वर्णीजी-प्रवचन:समाधिभक्ति - श्लोक 14
From जैनकोष
अनंतानंत संसार संततिच्छेद कारणम्।
जिनराज पदांभोजस्मरणं शरणं मम।।14।।
दु:खी जीवों का शरण लेने से विकल्प में विडंबना- अज्ञान और दु:ख से भरे हुए इस संसार में अज्ञानी और दु:खी जीवों का आश्रय करना शरण नहीं हो सकता है, किंतु जिस किसी भी बिरले पुरूष को अपने आपके संसरण में इस रहस्य का पता हो जाता है यह यही निश्चित करता है कि जो अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्ति से संपन्न है ऐसे ज्ञान ज्योति स्वरूप आत्मा का स्मरण ही शरण है। जिन्होंने संसार की संतति का छेद कर दिया है उनके ही शरण में रहने से हमारा यह उद्देश्य निर्वाध हो सकेगा कि हम अनंत संसार संतति का छेद कर दें। सम्यग्दर्शन की महिमा इस कारण बहुत-बहुत कही गयी है कि सम्यक्त्व भाव में यह सामर्थ्य है कि अनंत संसार संतति का छेद कर दे। किसी मनुष्य को सम्यग्दर्शन हो जाय और कदाचित् सम्यग्दर्शन भंग भी हो जाय और वह मिथ्यात्व में कुछ कम अर्द्धपुद्गल परावर्तन तक भी रूले तो इसके बाद उसे सम्यक्त्व होकर निर्वाण होगा ही, तो इतना बडा़ लंबा समय भी उस अनंत संसार के सामने न कुछ जैसा समय है, उसे भी यही कहेंगे कि अनंत संसार संतति का छेद उस सम्यक्त्व ने पहिले ही कर दिया <छुटगया>जिन पुरूषों के उस सम्यक्त्व के होने के बाद उसका लगाव बना रहता है ऐसे जीवों का तो कुछ ही भव में संसार समाप्त हो जाता है। लोग मोह के वश इन क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक विकारों में बने रहने पर भी अपने आपमें दूसरों से कुछ बड़प्पन मानते रहें, ऐसी प्रकृति बना लेते हैं, लेकिन यह संसार हैं सारा दु:खमय। ये विकार परिणाम क्लेशमय हैं। अपने स्वरूप से चिगकर बाह्य वस्तुओं की ओर झुकाव होना यही सर्व क्लेशों का मूल है।
निज सहज परमात्मतत्त्व की दृष्टि का शरण- जिसने यहाँ अपनी संभाल रखी वह कदाचित् बाह्य क्रियावों में भी रहता हो तब भी वह अपने में सँभाला हुआ रहता है। साधु पुरूष जिसने आत्मानुभव का क्षण-क्षण में अभ्यास किया है ऐसा पुरूष यदि मानो कहीं विहार कर रहा है तो विहार करते-करते भी उसकी दृष्टि अपने ज्ञायकस्वभाव पर पहुंची रहती है। और लोगों को भले ही वह दिखे कि यह विहार कर रहा है, इतना समय हो गया है, यह क्या अभी प्रमत्त गुणस्थान में ही है लेकिन बीच-बीच वह अपनी अनुभूति का स्वाद लेता रहता है और लोगों को अंतर नहीं दिखाई देता है, और उसकी प्रवृत्ति में भी सावधानी है और आत्मस्वरूप की ओर अभिमुख होने में भी सावधान रहता है। अप्रमत्तविरत गुणस्थान का काल सेकेंड के करीब का है, सेकेंड से भी कम का है और उससे भी कुछ अधिक का है, इतने समय दृष्टि आ जाना यह बात अभ्यास करने वाले के लिए सहज है, एक क्षण की भली दृष्टि का प्रताप ऐसा है कि बहुत काल तक भी उसके प्रताप से अनाकुलता रहती है, तो जो विकासपसंद जीव हैं उनकी शरण लेना यह अपने लिए लाभकारी बात नहीं है। जो अविकार ज्ञानस्वभाव की ही रूचि रखते हैं और इस कारण उनको बाह्य में प्रीति नहीं, बाह्य में अधिक वृत्ति नहीं, सहज प्रवृत्ति है, जान लगाकर नहीं, उपयोग लगाकर नहीं, दूसरों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए नहीं किंतु अपनी दृष्टि के लिए अपने वचन बोलते हैं, अपनी संभाल करते हैं, साथ ही कुछ कषायें लगी हैं उससे प्रवृत्ति चलती है, लेकिन उसमें अपना लाभ प्राप्त कर लें उनकी योग्यता पर निर्भर है। पर यह निश्चित है कि विकार में यदि रूचि जगे तो वह अनंत संसार का कारण है और विकार करना पड़ रहा है, पर विकार में रूचि नहीं जगती है तो उनकी अनंत संतति समाप्त हो जाती है।
