वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 13
From जैनकोष
आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या
ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्ध्वा ।
आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकंप-
मेकोऽस्ति नित्यमवबोधघन: समंतात् ॥13॥
157―भूत वर्तमान भविष्य के बंधन तोड़कर आत्मानुभव के लिये उद्यमन―आत्मानुभूति के लिए किस विधि से चलना है? पहले तो भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल के बंधन को तोड़ना है । उसको मोटे रूप से एक दृष्टांत में बतलाते हैं । देखो अनेक लोग भूत का मोह, वर्तमान का मोह और भविष्य का मोह करते हैं ना? कोई पुरुष पहले बहुत धनी था, अब गरीब हो गया तो वह सबके समक्ष ज्ञान के साथ कहता है कि अजी मेरे पास इतना-इतना ठाठ था । मेरा मेरा आलाप गई गुजरी बात से करता है वह ही तो भूत का मोह कहलाता । वर्तमान का मोह हो ही रहा और भविष्य का मोह याने जिसकी आशा रखे उसमें होता । एक उदाहरण लो आपने किसी का मकान धर रखा है । उसमें कुछ म्याद रखते हैं कि मानो 3 वर्ष में उठा सके तो उसका नहीं तो हमारा तो उसके मानो ढाई साल गुजर गए । अभी 6 माह शेष रहे, और आप यह जान रहे कि इसमें इतनी हिम्मत नहीं है कि यह हमारा ऋण अदा कर सके, तो आप 6 महीना पहले ही उस मकान को अपना मान बैठते हैं यह भविष्य का मोह हुआ । ऐसे ही भूत, भविष्य वर्तमान का राग, यह भाव बंधन ही तो है । और द्रव्यकर्म में देखो तो पहले के बाँधे कर्म यह भूत का बंधन आज उदय में आ रहा, वर्तमान में जो हो रहा सो वर्तमान का बंधन, और भविष्य का बंधन भी तो कर्म सत्त्व में है तो इन सब बंधनों को दूर करने की एक तरकीब है―सर्व से विविक्त चैतन्यस्वभाव अपने आपको निरखना । आत्मानुभव हो ऐसी स्थिति में कहीं उसका कर्मबंधन नहीं खतम हो गया, मगर उसके उपयोग में बंधन नहीं । उस उपयोग में बंधरहित केवल चैतन्यस्वभाव हे । आत्मप्रतीति की विधि से बंधन का भेदन किया और मोह को दूर किया और उस स्वरूप को, स्वभाव को अपने ज्ञान में लिया, यही आत्मानुभव बनता । इस तरह जो आत्मानुभव बनता है वह क्या है? एक शुद्धनयात्मक आत्मानुभव है । देखो एक आत्मानुभव भगवान के भी होता । चलता ही तो है अनुभव । वीतराग ऋषिसंतों के हुआ, 12वें गुणस्थान में हुआ, मगर यहाँ शब्द डाला है शुद्धनयात्मक आत्मानुभूति याने जहाँ नयों से जाना है, शुद्धनय से जो जाना है वह शुद्धनयात्मक ज्ञानानुभव ही आत्मानुभव है । तो जो शुद्धनयात्मक अनुभव है वह है ज्ञानानंद ।
