वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 12
From जैनकोष
भूतं भांतमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बंधं सुधी-
र्यद्यंत: किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् ।
आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं
नित्यं कर्मकलंकपंकविकलो देव: स्वयं शाश्वत: ॥12॥
149―बंधन के भेदन का सुझाव―निज सहज परमात्मतत्त्व की उपलब्धि कैसे हो? कैसे यह सहज परमात्मस्वरूप एकदम समक्ष में व्यक्त जाहिर हो? उसके उपाय की चर्चा इस कलश में की गई है । सर्वप्रथम इस कल्याणार्थी को चाहिए कि वह भूतकाल के वर्तमानकाल के और भविष्यकाल के बंधन का भेदन करे । बंधन क्या? कर्मबंधन । बंधन क्या? भीतर में एक विभाव संस्कार बंधन, इनको दूर करे । देखिये―एकांतत: कोई ऐसा निर्णय नहीं है कि यह जीव पहले वैराग्य करे या ज्ञान करे । जब जो बात बन सके उसे अभी से शुरू करे । अगर इस भरोसे रहे कि पहले ज्ञान जगे तब फिर पदार्थों से उपेक्षा करेंगे तब तो यहाँ से कायरता न जायेगी, और कोई यह सोचे कि मैं पहले उपेक्षा कर लूं, सर्व पदार्थों से विरक्त हो लूं, फिर ज्ञानमार्ग में आऊँगा, सो भी काम न बनेगा । ये परस्पर एक दूसरे के साधक हैं । ज्ञान है तो वैराग्य बढ़ता, वैराग्य है तो ज्ञान बढ़ता । इसलिए इष्टोपदेश में यह बात कही कि यथा यथा समायातिहि संवित्तौ तत्त्वत्तमं तथा तथा न रोचंते मूविषया सुलभा अपि, पर यह बात एकांतत: नहीं है दूसरा छंद कहते हैं कि यथा यथा न रोचंते विषया: सुलभा अपि, तथा तथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् जैसे-जैसे ज्ञान में उत्तम तत्त्व समाता है वैसे ही वैसे सुलभ विषय भी रुचिकर नहीं होते और जैसे-जैसे सुलभ विषय रुचिकर नहीं होते वैसे-वैसे सँवित्ति में उत्तम तत्त्व समाता जाता । अभी कोई लौकिक काम करने हो, ये करना, वो करना, कितना ही हापड़ धुपड़ मचाते हैं । ये काम कोई करने के हैं जिन्हें उपादेय मान लिया लौकिक जनों में उसके लिये सारे उपाय बताते हैं तो ऐसे, ही अपने को हितमार्ग में चलना है तो कुछ वैराग्य भी हो, कुछ ज्ञान भी हो, कुछ संयम में भी हो, कुछ स्वाध्याय भी चलता हो सभी यत्न करना चाहिए । यहाँ सबसे पहली बात कहाँ से शुरू की जा रही है । इस कलश में कहा है कि भूतकाल के वर्तमानकाल के और भविष्य काल के तीनों के बंधनों का भेदन करें । कैसे करें? उसका उपाय क्या है? प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना, इनका उपयोग करें यह उपाय है । भजन अनुसार मनन करें ।
मैं दर्शन ज्ञान स्वरूपी हूँ, मैं सहजानंद स्वरूपी हूं ।टेक। हूँ ज्ञानमात्र परभावशून्य, हूँ सहजज्ञानघन स्वयं पूर्ण । हूँ सत्य सहज आनंदधाम, मैं सहजानंद स्वरूपी हूँ ।।1।। मैं खुद का कर्ता भोक्ता हूँ, पर में मेरा कुछ काम नहीं । पर का न प्रवेश न कार्य यहाँ, मैं सहजानंद स्वरूपी हूँ ।।2।। आऊं उतरूं रम लूँ, निज में, निज की निज में दुविधा ही क्या, निज अनुभवरस से सहज तृप्त, मैं सहजानंदस्वरूपी हूँ ।।3।।