जैनशासन के लाभ का सदुपयोग उठाने का निर्देश-देखिये जैन शासन पाया तो इसका खूब सदुपयोग उठायें और लाभ भी लें, सदुपयोग भी करें, आपके ज्ञान द्वारा साध्य है, कोई शरीर का कष्ट नहीं उठाना है। कोई धन वैभव कम है तो उसकी हैरानी यहाँ बाधक नहीं है। केवल एक अपनी ज्ञान दृष्टि से अपने में अपने को निरखना है। वह बात यदि की जा सकी तो ये सर्व समागम हमारे लिए लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं। प्रभु ने अनंत संसार की संतति का छेद कर दिया है, अब संसार से अत्यंत अलग हैं, संसार उनमें नहीं पडा़ हुआ है, ऐसे जिनेंद्र देव के चरणों का स्मरण ही मेरे लिए वास्तविक शरण है। धन्य होगा वह क्षण जबकि प्रभुभक्ति में हमारा समय अधिक बीते। जिसका प्रभुभक्ति में समय अधिक लग सकता है और सच्ची पद्धति से लग सकता है वह अपने आपमें अपने सहज ज्ञानस्वरूप की भी उपासना अनेक बार कर लिया करता है। जिसको जिसमें रूचि है वह उसका ही संग अधिक करना चाहता है। जिसको अपने अविकार ज्ञानस्वरूप की अनुभूति के लिए रूचि जगी है ऐसा पुरूष ही जिनराज के चरणस्मरण में अपना समय लगायेगा और जिसको नहीं रूचि जगी है अपने आपके सहजस्वरूप की तो उसका तो लोक में ही मनोरन्जन करके समय गुजरेगा। समय पर्वत से गिरने वाली नदी की तरह वेगपूर्वक गुजर रहा है। जो समय गुजर गया वह किसी भी उपाय से वापिस नहीं आने का। जिसकी जितनी आयु गुजरी है उसका अब कोई क्षण वापिस नहीं आने का। अब जितना समय रह गया है वह भी एकदम धड़ाधड़ गुजर ही तो रहा है। समय गुजर जायगा, और कुछ इस जैन शासन से लाभ न लिया जा सका तो सिवा पछतावा के और कुछ हाथ न आयगा अथवा पछतावा तक की भी बुद्धि न रहेगी। किसी अज्ञान वाले भव में उत्पन्न होंगे। तो यद्यपि मन नहीं लग रहा है धर्मकार्यों में विशेष, ऐसे अनेक जीव हैं, लेकिन धर्म की ओर ध्यान अवश्य है। उन्हें यह चाहिए कि धर्म में मन तो लगाये से लगेगा। उसके लिए यह आवश्यक है कि ऐसे ग्रंथों का स्वाध्याय करें कि जिनमें कुछ मन लग जाय और, यह सिलसिला यदि बन गया तो यह मन नियंत्रित हो जायगा और फिर धर्म के लिए हमारी सच्ची रूचि जग जायगी। ये सब कार्य सिद्ध हो जायेंगे। वीतराग सर्वज्ञ देव की भक्ति में रहकर अकिन्चन ज्ञानमात्र, ज्ञानानुभव की ही धुन रखने वाले साधुवों की सेवा में हमारा यह कार्य सिद्ध होगा। और निश्चयत: मेरी अपने आपकी दृष्टि की निर्मलता से ही मेरा कार्य सिद्ध होगा।
बाह्य में शरण की मान्यता की मूढता- इस लोक में हम आपका बाहर में कहीं कुछ भी शरण नहीं है। देखिये कितनी भली बात, सुगम बात, आनंददायक समाचार हमें जैन शासन ने दिया है। इस आत्मतत्त्व के ज्ञान बिना धर्म के नाम पर भी हम कहाँ कहाँ अपना दिल लगाते हैं, कितनी दयनीय अवस्था होती, अटपट कहानियों में, अटपट ऋषिजनों की करतूत में, हम सुनकर वाह-वाह करते, कितना मिथ्यात्व में पुष्ट रहा करते, और अब मिला है यह जैन शासन, जिसके कारण अब हमारा