वर्णीजी-प्रवचन:समाधिभक्ति - श्लोक 4
From जैनकोष
गुरूमूले यतिनिचिते चैत्यसिद्धांतवाधिसिदोषे।
मम भवतु जन्मजन्मनि संन्यसनसमन्वितं मरणम्।।4।।
समाधिभक्त की ससंन्यासस्मरण की भावना- मेरा जन्म-जन्म में संन्यास सहित मरण होवो।जो बात उत्तम है, आत्मा को हितकारी है, उसकी भव-भव में अभ्यर्थना करना चाहिए, ऐसी प्रकृत्या वाणी निकलती ही है।देखिये कहां तो मरण की भावना और उसका फल है मरणविनाशक जो मरण जन्म से छुटकारा दिलाने वाला है और उस मरण की प्रार्थना करना कि भविष्य में मेरा संन्यास सहित मरण हो।अर्थ उसका यह है कि जहां संन्यास पूर्वक मरण होगा तो उसके भव विशेष रह ही नहीं सकते।लेकिन जो शरणभूत तत्त्व है उसकी इतनी विशिष्ट अभ्यर्थना करना यह उसकी रूचि का द्योतक है, जीव का उपकारी मरण है।मरण के बाद पुराने भव की सब आपत्तियां छूट जाती हैं तथा सदा के लिए जन्म न हो ऐसे निर्वाण की प्राप्ति मरण के बाद ही होती है।सो ऐसे अलौकिक मरण का नाम है निर्वाण।जिस मरण के बाद फिर इस जीव का देह में जन्म न हो उस मरण को निर्वाण कहा गया है।अथवा इसे पंडितपंडितमरण भी कहते हैं।पंडितपंडितमरण का साधक संन्यासमरण मुझे प्राप्त हो, ऐसा मर्म इस भावना में है।
पाँच प्रकार के मरणों में से बालबालमरण, बालमरण, बालपंडितमरण का निर्देशन- मरण 5 प्रकार के होते हैं- बालबालमरण, बालमरण, बालपंडितमरण, पंडितमरण, पंडितपंडितमरण।बालबालमरण का अर्थ है अत्यंत अज्ञान अवस्था में मरण होना।जहां सम्यक्त्व नहीं है, मिथ्यात्व से वासित चित्त है, मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव को बालबाल कहते हैं।बिल्कुल बच्चा याने अज्ञानी।उसके मरण का नाम है बालबालमरण।बालमरण कहते हैं अविरत सम्यग्दृष्टि के मरण को।अविरत है, व्रती नहीं है इस कारण वह बच्चा है लेकिन सम्यक्त्व है।मिथ्यात्व नहीं रहा इसलिए बिल्कुल बच्चा न रहा, इसलिए उसे बालबाल न कहकर बाल शब्द से कहा है।बालमरण अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि जीव का मरण।तीसरे मरण का नाम है बालपंडितमरण।जो गृहस्थ है, उत्तम श्रावक है, पंचम गुणस्थानवर्ती है, जिसका प्रतिमा प्रतिमारूप नियम है, जो अपने जीवन में बड़ी शांति से रह रहा है, मरणकाल में संन्यास की भावना हुई है ऐसे धार्मिक गृहस्थ के मरण का नाम है बालपंडितमरण।चूंकि कुछ व्रत आ गए हैं, संयमासंयम पालन किया है इस कारण तो है यह पंडित किंतु पूर्णसंयम प्राप्त नहीं हुआ है इस कारण है यह बाल।इसके मरण को कहते हैं बालपंडितमरण अर्थात् प्रतिमाधारी गृहस्थ श्रावकों का संन्याससहित मरण।
पंडितमरण का निर्देशन- चौथे मरण का नाम है पंडितमरण।जो सकलव्रती है,