158―ज्ञानानुभव बिना अनेक विद्या में बढ़कर भी आत्मानुभव की अशक्यता―देखो―आत्मानुभूति का सरल उपाय यहाँ आचार्यसंत ने ज्ञानानुभूति की याद करा कर बता दिया । केवल अपने को ज्ञानमात्र ज्ञान मात्र मनन करें । मनन तो चलता है ना, क्या-क्या? मैं तो इस मोहल्ले का हूँ, इस घर का हूँ, व्यापारी हूँ, अमुक हूँ, सर्विस वाला हूँ, विद्वान हूँ और उसका घमंड भी बना रहता, क्योंकि पर में अहंबुद्धि है । जैसे यहाँ अनुभव करते हैं कि मैं यह हूँ, यह हूँ, ऐसा अनुभव न करके यह अनुभव करे कि मैं सिर्फ ज्ञान ज्ञानमात्र हूँ । जाननप्रकाश चैतन्य दृष्टि । देखो कुछ अपने आपकी ओर झुकोगे तो समझ में आता जायेगा, शब्द न समझा सकेंगे, किंतु अपने आप समझ लेंगे । एक तो गैल दिखाना ऐसा होता कि देखो यहाँ से जाना आगे, दो रास्ते फूटे मिलेंगे, दाहिनी ओर के रास्ते से जाना, आगे जाने पर चौराहा आयेगा, वहाँ से बाईं ओर को जाना इस-इस प्रकार एक तो मार्ग बता दिया । वह चलता भी है उसे वे-वे सब चिन्ह दिखते भी हैं जो बताये, मगर उसका स्पष्ट ज्ञान तभी स्पष्ट हो पाता जब वह सही चिह्न पा लेता, पर हाँ धारणा तो उसको पहले से ही हो गई उस मार्ग की जानकारी करके, पर मार्ग का परिचय प्रयोग से ही स्पष्ट हुआ, ऐसे ही आत्मा में प्रयोग किया जाये । आत्मस्वभाव अंतस्तत्त्व की ओर झुक जाये, उसका ग्रहण किया जाये तो अनुभव होगा कि मैं क्या हूँ । यह तो एक बड़े गजब की बात है कि दुनियावी हिसाब किताब लगाने में तो बड़े चतुर बन रहे, पर अपनी बात अपनी समझ में नहीं आती । तो क्यों नहीं समझ बनती कि यहाँ इष्ट अनिष्ट राग विषय चल रहे हैं, यही अंधेरा इस आत्मतत्त्व को समझने नहीं देता और कोई समझ कर भी नहीं समझ पाता । कोई तो ऐसे हैं कि उनकी समझ ही नहीं, और कोई ऐसे हैं कि समझ कर भी नहीं समझ पाते । वे समझते हैं उनके शब्दों द्वारा अम्यास से । बहुत-बहुत उपदेश झाड़ें, बहुत-बहुत शास्त्र भी पढ़ें, मगर क्या है । जब तक यह ज्ञान इस सहज ज्ञानस्वरूप को अनुभव में नहीं लेता, ज्ञान में नहीं समाता, जब तक समझ नहीं, और जब तक वह जीव अज्ञानी है, भले ही शास्त्रज्ञान में बहुत बड़े, भले ही यहाँ वहाँ की बातें बहुत जान ले मगर इसको अपने आपमें जब तक ज्ञानानुभूति नहीं बनती, तब तक ज्ञानी नहीं । वह अज्ञानी बना हुआ है । दुनिया में भी तो ऐसे चतुर हैं, उनमें बड़ी चालाकी भरी, कितनी ही तरह के भेष में रहते कोई बाल बढ़ा लेते, कोई साधु का रूप रख लेते, कोई रईसी ढंग के कपड़े पहन लेते । जैसे रेलगाड़ियों में जो चोर होते हैं वे देखने में कितना सूटेड बूटेड एक रईस जैसे लगते हैं, वे अंग्रेजी में बड़ी शान से बात भी करते हैं । उन्हें कोई बता थोड़े ही सकता कि ये चोर हैं, पर वे ही मौका लग जाने पर माल चुराकर चंपत हो जाते हैं ।
