वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 11
From जैनकोष
न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी, स्फुटमुपरितरंतोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् ।
अनुभवतु तमेव द्योतमानं समंतात्, जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम् ॥11॥
141―आत्मस्वभाव में बद्धत्व की अप्रतिष्ठा―केवल आत्मस्वरूप का विचार चल रहा है याने यह आत्मा स्वरूप से अपने आप अपने में संबंध बिना अपने ही गुणों में किस प्रकार है, किस स्वभावरूप है, इस बात का वर्णन चल रहा है । इससे पहले कलश में बताया था कि आत्मस्वभाव परभावों से भिन्न है, परिपूर्ण है, अनादि अनंत है और समस्त संकल्प विकल्प जाल से रहित है, यह बात कही गई, यह बात निरखी गई एक दृष्टि से । जब केवल आत्मतत्त्व का, आत्मद्रव्य का, स्वभाव का दर्शन करने के लिए चल रहा हो उपयोग, उपयोग में इस प्रकार का यह आत्मतत्त्व दिखता है जो आत्मा के स्वयं की गाँठ की बात है । पर वर्तमान हालत इस संसार अवस्था में क्या हो रही है? जो गुजर रही, क्या उसको कोई मना कर सकता? क्या गुजर रही? शरीर में बंधे हैं, कर्म में बंधे हैं, यह नानारूप हो रहा है, चारों गतियों को परिभ्रमण चल रहा है, इसके भीतर सर्दी, गर्मी आदिक उठ रहे हैं, ये सब बातें इसमें हो रही हैं कि नहीं इस समय? हो तो रही हैं, यह कोई असत्य बात तो नहीं है लेकिन जब आत्मस्वभाव को देखते हैं इस बात की परख करते हैं कि मेरा वह आत्मस्वरूप अपने आपके स्वभाव से है क्या? तो उस निगाह में यह वार्ता अभूतार्थ जचती है ।
142―भूतार्थ व अभूतार्थ का विशुद्धार्थ―एक बात और यहाँ ध्यान में देने की है । भूतार्थ और अभूतार्थ का शुद्ध अर्थ यह नहीं है कि सत्यार्थ और असत्यार्थ । भूतार्थ मायने सत्य, अभूतार्थ मायने झूठ, यह अर्थ इन शब्दों में नहीं है । हाँ यह भी अर्थ हो सकता है जब उस प्रकार का प्रकरण बनें तो, भूतार्थ और अभूतार्थ का यहाँ शब्दार्थ क्या हैं? स्वयं भूत: अर्थ: अपने आप होनेवाला तत्त्व, तो अर्थ मायने ज्ञेय जो अपने आप निरपेक्षतया केवल में बात हो उसे कहते हैं भूतार्थ और अभूतार्थ मायने ऐसा न होना, याने जो स्वयं अपने आपमें केवल में निरपेक्षतया न हो उसे कहते हैं अभूतार्थ । जो स्वयं केवल में निरपेक्षतया न हो और जीव में किसी संबंध से कोई निमित्त पाकर किसी परिस्थिति में हो तो ऐसा होना मात्र स्वप्न जैसी कल्पना भर की बात नहीं है, यहाँ तो यह प्राणी कर्मबंध से बँधा है जो भी बंध है, जीव इस शरीर में रह रहा है, बस रहा है तो यह बात क्या झूठ है, क्या मात्र कल्पना की बात है । जैसे स्वप्न में कल्पना उठ गई कि अरे―नदी बह रही पर है कुछ नहीं, स्वप्न में कल्पना उठ गई कि मैं जंगल में हूँ, और मेरे से साँप लिपट गया, और बात ऐसी है नहीं, पड़े तो हैं आराम के कमरे में, डिल्लो पिल्लो में, अच्छे आराम के घर में पड़े