150―बंधन हटाने का उपाय प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान व आलोचना―भूतकाल का बंधन याने पहले जो कर्मबंध हो गया उसको विफल करना, उससे हटना, उसके फल में न फसना यह बात कैसे बने? इसके लिए उपाय कहा गया है प्रतिक्रमण और वर्तमानकाल में जो दोष लगे उस दोष से कैसे निवृत्त हो उसका उपाय है उनकी करे आलोचना और आगामी काल में बंधन न बने इसके लिए प्रत्याख्यान करें । तीनों का अर्थ क्या है? पहले कोई दोष लगा हो तो किसी गुरु के पास जाकर जो दोष किये थे उनकी आलोचना करे । और प्रायश्चित करके उन दोषों को दूर करें और आगामी काल में, फिर कभी ऐसे दोष न करूँगा, ऐसा आशय बने । तो अंतर्दृष्टि से वे सारी बातें एक दृष्टि में हो जाती हैं । वह क्या? समयसार में श्री अमृतचंद्रसूरि कहते हैं कि पुद्गलकर्मविपाकभवेभ्यः भावेभ्यः आदि, पुद्गल कर्म के विपाक से उत्पन्न होने वाले भावों से, रागद्वेषादिक कषायों से जो आत्मा अपने को हटाता है वहाँ पूर्व बंधे हुए कर्म का फल हीन हुआ, विफल हुआ, सो प्रतिक्रमण बन गया । वर्तमान में कोई दोष नहीं चल रहा किंतु उपयोग सहज आत्मस्वरूप में लगा है जिससे कर्मों से निवृत्त हो रहा है, आलोचना हुई । भविष्य में ऐसा कर्मों का बंधन मेरे न रहो, प्रत्याख्यान हुआ, तो सब विधियों को बनाकर, मोक्षमार्ग में चलो । व्यवहार में भी ऐसा उपेक्षित हो जाये कोई कि अजी क्या करना है? काहे का व्रत, काहे का तप, काहे का देवदर्शन, काहे की गुरुसेवा, ये सब बाहरी बातें हैं । बस एक आत्मा का ज्ञान कर ले तो बेड़ा पार हो जायेगा, ऐसा एक रूखा व्यवहार, अज्ञानमय व्यवहार अगर कोई बनायगा तो वह तो उस ज्ञान को प्राप्त करने का पात्र ही न बन पायेगा । विनयाद्याति पात्रताम् । बिना विनय गुण के आये आत्मज्ञान करने की पात्रता ही न आयेगी । गुरुविनय, समाजविनय, देशविनय, यथायोग्य विनय से अपने को पात्र बनावे याने अपने को मान कषाय के वशीभूत न होने दें, यह बात कब बनती है, जब सब जीवों के प्रति यह भाव है कि जैसे सब जीव वैसा मैं । व्यावहारिक प्रवृत्ति में ऐसी पात्रता है कि वह व्यवहार में प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना बना लेता है । और वास्तव में निश्चय से तो वर्तमान विभावभाव से अपने को हटाता है तो उसके ये तीनों उपाय हो जाते हैं तो भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल के बंधन का भेदन करके यदि कोई बुद्धिमान अपने आपमें आत्मा का कलन करता है तो वह शाश्वत, अंत: प्रभु की प्रतीति का लाभ पाता है । आत्मकलन क्या करके होता? वेग से मोह को दूर करके, देखिये मोह का दूर होना और अपने आपके