159―आत्मानुभव के इच्छुकों को आत्मतत्त्व व अनात्मतत्त्व के परिचय की आवश्यकता―इस आत्मा का स्पष्ट बोध तब होता है जब अनात्मतत्त्व का भी बहुत परिचय हो । उस अनात्मतत्त्व में कर्म का अधिक संबंध है । कर्मसिद्धांत का अधिक परिचय होना चाहिए और फिर अध्यात्मस्वरूप का भी अधिक परिचय होना चाहिए । ज्ञान को आत्मानुभव के लिए कितनी सुगमता रहती है । विकारों से हटना उसका खेल होता है । जिसने कर्म की अनेक दशायें जानी, कर्म का प्रतिफलन देखा उसका एकदम निर्णय है कि यह सब हो तो रहा है, किंतु मैं तो शुद्ध चैतन्यमात्र हूँ । स्वभावदर्शन में मदद देता है कर्मसिद्धांत का परिचय । कोई कर्मसिद्धांत नहीं जानता है तो उस भेष में कहते हैं कि हम को तो आत्मा की बात जाननी है और बाहरी बातों में क्यों चर्चा करना । वे तो कूपमण्दूक है । और किसी ने शास्त्रों की बात, यहाँ वहाँ की बात खूब जाना और उस ही की बात में कुछ संतुष्ट से हो रहे―हमने खूब समझा । अरे वह कोई संतोष नहीं है, वह एक अहंकार हुआ, उसमें मौजमानी बात है । कोई इस भेष में बढ़ रहा, तपश्चरण में बढ़ रहा, बाह्य में खूब बढ़ रहा, पर भीतर में कुछ ज्ञान नहीं, अनंतानंत जीव तो ऐसे हैं कि जिन्हें कुछ पता ही नहीं, विरले ही कोई ज्ञानी है जिन्हें ही आत्मानुभूति होती । तो शुद्धनयात्मक जो आत्मानुभव है सो यही तो है वह ज्ञानानुभूति । मैं ज्ञानमात्र हूँ, यह बड़ा एक अमृतमय तत्त्व है । मैं ज्ञानमात्र हूँ, इस प्रकार का मनन बने, क्योंकि जिसरूप अपने को भाया-मैं ज्ञानमात्र हूँ, वह ज्ञानमात्र कभी मरता है क्या? ज्ञानमात्र अपने को माने तो वह अमर ही तो हो गया । तो शुद्धनयात्मक जो आत्मानुभव है वह ज्ञानानुभूति है, ऐसा जानकर हे ज्ञानी जनो, आत्मा को आत्मा में रखकर स्थापित करो । याने ज्ञान में ज्ञानस्वभाव स्थापित करो, निष्प्रकंप होते हुए स्थापित करो, जिससे कि ऐसा अनुभव हो कि चारों ओर से यह सर्वत्र ज्ञानघन है ।
160―ज्ञानमात्र ज्ञानघन अंतस्तत्त्व का विवेचन―देखो इसमें दो प्रकार से मनन करने का संकेत है । मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानघन हूँ । हैं ये दोनों मनन अपने आत्मा के ही अंदर, मगर रीति पद्धति, विधि में थोड़ी विशेषता है परस्पर में । मैं ज्ञानमात्र हूँ, यह तो एक आकिंचन्य भावना के आधार को लेता है, उसे पुष्ट करता है, मैं और कुछ नहीं, मैं ज्ञानमात्र हूँ । अन्य कुछ नहीं, जिसे कहते इतना भर । आप तो इतना भर कह दें और कुछ नहीं । बस ज्ञान-ज्ञान इतना भर मैं हूँ । जिसका निष्कर्ष यह निकला कि स्वरूप के सिवाय जिसका अन्य कुछ नहीं, जिसमें अन्य नहीं, जिसका किसी पर में प्रवेश नहीं । मैं ज्ञानमात्र हूँ । मनन करने में आ तो रहा है, अपने लिए अमूर्त की ओर, हल्के की ओर याने निर्भार की ओर आ रहा है । और साथ में ज्ञानघन की भी प्रतीति लगी है । ज्ञानमात्र चिंतन में तो एक हल्कापन सा आ रहा है और एक भरा हुआ अनुभव यह ज्ञानघन की प्रतीति के साथ चल रहा है । मैं परिपूर्ण हूँ, ज्ञानघन हूँ । ज्ञानघन का विश्वास