वर्णीजी-प्रवचन:समाधिभक्ति - श्लोक 6
From जैनकोष
आवालाज्जिनदेवदेवं भवत: श्रीपादयो: सेवया ।
सेवासक्तविनेयकल्पल तया कालोद्ययावद्गत: ।।
त्वां तस्या: फलमर्थये तदधुना प्राणप्रयाणक्षणे ।
त्वन्नामप्रतिवद्धवर्णपठने कंठोऽस्त्वकुंठो मम।।6।।
प्रभुसेवा के अलौकिकफल की अभ्यर्थना- हे देवाधिदेव जिनेंद्र ! अब तक बचपन से लेकर आपके चरणों की सेवा के द्वारा जो हमारा इतना समय गुजरा है अर्थात् जो आपकी सेवा की है ध्यान, स्मरण, भक्ति जिस किसी भी प्रकार उपासना की है उसके फल में लो आज मैं आपसे माँगता हूं।जो मांगता हूं सो सुनिये।यहां कुछ आसपास खड़े हुए सुनने वाले लोग सोचते होंगे कि क्या प्रभु रोज तकाजा कर रहे थे कि मांग लो मांग लो और हमने अभी तक नहीं मांगा और इसी कारण आज कह रहे हैं कि आज मांगता हूं।जैसे किसी को बहुत मनाया जा रहा हो कि तेरी बहुत ऊँची उपासना है।तुझसे मैं बहुत प्रसन्न हो गया हूं।हे भक्त ! तू कुछ तो मांग ले, मानो रोज-रोज भगवान मांगने को कह रहे हों और यह मना कर रहा हो।पर अब कह रहा है कि हे प्रभो ! आज मैं आपसे मांगता हूं।यद्यपि यह भक्त भगवान से इन शब्दों में कहकर तो नहीं मांगता होगा, मगर बात ऐसी ही है।प्रभु के निर्दोष, प्रभु के वीतराग ज्ञानपुंज की उपासना करने वाले पुरूष ने अभी तक प्रभु से कुछ न चाहा, पर आज वह भक्त कहता है कि हे प्रभो ! आज तक मैंने आपकी जो सेवा की उसके फल में अब मैं मांगता हूं।क्या फल मांगता हूं कि जब मेरे प्राण प्रयाण करें उस समय यह मेरा कंठ आपके नाम के दो अक्षर, जिन, अरहंत, प्रभु ज्ञानपुंज आदिक रूप से पढ़ने में रूद्ध न हो जाय।अर्थात् आपका नाम स्मरण करता हुआ यह मेरे प्राण प्रयाण करें, केवल यह मांगता हूं , और कुछ नहीं चाहता।
प्रभुभक्त के लौकिक लाभ की कल्पना का प्रभाव- इस भक्त ने और सब बातें ठीक-ठीक रूप में समझ रखी हैं।धन वैभव कितना ही जुड़ जाय, इसमें मेरे आत्मा को क्या मिलता है? यह मैं आत्मा अब भी देह से निराला समस्त प्रकट परपदार्थों से निराला केवल शुद्ध ज्ञानमात्र हूं।इनका अब भी संबंध नहीं है।इन परपदार्थों को कल्पना से हम अपना मान रहे कि ये मेरे हैं, बस बँध गए।इसलिए उन समस्त बाह्य पदार्थों को असार समझकर उनकी ओरकल्पना ही नहीं जगती इस भक्त की तो और क्या? परिजन प्रसंग, विषयसेवन अथवा प्रतिष्ठा लोकेषणा आदि किसी भी प्रकार के आत्मस्वभाव से विरूद्ध परिणमन हों, ये सब भी मेरे लिए सहाय न होंगे।ये भी सब विकार हैं।सहाय होने की बात दूर जाने दो, ये सब निरंतर इस जीव की बरबादी के ही कारण बन रहे हैं, अन्यथा इस जीव को क्लेश क्या? किसी भी प्रकार की विपदा नहीं है इस जीव पर।तो सब वस्तुओं को असार जानकर किसी ओर भी कल्पना नहीं जगती।
प्रभुसेवा में आत्मसेवा का दर्शन- केवल एक यही इसमें अर्ज की है इस भक्त ने कि मेरे को तो प्राण प्रयाण के क्षणों में हे प्रभो, मेरा कंठ आपका नाम स्मरण करने में रूद्ध न हो जाय।हे प्रभो ! मैंने अब तक सेवा की।प्रभु सेवा के बहाने वस्तुत: अपनी ही सेवा की, क्योंकि प्रभु की क्या सेवा करना? जो शरीर है वह प्रभु नहीं और शरीर को कोई छू भी नहीं सकता, प्रभु होने पर इस तरह से प्रभु की कौन सेवा करे? जैसे कोई अकिन्चन महापुरूष हो निर्बंधक, और जिसके द्वारा आप कुछ अपना अपकार करते हों तो भक्तजन या पुरूष कृतज्ञ होकर एक द्विविधा में पड़ जाते हैं कि मैं क्या सेवा करूँ? कुछ भी तो सेवा स्वीकार नहीं हो ही नहीं सकती।