वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 29
From जैनकोष
अवतरति न यावद् वृत्तिरत्यंतवेगादनवमपरभावत्यागदृष्टांतदृष्टि: ।
झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता, स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव ।।29।।
283―आत्ममग्नता में आत्मरक्षा―प्रकरण यह चल रहा था कि अपने आपकी रक्षा, अपने आपका हित अपने सहज निज स्वभाव में यह मैं हूँ इस तरह के ज्ञान करने में ऐसे ही अंत: ठहर जाने में है यह बात बने कैसे कि जो जहाँ अभी कुछ ठहर रहे थे, जहाँ संसार के जीव ठहरे रहते हैं उसमें का ठहरना छूटकर अपने आपके स्वरूप में ठहरना बने । जरा दिनचर्या पर दृष्टिपात करके देख तो लो कि हम बाह्य विकल्पों में कितने समय ठहरे हैं, कहाँ-कहाँ उपयोग जाता है । क्या-क्या कल्पनायें नहीं किया करते हैं । कितने लोग, कितने संग, क्या परिग्रह, किस किसकी चिंता, देखिये―रात दिन के चौबीस घंटों में कितना समय गुजरता है कि कहीं पर पदार्थ की बात ही बात चलती रहती है और अपने आत्मा के सुध की बात कितने समय चलती है, ध्यान करें, हम परभावों में स्थित कितनी देर रहते हैं । जो अज्ञानी हैं वे ऐसी ही श्रद्धापूर्वक परभावों में रहते हैं, जिनके ज्ञान जग गया वे ऐसी श्रद्धा तो नहीं रखते, मगर चारित्र मोह का ऐसा वेग है कि उनके भी पर पदार्थों में उपयोग फंसते हैं अब यह बात कैसे मिटे? कहते हैं, ना कि मोह छोड़ो, यह कह देना तो आसान है मगर मोह छोड़ना बड़ा मुश्किल है । सारी परेशानी इस जीव को मोह से ही है । मोह के दुःख से जब यह जीव परेशान हो जाता है, कोई बालक प्रतिकूल हो गया तो यह बात हर एक कोई कह बैठता है कि सब बेकार बात है, यहाँ कौन किसका? अजी किसी से मोह करना बिल्कुल बेकार है देखो इसने रात दिन अपने बेटे से मोह किया और देखो उसने उसे धोखा दिया । अब किससे मोह करना, छोड़ो मोह यों कह तो जाते हैं ऊपरी-ऊपरी शब्दों से, मगर उसका मोह नहीं छूटता । मोह और राग छूटने का तो विधान ही और है । वह विधान यह है कि ज्ञान में जब यह बात आ जाएगी कि मैं यह हूँ तो परभाव छूट जायेंगे । स्व को जाने बिना परभावों के छोड़ने की चेष्टा करना एक मजाक सा करना है । बाह्य वस्तु है छोड़ दो, एक आग्रह है, छोड़ सकते हैं । घर छोड़ दिया, अमुक छोड़ दिया मगर भीतर में परभावों का त्याग कर दो यह बात स्व के ग्रहण के बिना नहीं बनती ।
284―परभावों के त्याग का उपाय―परभावों का त्याग कैसे हो? देखो इसके लिए निमित्तनैमित्तिकयोग का सही परिचय आवश्यक है, ये परभाव हैं राग द्वेष मोह । कैसे परभाव, क्या परभाव? देखो पहले बँधे हुए जो कर्म हैं, जिनका अनुभाग है वे कर्म अपने आपमें अनुभाग के उदय से आते हैं, और उस काल में उसका प्रतिफलन, छाया इस जीव के उपयोग में पड़ती है, बस वह छाया, वह प्रतिफलन अस्वभाव है परभाव है, क्योंकि पुद्गल कर्म