वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 106
From जैनकोष
एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव तत् ॥106॥
907- एकद्रव्यस्वभावपना होने से ज्ञान का ज्ञानस्वभाव से होने की ही मोक्षहेतुता- अधिकार तो यह पुण्य पाप का है और चूँकि ध्येय सभी उपदेश का मोक्ष पाना है, तो उस ही बात पर सभी बातें घटित होंगी। मोक्ष का हेतु क्या है? पुण्य और पाप शिव के हेतु नहीं, वे तो पुद्गल कर्म हैं और उनके निमित्तभूत शुभ और अशुभभाव मोक्ष के हेतु नहीं, क्यों नहीं हैं कि वे ज्ञान के ध्रुव अचल भवन से बाह्य किन्हीं भावोंरूप है, तब क्या है मोक्ष का हेतु? मोक्ष का हेतु ज्ञानस्वभाव से ज्ञान का होना बस यह ही मोक्ष का हेतु है। अपन सबका ज्ञान जान तो रहा है। अब किस स्वभाव से जान रहा है बस इसमें ही मोक्ष और संसार के हेतुपने की बात आती है। ज्ञान का स्थिर होना यह ही कहलाता है चारित्र। और, यह है मोक्ष का हेतु, क्यों ज्ञान का ज्ञानस्वभाव से होना यह एक द्रव्य का स्वभाव है। और, जो अपने में अपने ही स्वभाव से होता है बस वही मोक्ष का हेतु है, परद्रव्य के स्वभाव से मोक्ष न बनेगा। अपने ही द्रव्य के स्वभाव से मोक्ष की सिद्धि है। देखिये- परमार्थदृष्टि से विचार करें, एक ही अंतस्तत्त्व पर दृष्टि देकर निहारें, आखिर में मोक्ष नाम है किसका?–मोक्ष कहलाता है आत्मा का जो स्वतंत्र स्वरूप है वह उसमें ही एकत्व को लिए हुए रह जाय। सभी पदार्थ अपने आपमें अपना ही एकत्व स्वरूप लिए हुए हुआ करते हैं। तो यह आत्मा जो है सहज बस वही प्रकट हो, यह है मोक्ष, और इसका हेतु है ज्ञान का ज्ञानस्वभाव से होना। चूँकि आत्मा ज्ञानस्वरूप है ज्ञानमात्र है, तो ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व का जो आश्रय है, उस आश्रय में होने वाला जो परिणमन है उसे कहते हैं ज्ञान का ज्ञानस्वभाव से होना। ज्ञान का ज्ञान स्वभाव से होना यही शिव का हेतु है और उसके अतिरिक्त जो अन्य भाव है उसकी बात अब कलश में कहते हैं।