वर्णीजी-प्रवचन:समाधिभक्ति - श्लोक 8
From जैनकोष
एकापि समर्थेयं जिनभक्तिदुर्गतिं निवार्रायतुम्।
पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिन: ।।8।।
दुगर्तिनिवारण पुण्यपूरण व मुक्तिश्रीदान में जिनभक्ति का सामर्थ्य- यह एक जिनभक्ति दुगर्ति का निवारण करने के लिए समर्थ है, पुण्य को पूरने के लिए समर्थ है और जीवों को मुक्तिश्री देने के लिए समर्थ है।जिनभक्ति में जिनेंद्र के स्वरूप को निहारकर स्वरूप का अनुराग किया जाता है और वह स्वरूप है वीतरागता।रागद्वेष रहित केवल ज्ञानज्योतिस्वरूप उस चैतन्य महाप्रभु की उपासना में इसका उपयोग उपयोग के स्रोतभूत् ज्ञानस्वभाव की उपासना कराता है।इस कारण उसमें ये सब सामर्थ्य है और जिनभक्ति में वैराग्य का भी समावेश है, अनुराग का भी समावेश है, इस कारण उसमें इन तीन बातों की कारणता पायी जाती है।
नारकियों की गति का दुगर्तिपना- जिन-भक्ति दुर्गति का निवारण करने में समर्थ है।दुर्गतियां हैं- नरकगति, तिर्यंचगति और खोटा मनुष्य होना। (यह पुण्य पाप के हिसाब से बात कही जा रही है) वैसे तो चारों गतियाँ दुगर्तियां हैं।गतियां जीव के स्वरूप की बात नहीं हैं, जहां पुण्य का उदय नहीं आता, पाप का उदय विशेष रहता है ऐसी बातें हैं नरकगति में।नरकगति में पूरा ही पाप का उदय है।जहाँ नय विभाग से नरक का वर्णन किया गया है धवल ग्रंथ में वहाँ दृष्टियों की अपेक्षा से जो नरक में उत्पन्न हों वे तो नारकी स्पष्ट हैं किंतु नरकगति के योग्य भावों को कर रहे मनुष्य भी नारकी हैं और लोकव्यवहार में भी इसी नय के अवलंबन से ऐसा कहते हैं कि मनुष्य है कि नारकी।जो लड़ता विशेष हो, क्रोधी हो, प्रचंड हो, बैर को न छोड़े, किसी की भलाई न सोचे, सबको बुरा ही सोचा करे, ऐसे मनुष्य को नारकी कहते हैं।तो नरकगति के भावों से भी नारकी संज्ञा दी गई है तो फिर उस भाव का फल जहां प्राप्त होता है उस नरकगति की दुर्दशा का कौन वर्णन कर सकता है?
नरकगति के प्रकृति दु:ख- नरकगति की पृथ्वी को छूने से ही ऐसा कठिन दु:ख होता है जो हजारों बिच्छुओं के काटने पर भी नहीं होता।यह बात गलत नहीं है किंतु अनुमान प्रमाण से भी सिद्ध है।जब कभी यहाँ बिजली का करंट भींत में आ जाता है तो उसमें कोई हाथ लगाये तो बिच्छू के काटने जैसी पीड़ा होती है तो यह बिजली क्या है, पृथ्वी क्या है? यह स्थावर काय ही तो है।और स्थावर काय वहाँ पाये जाते हैं यहाँ लोग बिजली बनाकर तैयार करते हैं, पर कहीं बिना तैयार किए भी ऐसी बिजली हो सकती है कि नहीं? हो सकती है।तो इस तरह की बिजली जैसे स्कंध वहाँ पडे़ हुए हैं जिस कारण जमीन के छूने से इतना क्लेश होता है कि हजारों बिच्छुओं के काटने से भी उतना दु:ख नहीं होता।नारकियों का वैक्रियक शरीर होता है, शरीर की उत्पत्ति माता-पिता से नहीं होती है।वैक्रियक शरीर तो ऐसा होता है कि जिसमें हाड़-मांस, मज्जा नहीं।लेकिन इतना असुहावना, खोटा, वैक्रियक शरीर उन नारकियों का है कि जिसका कुछ कहना नहीं बनता, जिनकी उत्पत्ति भी बड़ी कठोर है।