से उत्पन्न है, पुद्गल कर्म का निमित्त पाकर बनता है । देखिये एक दर्पण है, वह दर्पण स्वयं ही अपने आप लाल पीले आदिक रूप से परिणमने में असमर्थ है इसके संबंध में एक गाथा है समयसार में―जह फलिह मणी सुद्धोण सयं परिणमइ रायमादीहिं आदि । जैसे स्फटिक मणि अपने में अपने आप से शुद्ध है । वह स्वयं निरपेक्ष लालिमादि रूप से नहीं परिणमता, किंतु रक्तादि द्रव्य जो उपाधि में है । उसके द्वारा यह रागरूप परिणमता है । यह भाषा समयसार की बोल रहे हैं । बात वहाँ यह समझना कि सामने आये हुए परपदार्थ का निमित्त पाकर यह दर्पण लाल पीले आदिक प्रतिबिंबरूप परिणमता मगर आचार्य देव सीधे ये शब्द दे रहे कि परद्रव्य के द्वारा ही रागादिक रूप परिणम जाता है यह जीव, पर वहाँ यह समझना कि परद्रव्य जो कर्म है उसका अनुभाग उदय में आया है, उसका सन्निधान पाकर यह जीव रागादिक रूप अपनी शक्ति से, योग्यता से परिणम जाता है । तो अब देखो दर्पण के सामने हाथ किया तो हाथ का प्रतिबिंब दर्पण में आया । यहाँ एक साथ दोनों काम हुए निमित्त की हाजिरी और दर्पण में प्रतिबिंब दोनों एक समय हुए, फिर भी इन दोनों में पूछा जाये कि बताओ निमित्त कौन? तो सब जानते हैं कि हाथ निमित्त है और नैमित्तिक यह प्रतिबिंब है । हाथ ने प्रतिबिंब में कुछ किया नहीं । हाथ अपने प्रदेश में है, और वह जो कुछ हाथ कर रहा है, हाथ अपने प्रदेश में हरकत कर रहा, पर यह निमित्त नैमित्तिक योग कैसा स्पष्ट है कि ऐसे परिणमे हुए हाथ का सन्निधान पाकर उस दर्पण में भी उसी प्रकार का प्रतिबिंब चल रहा है निमित्त कौन? यह हाथ का सन्निधान । नैमित्तिक कौन? दर्पण का प्रतिबिंब । तो यह तथ्य है कि जब हाथ का सन्निधान पाता है तो दर्पण प्रतिबिंबरूप परिणमता है, मगर इसको यों बोल दो कि जब दर्पण प्रतिबिंबरूप परिणमता है तो हाथ सामने हाजिर होता है, सो इसमें देखो निमित्तनैमित्तिक की व्यवस्था उलट गई । जिसमें ‘जब’ लगता है वह है निमित्त और जिसमें “तब” लगता है वह है नैमित्तिक, यह एक सीधी कुंजी है जानने की । है एक समय और एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में कुछ जाता नहीं, मगर ऐसी भाषा अगर बोलेंगे कि जब दर्पण में प्रतिबिंब आता है तो हाथ हाजिर होता इसी तरह यह भाषा अगर बोलेंगे कि जब जीव में राग विकार आता है तो कर्मोदय हाजिर होता है, ऐसी भाषा जैनागम में किसी भी शास्त्र में नहीं है । अब इसमें आपत्ति क्या आती? आपत्ति यह है कि अब जब रागविकार होता है तब सामने कर्म हाजिर हो तो राग विकार हो गया निमित्त और पुद्गल का हाजिर होना नैमित्तिक हो गया । तो ऐसी निमित्त नैमित्तिकता आगम में नहीं है कि जब जीव के रागविकार हो तो पुद्गल कर्म उदय में आता हो । इसमें तो विकार निमित्त बन बैठेगा और वह हाजिर हुआ कर्म नैमित्तिक बन जायेगा पर आगम में सर्वत्र यही भाषा है कि जब पुद्गल कर्म