हैं। क्या इस तरह की कल्पना भर है कि मैं शरीर में बस रहा हूँ या शरीर में आत्मा है? जरा शरीर वहीं रहने दो और थोड़ा दो हाथ आगे आप आ जाओ । तो क्या आप आ सकेंगे? नहीं आ सकते । इसलिए इसे असत्यार्थ तो न कहेंगे मगर अभूतार्थ कहेंगे, क्योंकि स्वयं केवल में निरपेक्षतया उस एक द्रव्य में केवल होने वाली बात नहीं है । जो स्वयं केवल में निरपेक्षतया उस एक द्रव्य में होने वाली बात नहीं हैं, वह है अभूतार्थ । लेकिन जिसको रुचि है, एक आत्मस्वरूप की धुन है और उस ही की नजर रखता है वही रुचि में है, वही देख रहा है, तो जब इस ओर नजर आती है तो कहते हैं कि वह सब मिथ्या है, मिथ्या होओ याने मिथ्या का भी अर्थ क्या है? मिथ्या का अर्थ झूठ नहीं है मगर प्रसिद्धि तो यही है कि मिथ्या मायने झूठ । मिथ्या मायने झूठ नहीं । तो क्या है मिथ्या का अर्थ? संयोग वाली बात । मिथ् धातु से बना है मिथ्या। ‘मिथ् संश्लेषणे’ मिथ्या का अर्थ है संश्लेष, जिसका एक शब्द बना मैथुन । तो चूँकि अध्यात्म प्रेमियों द्वारा संयोग में होने वाली बात झूठ समझी गई इसलिए मिथ्या शब्द का भी अर्थ झूठ बन गया । शब्दार्थ से देखो तो मतलब यह है कि शुद्ध तत्त्व के प्रेमियों को संयोग की बात तो है असत्य और केवल की बात है उनके लिए सत्य । इस तरह तो बात चलती, मगर यह अर्थ मुख्यतया यों नहीं बनाना कि संयोग की रुचि वाले को फिर सत्य क्या, असत्य क्या ? उनके लिए तो एकदम पन्ना पलट जायेगा । इसलिए भूतार्थ का अर्थ यह लेना कि केवल स्वयं में निरपेक्षतया अपने आप होनेवाला जो भाव है सो भूतार्थ है और स्वयं में निरपेक्षतया जो नहीं बन सकता उसे कहते हैं अभूतार्थ । भूतार्थ अभूतार्थ का अर्थ क्या है कि जो पर उपाधि के संबंध में बनता हो वह तो अभूतार्थ और जो निरुपाधिकभाव है वह है भूतार्थ । संयोग को ले करके जो बात कही जाये वह है अभूतार्थ, और जो संयोग बिना केवल एक में निरखकर जो बात समझी जाये वह है भूतार्थ ।
143―दृष्टांतपूर्वक आत्मस्वभाव में बद्धस्पृष्टवत् की भूतार्थता व अभूतार्थता का निरखन―भूतार्थ व अभूतार्थ के विशुद्धार्थ के साथ सत्यार्थ, असत्यार्थ की बात अगर लावेंगे तो एक दृष्टांत में देखें―कमलिनी का पत्ता तालाब में है और वह जल से ऊपर तैरता है, उस पर कुछ जल की बूँदी भी तैरा करती हैं, अब यह बताओ कि कमलिनी का पत्ता पानी से छुआ हुआ है या नहीं? चाहे पत्ता भीतर भी पड़ा हो, बतलाओ पानी से छुआ है या नहीं? तो संयोगदृष्टि से तो दोनों को देख रहे हैं सो कहना पड़ेगा कि हाँ पानी से छुआ हुआ है । तो जब संयोग दृष्टि करके देखा तो पानी से छुआ हुआ है वह पत्ता, यह भूतार्थ है, किंतु कमलिनी के पत्ते के स्वभाव को निरखकर कहा जाये तो केवल पत्ते को ही निरखा जा रहा और वहाँ भी पत्ते के स्वभाव की दृष्टि से निरखा जा रहा है । तो कहा जायेगा पानी से छुआ हुआ है, यह बात कहना अभूतार्थ है? सही नहीं है बात । स्वयं एक में स्पर्श नहीं पर का सो यों भी अभूतार्थ है जलस्पृष्टत्व कमलिनी के पत्तों को क्यों बोला जा रहा इस उदाहरण में? और पत्तों में भी, स्वभाव तो सबमें है यही । मगर संयोग पाकर पानी को ग्रहण करे यह बात कुछ ज्यादा है और पत्तों में, इसमें नहीं है । इसमें तो पानी की बूँद ऊपर ऊपर लुढ़कती रहती है और बाद में वह पत्ता बड़ा सूखा सा मिलता है । पर एक दृष्टांत की बात में पत्ते के स्वभाव को देखें तो पत्ते में जल का प्रवेश है, यह बात अभूतार्थ है, जब संयोगदृष्टि से देखें तो यह बात ठीक है, तो यही बात आत्मा में लीजिये । आत्मा को, इस जीव को जब संयोगदृष्टि में देखते वर्तमान परिस्थिति को देखते, तो यह कर्मों से बँधा है, शरीर से छुआ है, स्पृष्ट है, यह बात भूतार्थ, सही है पर एक जीव द्रव्य के स्वभाव को देखते हैं तो जो भी सत् है वह दूसरे की दया पर सत् नहीं है, वह स्वयं सत् है । स्वयं उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त है स्वयं अपने स्वभाव से ही, जब ऐसी तथ्य की दृष्टि करते हैं तो जीव में कर्म बँधे हैं, शरीर स्पृष्ट है क्या यह बात सत्य है? जब केवल की दृष्टि से देखा, स्वभाव की दृष्टि से देखा तो बँधा हुआ है, यह अभूतार्थ है । तो आत्मस्वभाव में बद्धत्व व स्पृष्टत्व ये प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होते । जैसे कोई मेहमान आ गया आपके घर में, तो आ गया, आराम से रह रहा, मगर आपके घर में वह प्रतिष्ठा को प्राप्त न होगा । आप कहेंगे कि आदर तो हो रहा उसका बहुत? भले ही हो, मगर आपके घर में अवस्थित, प्रतिष्ठित, अधिष्ठित नहीं रह सकता, क्योंकि वह मेहमान है । मेहमान का अर्थ है महिमा न, याने जिसकी महिमा नहीं है कुछ उसको मेहमान कहते हैं ।
144―भूतार्थ दृष्टि से स्वयं में भूतार्थ को निरखने में हितपंथ का लाभ―जीव को हित किस दृष्टि में मिलता है? इस ढंग से ज्ञान पौरुष करने जब चलेंगे तो एक ही बात निर्णय और लक्ष्य में रहेगी कि आत्मस्वभाव की दृष्टि ही बहुत काल निरंतर रहे । तो उसमें हमको हित का मार्ग मिलता है । जो परिस्थिति में गुजर रहा विकार, राग-द्वेष, परपदार्थों के प्रति प्रेम ये सब अनर्थ, व्यर्थ, दुरर्थ अहित की चीजें हैं, क्या मिलेगा इनसे । चार दिन को घुल मिलकर बोल रहे हैं, अंत में वियोग होगा यहाँ का यह चार दिन का संग परिग्रह इस जीव को क्या लाभ देगा? इससे विकारों में, विभावों में, इन बातों में होड़ नहीं करनी । परिस्थिति वश क्या गुजर रहा है? ज्ञाता दृष्टा हो, गुजर जाओ उन परिस्थितियों में । अपने में एक अंत: पौरुष करो ज्ञानस्वरूप में मग्न होने का । इसको ही जानता हुआ संकल्प विकल्प से दूर हो, ऐसी स्थिति मुझको मिले, यह निर्णय और लक्ष्य रहना चाहिए । चाहे कैसी ही परिस्थिति में गुजर रहे हों, अच्छा तो आत्मा कर्म से बद्ध है, शरीर से स्पृष्ट है, यह भूतार्थ है चल रही है यही बात, मगर