निष्परिग्रह हैं, केवल आत्मा की उपासना में ही जिसकी धुनि है ऐसे मुनियों का जो संन्यासपूर्वक मरण होता है उसको पंडितमरण कहते हैं।वे पंडित हो गए।पंडित का अर्थ है-‘पंडां इत: इति पंडित:, जो विवेकबुद्धि को प्राप्त हो गया है, यह करने योग्य है यह नहीं इसका विवेक जिसे स्पष्ट प्रकट हुआ है ऐसे पुरूष को पंडित कहते हैं।पंडित शब्द का बहुत ऊँचा अर्थ है, किंतु आजकल तो जो व्यक्ति रसोई बना दे, पानी भर दे उसे भी पंडित कहते हैं।लोग तो अपने नौकरों का नाम रखते हैं पंडित।पर पंडित शब्द का कितना ऊँचा अर्थ है कि विवेक बुद्धि वाला पुरूष।विद्वान तो जब ऐसा विवेक बुद्धि वाला पुरूष ब्रह्म तत्त्व का ज्ञानी पंडित कहलाया और उसका लड़का निकला मूर्ख तो लोग उसे भी पंडित कहने लगे।जैसे यहां मास्टर के लड़के को भी लोग मास्टर कह दिया करते हैं, ऐसे ही पंडित के लड़के को भी लोग पंडित कह देते हैं, तो नाम तो केवल पंडित रह गया मगर उसमें कुछ गुण नहीं, कोई विवेक की बात नहीं।वे पंडित केवल रसोई बनाने की नौकरी करने लायक ही रह गए।तो रूढ़ि में इस पंडित शब्द की मिट्टी पलीत कर दी गई।पंडित का नाम है पूज्य ऋषि संतों का संन्यासपूर्वकमरण।
पंडितपंडितस्मरण का निर्देशन- पंडितपंडितमरण कहते हैं निर्वाण को।चार घतिया कर्मों के जिनके विनाश हुआ है अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंतशक्ति, अनंत आनंद जिनके प्रकट हुआ है, सशरीर परमरत्मा हैं, सगुणब्रह्म, सकल परमात्मा, उनके शेष चार अघातिया कर्म जब नष्ट होते हैं, आयु भी नष्ट होती है तो शरीर छूट जाता है और वह निकलपरमात्मा अशरीर परमात्मा हो जाता है तो इसे कहते हैं निर्वाण।पर निर्वाण में भी आयु का क्षय तो होता ही है।चार अघातिया कर्मों का क्षय होता है।तो आयु के क्षय का नाम मरण है।तो निर्वाण कहो अथवा मरण कहो, कोई भिन्न बात तो न रही, लेकिन उस मरण के बाद अब कभी भी जन्म नहीं होना है, इस कारण उसे पंडितपंडितमरण कहते हैं।यहां समाधिभक्त संत अपने लिए संन्याससहित मरण की प्रार्थना कर रहा है।
संन्यासमरण का प्रभाव- ऋषि संतों ने बताया है कि यदि संन्याससहित मरण किसी का बन जाय अर्थात् मरण समय में रागद्वेष मोह के विकल्प विकार न आयें और शुद्ध चैतन्य स्वरूप के स्मरण सहित मरण हो जाय तो संन्यास मरण करने वाला अधिक से अधिक कुछ ही भवों में निर्वाण को प्राप्त होगा।समाधिमरण की इतनी बड़ी महत्ता है।लेकिन घर में जिस बड़े ने या किसी ने जिंदगी भर घर की सेवा की, परिजनों की सेवा की, सारा जीवन उनके ही लिए लगाया, यों कहो कि कोल्हू के बैल की तरह भी जुते, अपने आपका कुछ उपकार करने का भी अवकाश नहीं पाया इस तरह तो परिजनों के लिए जिंदगी लगाया, लेकिन मरण समय में न परिजनों को यह ख्याल है कि इनका एक दो घंटे का समय धर्मसाधना पूर्वक व्यतीत हो, आत्मस्वरूप की भावना में और प्रभुभक्ति में व्यतीत हो, ऐसा इनका सुयोग मिलायें, ऐसी भावना तक भी परिजनों में नहीं होती।मरते मरते तक भी खाने पीने दवा और प्रकार के आराम, खुशामद, ये सभी तरह की दुनिया की खुशामदें तो करेंगे, पर धार्मिक सेवा का ध्यान नहीं रहता और परिजन भी क्या करें? मरने वाला भी स्वयं ऐसी राग मोह भावना में रहता है कि उसका भी चित्त नहीं चाहता किंतु वह पुरूष धन्य है जिसका चित्त मरण समय में सल्लेखना संन्यासपूर्वक मरण की अभिलाषा रखता है और वे कुटुंबीजन धन्य हैं जो उस मरने वाले के प्रति सच्ची मित्रता निभाते हों।समाधिमरण का बहुत ऊँचा महत्त्व है।