गल्पवाद में विश्वास नहीं रहा। जो सत्य हो, समीचीन हो उसमें ही विश्वास रहे। जो सत्य हो, समीचीन हो उसमें ही विश्वास करने की प्रवृत्ति बने। यह वस्तुस्वरूप अगर हमारे प्रयोग में, ज्ञान में, परीक्षण में सही उतरता है तो हम उसे मानने में तैयार रहें। खूब परख करके वस्तुस्वरूप का निर्णय कर लीजिये, सबकी स्वतंत्रता का निर्णय कर लीजिए। अणु-अणु प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है। किसी भी पदार्थ का किसी भी अन्य पदार्थ पर कोई वश नहीं चलता। निमित्तनैमित्तिक भाव तो इसका माना है कि उस योग्य परिणम सकने वाला उपादेय योग्य निमित्त पाकर स्वयं अपने आपमें ऐसा प्रभाव बनाता है कि वह अपने परिणमन से परिणम लेता है। निमित्त ने कोई अंश ग्रहण नहीं किया। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का अत्यंताभाव है। उपादान का निमित्त में, निमित्त का उपादान में तो अत्यंताभाव है लेकिन कार्य के प्रति अन्वयव्यतिरेक का संबंध है, वही निमित्त कहलाता है। घर में रहने वाले जितने जीव हैं वे सब स्वतंत्र हैं। पिता ने कह दिया, बेटा बेटी ने मान लिया तो पिता खुश होता है, हमारे ये पुत्र पुत्री बड़े आज्ञाकारी हैं। देखो जो हम कहते हैं सो ये करते हैं, लेकिन ऐसा हो कहाँ रहा है? पिता के कहने से वे बेटी बेटा काम नहीं करते, नहीं परिणमते, किंतु उन बेटा बेटियों के भी भाव लगा हुआ है, कषाय लगी हुई है, स्वार्थ लगा हुआ है कि जिस प्रकार पिता कहे उस प्रकार से यदि मैं परिणति बनाऊँ तो मुझे बडा़ सुख होगा। मुझे बड़े आराम से रहने को मिल जायगा, यह पिता ऐसी ही चेष्टा करेगा जिससे मुझे सुख हो। वे बेटा बेटी तो ऐसे भावों में करके अपनी चेष्टा कर रहे हैं और यह पिता ऐसा भ्रम करता है के ये मेरे बेटी बेटे बड़े आज्ञाकारी हैं। अरे कौन किसका आदेश मानता? कौन किसकी इच्छा से परिणमन किया करता? सभी अपने-अपने भावों के अनुसार अपना-अपना परिणमन करते हैं।
वस्तुत: बाह्य में शरण का अभाव- यहाँ इन विकारी जीवों के बीच रहकर हम जब कभी थोड़ा बहुत यह निरखते हैं कि ये मेरे बहुत प्रेमी हैं, ये मेरी बहुत खबर रखते हैं, हमको सुख साधन की सुविधा दिया करते हैं। ये सब बातें भ्रम की हैं, कोई किसी को मानने वाला नहीं, मानना तो दूर रहा, पहिचानता तक तो है नहीं। मुझे कौन पहिचानता है? इन संसारी जीवों में, इन परिजनों में जिनमें हमारा मोह बस रहा ये सब मेरे को जानते तक भी नहीं हैं। वस्तुत: मैं क्या हूं? यह देह मैं नहीं, ये कषाय मैं नहीं, यह ऊपरी भेष भूषा मैं नहीं। मैं तो नाम रहित ज्ञान स्वभाव वाला एक सत् हूं, पदार्थ हूं, इसको ये लोग कहाँ जान रहे? और यदि कोई जान जाय तो उसके लिए मैं कहाँ रहा? उसकी दृष्टि में तो ज्ञान स्वरूप ही रहा। मैं तू आदिक जो व्यक्ति भेद है ये भेद मेरी निगाह में नहीं है जो मुझसे व्यवहार करता है, वार्तालाप करता है, सेवा शुश्रूषा आदिक जो कुछ भी करता है वह मुझे पहिचानता तक भी नहीं है। तो वह मेरा क्या कर देगा? अथवा मैं ही उसका क्या करता हूं? मैं अपने में ही बसा हुआ रहता हूं, मैं अपने में गुनगुनाता रहता हूं, भाव करता हूं, इच्छा करता हूं, दु:खी रहता हूं, सुख मानता हूं, अशांत रहता हूं, मैं दुनिया में किसी दूसरे का कर ही क्या सकता हूं, यह दृष्टि जब जगती है तब वह वास्तविक शरण की खोज करता है और वह वास्तविक शरण इसे बाह्य में मिला तो यह वीतराग सर्वज्ञदेव के गुणों का स्मरण, सो वह भी देव मेरे लिए शरण नहीं, किंतु देव के स्वरूप का स्मरण मेरे लिए शरण है तो वस्तुत: यह मैं ही अपने लिए शरण बना। तो यह जिनराज के चरण कमल का स्मरण, इनके स्वरूप का स्मरण, इनके ज्ञान दर्शन स्वरूप का स्मरण मेरे लिए शरण है और यही अनंतानंत संसार की संतति के छेद का कारण है।
