वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 24
From जैनकोष
कांत्यैव स्नपयंति ये दशदिशो धाम्ना निरुंधंति ये
धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णंति रूपेण ये ।
दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयो: साक्षात्क्षरंतोऽमृतं
वंद्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वरा: सूरय: ॥24॥
251―एक स्तवन से देह में ही आत्मत्त्व की सिद्धि की एक आरेका―प्रारंभ से यह प्रकरण चल रहा है कि देह न्यारा और आत्मा न्यारा, कषाय न्यारा, आत्मतत्त्व न्यारा, इस बात को अनेक ढंगों से सिद्ध करते हुए चले आ रहे हैं । ऐसी बात बहुत सुनकर कोई व्यवहारवादी अथवा व्यवहार एकांतवादी यहाँ एक अपनी जिज्ञासा रख रहा है कि आचार्य महाराज आप यह कहते चले आ रहे हैं कि देह अलग चीज है, जीव अलग चीज है, लेकिन यह बात तो कभी-कभी आपके वचनों के ही विरुद्ध पड़ रही है आप जब स्तवन करते हैं तीर्थंकर का या आचार्य महाराज का, साधु महाराज का, तब देखो किस-किस स्वरूप से स्तवन करते । तीर्थंकरके स्तवन में कहा तो यों कहा कि धन्य हैं तीर्थंकर महाराज, आपने अपनी कांति से दसों दिशाओं को नहा डाला अर्थात् आपके शरीर की कांति ऐसी फैली कि दसों दिशाओं में फैल गई । तो कांति जो फैली है, दसों दिशायें जो उज्ज्वल हुई हैं वह क्या आत्मा की कांति है? वह तो देह की कांति है । कांति तो पौद्गलिक है, वह दसों दिशाओं में फैल गई । इससे तो जो देह है सो ही भगवान है, यह ही बात आयी तो देह से न्यारा है भगवान आत्मा, यह बात तो न रही । देह से न्यारा नहीं रहा आत्मा, तो अपने आपके बारे में भी सोचना कि मैं देह से न्यारा हूँ, यह कहाँ तक ठीक है । तो यह आचार्य महाराज से कहे जा रहा है शंकालु कि बात तो यहाँ अन्य कुछ नजर आ रही है कि जो देह है सो ही आत्मा है । अगर देह ही आत्मा न हो तो फिर भगवान की जो ऐसी स्तुति करते हैं कि हे भगवान आपने कांति द्वारा दसों दिशाओं को उज्ज्वल कर दिया, यह कथन कैसे बनेगा । यहाँ शंकाकार कह रहा कि हम तो यह मानते कि जो शरीर है सो आत्मा । और भी जब तीर्थंकर का स्तवन करते तो कहते कि दो तीर्थकर हरे हैं, दो काले हैं, दो सफेद है, दो नीले हैं और बाकी स्वर्ण रंग के हैं, तो क्या आत्मा काला, हरा आदि हो रहा? कर रहे भगवान की स्तुति―दो हरिया, दो सांवला इत्यादि । तब इससे यह मालूम हुआ कि जो देह है सो ही भगवान है, सो ही आत्मा है । और यहाँ दिखता भी ऐसा है―पशु को देखते तो कहते कि आ गया पशु जीव, मनुष्य को देखते तो कहते कि आ गया मनुष्य जीव । तो हमारे ख्याल से जो देह है सो ही आत्मा है, ऐसा एक शंकाकार कह रहा है । इस प्रकरण में यह बात समझना कि शंकाकार कह रहा है, उसका उत्तर आगे दिया जायेगा कि वास्तविक बात क्या है? तो जब कई दिनों से आचार्य महाराज देह न्यारा, जीव न्यारा की बात कह रहे तो इस शंकाकार को एक दिन कह तो लेने दो अपने मन की बात, और देखो यह समझते रहना कि अभी यह ही शंकाकार कह रहा, अच्छा यह बात जरा बड़ी अच्छी तरह जल्दी भी समझ में आयगी, क्योंकि खुद की बीती बात है । ऐसा ध्यान करके समझ लेंगे कि बात बिल्कुल ही ठीक कही जा रही, देह है सो आत्मा (हँसी) ।