गुरूमूल में संन्यासमरण की अभ्यर्थना- यह समाधिभक्तसंत अपनेलिए अभ्यर्थनाकर रहा है किमेरा जन्म-जन्म में संन्यास सहित मरण होवे।गुरु जहाँ विराजमान हों उनके चरणों के निकट में मेरा संन्यास मरण होवे।इस जीवन के सच्चे सहाय, शरण, साथी गुरु ही हैं।जीव को मिलता क्या है? केवलभाव।हर जगह किसी भी प्रसंग में यह भाव ही बनाता है।भावों के अतिरिक्त अपने में और कुछ प्राप्त नहीं करता।जो बाहरी पौद्गलिक संपदा ढेर है, जिसको पाकर लोग समझते हैं कि मुझे इतने का लाभ हुआ है, मेरी संपदा इतनी बढ़ गई है, तो यह विकल्प किया करें, पर संपदा तो संपदा की जगह है।संपदा के स्वरूप में उसका रंचमात्र भी लेश भी वहाँ से निकलकर उसके आत्मा में नहीं आया, तो फिर लाभ क्या रहा? सर्वथा यह जीव पर से रीता ही रहता है।फिर रागी, द्वेषी, मोही, परिजन, मित्रजन, रिश्तेदार इन संबंधियों का जो शरण है, इनके मूल में, इनके बीच में जो मरण है वे इसके मरण के बिगाड़ने के कारणभूत हैं।कोई कोई ही ज्ञानी संत परिजन मित्रजन होंगे कि जो इसके संन्यासमरण की चाह करते हों।
मुनिसमुदाय के मध्य संन्यासमरण की अभ्यर्थना- मरण समय में जैसेभाव होते हैं वैसे संस्कार चलते हैं और जन्म समय में जो संस्कार बना उसका प्रभाव जीवन भर रहता है।यदि समतापूर्वक मरण हो, प्रभुभक्ति सहित मरण हो तो ऐसा पुण्यवान जीव अगले भव में भी पुण्य संपदा को भोगेगा और पूर्ण महत्त्व तो इसमें है कि ऐसी सद्बुद्धि जगे कि समस्त परतत्त्वों से विरक्ति बने और आत्मस्वरूप में रमण हो।ये सब बातें संन्यासमरण के प्रताप से सुगम हो जाती हैं।हे प्रभो ! मेरा संन्यास सहित मरण हो और गुरु के मूल में, जो मेरे शिक्षक हैं, आचार्य हैं उनके चरणों में मेरा संन्यास सहित मरण हो।मुनियों के समुदाय में मेरा मरण हो।इस जीव पर प्रभाव पड़ता है वातावरण का, जैसे मंदिर में शास्त्र पढ़ रहे हों, तो इतना बड़ा कमरा बहुत से लोगों के घर में है और वहाँ शास्त्र पढ़ने कोई बैठ जाय, सुनने वाले लोग सुनने बैठ जायें तो यह वातावरण कहाँ प्राप्त हो सकता है।जहाँ बहुत से मुनिजन विराजे हों, जो संसार शरीर भागों से विरक्त हैं, जिनकी केवल एक आत्मस्वरूप में समा जाने की धुन है, ऐसे मुनि समुदाय के बीच पहुंचते ही उपयोग बदल जाता है।
मुनिसंग से अधमों का उद्धार- देखिये गुरूसत्संग का महत्त्व- अधम से अधम पुरूष भी मुनि संग क्षणमात्र को भी पाकर तिर गए।एक कथानक में कहते हैं कि कोई लकड़हारा था।वह बहुत गरीब था।एक दिन वह जंगल में लकडियाँ बीनने गया था।वह बेचारा फटी पुरानी धोती का एक टुकड़ा लंगोटाकार रूप में पहिने हुए था।उसे जंगल में एक निर्ग्रंथ मुद्राधारी मुनिराज के दर्शन हुए।उन्हें देखकर सोचा- ओह ! मैं व्यर्थ ही अपनी गरीबी के कारण दु:खी रहा करता हूं, यह व्यक्ति तो मेरे से भी गरीब, अधिक गरीब है।इसके पास तो एक भी वस्त्र नहीं है।खैर, थोडी देर को वह लकड़हारा उस मुनि के पास गया।