जब इन सबको झिटक कर जैसे ही दृष्टि अपने आपके जीवस्वभाव में दी, केवल को देखा, ज्ञानबल से ही देखा जाता तो बस वहाँ बद्धत्व और स्पृष्टत्व वह बात अभूतार्थ है । होकर भी मना करना यह भी तो कभी कर्तव्य होता कि नहीं । यह जीव अभी संयोगदृष्टि से देखा गया, वर्तमान परिस्थिति की दृष्टि से देखा गया, निमित्तनैमित्तिक योग में जो घटना चल रही है उस दृष्टि से देखा गया यह आत्मा नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आदि खोटी-खोटी पर्यायें धारण करता फिर रहा । समस्त खोटी पर्यायों को पार करके मैं मनुष्य की पर्याय में आया हूँ । मैं मनुष्य ही अपने को मानता हूँ, इसके लिए यह मैं मैं नहीं करना था? अरे ये तो नाना दशायें बन रही हैं मगर केवल जीवद्रव्य के स्वभाव को देखें तो वह है एक चेतना । उस चैतन्य स्वरूप को देखो तो नानापन नहीं है । यहाँ जितना भी एक चैतन्यस्वरूप है । मनुष्य जा रहा है सड़क से और वहीं धूप भी है, पेड़ भी खड़े हैं, नाना प्रकार के पेड़ों की छाया पड़ती है । कभी अंधेरा बन गया, कभी उजेला बन गया, अन्य-अन्य बन गए । मनुष्य भी तो देखो जाड़े के दिनों में कांतिहीन, बरसात में सड़ा रद्दी सा, और गर्मी के दिनों में कांतिमान सा मालूम पड़ता है । तो उपाधियों से यह चूँकि नरक, तिर्यंच अधिक गतियों में चल रहा, पर जब एक जीवद्रव्य के स्वभाव को निरखते हैं तो वह नानारूप नहीं है, वह एक चैतन्यस्वरूप है । यह नानारूपता इस जीव द्रव्य के स्वभाव में प्रतिष्ठा को नहीं पाती । हो रहा है ना निमित्त नैमित्तिक योग । खूब परख लो, हो तो रहा अपने-अपने में परिणमन, मगर कोई विकार पर उपाधि के सन्निधान बिना नहीं होता इसलिए वह परभाव है, मेरे स्वभाव में कोई भी संयोगी भाव प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होता । शुद्धनय की दृष्टि से अपने आपके स्वभाव का अवलोकन करना यह हितपंथ का एक तरीका है ।
145―विभावों की परभावता की प्रसिद्धि―अग्नि जल रही और उस पर पानी भरे बर्तन रख दिए गए । पानी गरम हो गया । गरम पानी ही हुआ । पानी ने अपनी शीत पर्याय को छोड़कर उष्णता पर्याय ग्रहण की, लेकिन अग्नि की उष्णता के सान्निध्य बिना तो पानी गरम न हो सका । इस तरह हम जान जाते उपादान का रहना । ऐसे ही जीव का रागादिक निज स्वभाव नहीं है, इस बात को जानने का भली भाँति तरीका यह बताया गया है तो उसका यह निर्णय बना लीजिए कि ये रागद्वेष विषयकषाय आदिक विकार ये कर्म अनुभाग का उदय जिसमें हुआ ऐसी कर्मदशा का सन्निधान पाकर हुआ है, उसका यह प्रतिफलन है, यह तो अनिवारित बात है, आप जैसी दृष्टि लगायें वैसी बात समझ में आयेगी । संयोगी दृष्टि से देखें तो यह सब बात भूतार्थ है । अब जब आत्मानुभव करने बैठें और कदाचित् ऐसी बात आ जाये कि इस ज्ञान में यह सहज ज्ञानस्वरूप अनुभव में आये, वही ज्ञान में आये । ज्ञान विकल्पजाल से रहित एक स्थिति बन जाये सहज