का उदय होता है तो जीव राग विकाररूप परिणमता है अब ऐसा होने पर आपको परभाव जानने की बात एकदम स्पष्ट समझ में आ जायेगी । जान गए कि दर्पण में प्रतिबिंब हाथ का सन्निधान पाकर आया, दर्पण के निज के स्वरूप से नहीं आया, निज के स्वभाव मात्र से, पर का सन्निधान पाये बिना प्रतिबिंब नहीं आया, यह हाथ का सन्निधान पाकर आया इसलिए यह परभाव है । इस प्रकार आत्मा में यह झलक कर्मोदय का सन्निधान पाकर आया है, मेरे स्वरूप नहीं आया, मेरे स्वभाव की चीज नहीं है, इसलिए ये परभाव हैं । आचार्य संतों ने करुणा करके कैसा हम लोगों को प्रकाश दिया है कि ऐसा जानें कि मैं तो अपने स्वरूप में एक शुद्ध चैतन्यघन हूँ, चैतन्यमात्र हूँ, मेरे अपने आपके स्वरूप में विकार नहीं । मैं तो विशुद्ध हूँ, मैं तो विशुद्ध ज्ञानघन, पर्याय के भेद की कल्पना से भी अतीत केवल एक हूँ । आत्मानुभव के लिये होना चाहिये क्या? जो वहाँ समझा जाये कि मैं पर व परभाव से विविक्त शुद्ध चैतन्यमात्र हूँ और ये रागादिक भाव मेरे स्वभाव से नहीं उठे, ये तो पर को सन्निधान पाकर आये हैं, परभाव हैं, पर का निमित्तमात्र सन्निधान पाकर हुए हैं सो पौद्गलिक हैं । यहाँ तक कहा समयसार में कि वे तो पौद्गलिक हैं, पुद्गल कर्म से निष्पन्न हैं, ये मेरे स्वभाव नहीं है, मैं एक चैतन्यमात्र हूँ, परभाव को पर समझ लेना यह ही स्व के ग्रहण की कुंजी है और यह ही परभाव के त्याग की कुंजी है ।
285―सहज आत्मस्वभाव के परिचय के बिना विकार के परिहार की असंभवता―कहते सब हैं कि मोह छोड़ो, राग छोड़ो, और कोई-कोई लोग तो कह बैठते कि महाराजजी हमारा लड़का तो बहुत गुस्सा (क्रोध) करता है, इसको गुस्सा के त्याग का नियम करा दो । भला बताओ यह काम दे कोई कैसे करा सकता? हाँ अगर हाथ में मानो अमरूद लिए है तो उससे कह दिया कि तुम इसे फेंक दो, वह फेक सकता, तो अमरूद का त्याग हो गया, पर गुस्सा तो एक अंदर की चीज है, उसका त्याग कैसे कराया जा सकता ? अस्वभावता जब तक ज्ञान में न आयेगी तब तक परभावों का त्याग नहीं हो सकता । जैसे ही ज्ञान में आया कि मैं इन सबसे निराला चैतन्यघन हूँ, ये विकार परभाव हैं पुद्गल कर्म का सन्निधान पाकर हो रहे इसलिए परभाव हैं, ये मेरे नहीं हैं, ये मैं नहीं हूँ । मैं तो एक शुद्ध चित्प्रकाश मात्र हूँ, जिसमें अर्थपर्याय निरंतर चलती है और एक मात्र चित्प्रकाश जैसा है जो अपने आपमें उत्पाद व्यय सामान्य का स्वभाव है रखता इसमें विकार आने में जीव के स्वभाव की बात नहीं है । वह तो अपने स्वरूप में अपने-अपने उत्पाद व्यय से चल रहा है, उस काल में कोई प्रसंग ऐसा आया तो उस प्रकार का विकार होने लगा, उसमें वह शामिल हो गया । चल रहा खूब तेज चल रहा । मशीन का चक्का जिसमें कुछ पता नहीं पड़ता कि यह चल रहा, पर उस पर कपड़ा फेक दें तो नजर आयेगा कि चल रहा उस चलते हुए में लपेट है इसी प्रकार