मुनि ने उसे देखते ही अपने ज्ञानबल से जान लिया कि यह भव्य है, इसकी सिर्फ तीन चार दिन की ही आयु शेष है।मुनिराज ने उसे कुछ उपदेश भी दिया।बाद में जब मुनिराज चर्या के लिए पास के किसी नगर में गए तो वह लकड़हारा भी मुनिराज के पीछे-पीछे गया।वहाँ तो बीसों चौके लगे थे और सभी लोग हाथ जोड़-जोड़कर मुनिराज को आहार करने बुला रहे थे।मुनिराज ने तो आहार ले लिया और नगर के लोगों ने उस लकड़हारे को भी ब्रह्मचारी जैसा समझकर आहार के लिए बुलाया।तो जब पहिले से ज्यादा आदर हो जाता है तो उस आदर से ही पेट भर जाता है।खाना, पीना नहीं चलता।आहार करके फिर मुनिराज जंगल आये और दो दिन का उपवास का नियम लेकर ध्यान में बैठ गए।वह लकड़हारा भी उसी जंगल में आकर मुनिराज के पास बैठ गया।जब दूसरा दिन हुआ तो वह लकड़हारा बोला- आज भी आप आहार लेने चलिए, देखो हम तो कल भूखे रह गए।मुनिराज मौन रहे।तो वह लकड़हारा मुनिराज का पिछी कमंडल लेकर नगर पहुंचा तो नगर के लोगों ने उसे क्षुल्लक समझकर बड़े आदर से बीसों लोगों ने पड़गाहा।उस दिन भी विशेष आदर होने से आहार न लिया।लोगों ने सोचा था कि हम लोगों से विधि नहीं बनी, इसलिए इन महाराज ने आहार नहीं लिया।अब वह लकड़हारा उसी जंगल में आया और पिछी कमंडल मुनिराज के पास रख दिया।वह लकड़हारा उस मुनिराज के पास बैठ गया।मुनिराज ने ध्यान समाप्त होने के बाद उसे उपदेश दिया, तत्त्वस्वरूप बताया, उसका होनहार अच्छा था।उसे ज्ञानप्रकाश हुआ।मुनिराज ने बताया कि तेरी आयु शीघ्र ही समाप्त होने वाली है, इस थोड़े से समय में तू अपना कल्याण कर ले।उस लकड़हारे ने वहीं पर नियम संयम के व्रत लिए औरसंन्यासमरण करकेस्वर्गादिक में उत्पन्न हुआ।तो प्रयोजन यह है कि सज्जनों का क्षणमात्र का भी संग इस जीव के भले का कारण बनता है।भैया ! कुसंग से मिथ्या विपरीत मार्ग में दृष्टि लग रही है, बस उतना ही तो फर्क है कि बुद्धि असार विकल्पों का ओर लग रही है, बस उनसे हटने की बात है।कोई संग मिले और उस असार विपरीत मार्ग से बुद्धि हट जाय, फिर उसके लिए मार्ग तो खुला ही हुआ है।
जिनबिंब के निकट संन्यास मरण की अभ्यर्थना- यहाँ समाधिभक्त ज्ञानी संत यह अभ्यर्थना कर रहा है कि हे प्रभो ! मेरा संन्यास सहित मरण हो और मुनि समुदाय के बीच हो।जहां जिनबिंब निकट हो, जिन प्रतिमा जो मूर्ति, लोगों को मानो उपदेश दे रही है कि ऐ संसार के प्राणियों ! इस जगत में कुछ सार नहीं है तुम अकिन्चन हो, देह से भी निराले हो, सर्व परिग्रहों की वान्छा छोड़कर, सबसे रागद्वेष छोड़कर ऐसी निर्ग्रंथ मुद्रा में रहो और अपने आपमें प्रभु को निरखो तो तुम्हें प्रभु के दर्शन होंगे और सत्य अलौकिक आनंद की प्राप्ति होगी।जिसकी मुद्रा अकिन्चनरूप में है, कोई वस्त्र नहीं, कोई स्त्री पुत्रादिक नहीं, कोई हथियार नहीं, केवल गातमात्र है और वह भी एक पद्मासन्न से ध्यानस्थ, जो मुद्रा संकेत कर रही है कि दुनिया में कोई भी स्थान ऐसा नहीं जहाँ जाया जाय तो सार मिले, इस कारण पैरों में पैरों को जकड़ करके मैं बैठ गया हूं।