मिलेगा। यदि आपको अपने परिजनों से प्रेम है तो यत्न यह करना चाहिए कि हम निर्मोह रहकर वीतराग के उपासक होकर अपना कल्याण करें और ये सब भी वीतराग के उपासक होकर अपना कल्याण करें। हम सब परस्पर में एक दूसरे को धर्म मार्ग में बढ़ने में मदद करें। यह है आपकी अपने परिजनों के प्रति सच्ची मित्रता और सच्चा बांधवपना। और, अगर हम खुद उन परिजनों में राग कर रहे, मोह कर रहे तो समझो कि खुद भी बरबाद होंगे और दूसरों को भी बरबाद करने के कारण बनेंगे। तो हम आपको चाहिए कि इस मोहभाव को दूर करें, इस मोह को दूर करने के लिए निर्मोह आत्माओं की उपासना करें। इससे ही हम आपका मोह दूर होगा और इसी से हम आपके जीवन की सफलता है।