वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 148
From जैनकोष
रंगयुक्तिरकषायितवस्त्रे स्वीकृतैव हि बहिर्लुठतीह ॥148॥
1182- शरीरविषयक अध्यवसान से हुए उपभोग में संसारबंधन की अक्षमता- प्रकरण यह चल रहा है कि पूर्वबद्ध कर्मविपाकवश उपभोग प्राप्त हो तो भी वह उपभोग ज्ञानी के परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता। वह उपभोग परिग्रह नहीं बन पाता। उपभोग क्या चीज है? उपभोग उन बाहरी प्रसंगों में विषयों के साधनों में जो कुछ कुछ भी थोड़ा ज्ञानविकल्प चलता है, प्रवृत्ति चलती है, जिसे कहते भोगना, वहक्या बात है? उस जीव का ही एक परिणाम है, जिसे कहेंगे अध्यवसान।अध्यवसान हल्के तीव्र अनेक प्रकार के होते हैं। तो जो अध्यवसान रागद्वेषमोहरूप हैं उनसे अपने उपभोग का चिपकाव है, यों समझिये कि वहाँ रागद्वेष मोह छाया है उसमें यह उपयोग मिलकर एक तन्मय हो जाता है। जैसे बताया था ना पहिले कि कोहुवजुतो कोहो इत्यादि, क्रोध में उपयुक्त जीव का नाम क्रोध, मान में उपयुक्त जीव का नाम मान इत्यादि। तो जो कर्मरस है, कर्मविपाक प्रतिफलन है उस रूप अपने को मानना उसे कहते हैं उसमें उपयोगी होना। राग की ओर उपयोग तो अब भी है ज्ञानी के। लेकिन अंतर देखो- एक तन्मयता से अपने आपमें रागादि को चिपकाये तो एक वह अध्यवसान और एक ऐसा अध्यवसान जो शरीरविषयक है। दो प्रकार के अध्यवसान होते हैं। सुख दु:ख भोगे जाते, आहार चर्या करते हैं साधु, आहार चर्या करते हैं गृहस्थ भी, जो कोई विरक्त हुआ, उस समय वह केवल एक शरीर चलाने के हेतु अपना व्यापार करता है याने खाना पीना करता है तो वह शरीरविषयक उपभोग हुआ। और एक उसमें चाह बनना, इसमें बहुत अच्छा आनंद है, विषयों में बड़ा मौज है, ऐसा उछलकर उनमें उपयोग का रमना हो तो वह कहलाता है संसारविषयक अध्यवसान। तो शरीरविषयक जो अध्यवसान है, उपभोगविषयक जो एक अभिलाषा है बस उसको कहोगे कि है यहाँ कर्म। एक यह भी कर्म है। कर्म मायने क्रिया, ज्ञान की क्रिया है, उसमें कुछ राग भाव भी बना, कुछ परिस्पंद भी बना, कुछ शारीरिक चेष्टा भी हुई। तो ज्ञानी का जो कर्म है, वह परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता। जैसे बेमन से कोई काम करे तो उसे कहते हैं कि तुम काम ही नहीं करते। कोई मजदूर काम करने में बहुत जी चुराता है, जरा सी मालिक की निगाह हटी तो झट बीड़ी पीने के बहाने या वैसे ही आराम करने बैठ गया, या अच्छी तरह से काम नहीं करता तो कहते कि अरे तू तो काम नहीं करता। अरे कुछ तो कर रहा है। अरे दिल से करने को करना कहा जाता है। तो ऐसे ही जिस ज्ञानी का भाव अपने अंतस्तत्त्व की ओर है, जिसे समस्त लोक में सारभूत तत्त्व केवल यही नजर आ रहा है, दूसरा कुछ नहीं, ऐसे अंतरात्मा ज्ञानी के कर्मविपाकवश कर्म होने पड़ते हैं तो भी वे परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होते। 1183- अंतस्तत्त्व के अपरिचय में ज्ञानी की बाह्यप्रवृत्ति की नकल की अकिंचित्करता-