स्वातंत्र्य का भान होना, सहज अंतस्तत्त्व का भान होना, यह बात एक साथ है । वस्तुत: परपदार्थ का मोह तब ही दूर हो सकता है जब यह ज्ञान में आये कि सबका सत्त्व न्यारा-न्यारा है । एक का दूसरा कुछ भी नहीं लगता । देखिये बाहर की बातों में, कल्पित गैर पदार्थों में ममता हटाने के लिए अनेक लोग शूरवीर से बन रहे हैं, पर कल्पित अपने परिजनों से क्या कर रहा, यह भी तो देखें । ममता से कोई हटा नहीं यहाँ परिजन पर आजमाओ । जिन पर रागद्वेष करके हम अपने को कलंकित करते हैं उन पर अजमावो । ये परिजन सब भिन्न-भिन्न जीव हैं, मैं इनसे बिल्कुल जुदा हूँ, इनके कर्म इनके साथ है, इनके सांसारिक सुख दुःख इनके कर्मोदय के अधीन हैं । उनको मैं सुखी दुखी नहीं करता । अपने-अपने बाँधे हुए साता असाता के उदय के अनुसार यहाँ सुख दुःख चलता है । मैं उनका कुछ नहीं करता । वे मुझ से पृथक् जीव हैं । जब ऐसा भीतर से भान हो तभी तो मोह हटेगा । घर में रह रहे तो राग तो न हट पायेगा अभी । मगर वह राग भी हटने की ओर रहेगा ।
151―बंधन से हटकर आत्मकलन का कर्तव्य―कल्याणार्थी पुरुष मोह को हटाये और मोह हटाकर फिर अपने आपमें अपने आपका कलन करे, निरीक्षण कर ग्रहण करे । जांच पड़ताल करते हुए ग्रहण करना । यदि कोई ऐसा कर सके तो वह समझता है कि ओह यह आत्मा, यह तो यह, व्यक्त स्वयं विराजमान है । हूँ ना मैं, कोई भी पदार्थ होता है स्वयं अपना कोई सत्त्व स्वरूप सर्वस्व लिए हुए होता है, पर पदार्थ का संबंध होने से जो विकार बना, जो परिस्थिति बनी, यह तो उसका ऊपरी रूप है । अंत: क्या है उस पदार्थ में, कि जो उस पदार्थ का स्वरूप है सो उसके अंदर है । हर एक चीज में घटा लो, लौकिक बातों में देख लो, किसी बढ़ई ने नई चौकी बनायी तो वह उस समय अपने असली रूप में हैं । बाद में जब रोगन लगा दिया तो वह एक औपाधिक बात है । तो मेरे आत्मा का जो सहज स्वरूप है, चैतन्य-चेतना है तो वह अपने आपमें अपना कुछ काम कर रहा है । उत्पाद व्यय ध्रौव्य निरंतर हो रहा है । विपरिणमन होते हुए में भी भीतर अर्थपरिणमन आधार हो रहा है । वही एक ऐसी मुद्रा बना लेता है निमित्त के सान्निध्य में, उपाधि के संबंध में कि उसका रूप बदलता जाता । उसकी समझ तो शक्ति में नहीं मिटती मगर उसमें एक विकार का परिणाम सामने आ जाता है । ज्ञानी जानता है कि मैं यह नहीं हूँ । मैं तो अपने आप सहज जो हूँ सो हूँ । बस यह जो अपने ज्ञान का स्वरूप है सो मेरा, बाकी सब बाहरी । वस्तुस्थिति यह है, यहाँ कोई साथी नहीं । यहाँ कषाय रखना, एक दूसरे को बुरा निरखना, किसी को भला बुरा निरखना, यह मेरा है, यह गैर है आदिक जो विकल्प अवस्थायें हैं ये तो अज्ञान अंधकार हैं तो ऐसे बंधन से दूर होना चाहिए । धर्म के मामले में भी बंधन न हो । जैसे धर्म के प्रसंग में गोष्ठियाँ बनाकर यह रूप कर लेते हैं कि ये है सो