जीव अपने उत्पाद व्यय स्वभाव से परिणमता है । उपाधि के सान्निध्य में उत्पाद व्यय करते हुए में यह विकार मेरे स्वरूप नहीं, ये विकार परभाव हैं, दृढ़ आस्था हुई, बस त्याग हो गया श्रद्धा में, ऐसी हो बात निरंतर ज्ञान में बनी रहे इसी को तो चारित्र कहेंगे, पर ज्ञान में नहीं रहता निरंतर, क्यों नहीं रहता कि संस्कार है, ऐसा ही पूर्वविभ्रमसंस्कार है । अज्ञान वासना में जो संस्कार बना है वह संस्कार है, दिल उचटता है, बाह्य में लगता है । उसका उपाय क्या है? बस वह उपाय चरणानुयोग में बताया है । वह उपाय बनावें ताकि इस उचटन का मुकाबला तुरंत कर लें और फिर अपने आपमें ज्ञान दृष्टि लगाकर उससे अपना काम बना लें । जैसे सुभट युद्ध में उतरता है ढाल और तलवार लेकर, क्योंकि शत्रु को मारने में ढाल काम देता क्या? ढाल मारने में काम नहीं देती, मारने में काम देती है तलवार ।....फिर वह ढाल लेकर क्यों उतरा? वह कुशल योद्धा है, समझदार है इसलिए वह ढाल और तलवार दोनों लेकर उतरा । ढाल से तो वह दूसरे के आक्रमण को रोकेगा और तलवार से शत्रु का छेद करेगा । तो यों समझ लीजिए कि व्यवहार चारित्र और निश्चय चारित्र । व्यवहार चारित्र क्या करता है कि व्यसन, अव्रत, विकल्पादिक जो आक्रमण है उन आक्रमणों को रोकता और निश्चय चारित्र से क्या करता है? अपने आपमें रत रहकर विकार शत्रु का छेदन करता है स्वत: कर्म का छेदन होता रहता है कर्म का सफाया होता रहता है ।
286―जीव के विशुद्ध परिणामरूप निमित्तसन्निधान में कर्मनिर्जरण होने का निमित्तनैमित्तिक योग―देखो जीव में जब विशुद्ध परिणमन हो रहा तो कर्म में निर्जरण चल रहा । वहाँ एक ओर का निमित्त नैमित्तिक भाव नहीं है कि कर्म का उदय आये तो जीव में रागविकार हुआ, इतनी ही मात्र बात न समझें, जीव में विशुद्धि होती है तो कर्म का स्थितिकांडक, अनुभागकांडक आदिक विधि से घात होता है, वहाँ कैसे-कैसे गुजरता है । ये सब देखिये-कैसे ऊपर की स्थिति के प्रदेश नीचे के प्रदेश में मिलते, कितने में मिलते, कितने में नहीं मिल पाते, फिर कहाँ तक मिलते, कहाँ तक नहीं, क्या-क्या होता है? कैसे अपकर्षण, कैसे-कैसे क्या होता, ये सब कर्म में चल रहे हैं । आचार्य संतों ने इसको अपनी भाषा में बताया है । तो तत्त्व क्या है कि रागादिक परभावों का त्याग करें । आत्मा का जो सहज निरपेक्ष चैतन्यस्वभाव है उसमें यह मैं हूँ, ऐसा अनुभव बनावें । यहाँ विभाव का त्याग इस ढंग का हो रहा है, अब रहा सहा जो अव्यक्त राग है वह तो चलता ही है । कोई आत्मानुभव कर रहा, चौथे 5वें छठे गुणस्थान में कहीं भी जहाँ विशुद्ध बात बन रही है वहाँ पर भी कहीं राग तो चल रहा, विकार तो चल ही रहा चलता है । 