ज्ञान आनंद को भोगने वाली । ऐसी स्थिति होने पर ज्ञान में ज्ञानामृत का पान हो रहा । ऐसी स्थिति होनेपर भी क्या संसारी जीवों के उन कर्मानुभागों का प्रतिफलन बंद नहीं हो गया । वह बराबर निरंतर जैसा-जैसा उदय चल रहा कर्म में वैसा-वैसा प्रतिफलन भी निरंतर चल रहा परंतु उपयोग है सहज ज्ञानस्वरूप की ओर । अनुभव में चल रहा है सहज आत्मतत्त्व । इसलिए उस समय में यह आश्रयभूत कारणों पर ज्ञानी अपनी दृष्टि नहीं दे पा रहा है तो यहाँ जब जीव की द्रव्यस्वभाव पर दृष्टि है तो उसके अनुभव में बस यह ही अंतस्तत्त्व भूतार्थ है, बाकी रागद्वेष विषय कषाय अभूतार्थ है, साथ ही जो संयोगी पदार्थ हैं, संयोगजन्यभाव है वह मायारूप है, किसी भी पदार्थ का ऐसा स्वरूप नहीं है । यह राग जीव की परिणति होकर भी क्या जीव का स्वभाव है, क्या जीव में स्वयं अपने आप परनिमित्त सन्निधान बिना हुआ है क्या? अगर परनिमित्त सन्निधान बिना विकार होने लगें तो मुक्त होने पर भी जब कभी भी विकार हो बैठे सिद्ध भगवंतों के । भली-भाँति आचार्य संतों ने दर्शनशास्त्र में इस बात को अच्छी तरह समझा दिया कि ये परभाव है, हाँं, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की परिणति नहीं करता । विप्रभाव किस तरह ग्रहण करता है उपादान? अपना विप्रभाव इस तरह उपादान प्रकट करता है, कि कर्मनिमित्त का सन्निधान पाकर यह अपनी परिणति से परिणम जाता, अपने में उपादान प्रभाव बना लेता है । यह औपाधिक है इसलिए परभाव है, इन परभावों में रुचि नहीं करना चाहिए । ये विभाव मेरा स्वरूप नहीं । मेरा स्वभाव तो एक सहज चैतन्यस्वरूप है, जो अपने आपमें है, जो अपना प्राण है उस अंतस्तत्व का आश्रय किये बिना, अपने को चैतन्य स्वरूपमात्र अंगीकार किए बिना मोक्षमार्ग नहीं मिलता । तो जितने भी भाव हैं, औपाधिक हैं वे मेरे आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होते ।
146―आत्मा के स्वक्षेत्र में रागादि विकारों की संभवता होने पर भी आत्मस्वरूप में विकारों की असंभवता―मेरे में राग है कि नहीं है? अच्छा चलो बताओ मेरे स्वरूप में राग है कि नहीं? नहीं । तो लो यहीं अंतर आ गया? अब देखो―वह मैं स्वरूप से कुछ अलग चीज हूँ क्या । जो यह कह बैठे कि अभी तो मेरे में राग है और स्वरूप की बात जब कहे तो कहे कि मेरे में राग नहीं है । मैं ही इस रूप परिणम रहा हूँ, पर स्वरूपदर्शन की विधि शुद्धनय से होती है । तो यह कर्म से बँधा है, शरीर से बँधा है, यह नाना गतियोंरूप है, इसमें ज्ञानदर्शन आदिक अनेक गुण हैं, यह रागादिक विकाररूप परिणम रहा है । ये सारी बातें भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं । स्वप्न में जैसे कल्पना जग जाती लोगों के कि मैं पहाड़ पर चढ़ रहा हूँ, ऐसी यहाँ यह कल्पना मात्र नहीं हैं? अरे स्वप्न में ही तो ऐसा देख रहे, लेटे तो हो अच्छे मकान में, पर एक सोते हुए में पहाड़ पर चढ़ने