अब मुझे कहाँ जाना है? लोक में ऐसा स्थान नहीं जहां कोई लाभ की बात प्राप्त हो सकती हो, जगत का कोई भी कर्तव्य ऐसा नहीं जो मेरे भले के लिए हो, इसलिए हाथ पर हाथ रखकर बैठा हूं, हे भक्त ! तुम भी इसी मुद्रा में बैठकर अपने आपमें प्रभु का दर्शन करो।कुछ भी बात यहां ऐसी नहीं है जो बोली जानी चाहिए।बोलने में क्या सार है? उस बोलने का परित्याग करके पूर्ण मौन से रहो।लोक में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिसको आंखों देखा जाय, जो देखने लायक हो, जो मेरे लिए कोई सार लाभ की बात दे सकता हो।इस कारण ये नेत्र देखो- पर को देखने से रहित हैं।नासाग्रदृष्टि:।तो नासिका के स्थान पर जिसकी दृष्टि है, अपने आप ऐसी मुद्रा भव्य जीवों को उपदेश दे रही है।तो जिसकी मुद्रा के दर्शन से ही बहुत से पाप संकट टल जाते हैं- उस जिन-बिंब के समक्ष मेरा संन्यास सहित मरण हो।
मूर्ति में मूर्तिमान की पूजा- भैया ! अब आजकल साक्षात् भगवान् के दर्शन तो होते नहीं इस क्षेत्र में, तो भगवान की मूर्ति में ही भगवान की स्थापना करके उससे कुछ शिक्षा ग्रहण करते रहें।वह मूर्ति ही भगवान् नहीं है, किंतु जब जिसके प्रति विशेष आदर होता है तो उसकी हम फोटो में, मूर्ति में स्थापना करते ही हैं।जैसे यहाँ ऐसा रिवाज है कि लोग अपने घर के किसी बड़े बाबा दादा आदि के मरण हो जाने के बाद उनकी फोटो बनाकर उस फोटो को ही उस रूप में मानकर पूजते हैं।उस फोटो का अगर कोई अनादर करे तो वह अनादर किसी को सहन नहीं होता है, इसी तरह से भगवान के भक्त लोग भगवान की स्थापना मूर्ति में करके उस मूर्ति को भगवान के रूप में मानकर पूजते हैं।तो उस मूर्ति को वे नहीं पूजते किंतु उस मुर्ति में स्थापित ज्ञानानंद पुंज, ज्ञायक स्वभाव भगवान को पूजते हैं कि हे प्रभो ! मेरा जिनबिंब के निकट संन्यास सहित मरण होवो।
समाधिभक्त की सिद्धांतवार्द्धिसद्घोष के बीच संन्यासमरण की अभ्यर्थना- समाधिभक्त संत यहाँ अभ्यर्थना कर रहा है कि जहाँ पर सिद्धांतरूपी समुद्र के उत्तम शब्द हो रहे हों वहाँ मेरा संन्यास सहित मरण होवो।परमेष्ठी मंत्र का उच्चारण, गुणगुणों की कथा प्रभुचरित्र, आत्मस्वरूप ये सब वहाँ वर्णित हो रहे हों, ऐसे शब्दों के बीच मेरा संन्यास सहित मरण होओ।किसी समय प्रथा थी कि मरणकाल जब निकट आये तो उस मरने वाले का लोग संन्यास मरण कराते थे, लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरा वैसे ही वैसे उसमें परिवर्तन आता गया।उस समय की कुछ क्रियायें तो अब भी की जाती हैं, पर यह पता ही नहीं है कि ये क्रियायें किसलिए की जाती हैं।जैसे कि जब जान लिया कि अब इसका 10-15 मिनट में ही मरण होने को है, अब अधिक समय न लगेगा तो उसे खाट से नीचे लिटा देते हैं।यह समाधिमरण का ही तो संकेत है, पर लोग इसे नहीं जानते।कपड़े भी हटा देते हैं, कोई एक आध कपड़ा रख लेते हैं, यह है संन्यासमरण की प्रक्रिया, पर इसको लोग समझते नहीं हैं।