रहेगा तो यह दीनता मिट जायेगी कि मुझे यह काम करने को पड़ा, अभी यह काम करने को पड़ा । अरे मुझे बाहर में कुछ नहीं करने को पड़ा । बाहर में कुछ किया ही नहीं जा सकता और अंदर में यह परिपूर्ण ब्रह्म परम पदार्थ ही है । इसे करना ही क्या है । देखिये स्वरूपदृष्टि के क्षेत्र की बात चल रही है । मैं ज्ञानघन परिपूर्ण कृतार्थ हूँ । तो अपने को ज्ञानमात्र अनुभव करें, ज्ञानघन अनुभव करें । फल क्या होगा? सहज आनंद की अनुभूति जगेगी, जिसमें वास्तविक तृप्ति होगी । तो एक ध्यान बना लो मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान ही ज्ञान हूँ । जरा ईमानदारी से सच्चाई के साथ प्रयोग दृष्टि बनाकर आत्मज्ञान बने, अपने पर दया करके एकांत में बैठकर । चार आदमियों के बीच प्रसंग में बैठकर यह आत्मानुभव की बात नहीं बनती, क्योंकि अभी आत्मा ऐसा बेईमान बना हुआ है कि इसके अंदर चारों प्रकार की कषायें हैं । धर्म की घटना में, धन के प्रसंग में मान और माया ये बड़े जबरदस्त है । जरा-जरा सी बात में ये अपना नाच दिखाते हैं । अभी भगवान के सामने विनती पढ़ रहे तो बहुत धीरे-धीरे अटपट ढंग से पढ़ रहे थे, “आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाये ।” और अगर कोई दो चार भाई वहाँ पहुंच गए तो फिर अपनी बड़ी मुद्रा बना लेंगे, और वहीं विनती बोलने का लय स्वर ढंग भी एकदम बदल जायेगा । तो यह मायाचार की ही तो बात है । तो एकांत में अपने पर दया करके कि इस संसार में मुझे अकेला ही कष्ट सहना पड़ता है उससे निवृत्त होने के लिये आत्मानुभव बनावें । आत्मानुभव बनता है अपने को ज्ञानमात्र मनन करने से । मैं ज्ञान ज्ञान रूप हूँ, ऐसा सोचते-सोचते रूप यह आ जायेगा कि मैं ज्ञानघन हूँ, समंतात् ज्ञानघन हूँ । पर एक और विशेष याद दिलाने के लिए यह शब्द पड़ा है घन । घन के मायने लोग लगाते वजनदार । जैसे लोहे का हथौड़ा होता है तो उसे लोग घन कहते । घन का अर्थ लोग वजनदार लगाते, पर घन का अर्थ वजनदार नहीं । किंतु घन का अर्थ है जिसमें वही-वही हो, दूसरा कुछ न हो, अब जितना घन है उसमें वही-वही है इसलिए उसका नाम धर दिया घन एक लोहे के अलावा उसमें और कुछ नहीं इसलिए वह घन है । कोई स्वर्ण का डला हो, जिसमें मात्र वही-वही हो, अन्य चीज उसमें न मिली हो तो वह कहलाता है घन । याने जो वही-वही हो जिसमें अन्य चीज न मिली हो वह कहलाता है घन । जैसे लकड़ियों में एक सागौन की लकड़ी होती, अब उसमें जब बीच में बुरादा न हो, सिर्फ वही-वही हो, तो उसे कहते हैं घन । ऐसे ही यह आत्मा ज्ञानघन है तो उसका अर्थ है कि मात्र ज्ञान ही ज्ञान है, ज्ञानघन आत्मा है, जिसमें अन्य कोई चीज नहीं मिली, बस ज्ञान में ऐसा ज्ञानघन अंतस्तत्त्व समाना यही ज्ञानानुभूति है । यही शुद्धनयात्मक अनुभव है ।