9वें गुणस्थान तक वह अव्यक्त विकार है, क्योंकि इस विकार की मुद्रा तब स्पष्ट बनती है जब यह जीव बाहरी पदार्थों में उपयोग जोड़ता । देखना परखना गौर से बात, भीतर में कर्मोदय हुआ, प्रतिफलन हुआ, कुछ तो आवरण हैं मगर ज्ञानी जीव इन आश्रयभूत पदार्थो में उपयोग न जोड़े, इसका अभ्यास दृढ़ कर चुके हैं, खूब समझ चुके हैं कि बिल्कुल बाह्य वस्तु है, अत्यंत भिन्न है, वह मुझमें क्या आता है, बाह्य का क्या अपराध है, बाह्य पदार्थ तो मेरे में कषाय का कारण नहीं है, वह तो उपचरित कारण है, कुछ उपाय न जुटाये तो उसमें कारणपने का आरोप है । अन्य का क्या अपराध है, सही अभ्यास लिए हुए है, सो उसके बल से ज्ञानी बहिरंग साधन में अपना उपयोग नहीं जोड़ता । फल क्या होता है कि राग तो आता है, उदय हुआ, प्रतिफलन हुआ, मगर वह अव्यक्त होकर चला जाता है, वह अपनी मुद्रा नहीं बनाता । जो अपनी मुद्रा बनाता है उसको होता है विशेष बंध और जो विकार अपनी मुद्रा व्यक्त नहीं बना पाता है उस अव्यक्त विकार में होता है अल्पबंध । बस यह ही तो कला है ज्ञानी पुरुष की ।
287―आत्महित के लिये परभाव से हटने और स्वभाव में उपयुक्त होने की आवश्यकता―देखो यहाँ अपने हित के लिए करना क्या है? विकारों से हटना, स्वभाव में रहना । तो जो उपाय बने सो देखिये―विकारों से हटने के लिए आचार्यसंतों ने यह उपाय जगह-जगह बताया है कि ये परभाव हैं, परपदार्थ का निमित्त पाकर होने वाले भाव को परभाव कहा करते हैं । ये पुद्गल कर्म के उदय को पाकर होनेवाले प्रतिफलन हैं, ये तेरे स्वभाव नहीं । यह तेरे कुल की बात नहीं । तू तो इनसे अलग है । तू अपने आपके स्वरूप में अपने आपका अनुभव कर, यह तो होता रहता है, होने दो, मिटेगा, जैसे कि परपदार्थों में हम यह उपेक्षा ला देते हैं कि किसी भी अवस्था को प्राप्त हो तो भी वह मेरा कुछ नहीं । मेरा प्रकाश तो मेरा स्वरूप है । जरा यह बात अपने भीतर लगाओ, विकार हो रहा, प्रतिफलन हो रहा, पुद्गल कर्म की छाया माया हो रही तो यह मेरी चीज नहीं, मेरा स्वरूप नहीं । मैं तो अपने आपमें एक विशुद्ध चैतन्यस्वरूप मात्र हूँ । इस चैतन्यस्वरूप का एक आदर, आस्था, ग्रहण यह मैं हूँ । तो देखो जहाँ निज की बात समझ में आयी कि यह मैं हूँ, वहाँ परभावों का त्याग बनता है । अब बाह्य चीजों का तो त्याग करें, इसका त्याग किया उसका त्याग किया, और वह मैं माना जा रहा किस रूप, वही पुद्गल कर्मप्रदेशरूप । याने पुद्गल कर्म का उदय होने पर जो प्रतिफलन है, जो यहाँ चित्रण है, जो यहाँ बात है उस रूप अपने को मानें, यह मैं हूँ, और मैं त्याग करता हूँ, तो जहाँ मैं ही गलत है तो वहाँ त्याग भी कैसे विधिपूर्वक बने । त्याग करके भी ख्याल रहेगा कि मैंने त्याग किया, ऐसा ख्याल भी त्याग में बाधक है । त्याग शुद्ध वहाँ है जहाँ आत्मा के विशुद्ध निरपेक्ष स्वरूप का ग्रहण है, अच्छा उसी के ही फलस्वरूप फिर यह बाह्य त्याग है, कोई कहे कि मेरा तो अंतरंग में त्याग है, मैंने तो जान लिया कि ये सब पर पदार्थ हैं, मेरी चीज नहीं