252―तेज और ध्वनि के रूप में तथा देह लक्षण के रूप में प्रभु स्तवन में देह के ही आत्मत्व की सिद्धि की आरेका―अच्छा, और भी तीर्थंकरों की स्तुति होती है कि हे भगवान आपने अपने देह के द्वारा सबको प्रभावित कर दिया । इतना तेज और किसी का नहीं । बड़े-बड़े तेज वाले सूर्य आदिक उनके भी तेज को तिरस्कृत कर दिया । समवशरण में जहाँ तीर्थंकर विराजे हुए हैं वहाँ स्वयं इतना अद्भुत प्रकाश रहता है कि जहाँ एक कवि ने कह ही दिया कि हे प्रभो आपके तेज के आगे सूर्य और चंद्र का तेज भी लज्जित हो गया । तो इस बात में जाहिर होता है कि जो देह है सो आत्मा । देह से निराला कोई आत्मा नहीं । यह सब एक शंकाकार कह रहा है । और भी देखो, हे प्रभो आपका ऐसा सुंदर रूप है कि लोगों के मन को हर लेता है यह । देखने में क्या आया? रूप और उसी रूप को देखकर लोगों का मन लुभा जाये बड़ा अच्छा लगे, आकर्षण हो तो देखो उस रूप से आकर्षण हुआ ना तो भगवान को कहते हैं कि रूप देहमय है और देह है भगवानमय । देखो जब किसी मुनिराज के चार घातिया कर्मों का विनाश होता तो पहले हो गया नाश मोहनीय कर्म का और 12वें गुणस्थान में तीन घातिया कर्म का अभाव हो गया, चार घातिया कर्मों के नष्ट होते ही इतना एक प्रभाव बढ़ता है, केवलज्ञानी होते ही हैं कि शरीर में कोई वृद्धपना रहेगा नहीं, शरीर के कोई टेढ़े मेढ़े अंग न रहेंगे । मुनि अवस्था में भले हो रहा हो टेढ़ा मेढ़ा, आँखें धँस गई हो, आदमी ही तो हैं, मगर केवलज्ञान होते ही वह शरीर सुगम सुंदर हो जाता है । तो कितना सुंदर हो जाता होगा? जब एक अतिशय है कि खराब शरीर हो, बूढ़ा शरीर हो, टेढ़ा शरीर हो तो केवलज्ञान होते ही बड़ा सुंदर शरीर बन जाता है, तो कितना सुंदर बनेगा कि जिससे और कुछ सुंदर हो ही न सके । जब अतिशय हो तो वह पूर्ण अतिशय है, उस सुंदर शरीर को देखकर लोगों के मन हरे जाते हैं । वो कहते हैं कि हे भगवान आपके रूप ने मन हर लिया । तो रूप कहाँ था? देह में, और भगवान का स्तवन कर रहे तो बस देह ही तो भगवान हुआ । देह से अलग भगवान क्या? ऐसी एक जिज्ञासा चल रही है । और भी वर्णन करते ना कि हे प्रभु आपकी दिव्यध्वनि मानो साक्षात् अमृत बरसाती है । दिव्यध्वनि क्या है? एक शब्द पर्याय, और आपकी दिव्यध्वनि । ऐसा अभेद से बोलते हैं तो दिव्य ध्वनि यह कोई देह से भिन्न चीज तो नहीं है । वह इस देह की ही तो बात है । तो ऐसे स्तवन से जाहिर होता है कि जो यह देह है सो ही भगवान है और फिर जब यह बात कहते हैं भगवान के स्तवन में कि हे प्रभु आपके 1008 लक्षण पाये जाते हैं याने शरीर में ऐसे चिन्ह, रेखायें, लक्षण, और, और जो कुछ होते हों वे सब 1008 लक्षण हैं, वे सब हैं देह में और कह रहे आपके 1008 लक्षण हैं और लिखा भी है ग्रंथों में कि 1008 लक्षण हैं भगवान के, तो वे सब लक्षण देह में है । कुछ तो यहाँ भी चलते हैं और उसी के द्वारा स्तवन किया जा रहा तो हम तो यह ही समझे कि देह है सो आत्मा है । देह है सो भगवान । ऐसा एक व्यवहारैकांतवादी अपनी एक जिज्ञासा रख रहा है और दलील दे रहा है कि अगर यह देह ही भगवान न हो तो फिर ये जो स्तवन हैं वे सब मिथ्या हो जायेंगे इसलिए इसकी तो एकांत रूप से यह ही धारणा है कि जो शरीर है सो ही आत्मा है । एक ऐसा प्रश्न इस प्रसंग में हो रहा है ।