मेरे, ये है सो गैर । तत्त्वज्ञान यह भी कर रहा, वह भी कर रहा, जितना मोक्षमार्ग में चलने की योग्यता में बनती सो कर रहे, मगर एक सत्परिचय बनाये बिना, इस मोह पर विजय पाये बिना आत्मानुभव का पात्र नहीं बनता । इसलिए अपने को कोई भार न रहे । यहाँ कुछ भी इष्ट नहीं और कुछ भी अनिष्ट नहीं, अपने आप पर करुणा करना है तो सब प्रकार के बंधन से रहित अपने आपको अनुभवना है और समझना है अपना सहज चैतन्यस्वरूप ।
152―आत्मानुभवैकगम्यमहिमा भगवान आत्मा―कलश में कहा है आत्मानुभवैकगम्यमहिमा याने जिसकी महिमा आत्मानुभव से ही गम्य हो सकती है । वह सहज आत्मस्वरूप क्या है? यह है, आत्मानुभव से ही पहचाना जा सकता है । जिसे कहते हैं कि बिल्कुल सही अनुभव में आया हुआ । जब ऐसा जाना तो यह तो मेरे में था ही । है तो यही स्वयं खुद । खुद अनुभव से नहीं समझा, यह कितने अँधेर की बात है? देखो खुद आनंदमय है और ज्ञानस्वरूप है किंतु खुद को न जाने, खुद का प्रकाश न हो तो यह कितने गजब की बात है । याने इतना बेतुका रूप तो अचेतन भी नहीं पाते । दीपक है, प्रकाशमय है, पर दूसरों को प्रकाशित करता है खुद भी प्रकाशरूप है । वह अचेतन है मगर प्रकाशरूप भी है, प्रकाशकरूप भी है । उसके लिए दोनों बातें उपयोगी बनती हैं, बाह्य पदार्थों को ढूंढ़ लेते हैं और दीपक को भी देख लेते हैं ऐसी ही बात तो यहाँ हम आपमें हैं । ज्ञानस्वरूप ही हैं हम आप । एक दूसरे को भी जाने खुद को भी जाने । जैसे दीपक दूसरे का भी प्रकाश करता, खुद का भी करता मगर कितना अंधेर हो गया कि यह बाह्य को जानने में तो बड़ा चतुर बन रहा और स्वयं को जानने की बात यह असंभव सा समझता है । यह ज्ञानस्वरूप है । इस ज्ञानस्वरूप को जानना जो कठिन हो रहा है यह सब वासना का प्रभाव है । इस ज्ञान को जानना जो कठिन हो रहा है यह सब विषय वासना का प्रभाव है । इस ज्ञानस्वरूप को जानना जो कठिन हो रहा है यह सब विषय वासना का प्रभाव है, इष्ट अनिष्ट बुद्धि का प्रभाव है, रागद्वेष का प्रभाव है, इसलिए प्रथम यह कह रहे कि पहले बंधन मिटाओ । यह आत्मस्वरूप कर्मबंध से रहित है । स्वरूप की बात देखो । परिणाम में तो चल रहा जीव-बंध उभयबंध मगर स्वरूप देखो तो स्वरूप में क्या कर्मबंध है? जो बात स्वरूप में है वह कभी मिट नहीं सकती । जो स्वरूप है, रचा हुआ है स्वरूप से । क्या स्वरूप में जन्म मरण है? क्या स्वरूप में भव है? न बंधन है, न भव । तो ऐसे अंत: स्वरूप को ज्ञानदृष्टि द्वारा ही परखा जाता है ।