161―आत्मानुभूति में अलौकिक आनंदस्वरूप सहज परमात्मतत्त्व का लाभ―आत्मानुभूति में क्या मिलता है? वह आत्मानुभूति क्या चीज है? उसका विषय स्वयं एक सहजसिद्ध अर्थ है । जो शब्दों द्वारा जाना गया और ज्ञान द्वारा अनुभव किया गया ऐसा वह एक परमार्थ तत्त्व है । उसकी अनुभूति बस यह ही तीन लोक में सार है । वीतराग विज्ञानता, रागद्वेष रहित ज्ञानमात्र तत्त्व यह सहज ज्ञानस्वरूप का विशेषण लगाओ । केवलज्ञान वीतराग है, परंतु विज्ञान शब्द में जो ता प्रत्यय लगा है उससे स्वभावभावरूप ज्ञानभाव याने सहज ज्ञानभाव द्योतित होता है इसको मन वचन काय सम्हालकर नमस्कार करें । मन, वचन, काय की चंचलता हटाकर इस ज्ञानस्वरूप परमात्मा की भक्ति में, अंतस्तत्त्व को व बाह्य की भक्ति में केवलज्ञान को लें, रागद्वेषरहित सहज ज्ञान और बाह्य भक्ति में, परमात्मा, तीर्थंकर, आत्मा । तो जो शुद्धनयात्मक आत्मानुभूति है वह यह ही तो ज्ञानानुभूति है जो चारों ओर से विज्ञानघन है, ज्ञानरस से परिपूर्ण है । यह बंधन में है क्या? नहीं? जैसे कोई राजा किसी प्रकार का अपराध लगाकर किसी ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष को बाँध ले जाये, कैद में डाल दे, आप कहेंगे कि जब कोई अपराध नहीं किया तो कैद में कैसे डाल देगा? अरे बिना अपराध के भी कोई झूठा आरोप लगाकर कैद में डाला जा सकता । तो वह सम्यग्दृष्टि पुरुष कैद में पड़ा है मगर वहाँ जब वह ज्ञानानुभूति करता है, आत्मानुभव कर रहा तो उसके उपयोग में बंधन है क्या? कोई ज्ञान को बाँध सका है क्या? चाहे कोई शरीर को बाँध दे, मगर आत्मा को किसी ने बाँधा क्या? ज्ञान को लौकिक जन कोई नहीं जानता, ज्ञानानुभूति वहाँ भी है, यहाँ भी अपने को बंधरहित, भवरहित जो-जो बात सिद्ध पर्याय में व्यक्त है उस-उस रूप यह विशेषण लगाते जाओ―यह ज्ञानस्वरूप, यह सहज परमात्मस्वरूप गतिरहित, इंद्रियरहित, योगरहित, वेदरहित है यों लगाते जाओ, उपयोग में, उस समय के अनुभव में वह निर्बंध है । बस यही-यही मात्र एक साधारण सामान्य विशेषता रहित । अब इसको चाहे भोला, सीधा, सरल, अनजान, कुछ भी कह दो, लोग अनजान किसे कहते कि जिसे मायाचारी छल-कपट आदि से परिचय नहीं । और जो सरल है, आत्मा का रस लेता रहता है, उसके सहज ज्ञानसामान्य अनुभूति में है ।
162―उपयोगभूमि में विकार न आने पर प्रतिफलित होने पर भी विकार का अनुभव―आत्मानुभव के समय किसी के विभावों का भी परिणमन चल रहा, विभाव चल रहे, पर अनुभव नहीं चल रहा । ऐसा एक पुरुषार्थ का स्थान है वह । कोई गृहस्थ अथवा कोई मुनि जिसके कर्मों का उदय निरंतर चल ही रहा, चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव के अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय है ना, श्रावक के प्रत्याख्यानावरण का और