प्रभु की परंपरा से जो एक ज्ञानमार्ग अब तक आया, ऋषि संतों की परंपरा से जो अब तक भेदविज्ञान, ज्ञानस्वभाव के विशुद्धस्वरूप को जानने का मार्ग जो आज दृष्टि में आया है, यह जो उपकार हुआ है इस उपकार का बदला इस उपकार की एवज में प्रभु की अथवा ऋषि संतों की क्या सेवा की जा सकती है? सेवा एक यही मात्र है कि उनका एक ज्ञान पिंड में अविकार ज्ञायकस्वभाव की आराधना में हमारा उपयोग जमे, सब इतनी मात्र उनकी सेवा है, तो क्या यह उनकी सेवा है? यह खुद अपने आपकी सेवा है।
प्रभु की निरपेक्ष बंधुता- प्रभु कितने निरपेक्ष बंधु है? जैसे कि आचार्यजन कहते, कविजन कहते कि हे प्रभो ! आप निरपेक्ष बंधु हैं।अन्य सब बंधु सापेक्ष हैं किसी को कुछ इच्छा है, किसी का कैसा ही लगाव है।सबमें कोई ना कोई राग मौजूद है, पर प्रभु ही एक निरपेक्ष बंधु हैं।वीतराग होकर भी जिनकी धुन (वाणी) हमारे उपकार के लिए निकली है, वे हमारे निरपेक्ष बंधु हैं।उनकी वाणी से हम आपको जो लाभ मिल रहा है, क्या उन्होंने किसी प्राणी का लक्ष्य करके कोई अपेक्षा की थी? जैसे धनिक लोग इतनी अपेक्षा रखते हैं पदार्थों की कि ये पदार्थ हमको मिल जायें तो ये लोग हमारा ख्याल तो करेंगे, इस तरह की अपेक्षा ऋषि संतों ने नहीं रखी कि हमारे इन शास्त्रों को पढ़कर लोग हमारा ख्याल करेंगे, हमारा नाम तो लेंगे।इस बात की तो कल्पना तक भी उन आचार्यजनों ने नहीं की थी।कल्पना उठ सकती थी तो उनकी इतनी मात्र कि ये संसार के जीव देखो व्यर्थ ही भ्रम में आकर अपने स्वरूप से च्युत होकर बाह्य पदार्थों की ओर लग रहे हैं।बात कुछ नहीं और बतंगडा़ बना रहे हैं, केवल एक दृष्टि भेद की बात है और इतनी बड़ी विडंबनाओं की बना रहे हैं।यह दया तो आ सकती है अथवा यह भी दया न आयी हो, इस ओर भी विकल्प न उठा हो, एक निर्विकल्प अवस्था न रह सकी, सो विकल्प उठे, तो ज्ञानी होने के कारण इसी ढंग के विकल्प उठे कि उस ज्ञानपुंज की चर्चा करने में उसके कुछ लखने में अपना उपयोग लगायें।कैसे निरपेक्ष बंधु हैं देव गुरु?
प्रभुसेवा और उसके अलौकिक फल की अभ्यर्थना- महापुरूषों की संतों की और प्रभु की क्या सेवा की जा सकती है? उस सेवा में भी अपनी सेवा स्वयं की जा रही है।जैसे कोई बच्चा बड़े उत्कर्ष को प्राप्त हो, अच्छे ढंग से रहे, कलावान बने, उन्नति करता है तो बाप खुश होता है।उस बाप की खुशी यह जाहिर करती है कि मानो इस बच्चे ने बाप की बड़ी सेवा की तो इस तरह से प्रभु अपने भक्त जनों पर खुश होने का भाव तो नहीं रखते’ मगर उनका जो परम उपदेश है, उनकी परंपरा की वाणी से जब हम अनेक पुत्रों ने लाभ उठाया तो हम उत्कर्ष को प्राप्त हुए, इसमें प्रभु भी प्रसन्न हैं।वे प्रभु प्रसन्न हैं, निर्मल हैं और अपना आत्मप्रभु भी प्रसन्न है, निर्मल है।ऐसी सेवा कि जो सेवा में लीन हुए शिष्यों की कल्पलता के समान हो।जो इस प्रभुता की सेवा करेगा कल्पलता की तरह बिना परिश्रम के, बिना अभ्यास के जीव को मनोवान्छित समस्त तत्त्व मिलेंगे।ऐसी इस सेवा के फल में मैं आपसे कुछ मांगता हूं तो यही मांगता हूं कि आपके नाम के दो शब्द हैं वे मेरे कंठ से निकलें तो उस समय मेरा कंठ न रूंधे।