संसारसंततिच्छेद का त्वरित और आवश्यक कर्तव्य- एक अमोघवर्ष राजा एहु और वे अंत में निर्गंथ साधु भी हुए। उन्होंने प्रश्नोत्तर रत्नमालिका रची। उसमें एक प्रश्न किया है कि अगर बुद्धि मिली है, ज्ञान मिला है तो विवेकी विद्वान पुरूषों को क्या कर लेना चाहिए? तो इसका उत्तर देते हैं। संसार संततिच्छेद: अर्थात् संसार की संतति का विनाश कर देना चाहिए। इससे उत्कृष्ट और कोई काम नहीं है। किसी की कृपा, किसी की आशा, किसी की प्रतिक्षा, किसी का प्रेम, किसी का अनुराग चाहने से क्या लाभ है? लाभ तो इसमें है कि हम आपने सत्त्व के ही कारण अपने आप जैसा हूं, उस सहज स्वरूप का निर्णय करूँ। उस सहज स्वरूप का अनुभव करूँ, सर्व विकल्पों का परिहार करके मैं अलौकिक स्थिति में आ जाऊँ, यह बात मेरे में मेरे से धीरतापूर्वक अपने आपमें समाया हुआ सा होकर, अंतर्भूत सा होकर, अंतर्धान सा होकर पा ली जाती है। इसमें दूसरे की आशा की जरूरत नहीं कृपा की जरूरत नहीं, आधीनता की आवश्यकता नहीं, अपेक्षा की जरूरत नहीं।
बाह्य स्थिति की उपेक्षा करके अंतर्दर्शन का अनुरोध- पाप के उदय आ रहे आने दो। पाप के उदय से मेरा बिगाड़ नहीं है, किंतु पापरूप बनने में मेरा बिगाड़ है। पाप के उदय क्या करेंगे? ज्यादा से ज्यादा या तो बाह्य सामग्री मेरी नष्ट हो जाय, धन वैभव कुछ कम हो जाय या नष्ट हो जाय, बाह्यपदार्थ यह जो शरीर है उसमें कोई रोग हो जाय, या अधिक से अधिक हमारी मृत्यु हो जाय इससे अधिक यह पाप का उदय और क्या प्रहार कर देगा? लेकिन मैं अपने आपमें ज्ञानरूप ही हूं। मैं अंत: यदि ज्ञायकस्वरूप की दृष्टि बनाये रहूं, मैं ज्ञान को ज्ञान में लिए रहूं तो धन वैभव चाहे सारा हट जाय, उससे इस मेरे आत्मा का कोई बिगाड़ नहीं है। शरीर में रोग हो रहे हैं, रोग होने दो, यह शरीर तो किसी दिन जलाया भी जायेगा इसकी क्या शोभा निरखना, इसकी क्या प्रक्रिया करना, क्या श्रृंगार करना, क्या खैर मानना? निरोग रहकर भी क्या मौज मानना? रोग होता हो तो होने दो।रोग से मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं।मैं अपने आपमें अपने आपके स्वरूप की दृष्टि लिए हुए हूं तो मैं अपने में तो स्वस्थ हूं ना, मेरा तो सही स्वास्थ्य है।देह तो मैं हूं ही नहीं, यह तो गंदा है।यह तो पुद्गल है, इसमें क्या रखा? यदि मैं अपने स्वरूप की संभाल में रहूं तो मैं स्वस्थ हूं।पाप का उदय क्या करेगा? अधिक से अधिक यह करेगा कि मृत्यु हो जायेगी।होने दो मृत्यु, कहीं भी जाऊँगा, उसकी भी मैं कल्पना नहीं करना चाहता।मैं मैं हूं, मैं अपने स्वरूप को निरखे रहूं, बस फिर कुछ भी बातें, कोई भव मिले, कुछ भी स्थिति बने, मैं अपने आपमें समाया हुआ रहूं, फिर मेरा कोई कुछ बिगाड़ कर सकने वाला नहीं है।यदि पुण्य का उदय आया तो इसका भी क्या उठता? जैसे लोक व्यवहार में कहते हैं कि इसका मैं क्या करूँ? इसका तो कुछ भी नहीं उठता।