153―आत्मा को एक लक्ष्य होकर अनुभवने की अतिशायिता―जैसे हड्डी का फोटो लेने वाला एक्सरा यंत्र सीधे हड्डी का ही लक्ष्य कर लेता है न कपड़ों का, न रोम का, न चमड़ी का, न मांस का, किसी अन्य का फोटो नहीं लेता, सीधे हड्डी को बता देता है, ऐसे ही ज्ञातापुरुष, ज्ञानी पुरुष अपने आपके स्वरूप की दृष्टि करते तो उनको न शरीर उपयोग में है न जगह उपयोग में है, न समय उपयोग में है । केवल एक सहज सामान्य ज्ञानस्वरूप ही ज्ञान में रहता है । जब तक यह बात ध्यान में है कि अभी सुबह है, अब शाम है, तो बस अभी सुबह शाम में ही फंसे हैं । जिसे ध्यान है कि मैं मंदिर में बैठा हूँ, भजन कर रहा हूँ, अमुक जगह बैठा हूं, अब इतना समय है तो वहाँ आत्मानुभव नहीं होता । जहाँ समय की सुध नहीं, जगह की सुध नहीं, देह की भी सुध नहीं, वहाँ बस क्या है । चैतन्य स्वरूप की दृष्टि । न वजन है, न भार, एक ऐसी आलौकिक स्थिति है कि उसको कितना हल्का कहा जाये? तभी तो ऐसा आत्मानुभव करने वाले को ऋद्धि व सिद्धि हो जाती है, आकाश में विहार कर रहे, यह भी क्या मामूली बात है । जिसने एक ज्ञानघन अंतस्तत्त्व का अनुभव किया । उसी के ऐसे अनेक अतिशय होते । थोड़ी देर को मानो जैसे आकाश, वह परद्रव्य है, अचेतन द्रव्य है, अमूर्त है, उसे कितना हल्का याने भाररहित बताया जावे तो उस आकाश के हल्केपन से भी ज्यादा हल्कापन लगता है यहाँ ऐसा आत्मानुभव करने वाले ऋषीजनों को अनेक प्रकार की ऋद्धियां हो जाती हैं, उस तप की महिमा और एक ज्ञान की महिमा दोनों जुटे हुए हैं तपश्चरण और तत्त्वज्ञान । यह एक सहज आत्मन, आत्मानुभव है, इसका प्रताप है-शरीर में सुगंध आना, शरीर से निकले हुए विष्टा मूत्र में भी सुगंध आना, आकाश में गमन हो, जिधर निकल जायें उधर सुभिक्ष हो जाये । अरे जिनको आत्मानुभूति हुई उनकी समृद्धि हुई ऋद्धि हुई, दुनिया के लोगों को चमत्कार दिखा सब । यह आत्मा जो व्यक्त है, ध्रुव है, कर्मकलंक से रहित है, वहाँ आश्रय का प्रवेश नहीं । मैं ज्ञानमात्र हूँ । मेरे स्वरूप में अन्य का प्रवेश नहीं, अत: निर्भार हूँ । ऐसा मैं सबसे निराला एकत्व विभक्त, परतत्त्वों से निराला और स्व में एक रूप जो चैतन्यस्वरूप है, उसका जो कलन करता है उसके लिए यह सहज परमात्मतत्त्व व्यक्त मालूम होता है । हाथ में तो मुदरी लिए हुए है, मुट्ठी मैं बंद किए हैं । उसी बंद मुट्ठी से ही बकत में जेब में सब जगह टटोल रहे, पर अंगूठी नहीं पा रहे । तो यहाँ वहाँ देखकर वह कितना व्यग्र होता? और आज उसकी कैसी बुद्धि भ्रांत हो गई । वह बड़ी घबराई हुई मुद्रा में बैठा है । उसे एकदम ध्यान आ गया, अरे मेरी मुट्ठी में तो नहीं है । देखा तो खुद की ही मुट्ठी में वह अंगूठी मिली । बताओ उसकी अंगूठी कहीं बाहर गई थी क्या? नहीं, थी उसकी मुट्ठी में, पर उसका पता न होने से वह उसके लिए कुछ न थी और उसका जब पता हो गया तो उसके लिए सब कुछ है । ऐसे ही यह आत्मा स्वयं है, मगर यह ऐसा भूला है ज्ञानस्वरूप होकर भी । जो आगम से, साधन से, ज्ञान से सारी बातों को जान रहा है वही समझ पाता है कि यह एक कैसी उल्टी लीला है कर्मलीला है ।