253―निश्चयनय और व्यवहारनय से प्रभु स्तुति की विभिन्नता―शंकालु ने कहा तो है, किंतु विचार करने पर समझ में आयेगा कि देखो निश्चयनय और व्यवहारनय इन दो बातों से स्तुति की पद्धति में भेद आया है । निश्चयनय बताता है लक्षण कि एक द्रव्य है, उसमें जो गुण हैं, उसमें जो परिणति है, उसको ही निरखना, उसको ही बताना, उसका ही वर्णन करना और व्यवहारनय अथवा उपचारनय में उस दृष्टि से देखें तो क्या है? भिन्न द्रव्य की बात भिन्न द्रव्य में लगाकर कहना, मगर कुछ प्रभाव है, उपचार भी एकदम अटपट नहीं किया जाता है । जैसे घी का घड़ा है तो लोग उसे घी का ही घड़ा क्यों कहते? यों क्यों नहीं कह देते सीधा मिट्टी का घड़ा? तो कुछ संबंध है, कुछ उसमें तथ्य है । एकांतत: वहाँ पर भी अप्रयोजकता नहीं है । जिसमें घी रखा हो वह घी का घड़ा कहलाता । अब उसमें कोई निश्चय की बात जोड़ने लगे तो वह मिथ्या है । जैसे मिट्टी का घड़ा, ताँबे का घड़ा, लोहे का घड़ा, सारी बातों को कह लो तो मिथ्या है । कैसे है घी का घड़ा? वह तो मिट्टी का है । ऐसे ही भगवान जिस देह में अधिष्ठित हैं उस देह की बात तो है और उसमें तथ्य भी है । संबंध है । तो जो परख करने वाले लोग होते हैं वे सब ओर से परख करते हैं । निश्चय दृष्टि से अलग-अलग वस्तु को एक-एक देखते हैं । देह देह है, भगवान भगवान हैं । मगर, जिस देह में भगवान अधिष्ठित हैं उस देह के स्तवन से भगवान का स्तवन होता है व्यवहारनय से ।
254―उपचार से, व्यवहार से किये गये स्तवन की मुद्रायें―अब देखो व्यवहार से बढ़कर उपचार में यह स्तवन कैसा चलता है―द्रोपदि का चीर बढ़ायो, सीताप्रति कमल रचायो । तो जिन शब्दों में स्तुति बोली उन्हीं शब्दों से उपादानरूप से, निमित्त कर्तृत्वरूप से अनुभव की बात हो, तो गलत है । भगवान ने कहाँ आकर द्रोपदी का चीर बढ़ाया? भगवान ने कहाँ आकर सीता के कमल रचा ? मगर प्रयोजन सोचो ऐसा स्तवन करना ठीक भी है याने उस द्रोपदी को, उस सीता को प्रभु के चरणकमल की भक्ति थी वह प्रभुगुण का स्मरण करने वाली थी, जिसके सम्यक्त्व का भाव था और प्रभु के गुणस्तवन में प्रीति थी, विशिष्ट पुण्यबंध था, जब उस पुण्य का उदय आया तब यह अतिशय हो गया । सीता के कमल का अतिशय कैसे बना कि दो देव कहीं जा रहे थे, केवली के दर्शन को, रास्ते में उन्होंने देखा कि अग्निकुंड जल रहा है, फिर देखा कि एक सती की इसमें परीक्षा होनी है तो वे धर्मात्मा देव थे सो वहीं रुक गए । और सोचा कि इस जगह तो कोई अतिशय होना चाहिए, नहीं तो दुनिया में अधर्म का प्रचार बढ़ जायेगा और लोगों में सतित्व के प्रति अनादर हो जायेगा इसलिए उन देवों ने विक्रिया से वहाँ कमल की रचना कर दी और जलवृष्टि कर दी । देवों के तो विक्रिया होती है । वे विक्रिया से जो चाहे सो कर दें । तो जिस समय सीता ने णमोकार मंत्र का ध्यान कर अग्निकुंड में प्रवेश किया उसी समय तुरंत वे देव विक्रिया से जलरूप बन गए कमल खिल गया । तो क्या था? सीता ने कोई अद्भुत भाव किया था । सो वहाँ एक प्रकार का