जहाँ से वे नारकी गिरते हैं।जमीन में जो एक पोल है, कई जगह, लाखों जगह पोल है उन नरकों की जमीन में।और वह पोल है करोड़ों कोशों की लंबी चौड़ी।कई पोल तो अनगिनते कोशों के लंबे चौड़े हैं।तो ऊपर से वे नारकी गिरते हैं तो नीचे सिर और ऊपर पैर होते हैं।तो जिनका उत्पत्ति स्थान ही बड़ा बेढंगा बना हुआ है, जहाँ प्रारंभ से ही पाप पिशाचिनी का आतंक छाया हुआ है वहाँ पर वह वैक्रियक शरीर गिरता है और जमीन पर गिरते ही गेंद की तरह उछलता है।
नरकों में दु:खहेतु कुकृत्य की याद- नरकों में याद आती है कि जिस कुटुंब के कारण अनेक पाप किए, जिन थोड़ी वासनाओं के वशीभूत होकर अनेक पाप किए उनका फल यहाँ इतना कठोर भोगना पड़ता है।यह ख्याल भी ऐसे नारकियों को आता है जिनका भवितव्य अच्छा है।सभी नारकियों को इस तरह का ख्याल नहीं आता।उनका उपयोग तो इस ओर जायेगा कि इसने पूर्व जन्म में मेरे साथ यों बरताव किया।मनुष्य भव में चाहे मां ने अपने बच्चे की आँखों में अन्जन लगाया हो, पर नरकों में जब वे दोनों जीव होंगे तो उस बच्चे का जीव ऐसा ही ख्याल बनायेगा कि इसने सलाई से मेरी आँखें फोड़ी थीं।इस प्रकार का बैर विरोध का भाव करके एक नारकी जीव दूसरे नारकी जीव पर इस तरह से टूट पड़ता है कि तिल तिल बराबर देह के खंड कर डालता है।इस तरह की दुर्गतियाँ सहनी पड़ती हैं नरकों में।
नारकियों का विक्रिया संबंधित दु:ख- उन नारकियों में ऐसी विक्रिया ऋद्धि होती है कि वे जब किसी दूसरे नारकी को मारने के लिए हाथ उठायेंगे तो उनके वे हाथ ही तलवार, कुल्हाड़ी आदि बन जाते हैं।उनको अलग से शस्त्र नहीं लेने पड़ते।इतने पर भी जब उनका मन न भरा तो वे विक्रिया से, सिंह, सर्प आदि हिंसक पशु बनकर उस जीव को डसकर, खाकर बड़ी बुरी तरह से वेदनायें देते हैं।किसी नारकी को कोल्हू से पेलना है तो वे स्वयं ही कोल्हू का रूप रख लेते और उस दूसरे नारकी को कोल्हू में पेल देते।इसी तरह से अग्नि आदिक बनकर दूसरे नारकियों को उस अग्नि आदिक में पटककर दु:खी किया करते हैं और यह बात किसी समय हो जाय सो नहीं कि चलो दिन भर में किसी समय कोई नारकी ने दु:खी कर दिया तो चलो बाकी समय तो उस दु:ख से बचे।यह बात तो वहाँ निरंतर चलती रहती है।उन नारकियों में कोई ऐसी गोष्ठी तो है नहीं कि चलो, यह तो हमारा मित्र है इसे अब पीड़ा न दो।वे तो सब एक दूसरे के दुश्मन हैं, इसी कारण वहाँ क्षण भर भी साता नहीं है।यह तो उनका दु:ख है।
असुरजाति के देवों द्वारा नारकियों के क्रोध उभारने का दु:ख- उक्तवेदनाओं के अतिरिक्त साथ ही यह भी दु:ख लगा है कि उनका क्रोध क्षण भर को भी शांत नहीं होता।जैसे यहां किसी को क्रोध आता है तो उसका कुछ समय बाद क्रोध शांत हो जाता है, लेकिन वहाँ असुर जाति के नारकी तीसरे नरक तक जाते हैं और उन नारकियों को ऐसी याद दिलाते हैं कि क्रोध शांत होता हो तो शांत न होने दे।खुद लड़ बैठते हैं।उन असुर जाति के देवों का उदय पुण्य का है विशेषतया कि वे नरक में रहकर भी वहाँ की भूमि से दु:ख नहीं पाते, जैसे कि अन्य नारकी हजार बिच्छूवों के डसने से भी अधिक दु:ख पाते हैं।जैसे यहां कोई काठ पर खड़ा होकर बिजली फैली हुई भींत को छुवे तो उसे करेन्ट नहीं लगता, इसी तरह से उन असुर जाति के देवों को वहां की भूमि से वेदना नहीं मिलती।उनकी विक्रिया में दूसरी तरह की योग्यता है।