देखिये ऐसा वर्णन सुनते समय बाहर की बातों पर दृष्टि अधिक न देना चाहिये, भीतर की बात पर दृष्टि देना चाहिये। उपभोग परिग्रह नहीं बनते, यह तो जल्दी मान लेंगे, क्योंकि बड़ी अच्छी बात है, और उसका भी ऐसा ही नाम बन जाय मगर भीतर में ज्ञान क्या कर रहा है? क्या परखता है, कहाँ दृष्टि है यह नहीं परख रहा, बाहर कुछ परख रहा। और, इसीलिए फिर यह विडंबना बन जाती कि जैसे कहने लगते कि ज्ञानी के उपभोग से बंध थोड़े ही होता है, हम भी ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि हैं, अपने को कम नहीं मानते पर्यायव्यामोही जन तो वे भी स्वच्छंद हो रहे और विषयों से निवृत्त नहीं होते। उनकी केवल गप्प रह जाती है। जैसे पहाड़ पर चढ़ना दूर से बड़ा सुगम दिखता, अरे इतना सा ही तो पहाड़ है, और एक मखमल सा इस पर बिछा है। जैसे शिखरजी का पहाड़ जब दूर से देखो तो ऐसा लगता है कि बस जरा सा तो ऊँचा है, अभी इस पर थोड़ी ही देर में चढ़ जाऊँगा, खूब हरा भरा दिखता मानो उस पर मखमल सा बिछा हो, लगता कि इस पर चढ़ना कुछ कठिन नहीं है, पर जब उस पर कोई चढ़ता है तब पता पड़ता है कि हाँ यह है पहाड़। पहले नहीं पता पड़ता। तो ऐसे ही जरा अंतस्तत्त्व की ओर दृष्टि दो कि में अपने उस सहज अंतस्तत्त्व की ओरदृष्टि कर पा रहा हूँ या नहीं, निर्विकल्प, कुछ ख्याल न रहे, ऐसी कोई स्थिति कभी क्षणभर को भी होती है कि नहीं। बात तो कुछ हो नहीं और केवल अपने आपको ज्ञानी मानकर कुछ ज्ञानी की बाहरी नकल करें, भीतरी नकल तो कर नहीं सकते, तो कहीं उस बाहरी नकल से सम्वर निर्जरा तो न हो जायगी।
1184- ज्ञानी की अंतर्विशुद्धि- ज्ञानी का भीतरी भाव परखिये कि कहाँ लगा है ज्ञानी जिस कारण से कहा जाय कि वह ज्ञानी रागरसरिक्त है याने राग उठ रहा है, उपभोग राग बिना नहीं होता ज्ञानी का भी और फिर भी यहाँ यह कह रहे कि ज्ञानी का उपभोग राग बिना है, इस कारण परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता। वह मन से करे तो करना कहलाता, मन से न करे तो करना नहीं कहलाता। ज्ञानी का उपभोग चूँकि वह भी विकार हैं, कुछ इच्छा हुए बिना कोई साधु चर्या भी नहीं करता, इसी प्रकार श्रावक की बात लो। कुछ बात तो होती है तो राग तो बना मगर अंदर से राग नहीं बना। उस राग में राग न बना। जो राग उठ रहा उस राग से राग नहीं। जैसे यहाँ किसी का किसी दूसरे से मन हट जाय तो उससे राग नहीं बनता ऐसे ही इस ज्ञानी पुरुष को अपने उन समस्त विकारों से मन हट गया, क्योंकि सारी पोल जान ली, विभाव अस्थिर है, नैमित्तिक हैं, दु:ख के हेतुभूत हैं, अपवित्र ही तो हैं, इससे आत्मा का हित नहीं होने का, भली प्रकार ज्ञान बन गया, अब एक रागभाव का राग न होने से, बस यह तो राग से रीता है, मायने उस राग में राग नहीं कर रहा है, इस कारण ज्ञानी का उपभोग परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता। 1185- अकषायित उपयोग में उपभोग का अप्रभाव-
ज्ञानी के कैसे रहता वह उपभोग? तो देखो पहले जमाने में जिसे कहते कढ़ी रंग की धुतियाँ, जो कि पहले रंगी जाती थीं। तो पहले कैसे क्या पकाते थे? उसमें लोध फिटकरी या अन्य कुछ डालते थे फिर रंग में रंगते थे तो उस कपड़े में खूब रंग भिद जाता था। फट जाय कपड़ा तो भी वह रंग नहीं छूटता था और कोई ऐसा रंग है कि पानी डाला रंग डाला तो वहाँ रंग तो आया कपड़े पर, परंतु भीतर में रंग भिदा नहीं, स्वीकार नहीं हुआ, वह बाहर ही रहा, उसे दो चार बार धो दिया जाय तो रंग कपड़े से बाहर हो जाता है। तो जैसे जिस वस्त्र को कषायित नहीं किया, लोध फिटकरी आदि में नहीं पकाया, ऐसे ही वस्त्र में बाहर से रंग डाला तो वह ऊपर ही स्वीकार है, भीतर अंगीकार नहीं और वह रंग बाहर ही बाहर लोटता है, ऐसे ही जब कषायित नहीं है ज्ञानी का परिणाम याने जो रागभाव उठा, कर्मविपाक आया उस राग में राग नहीं है, उसको भीतर कषायित नहीं किया है इस कारण से वह उपभोग बाहर ही बाहर बन रहा है, बाहर ही बाहर लौट रहा है, ज्ञानी ने उसे अपने आपके अंदर अंगीकार नहीं किया।