पुण्योदय आया, उसका कहीं यह अर्थ तो न लगेगा कि जो-जो स्त्री अग्नि में प्रवेश करे और न जले, पानी बन जाये सो तो है सती और अग्नि पर पैर रखने से जल जाये सो सती नहीं, ऐसा नियम तो न बन जायेगा । वह तो उसका एक पुण्योदय था । एक घटना सुनते हैं पंजाब की कि किसी एक पुरुष को अपनी स्त्री के चरित्र पर कुछ संदेह हो गया । तो दोनों में बड़ा वादविवाद हुआ । पुरुष ने यह बात रखी कि यदि तुम खूब तेज खौलते हुए तेल में अपना हाथ रख दोगी और वह हाथ जलेगा नहीं, तो हम समझेंगे कि तुम ठीक हो, वरना हमको तुम्हारे चरित्र पर संदेह है । तो स्त्री ने खूब तेज खौलते हुए तेल में हाथ डालना स्वीकार कर लिया । आखिर यह घटना सब जगह फैली कि इस-इस तरह से स्त्री के चरित्र की परीक्षा होगी तो उसका हाल देखने के लिए बहुत से लोग इकट्ठे हो गए । अब उस स्त्री ने क्या किया कि अपने साथ में कुछ नीम के झोंकें ले आयी और उन कोपलों में वह खूब तेज खौलता हुआ तेल भिगोकर सब तरफ छिड़कना शुरू किया । तभी लोग जले और दूर भगे । सभी ने कहा कि ऐसा क्यों किया? तो उसने कहा कि में सभी के चरित्र की परीक्षा कर रही थी कि कौन तो चरित्रवान है और कौन हीन चरित्र का है । तो कहीं कोई आग में प्रवेश करे और वह न जले, उस जगह कमल रच जाये, अग्निकुंड जलकुंड बन जाये ऐसा कहीं सबके लिए नियम तो नहीं है । वह तो वैसा होना था सो हो गया । इस प्रकार का सीता का विशिष्ट पुण्य का उदय था कि उस समय वैसी बात बन गई । तो बात यह कह रहे हैं कि एक तो निश्चयस्तुति और एक व्यवहारस्तुति । ऐसी ही बात उस द्रोपदी की चीर के संबंध की है । उस समय द्रोपदी के विशिष्ट पुण्य का उदय हुआ कि उसका चीर बढ़ गया, उसकी लाज बच गई । तो द्रोपदी और सीता का धर्म की आराधना के प्रसाद से इस प्रकार का विशिष्ट पुण्य का बंध हुआ, तो यह अतिशय हो गया । णमोकार मंत्र का पाठ किया, भगवान का गुणानुवाद किया, भगवान का ध्यान किया तो उसके प्रताप से यह अतिशय बना इसलिए आश्रयभूत कारण में उपचार की बात कही जाती है कि हे प्रभो ! आपने “द्रोपदि का चीर बढ़ाया, सीता प्रति कमल रचाया ।” इस तरह कोई स्तुति करे तब तो ठीक है, मगर कोई ऐसा जाने कि भगवान आये, उन्होंने द्रोपदी का चीर बढ़ाया, सीता के लिए कमल रचाया तो यह बात मिथ्या है ।
255―देह की स्तुति से प्रभु का स्तवन समझने में व्यवहार का योग―प्रभु की व्यवहार स्तुति में कहा जायेगा कि भगवान की कांति ने दसों दिशाओं को नहा दिया आदिक जो भी बात कही जायेगी । और निश्चय दृष्टि से भगवान के जो भी गुण हैं―अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति और अनंत आनंद उसका स्तवन करने से भगवान की स्तुति निश्चय से होगी । और व्यवहार से देह के स्तवन से स्तुति होती है । अभी आपके मित्र बैठे बात कर रहे हैं और कदाचित् किसी मित्र की टोपी या पगड़ी नीचे गिर जाये तो उसे आप कितनी सावधानी से उठाकर उसे साफ करते और यदि गुरुत्वबुद्धि से उठा ले तो उसे अपने मस्तक पर भी धर लेते । अब कोई यह कहे कि यह पगड़ी या यह टोपी तो उस दोस्त की है, आप उस दोस्त की भक्ति न करके टोपी या पगड़ी की भक्ति क्यों कर रहे? तो भाई वह भक्ति, वह आदर, वह महत्त्व उस दोस्त को ही दे रहा, किंतु उसका संबंध उस पगड़ी या टोपी से है इसलिए उसका भी वह आदर कर रहा । तो कुछ संबंध तो है यहाँ, यह व्यवहार की बात है, तो इस प्रकार व्यवहार से देह का स्तवन करने से भगवान की स्तुति कही जाती है ।