नरकों में भूख प्यास की कठिन वेदना- और भी देखिये- उन नरकों में इतनी तेज गर्मी पड़ती है कि वहां मेरू बराबर लोहपिंड भी हो तो वह गल जायेगा और नीचे के नरकों में इतनी ठंड पड़ती है कि मेरू बराबर लोहा हो तो वह भी छार छार हो जायेगा।गर्मी से भी अधिक दु:ख होता है ठंड के दिनों में।जब तेज ठंड पड़ती है तब याद आता है इस मनुष्य को कि इससे तो गर्मी भली है और जब गर्मी आती है तब यह कहते हैं कि इससे तो ठंड अच्छी है।यह तो इस जीव की पर्याय बुद्धि की बात है।जिस दु:ख में यह जीव पहुंचता है वही इसे सहन नहीं होता।जैसे किसी मनुष्य को खूब खांसी आती है तो यह हैरान होकर कह उठता है कि इस खांसी से तो यों बुखार भला है।बुखार आने पर भला एक जगह तो पडे़ रहते हैं।तो पर्याय बुद्धि होने के कारण इस जीव पर जब जो बात आती है उससे ही वह बड़ी विपदा का अनुभव करता है।कोई मनुष्य बड़े आराम में है, खूब अच्छी आमदनी भी है, किसी प्रकार का दु:ख नहीं है लेकिन किसी-किसी समय वह दु:खी होकर कह बैठता है कि इससे तो गरीबी अच्छी है।मैं तो इस धन से परेशान हो गया और गरीबों की बात सुनो तो गरीब तो रात दिन सोचा करते हैं कि हमारे कितना पाप का उदय है कि बड़ी कठिनाई से हमारी जिंदगी गुजरती है।उन गरीबों को ये दिखने वाले धनिक लोग बड़े साफ सुथरे दिखाई देते हैं बड़े खुश दिखाई देते हैं लेकिन वे धनिक लोग कितनी-कितनी परेशानियों में हैं इसे बेचारे गरीब लोग क्या समझें? तो पर्याय बुद्धि में जीव जहाँ जाता है।जिस स्थिति में रहता है उसमें अपने को वह बड़ा दु:खी अनुभव करता है।क्या यह पाप का उदय नहीं हैं? तो सभी दु:ख पापोदय से होते हैं।नरकों में उष्ण और शांत की भी कठिन बाधा रहती है।
ज्ञानभाव की दृष्टि न होने का कुफल- ज्ञानभाव की दृष्टि न हो सकना यह महापाप का उदय है।शांति मिलती है जीव को तो एक ज्ञानभाव की दृष्टि में मिलती है और कितने ही उपाय कर लिए जायें, पर उनसे शांति नहीं मिलती।इस अंतस्तत्त्व की उपासना न होने से नरकों में उत्पन्न होकर दु:सह दु:ख भोगने पड़ते हैं।तो नरकों में कितनी कठिन दुर्गति है? वहां की लड़ाई का दु:ख, वहां की जमीन का दु:ख, वहां के वातावरण का दु:ख, उनके स्वयं के वैक्रियक शरीर का दु:ख।उन नारकियों का अत्यंत खोटा वैक्रियक शरीर है।वहां पर रात दिन तो हैं ही नहीं।स्वर्गों में भी रात दिन नहीं, ढाई द्वीप के बाहर भी रात दिन नहीं, बाहर जहां सूर्य है केवल ढाई द्वीप के अंदर ही जहां चंद्र सूर्य प्रदक्षिणा देते हैं वहां रात दिन का व्यवहार है।वहां कल्पवृक्ष की सदा ज्योति बनी रहती है।