और शायद वे इस भाव से नीचे लिटा देते हों कि पलंग पर ही इसका मरण हो गया तो पलंग अशुद्ध हो जायेगा, इसे फैंकना पड़ेगा।चाहे अब यह भाव लोग रखते हों कि यदि ज्यादा कपड़े उढा़कर रखेंगे तो फिर इसका मरण हो जाने पर ये सारे कपड़े बेकार हो जायेंगे।रिवाज भी ऐसा है कि जिन वस्त्रों को ओढे़ हुए मरण होता है उन्हें घर में नहीं रखा जाता।किसी को दे दिये जाते हैं।तो अब चाहे लोग यह भाव करने लगे हों, पर ये सब प्रक्रिया में संन्यासमरण का संकेत करने वाली हैं।
संन्यसन का अर्थ- संन्यास का अर्थ है समीचीन रूप से न्यास कहो- त्यागना फैंकना, दूर करना, (परतत्त्वों को) अथवा न्यास का अर्थ रखना भी है।सम्यक् प्रकार से रत्नत्रयरूप धर्म को रखना, जहां केवल आत्मस्वरूप, आत्मज्ञान और आत्मस्मरण की ही प्रक्रिया चल रही हो ऐसी प्रक्रिया को कहते हैं संन्यास।तो संन्यासपूर्वक मरण होवो उसे संन्यासमरण कहते हैं।इसका दूसरा नाम है सल्लेखनामरण।लेखन कहते हैं फाड़ने को अर्थात् सम्यक् प्रकार से विषय कषाय विकार परिणामों को हटाना फाड़ना, दूर करना इसको कहते हैं सल्लेखना।सल्लेख पूर्वक मरण होने को सल्लेखनमरण कहते हैं, इसका ही नाम है समाधिमरण।सम्यक प्रकार को जो शुद्ध तत्त्व है, ज्ञान का अज्ञान में समा जाना, ज्ञानस्वभाव को ही जानते रहने की स्थिति होना यह परमतत्त्व जहाँ सम्यक् प्रकार से ग्रहण किया जाता है, आधेय होता है उसको कहते हैं समाधि अथवा रागद्वेष रहित केवल विशुद्ध जानन की स्थिति को कहते हैं समाधि।
समाधिमरण का महत्त्व- भैया ! समाधिपूर्वक मरण होने का नाम है समाधिमरण।जब यह भव छूट ही रहा है और छूटने के बाद फिर इस भव के समागम से कोई संबंध रहेगा ही नहीं, तब इस थोड़े से 10-5 मिनट के समय में यदि इन समस्त समागमों से मुक्ति पाले।इनसे चित्त हटा ले और अपने स्वरूप, स्वभाव में चित्त को लगा ले तो ऐसे समाधि सहित मरण से इसको बड़ा लाभ मिलेगा और समाधि रहित होकर मरण करे तो दु:खी होकर बिल्ला करके तो यहाँ मरण किया और दु:खी होकर चिल्लाकर अगले भव में उत्पन्न होंगे और अगले भव में भी दु:ख क्लेशों के ही वातावरण मिलते रहेंगे।समाधिमरण का महत्त्व जानें और अपने उपयोग में यह निर्णय बना ले कि मेरा उपकारी तो भाव समाधिमरण है और उस ही समाधिमरण की हमें अभी से ही तैयारी करनी है।जब हम मंदकषाय से रहें, देव, शास्त्र, गुरु के श्रद्धान में रहें, आत्मा के सत्यस्वरूप में उपयोग जमाने का यत्न करे, हमारा यह जीवन व्रत नियम संयमपूर्वक व्यतीत होगा तो हममें वह पात्रता रहेगी कि मरणकाल आने पर हम क्षोभ न करेंगे और आत्मा के विशुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव का स्मरण उपासना करते हुए इस देह को छोड़ेंगे।जैसे संस्कार लेकर इस देह को छोड़कर जायेंगे उसके अनुसार ही हमारी अगले भव की सृष्टि बनेगी।समाधिमरण बहुत महत्त्व की चीज है।इसलिए हम आप सब यह भावना रखें कि हमारा समाधिपूर्वक मरण हो।गुरु के निकट, मुनिसमुदाय के निकट, जिन-बिंब के निकट और निष्कलंक, विमल, निर्दोष कल्याणकारक मंगलमय इन वचनों के बीच मेरा मरण हो