154―आत्मपरिचय बिना ही कर्मकलंक का भारवहन―देखो कैसी यह माया बन रही है कि यह आत्मा अपने आपको भूल रहा है । एक बाबूजी अपने घर की व्यवस्था बना रहे थे । वह अपने आराम करने के कमरे में जहाँ जो चीज रखते वहाँ उसका नाम भी रखते । छाते की जगह छाता लिख दिया, कोट की जगह कोट, टोपी की जगह टोपी, घड़ी की जगह घड़ी, बेंत की जगह बेंत, यो सब चीज ढंग से रखते गए और जिस जगह जो चीज रख दिया उस जगह उस चीज का नाम भी डाल दिया धीरे-धीरे काफी रात आ गई । अंत में जब खुद खाट पर लेट गए तो उस खाट के काठ पर लिख दिया ‘मैं’, याने इस खाट पर मैं पड़ा हूँ । जब प्रात: काल सोकर जगे तो सब बाबूजी अपनी व्यवस्था देखने लगे―मोह ठीक । घड़ी, बिल्कुल ठीक, कोट बिल्कुल ठीक । यों सब चीजें ठीक निकलीं, पर जब खाट में मैं लिखा देखा तो उसे देखकर मैं की खोज करने लगा । इधर उधर खाट के छेदों में बहुत ढूंढ़ा पर मैं न मिला । बाबूजी बड़े हैरान हुए और चिल्ला पड़े―अरे मनुवा (बाबूजी का नौकर) यहाँ आना ।....क्या हो गया बाबूजी?....अरे बड़ा गजब हो गया । आज तो मैं गुम गया । मनुवा ने बाबूजी की बात समझ ली और वह हँसने लगा । तो बाबूजी बोले―अबे तू हँसता क्यों? तुझको हँसने की पड़ी, यह मैं गुम गया । तो नौकर ने समझाया बाबूजी आप थके हैं । आराम से सो जाओ । हमारी जिम्मेदारी है कि तुम्हारा मैं तुमको मिल जायेगा । बाबूजी को अपने पुराने नौकर की बात पर विश्वास हो गया । सोचा कि कहीं इसने जरूर होगा । अब बाबूजी ज्यों ही आराम से खाट पर लेटे तो नौकर ने कहा―अब देखो बाबूजी तुम्हारा मैं मिला कि नहीं । तो बाबूजी ने ज्यों ही अपने शरीर पर हाथ पर हाथ फेरा तो समझ गए । ओह, इस बिस्तर पर यह मैं स्वयं ही तो पड़ा हूँ । कहाँ गया, कहीं बाहर मेरा मैं । तो ऐसा ही यह आत्मा सहज स्वरूपत: विशुद्ध ज्ञानानंद का निधान हूँ । इसकी कहीं कुछ अटकी नहीं है । इसकी ओर से कुछ अटका नहीं है । स्वयं ही ज्ञानानंदस्वरूप है । पर ऐसा विश्वास न कर यह अज्ञानी बाह्य पदार्थों से मानता है कि आनंद मिलेगा । बाह्य पदार्थों के संग्रह में, तृष्णा में, ख्याल में बने हुए हैं ।
155―मोहलीला समाप्त कर ज्ञानलीला में प्रवेश करने का संदेश―यह मोह की आदत हर जगह अपना प्रभाव दिखलायेगी । धर्म का काम करे तो वहाँ भी मोह का प्रभाव । बहुत से लोग तो पूजा पाठ करने जाते तो फल के छंद के समय खुद तो ले लेते काला कमलगट्टा व स्त्री को दे देते नारियल और दूसरे की कुछ परवाह नहीं, ऐसा अगर मोह का नृत्य है तो वहाँ मोह है कि नहीं? मोह का एक रूप ऐसा भी बन जाता कि जो यहाँ आता है, जो हमारे मंडल में हैं वह तो मेरा है खास, वह तो है इष्ट और बाकी इनमें जान नहीं, इनमें ज्ञान नहीं, इनमें बुद्धि नहीं, ये सब मूर्ख हैं, अचेतन हैं, जड़ हैं, इस तरह की दृष्टि अगर बनती है तो बताओ, वहाँ मोह का नाच है कि नहीं । जब सब तरह का बंधन दूर नहीं हुआ जहाँ कल्पित कुछ में नियत