नरकों में भूख प्यास का महाक्लेश- नरकों में भूख प्यास की बड़ीतीव्र वेदनायें हैं।उन नारकियों को भूख इतनी लगती है कि दुनिया का सारा अनाज खा लें फिर भी भूख न जाय, और प्यास इतनी होती है कि दुनिया के सारे समुद्रों का जल पी लें तो भी प्यास न बुझे, पर वहां पानी की एक बूँद भी नहीं मिलती।भूख और प्यास इन दोनों के दु:खों में इतना अंतर है कि भूख तो दो तरह की होती है तीव्र और मंद और प्यास होती है चार प्रकार की मंद, मंदतर, तीव्र और तीव्रतर।इससे ही यह अंदाज लगा लें कि प्यास की वेदना भूख की वेदना से कठिन होती है।जो लोग कभी भूख से ही मर जाते हैं, जिन गरीबों को कुछ नहीं मिलता है, भूखे ही बने रहते हैं, तो लोग तो यह कहते हैं कि यह भूख से मरा, पर यह तो बताओ कि उस भूखे रहने वाले में क्या प्यास बिलकुल नहीं है? अरे भूख से अधिक वहां प्यास है।किसी को भूख लगी हो तो उस भूख को वह 6 घंटे तक बरदास्त कर सकता है, 12 घंटे तक भी बरदास्त कर सकता है, पर खूब तेज प्यास लगी हो तो वह एक घंटा भी उस प्यास की वेदना को सहन नहीं कर सकता।भूख का दु:ख मंदतर कभी नहीं होता है और प्यास का दु:ख मंदतर भी हो जाता है।रंचमात्र भी प्यास लगी हो तो यह जीव झट महसूस कर लेता कि मुझे प्यास लगी है, मगर रंचमात्र भूख हो तो वह महसूस नहीं होती।तो इस प्रकार की भूख प्यास की बड़ी कठिन वेदनायें उन नारकियों में निरंतर रहती हैं।यह उनके शरीर का दु:ख है।
दु:सह दु:खों के भी निवारण में जिनभक्ति का सामर्थ्य- कठिन से भी कठिन दु:ख जहाँ पाये जाते हैं उनके निवारण करने में हे प्रभो ! आपकी भक्ति समर्थ है।प्रभुभक्ति से तुरंत भी मिलता है कुछ और पर लोक के लिए तो सारा लाभ ही लाभ है।कुटुंबीजनों की भक्ति से, मित्रजनों की भक्ति से, उनके प्रेम से, उनके अनुराग से तो लाभ कुछ भी नहीं मिलता, बल्कि वेदना तुरंत मिल जाती है और आगे के लिए पाप बंध हो जाता है जिसके फल में परभव में भी वेदनायें प्राप्त होंगी।अब आप यह देख लीजिए कि हमारा प्रभुभक्ति में कितना समय जाता है और परिजन, मित्रजनों की भक्ति में कितना समय जाता है? प्रभुभक्ति केवल मंदिर की चीज नहीं है।प्रभुभक्ति तो किसी भी जगह कर ली जाय।जहां भी अरहंत सिद्ध का ध्यान हो, जहां भी सकल परमात्मा, निकल परमात्मा का ध्यान जगे वहीं प्रभुदर्शन होंगे।जहां प्रभुस्वरूप का और आत्मस्वरूप का दर्शन हुआ, भक्ति हुई, झलक हुई, वहीं प्रभुभक्ति है।
स्व का ज्ञान करने के उत्सुक जीवों को आत्मज्ञान के लाभ की अवश्यंभाविता- प्रभुभक्ति क्याहर जगह की नहीं जा सकती।ज्ञान ही तो है।जब ज्ञान परवस्तुओं के जानने में लगा है तो परवस्तुओं को क्या यह जान नहीं पाता? खूब जान रहा है।आँखें खोली तो बैन्च, खंबा, चौकी आदि सब कुछ दिख गए और उनकी जानकारी हो गई।ज्ञान इन वस्तुओं के अभिमुख हो तो उन वस्तुओं को जानकारी में आना पड़ेगा।