मुनि के भी संज्वलन का है, तो क्या वह धारा खतम हो गई? उस आत्मानुभव करने वाले का वश उन कषायों का उदय रोकने में क्या चल रहा है निरंतर उदय है अनुभाग है, जो प्रतिफलन हो रहा, यहाँ तक अनिवारित है बात, मगर उपयोग है सहज आत्मस्वरूप की ओर तो अनुभव हो रहा है सहज ज्ञान तत्त्व का ही । प्रतिफलन का, उस विभाव का अनुभव नहीं हो रहा है आत्मानुभव के समय । इस अनुभव दशा में यह जीव क्या कर रहा? ज्ञानानुभूति, ज्ञानानुभव । ऐसा यह ज्ञानमात्र अनुभव करने वाला, ज्ञानघन का अनुभव करने वाला जो अपने आपके इस मर्म को जान लेता उसने सब कुछ जान लिया । तो व्यवहारनय से पर्याय, भेद, अभेद, स्थिति, निर्णय, निमित्त नैमित्तिक भाव सभी तो उस व्यवहारनय द्वारा समझे जा रहे हैं । जहाँ हमें रमना है उसे भी व्यवहारनय बता रहा जिससे हमें हटना है उसे भी व्यवहारनय बता रहा । अब उसका प्रयोग बनावें जिससे हटना है उससे हट जावें और जिसमें लगना है उस ओर लगे तो कुछ यहाँ शुद्धनय का आलंबन बना लेंगे, और शुद्धनय के आलंबन से सहज चैतन्यस्वरूप को ज्ञान में ले लेंगे ।
163―ज्ञानानुभव से सर्वसिद्धि―भैया ज्ञानानुभव पाया तो सब पाया, यह न पाया तो जीवन व्यर्थ जा रहा है । खाना पीना तो गाय, भैंस, आदिक बनकर भी मिलता । जितना आनंद मनुष्य हलुवा रसगुल्ले में मानता, क्या उससे कम आनंद ये पशु हरी घास में मानते? आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदिक सभी संज्ञायें तो पशु पक्षी बनकर भी भोगी जा सकती थी । फिर यहाँ मनुष्य होने का सार क्या है? अरे यही सार है आत्मानुभव । इस ओर आओ, विधि से आओ । विधि छोड़कर भटक जाओगे । आचार्य संतों ने सब विधि बताया है, उसके अनुसार चलें और किसी के बहकावे में क्यों आयें? ऋषि संत सभी प्रकार के शास्त्रों के ज्ञानी होते हैं? उनका जो उपदेश मिलता है उसमें बहक नहीं मिलती और इसी प्रकार जो सब प्रकार के शास्त्रों में अपना कौशल रखते वे सही ढंग से चलेंगे । उनके लिए आत्मदृष्टि करना, ज्ञानानुभव करना, स्वभावदर्शन करना, यह सब कौतूहल सा हो जाता, खेलमात्र लीलामात्र । जैसे बड़े-बड़े धनिकों द्वारा बड़े-बड़े काम आसानी से कर लिए जाते हैं उससे भी अधिक आसान काम तत्त्वज्ञानी पुरुष को रहता है । वहाँ तो परेशानी भी रहती, मगर तत्त्वज्ञानी को आत्मानुभव के लिए कोई परेशानी नहीं । तो मूल उपकार अरहंत देव का है, तभी मूल वक्ता अरहंत हैं । फिर गणधर आदिक देव है, और-और भी आचार्य संत हैं, वे यद्यपि आज हमारे सामने नहीं हैं, तो भी उनकी हम पर बड़ी करुणा है जो उनके वचन आगम में मिलते हैं । वे ठीक विधि से चले, व्यवहारनय, निश्चयनय, शुद्धनय की विधि से चलकर पश्चात् आत्मानुभव की पद्धति से चले तो आत्मानुभव हुआ । हम भी उनके बताये मार्ग से चलें तो कल्याण निश्चित है ।