1186- एक अंतस्तत्त्व की साधना में सर्वश्रेय-
एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय। एक अपने आपके इस सहज अंतस्तत्त्व की दृष्टि हो कि मैं वास्तव में निरपेक्ष क्या हूँ। यह बातअगरचित्त में है तो आपकी सारी बातें षट्कर्तव्य, व्रत तप ये सब उसमें कई गुणा काम करेंगे। जैसे 1 का अंक न रखे और वहाँ बिंदी (0) रखें तो बिंदी (0) की कीमत है नहीं, कितनी ही बिंदी रखे जावो उसकी कोई कीमत नहीं, ऐसे ही कोई मन वचन काय की खूब चेष्टायें करें मगर अपने आपके एक सहज अंतस्तत्त्व का आश्रय न ले तो ये सब बाहरी क्रियाकांड कुछ काम न देंगे। जैसे 1 का अंक लिख लिया गया तो उसके बाद जितनी बिंदी (0) रखी जायेंगी उनकी प्रत्येक की 10-10 गुनी कीमत बढ़ती जायगी और यदि कोई अंक पहले न रखे तो उन बिंदियों से कोई संख्या नहीं बनती, ऐसे ही एक की साधना बनावें। यही तो अध्यात्म साधनों में बात चलती है, पर फर्क यह हो जाता कि हम जिस पदवी में हैं, गृहस्थ हैं, श्रावक हैं उस पदवी में हम अपनी चर्या नहीं बनाते। साधुजनों को तो कुछ करना नहीं पड़ता। उन्हें तो मंदिर में जाकर दर्शन करना भी आवश्यक नहीं। पास मिल जाय तो दर्शन करते हैं। जैसे श्रावकों के नियम है कि बिना दर्शन किए न खाना तो ऐसा नियम साधुवों के नहीं होता। साधु स्वयं एक जिनमुद्रा में है। और जिनका नियम है वे साधु दर्शन करके अपना नियम पूर्ण करते हैं। तो साधुवों जैसी बात अगर श्रावकजन करें और उसमें एक अंतरंग निश्चयनय की बात का आधार दें तो उससे हम ही टोटे में रहते हैं। हमारी व्यावहारिक चेष्टायें अगर बेकार हैं फोकट हैं तो फिर फोकट के करने में भार क्या? उन्हें करो। वह तो एक प्रकार से ढाल का काम करता। उसमें उपयोग रहने से व्यसन के पाप के परिणाम न बनेंगे। जो किसी न किसी प्रकार हम शुभोपयोग की क्रियावों में चलते हैं तो इतना लाभ तो तुरंत है कि व्यसन और पाप की बातें उस समय नहीं आती। वहाँ से तो मोड़ हो गया। अब ऐसी सुरक्षित स्थिति में हमारा क्या काम है कि शुभोपयोग की पकड़ न रखें, शुभोपयोग क्रिया ही मेरा सर्वस्व है, यह ही मुझे पार करेगा, ऐसी दृष्टि न होनी चाहिए वह तो सुरक्षा के लिएहै। अब हमारी अंतस्तत्त्व की साधना पर दृष्टि होनी चाहिए। मैं क्या हूँ सही परमार्थ निरपेक्ष अपने आपके सत्त्व के कारण। हमने जो परखा है, बस वह दृष्टि में आये वह कहलाती है एक ही साधना। एक की साधना करें तो बाकी सब भी उसमें सहायक हो जाते। अगर उस एक को तज दिया तो वहाँ फिर पार नहीं पा सकते। तो जैसे जो वस्त्र अकषायित है उसमें रंग का योग केवल ऐ स्वीकृत जैसा है अथवा अस्वीकृत है? संधि में यहाँ अस्वीकृत अर्थ भी निकलता है। स्वीकार नहीं किया उस वस्त्र ने रंग को, रंग ऊपर ही ऊपर रहा, उसमें भिदा नहीं, ऐसे ही ज्ञानी ने उस उपभोग को स्वीकार नहीं किया अंदरमें किंतु कर्मविपाक से और उसकी कमजोरी के कारण वह ज्ञानी पुरुष उपभोग में पड़ गया फिर भी उसके उपभोग परिग्रह भाव को प्राप्त नहीं होते।