का स्वप्न आया । तो जैसे स्वप्न में बस झूठी कल्पनायें चलती, सत्य कहीं कुछ नहीं, ऐसे ही यहाँ यह सब जो संयोग दशा है स्वप्न की तरह मिथ्या नहीं है । ये उपाधि संबंध से होने वाली बातें हैं अत: ये मेरे जीवस्वभाव में नहीं है, केवल एक जीव द्रव्य के स्वभाव को देख करके निर्णय किया । यह निर्णय आया कि बद्धस्पृष्टत्व आदिक भाव अभूतार्थ हैं, ये मेरे में प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं हो सकते । फिर क्या? ये सब ऊपर-ऊपर तैरते हैं । ऊपर तैरने का मतलब क्या―कि यह संयोग अवस्था में पर्यायरूप है, पर्याय को कहते हैं ऊपरी चीज, और स्वभाव को कहते हैं आंतरिक चीज । जैसे कहते हैं अंतर यही ऊपरी जान, वे विराग यह राग वितान । प्रभु में और मुझ में अंतर है तो ऊपरी अंतर है वह ऊपरी अंतर क्या?....बस यही कि वे विराग हैं और यहाँ राग का फैलाव है । जैसे भींट में कलई पोत दिया, या पानी में तेल के कुछ बूँद डाल दिया । क्या इस तरह ये राग मुझ में फैल रहे? अरे ऐसा नहीं है, वह पर्याय है, जीव के चारित्र गुण की पर्याय है, लेकिन ऊपरी अंतर है, क्योंकि पर्याय सदा साथ नहीं रहता । तो बाह्य और आंतरिक बात यह अनेकों जगह अपेक्षाओं से समझी जाती । तो चूँकि विकार संयोगज भाव हैं, नैमित्तिक भाव हैं, पर्याय में आये हैं, सो ये जीवस्वभाव में प्रतिष्ठा को नहीं पाते ।
147―स्वभावदृष्टि से दृष्ट अंतस्तत्त्व के आश्रय में कल्याण―जीवद्रव्य के स्वभाव को देखें । मैं वह हूँ जो हैं भगवान । जो मैं हूँ वह हैं भगवान । स्वरूपदृष्टि से देखें । मुझ में और भगवान में क्या अंतर है? प्रत्येक पदार्थ सत् है ना । सो अपने आप सत् हैं । मैं भी स्वरूपमय सर्वस्व जीव अपने आपमें हूँ । उस ही अंतस्तत्व की दृष्टि में वह हूँ जो हैं भगवान । जो मैं हूँ वह हैं भगवान । मगर पर्याय दृष्टि से देखें क्या गुजर रहा है, अंतर यही ऊपरी जान, वे विराग यह राग वितान । तो यहीं भूतार्थ और अभूतार्थ ये दोनों बातें आ गई । अपना परिचय सब ओर से समझिये । आचार्य संतों ने जितने भी वचन लिखे उनमें यह नहीं कहा जा सकता कि यह व्यवहार की बात है इसलिए झूठ है, इसमें एकांत अद्वैत की बात नहीं है इसलिए झूठ है, ऐसा निर्णय न करना, नहीं तो समयसार अन्य के चार छह पन्ने छोड़कर समयसार ग्रंथ के भी सब प्रकरण व अन्य ग्रंथ बेकार हो जायेंगे । अगर वह सब झूठ है तो फिर झूठ को क्यों रखते? धवल, जयधवल, महाधवल आदि महान महान् ग्रंथ पड़े हैं फिर तो वे सब बेकार हो जायेंगे । अरे इन सब ग्रंथों में जिसका उपयोग प्रवेश करे उसे स्वभाव के दर्शन के लिए बड़ी प्रेरणा मिलती है । कर्म-कर्म में परिणमन कर रहा, जीव-जीव में परिणमन कर रहा, मगर कैसा निमित्त नैमित्तिक संबंध है कि वहाँ यह अज्ञानी जीव बाह्यवस्तुओं का आश्रय लेता है, और अपनी कषाय को व्यक्त करता है यह तरीका विकारोद्धव का जिसे ज्ञात हो गया वह प्रतिफलन