256―शरीर के स्तवन से परमार्थत: प्रभुस्तवन का अभाव―देखो जिसके अनुराग है, जिसमें भक्ति है, जो सरल हृदय का है, जो मायाचार रहित है उससे अपने आप दोनों किस्म की भक्ति के शब्द आते हैं और एक यह ही ठान लें कि हम तो देह की बात ही न करे, देह का स्तवन ही न करें, प्रभु की इस मुद्रा को ही न देखें, हम तो अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत चैतन्यशक्ति की बात करेंगे । यदि कभी हठ में आ जावें तो बनावटी निर्णय करके तो ऐसा कर लेंगे, चलेंगे नहीं, न वैसा भाव करेंगे, मगर सरलता से, सुगमता से बड़े-बड़े ज्ञानी पुरुष निश्चयस्तुति करते हैं, व्यवहारस्तुति भी करते हैं, जानते सब हैं―व्यवहारस्तवन करके एक तथ्य जानते हैं और निश्चयस्तवन करने की तो एक युक्ति ही बनी हुई है । तो जैसे स्तवन का उदाहरण देकर शंकाकार यह कह रहा था कि शरीर है सो भगवान है, ऐसा कहकर अपने आपके बारे में यह निर्णय दे रहा था कि मैं आत्मा कोई अलग नहीं, जो यह शरीर है सो ही मैं हूँ, सो ठीक नहीं अब यहीं देख लो शरीर का कोई स्तवन करें―आपका शरीर बड़ा सुंदर है, और बहुत ही सुगंध करने वाला है, ऐसी बात कोई कहे तो वह भीतर ही भीतर खुश होता कि नही? वह क्यों खुश होता कि उसका उस शरीर से संबंध है और उसने इतना अज्ञान बनाया है कि जो शरीर है सो मैं हूँ । यह उसकी बात चल रही है । ऐसी बातों को देखकर शंकाकार कहता है कि शरीर है सो भगवान है, पर उत्तर है कि शरीर निराला है, भगवान निराले हैं, यह शरीर जुदा है, जीव जुदा है । शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन नहीं होता । आत्मा के इस द्रव्य, गुण, पर्याय, पवित्रता आदिक के स्तवन से आत्मा का स्तवन होता है । यों तो लोग मान बैठते हैं, शरीर की बात तो दूर है, अभी किसी मकान की आप स्तुति करें―साहब आप इनको जानते है? अजी इनका क्या कहना, इनके इतना बड़ा मकान है और मकान का दरवाजा तो ऐसा संगमरमर का, पुराने पत्थरों का है, कि उस पर ऐसी-ऐसी चित्रकारी है कि बस देखते ही बनता है । वैसी चित्रकारी तो कहीं देखने को मिलेगी नहीं । विदेशी कारीगरों ने उस मकान में सारी चित्रकारी रची है, अद्भुत चित्रकारी बनायी, इन साहब का क्या कहना है, इनके तो बड़ा पुण्य का उदय है । ऐसी बात सुनकर लोग हर्ष मानते हैं । ऐसा हर्ष मानने वालों की बात कह रहे हैं कि देखो जिसने मकान की इतनी बड़ी प्रशंसा की उसके प्रति यह मकान मालिक लट्टू होकर खुश हो रहा । तो उसका अर्थ है कि इस मकान में तो प्रशंसा लायक बात है मगर मालिक में खुद में कोई प्रशंसा लायक बात नहीं है । तो यह तो उसकी निंदा ही हुई, पर वह खुश होता है कि मेरी प्रशंसा की जा रही । अरे प्रशंसा तो गुण में है कि ये तो बड़े धर्मात्मा पुरुष है, बड़े उदार है, दीन दुःखियों की सेवा करते हैं, इनका हृदय बड़ा पवित्र है, यह तो हुई उसकी प्रशंसा, और मकान की प्रशंसा कर देने से तो इसकी कोई प्रशंसा नहीं हुई । यह तो व्यर्थ ही कल्पनायें करके खुश होता ।