प्रत्येक पदार्थ में 5 साधारण गुण जरूर हैं जैसे अस्तित्त्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशवत्त्व; इसी प्रकार साधारण गुण प्रमेयत्व भी तो उसमें नियमित है।तो ज्ञान जिस किसी भी पदार्थ के अभिमुख हो उस पदार्थ को ज्ञेय होना ही पड़ता है और इस ज्ञान में वह चीज आनी ही पड़ती है।उस समय ज्ञान भी मना नहीं कर सकता कि मुझमें यह चीज मत आये।ज्ञेय भी मना नहीं कर सकता कि मैं इस ज्ञान में न आऊँ।हम आप कोई भी जीव संज्ञी पंचेंद्रिय इस ज्ञानस्वभाव अंतस्तत्त्व के अभिमुख हो तो जानना पड़ेगा और उसे जानने में आना पड़ेगा।लेकिन हमीं इतने प्रमादी बने हुए हैं कि प्रभुभक्ति में लगना नहीं चाहते।अगर लगना चाहें और उसका स्वरूप जानना चाहें तो हमारी प्रभुभक्ति ज्ञानस्वरूप, ये सब हो ही जायेंगे।तो जिसको इतना भी डर हो कि बाहरी पदार्थों में किसी में भी दृष्टि लगाये, उपयोग फसाये तो उसमें सिवाय कर्मबंधन के और तात्कालिक आकुलता के उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ता है।इतना जिसे विश्वास हो, ऐसा पुरूष जब चाहे प्रभुभक्ति में अपना उपयोग लगा सकता है।तो उस प्रभुभक्ति में ऐसी सामर्थ्य है कि ऐसी नरकादि दुर्गतियों का निवारण कर दे।
तिर्यन्चगति के दु:ख- नरकगति के वर्णन के बाद अब तिर्यन्च गति के दु:ख देखिये।सभी लोग जानते हैं स्थावरों का दु:ख, उनके हाथ पैर नहीं हैं, वे किसी तरह से अपने दु:ख का संकेत जाहिर नहीं कर सकते कि मुझे मत छेड़ों, मत तोड़ो।छोटे-छोटे कीड़े मकोड़ों को कोई जरा भी छू ले तो वे तिलमिला जाते हैं, मानो उस तिलमिलाहट में वे यह संकेत कर रहे हैं कि तुम जैसे प्राणी हम भी हैं हमें मत छेड़ों।वे बेचारे संकेत कर सकने में असमर्थ हैं।स्थावर जीवों में देखो- कोई जब भी चाहे फल, फूल, डाली आदिक तोड़ ले, जब चाहे कोई उन्हें नौचनाच कर फैंक दे, चाहे अग्नि में जला दे, चाहे कुछ भी कर दे, पर वे स्थावर ऐसे निश्चेष्ट हैं कि कुछ भी संकेत नहीं कर सकते।जो सैनी पंचेंद्रिय हैं वे भी कितने पराधीन हैं।झोंटे को किसी खूँटे में बाँध दिया, अब मालिक की मर्जी है कि वह उस झोंटे को धूप से बचा दे।बड़ी तेज धूप पड़ रही है, वह झोंटा तड़प रहा है, प्यास की वेदना से भी पीड़ित हो रहा है, फिर भी उस झोंटे को पूछने वाला कोई नहीं है।इतना बलवान जीव की 50-60 मन का बोझा ढो दे, मनुष्यों में आज इतना बल कहां रखा है, लेकिन वह जीव एक जरा सी नकेल में जरा सी डोरी के बंधन में इतना परतंत्र है वह कि कुछ कर नहीं सकता।यह मनुष्य ऐसे बंधन में पड़ जाय तो वह क्या किसमिसायेगा नहीं? जरूर किसमिसायेगा तो क्या वह झोंटा उस समय किसमिसाता न होगा? क्या वह अपने मालिक पर क्रुद्ध न होता होगा? जरूर क्रुद्ध होता होगा।ऐसी हालत में कदाचित् मालिक आये और उस झोंटे का बंधन टूट जाय, उसका क्रोध न उतरे तो वह अपने मालिक को उसी जगह मार डाल सकता है।मगर एक जरा सी दो आने की रस्सी में ऐसा परतंत्र पडा़ हुआ है कि उसके दु:ख को कौन कह सके?