में क्यों चिपकेगा? अपनी उपयोग में वह विकार क्यों अपनायेगा? आश्रयभूत कारणों में क्यों रहेगा? वह तो उससे उपेक्षा करके शुद्धदृष्टि के लिए अनुरागी बनेगा । मैं चैतन्यस्वभाव हूँ । गुजरे जो कुछ बाहर में गुजरे । जो जैसा चलता हो चले, मेरे लिए अन्य कोई मेरा साथी नहीं, ईश्वर भी साथी नहीं, सबका आश्रय तजकर जो अपना परम पद है अनादि अनंत अहेतुक, जो एक चिद्रूप चैतन्यस्वरूप है, वह शरण्य है । वह किस तरह जान जाता कि जैसे एक सर्राफ सोने के डले की कसौटी में कसकर खूब उसकी परीक्षा करके बता देता है कि इसमें तो 75 प्रतिशत शुद्ध सोना है, ठीक इसी तरह नाना परिणतियों में चलते हुए इस जीव में भी ज्ञान से परीक्षा करते हैं तो बस परख बन जाती है कि यह है मेरा स्वरूप ।
148―आत्मनिर्णय का महत्त्व―देखो भैया ! मैं के निर्णय का ही सारा खेल है, जगत में कोई जीव रुले तो उसका साधन इस मैं का निर्णय है । संसार से मुक्त हो उसका भी मूल साधन उस मैं का निर्णय है । जहाँ पर में मैं का निर्णय चल रहा वह संसार में रुलता है और जो निज में मैं का निर्णय कर रहा वह संसार से मुक्त हो जाता है । देखिये―व्यवहार में कही हुई बात झूठ न समझना, हाँ जो बात उपचार से कही जाये उन्हीं शब्दों में उसको उपादानरूप में सत्य समझा जाये तो वह उपचार की बात है, झूठ है । जहाँ संकेत हो कि व्यवहार का यह अर्थ लेना जैसा कहा वैसा नहीं है, तो यह कहना किस व्यवहार की बात है, यह भी तो विवेक करे । उपचार की बात है वह । जैसे आक का दूध होता है जहरीला, जिससे जीवों का प्राणघात भी हो जाता तो उसे देखकर कोई कहे कि देखो दूध नहीं पीना चाहिए । दूध पीने से जीवों का प्राणघात भो हो जाता है, तो उसका यह एकांत कथन करना झूठ है । ऐसे ही व्यवहार शब्द का प्रयोग व्यवहार व उपचार दोनों के लिए होता है । तब उपचार नामक व्यवहार को असत्य पाकर यों घोषणा करना कि सब व्यवहार असत्य हैं यह तो उन्मत्तवत् चेष्टा है । उपचार से कही हुई बात को उपचार की भाषा में ही समझना चाहिए । यदि उसे कोई व्यवहार की बात या निश्चय की बात समझ ले तो वह झूठ है । तो आश्रय तो लेना है हमें स्वभाव का ना । तो निश्चय भाषा में बढ़कर एक द्रव्य के स्वभाव को देखो मैं एक चैतन्य स्वरूप हूँ, ऐसा अनुभव बनायें, ऐसी अपने आपमें रुचि करें, अनुभव बनायें, बस मैं चैतन्यमात्र हूँ । ओहो, यह जिसकी धुन हो जाती है उसको अन्य जीवों से घृणा नहीं होती । अन्य जीवों को देखकर पहले-पहले स्वभाव ही देखेगा फिर देखना पड़े बाहर तो दिखेगा ये दिखने वाली चीजें तो औपाधिक हैं, स्वरूप इनका न्यारा है, तो ऐसे उस स्वभाव का अनुभव करें जो चारों ओर से अंत: प्रकाशमान है, सो ऐसे उस स्वभाव का ही अनुभव करो । जो अंत: चारों ओर से प्रकाशमान है । इसके लाभ के लिए मोह को त्यागें, मोह कहो, मिथ्या कहो, संयोगी बात कहो, इन बातों को त्यागकर एक इस सम्यक् स्वभाव का ही आश्रय करो ।