इस लोक में हम आप सब जीव बिल्कुल अकेले ही अकेले हैं।इसका कोई दूसरा न कभी हो सका, न हो सकेगा।इन अनंत जीवों में से दो चार जीव यदि घर में उत्पन्न हो गए और वे बड़े रूपवान, वे हुए बड़े कलावान, वे हुए बड़े आज्ञाकारी, यह तो पुण्य के उदय में मिला, लेकिन ये सब हमारी बरबादी के तेजी से कारण बन रहे हैं।उनमें हम मोहित होते हैं, राग बढ़ाते हैं, अपने आपको भूलते हैं और उस बीच अनेक बार दु:ख भी सहते रहते हैं, अनेक दु:ख सहते हैं, इस पुण्य के उदय का क्या उठ गया मेरे लिए? ये सब पूर्णतया बेकार हैं।अपने आपके स्वरूप की संभाल में दृष्टि देकर इन सब बातों पर विचार करिये- जहाँ स्वरूप दृष्टि से हटे और आँखें खोल कर इन मोही, अपवित्र, कर्मप्रेरित अज्ञान भरे लोगों के बीच में आये, इन लोगों में अपना बर्ताव बढ़ाया, व्यवहार बढ़ाया तो अब अनर्थ बढ़ने लगे।अब लौकिक प्रतिष्ठा की भी पड़ गई।अब राग द्वेष मोह भी बढ़ने लगे।अब बाहरी विभूति के बढ़ाने में ही अपना बड़प्पन माना जाने लगा।सारे अनर्थ बढ़ने लगे और इनमें आकुल व्याकुल होने लगे।
विपरीत में लगाव न रखकर अनुरूप में लगाव का कर्तव्य- देखो भैया बाह्य में ये सब जितने बढ़ गए हैं ना, वे सब उल्टे रास्ते में बढ़े हैं और जितना पढ़ गए हैं ना वे सब उलटी पाटी पढ़़े हैं।उन सबको भूल जाइये और फिर अपने आपकी पाटी पढ़िये, अपनी दृष्टि करिये, उन सबको हम व्यर्थ ही जड़ समझते हैं।तो अपने आपको जो ऐसा अनुभव करे कि मैं इस लोक में अकेला ही हूं और जो कुछ बीतेगी मुझ अकेले पर ही तो बीतेगी।और जो कुछ मुझे करना है वह अकेले ही तो करना है।मेरा और साथी नहीं, कोई शरण नहीं, कोई मददगार नहीं, मेरे परिणामों में जब आकुलता होती है, अज्ञान जगता है, मोह उठ रहा है, उससे दु:ख हो रहा है उसको मिटाने के लिए स्त्री पुत्रादिक समर्थ नहीं हैं।इसकी चेष्टा तो उस मोह के दु:ख को बढ़ाने का कारण बनेगी।कितना अपने आपको अपने में नियंत्रित करना है, कैसे करना है, कैसा अपने आपमें अपने को समा देना है, यह बात सीखने से मिलती है, वीतराग सर्वज्ञदेव के स्वरूप से उनकी भक्ति से।इस कारण लोक में मुझे यदि कोई शरण है तो निष्काम निर्विकार पूर्ण पवित्र ज्ञानपुन्ज परमात्म का स्मरण ही शरण है।
प्रभु से शरण्यता का नाता- प्रभु से मेरा शरण पाने का नाता बहुत जल्दी बन जायगा।जैसे यहाँ कहते ना कि इसका और इसका नाता बहुत जल्दी हो जायगा क्योंकि यह भी समझदार धनी और समझदार धनी।अरे यहां के रिश्ते पक्के कच्चे हों न हों, पर मेरा और प्रभु का रिश्ता अवश्य ही जल्दी पक्का हो जायगा, कारण यह है कि मेल खा गया है। मुझमें मेरा स्वरूप भी परमात्मा सदृश दिखा है और परमात्मा का जो विकास है वह जिस कारण परमात्मतत्त्व का आलंबन लेकर हुआ है वह मेरे ही समान है, और जब मेरी सदृशता है तो मेरा और भगवान का जो रिश्ता है यही सही और पक्का बनेगा, दूसरे के साथ हमारा पक्का रिश्ता हो ही नहीं सकता।तो इतना सुगम इतना निकट इतना स्वाधीन यह परमात्मा का मेरा संबंध, यही मेरे लिए शरण बनेगा, दूसरा और कोई मेरे लिए शरण न होगा, तो जो समाधि भाव को इष्ट मान रहा है समाधिभक्त संत समाधि की साक्षात् मूर्ति जिनेंद्र भक्ति के स्तवन को शरण मानकर बस यहाँ ही तृप्त होता है।