हो रहे । ये लोग ही तो हमारे सब कुछ हैं, वहाँ अंधकार है । अरे बाबा आओ तो आओ, न आओ तो न आओ, हम में यह बुद्धि न हो कि ये मेरे खास हैं, ये कोई नहीं । धर्मोपदेश को स्वाध्याय बताया है और स्वाध्याय का अर्थ है स्व का मनन करना । धर्मोपदेश में केवल बाहर का ही ख्याल है कि यह मेरा बहुत समर्थक है । लोग समझे कि यह बड़े अच्छे वक्ता हैं आदिक किसी भी व भाव से पर की ओर ध्यान देकर जो बात कहे वह स्वाध्याय नहीं रहा । स्वाध्याय एक ऐसा रोज का प्रोग्राम है कि चलो इसी प्रोग्राम से लोग आते हैं, वहाँ थोड़ा स्वाध्याय करने की अच्छी विधि बन जाती । वहाँ मात्र यह दृष्टि न रखना कि दूसरों को समझाना है, मैं भी साथ ही साथ समझता चलूँ और उसका स्वाद लेता चलूँ यह भाव रहे । सिर्फ दूसरों को समझाने भर की दृष्टि न रहे । जो कुछ दूसरों से कहे उसका अपने से भी वास्ता रखें । जिस समय बोल रहे उस समय खुद अपने आपकी ओर दृष्टि बनाने का प्रोग्राम न रखे तो उससे क्या लाभ? अब आप समझिये―कितनी स्वतंत्रता होनी चाहिए धर्मपालन के लिए ?
156―उत्तरोत्तर अंत: प्रवेश कर श्रेयोलाभ लेने का अनुरोध―इस कलश में अमृतचंद्राचार्य कहते हैं कि पहले भूत भविष्य और वर्तमान के बंधन को दूर करे । प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना ये इस बंधन को दूर करने वाले हैं । भला बतलाओ कोई जन्मते ही बड़ा तत्त्वज्ञानी बना क्या? संस्कार चले, माँ ने दर्शन किया तो खुद भी उसी तरह से झुककर दर्शन किया । माता पिता ने विनयरूप प्रवर्तन कराया, विद्याभ्यास कराया, कितना-कितना व्यवहार का काम कराया । तो जो चीज ऊँची है जिसे हमें पाना है उसके लिए सब प्रकार के पुरुषार्थ बनावे और सब पुरुषार्थों में मुख्य पुरुषार्थ तत्त्वज्ञान है । उसके बिना तो काम बनेगा नहीं । तो विरक्त होकर उपेक्षित होकर, पर को पर जानकर उसी में चित्त लगाकर बंधन हटावे । जैसे बने उस प्रकार इस सहज आत्मस्वरूप का अनुभव बनना चाहिए । यह सहज चैतन्य प्रतिभास मात्र हूँ, चित्रूप चैतन्यमय, जिसमें बंधन नहीं, राग नहीं, जिसमें कोई पंक नहीं उस स्वरूप का कलन करें तो मेरे लिए यह नित्य ध्रुव शाश्वत चैतन्यदेव सदा प्रकाशमान है । बस एक बार भी अनुभव में आये, उसकी स्मृति ही बहुत बड़ा एक प्रासाद उत्पन्न करती है । चित्त में वही धुन रहती है । आत्मा को संतोष होता है तो आत्मरमण में ही, बस वही जीव आत्मानुभव करने योग्य है और वही सच्चा आशीर्वाद है । लोग तो कहते हैं कि महाराज आपका आशीर्वाद मिले तो हमारा बेड़ा पार हो जायेगा, पर पार होगा अपने आपके निज के आशीर्वाद से । बार-बार मनन में, अनुभव में, चिंतन में, ज्ञान में ज्ञानस्वरूप को ले चलें तो अलौकिक आनंद प्राप्त हो । ऐसा आनंद पाये तो यही सच्चा आशीर्वाद है, क्योंकि ऐसे ही उपायों से हम संसार के संकटों से दूर हो सकते हैं ।