तिर्यन्चगति के क्रुरतापूर्ण बधसंबंधी दु:ख- उक्त प्रकार तिर्यन्च गति में साधारण स्थिति के दु:ख बताये।अब बधबंधन के दु:ख देखिये- इतना तेज गरम जल जिसको मनुष्यजन सह नहीं सकते ऐसे खौलते हुए पानी को फव्वारों से उन गाय, बछड़ों पर डालते हैं ताकि उनकी चमड़ी फूल जाय और फिर बैंतों से मारते हैं और मार मारकर चमड़ी उतारते हैं ताकि वह चमड़ी नरम बनी रहे और अधिक कीमत की बिके।तो ऐसे कठिन दु:ख उन पशुवों को सहन करने पड़ते हैं।कोई विवेकी पुरूष हो तो इन घटनाओं को जानकर यह निर्णय कर लेगा कि मुझे चमड़े का रंचमात्र भी किसी काम के लिए प्रयोग नहीं करना है।रहा अब मरे हुए पशुवों का चमड़ा, जो स्वयं मर गए हैं, जिन्हें कसायियों ने नहीं मारा है।उनका भी प्रयोग हम इसलिए न करें कि वे फाल्तू बने रहेंगे तो दूसरे लोग उनका प्रयोग करेंगे, मारे जाने वाले पशुवों के चमड़े का प्रयोग कम हो जायेगा।लोग इन स्वयं मृतक पशुवों के चमड़े का प्रयोग कर लेंगे, मृतक चमड़े के जूते रहेंगे तो वे फाल्तू हो जायेंगे, सस्ते रहने के कारण लोग उनका अधिक प्रयोग कर लेंगे ,तो बुरी तरह से मारे हुए पशुवों के चमड़े का प्रयोग कम हो जायेगा।किसी भी तरह हो, विवेकी पुरूष चमड़े का प्रयोग रंचमात्र भी न करेंगे।तो तिर्यन्चों के इस तरह के दु:ख हैं।
कुमानुष के दु:ख और दु:खनिवृत्ति पूण्यपूर्ति व मुक्ति के दान में जिनभक्ति की समर्थता- खोंटे मनुष्यों के दु:ख देखिये- कोढ़ी, लंगड़े, लूले, अनेक प्रकार के रोगों से ग्रस्त, नीच कुलीन, महा झगड़ेलू, एक दूसरे की जान लेने को तैयार रहने वाले, आदि इस प्रकार के जो मनुष्य हैं वे क्या दुर्गति में नहीं हैं? वे तो नाम के लिए मनुष्य हैं।ऐसे ऐसे कठिन दुर्गतियों का निवारण करने के लिए हे प्रभो ! आपकी एक यह भक्ति समर्थ है और पुण्य को पूरने के लिए हे जिनेंद्रदेव ! आपकी भक्ति समर्थ है।तो इस लोक में जिनभक्ति से पुण्यरस बढ़ा, दुर्गति कटी, पर साथ ही साथ यह भी समझिये कि जिनभक्ति में एक अविकार ज्ञानस्वरूप की ही तो भक्ति की जा रही है।ज्ञानस्वरूप पर जो दृष्टि की गई है और उससे केवल एक सहजज्ञान उपयोग उपयोग में रह गया है, उस समय ज्ञान ने ज्ञान को स्वीकार किया, ज्ञान ज्ञान में लीन हुआ, तो इस स्थिति में निर्जरा भी होती है और कर्म की निर्जरा होना यह मोक्ष का मार्ग है।संवर भी होता है तो मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त कराने में कुछ कारण हुई कि नहीं यह जिनभक्ति? एक ही जिनभक्ति दुर्गति का निवारण करने के लिए समर्थ है पुण्य से पूरित करने के लिए समर्थ है और इन भव्य जीवों की मुक्ति लक्ष्मी को भी देने में समर्थ है।समाधिभक्त संत निर्विकल्प समाधि की भक्ति में अधिक समय लगाते हैं और जब कर्म विपाकवश उस समाधिभक्ति में उपयोग नहीं जम रहा तो उस समाधिभक्ति के लिए ही प्रभुभक्ति कर रहे हैं और प्रभुभक्ति के गुण गा रहे हैं कि एक इस प्रभुभक्ति में तीन महात्म्य हैं एक तो- दुर्गति का निवारण करना, दूसरा पुण्य को पूरना और तीसरा मुक्तिश्री का देना।