257―व्यवहारस्तवन व निश्चयस्तवन की अपनी अपनी उपयोगिता―यहाँं कोई व्यवहारस्तुति से तो हट जाये और निश्चयस्तुति से अनभिज्ञ रहे तो बात नहीं बनती । कोई ऐसा करे कि व्यवहार की बात ही न निकाली जाये और वह निश्चय-निश्चय की स्तुति करता रहे सो अथवा जब हम उसके लायक होंगे तो निश्चय स्तुति में प्रवेश हो जायेगा आदि स्वच्छंदवृत्तियाँ हितकर नहीं । जब तक हम मन, वचन, काय की स्तुति कर रहे तत्त्वलक्ष्यी होकर तब तक निश्चयस्तुति भी चलती है, व व्यवहार स्तुति भी चलती है । स्तुति ग्रंथों में लिखी है कायादि स्तुति की बात, मगर वह व्यवहारस्तुति की सब बात है । निश्चयनय से तो भगवान की पवित्रता का वर्णन करने से वर्णन किया गया उनका । अपने आत्मा के सही स्वरूप को जानें, उसका ही आग्रह करें तो हम उस ही में रंग सकेंगे । इससे इंद्रियविजय भी चलेगा, मोह भी नष्ट होगा, कर्म भी नष्ट होंगे मोक्षमार्ग की सब उपयोगी बातें होंगी । इस प्रकार से ज्ञानमात्र निज अंतस्तत्त्व के अनुभव में यह हूँ यह आस्था बने, ज्ञानमात्र तत्त्व का भान रहे और वहीं रम जाये, जिस-जिस उपाय से यह बात बन सके वह उपाय करो । उस उपाय का नाम है व्यवहार चारित्र, जिस-जिस उपाय को करके यह आगम ज्ञान बन सके, जिस उपाय को करके रुझान यह ही बने, गुण की वह पहली पदवी वर्णन करने योग्य है । अभ्यास बढ़ाये । निश्चयनय से मध्य के विकास का वर्णन करें और परमशुद्धनिश्चयनय से, शुद्धनय से शुद्ध अंतस्तत्त्व की अनुरूपता का वर्णन करें । तो वह है निश्चयनय से स्तुति । और शरीर महिमा बताकर गुणगान करना यह सब है व्यवहारस्तुति । अगर व्यवहार की बात खत्म कर दी जाये तो तीर्थप्रवृत्ति नहीं चल सकती और ऐसा करने से तो आगे होने वाली लाखों करोड़ों पीढ़ियों का अहित किया । अगर तीर्थप्रवृत्ति का भाव न रखा तो उससे तो जनता का बड़ा अहित होगा । काम निकालें जैसे निकलता हो मगर किसी एक परिपाटी को मेटना नहीं, क्योंकि आगे भी वह परिपाटी चलती रहेगी तो लोगों को सन्मार्ग मिलेगा । देखो शुद्ध व्यवहार से जानें, निश्चयनय से जानें और अपना कल्याण करें, तो इस प्रकार इस जिज्ञासु की शंका के समाधान में यह बात आयी कि व्यवहारनय का स्तवन हो तो वहाँ भी वास्तविक परमार्थ बात जानना कि प्रत्येक द्रव्य है तो अपने आप, मगर यह संबंधवश एक स्तवन चल रहा है । तत्त्व की बात करते-करते बहुत गहरी बात ला दें । ऐसा होते-होते कुछ थोड़ा आराम भरी चर्चा हो, जहाँ एक आराम भरी चर्चा चले, वहाँ कोई करे, देहादि का वर्णन, तो देह के स्तवन में भी, व्यवहारस्तुति में भी प्रयोजन परमात्म प्रेम है और अंत में निर्णय यह दें कि हाँ संबंध तो है और उस संबंध का प्रभाव भी चलता है, मगर प्रत्येक द्रव्य का स्वरूप न्यारा है । एक द्रव्य के स्तवन से दूसरे द्रव्य का स्तवन नहीं होता । संबंधवश, प्रयोजनवश, अनुरागवश देह का वर्णन किया जा रहा है तो उसमें भी इस आत्मा के प्रति भक्ति है । कुछ भक्ति के संबंधवश देह का भी वर्णन होता है, वह व्यवहारनय से स्तवन है, निश्चयनय से आत्मस्वरूप का स्तवन आत्म गुण स्तवन से है ।