हैं और लगे हैं पर को ग्रहण करने में, तो यह तो सब एक तरह का छल हुआ । भीतर में तो उस प्रकार की ग्लानि ही नहीं है । यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टि के व्रत नहीं है, फिर भी जैसी व्रती जनों की चर्या रहती है करीब-करीब अधिक नहीं तो मामूली तौर से, तो होती ही है क्योंकि संयम की ओर चटापटी लगी है उस ज्ञानी के कि कब यह संयम पायें । तो जहाँ स्वभाव का ग्रहण है वहाँ त्याग है और जहाँ स्वभाव का ग्रहण नहीं, अपने आपका निर्णय नहीं कि वास्तव में मैं क्या हूँ, तो जब भीतर के परिग्रह का ही त्याग न बना तो फिर बाहरी परिग्रह कैसे त्यागा जायेगा । उसे तो अपना रहे हैं ।
288―ज्ञानी के परिग्रह का असंबंध―देखो भूतकाल में कितने ही लोग गुजर गए, कितना परिग्रह जुड़ गया, कितना सब कुछ नष्ट हो गया, सब कुछ नष्ट होते-होते गरीब हो गए । मान लो, पहले बड़े रईस थे, अब गरीब हो गए तो भी जो भूत की बात कही जाती, दुनिया से शान मारी जाती कि मेरे घर पर सैकड़ों जूते उतरते थे, मायने सैकड़ों लोग आते थे, अच्छा तो यह परिग्रह हुआ कि नहीं? यह भूत का परिग्रह है, गुजर गया भूत फिर भी परिग्रह चल रहा । जो अब है नहीं, जो गुजर चुका जिसकी आशा भी नहीं है मगर उसका ग्रहण बना हुआ है, नहीं है, और ग्रहण है, यह मजे की बात है । तो करना है अपने को अपना अनुभव । मैं क्या हूँ, इसके लिए परभावों का त्याग करें, स्वभाव का ग्रहण करें । परभावों के त्याग करने का मुख्य उपाय बताया है कि हम इन परभावों को जान लें ये रागादिक भाव मेरे नहीं । ये कर्म के उदय का निमित्त पाकर हुए हैं यदि ऐसा न माना जाये और यह माना जाये कि ये होते हैं आत्मा में तो ये आत्मा के स्वभाव कहलायेंगे । चाहे भले ही कहें कि अपनी योग्यता से हुए, पर वह योग्यता भी स्वभाव बन गई, इससे दूर होना है और भीतर ही भीतर प्रवेश करना है तो निमित्त को पाकर हुए तो तुम निमित्त की ओर जाओ, तुमसे हमारा कोई मतलब नहीं, तुम पुद्गल का सन्निधान पाकर हुए, तुम मेरे नहीं, मेरा स्वरूप तो चैतन्यमात्र है, हुए परिणमन जीव के, मगर औपाधिक होने से इसको उस ओर ही अधिक नंबर देना चाहिए अपने को निराला सनातन निरख कर । मैं तो एक चैतन्य स्वभाव मात्र हूँ, यों स्वरूप का ग्रहण हो तो परभाव का त्याग है । इस भीतरी त्याग को समझने के लिए दृष्टांत दिया है । जैसे किन्हीं दो लोगों ने अपनी-अपनी चद्दर पास में रहने वाले धोबी को दे दिया धोने के लिए । वे दोनों चद्दर एक ही मिल की थीं, एक क्वालिटी की थीं, एक जैसी थीं । खैर, धोबी ने उन्हें धो लिया । अब एक व्यक्ति चद्दर लेने पहुंचा तो धोबी ने दूसरे की चादर उसे भूल से दे दी । उसने भी उसे अपनी समझकर ले लिया । जब वह अपने घर पहुँचा, उसे ओढ़कर सो गया । इधर दूसरा व्यक्ति भी धोबी के पास जाकर अपनी चद्दर माँगता है । जब धोबी वह चद्दर उठाकर देता है तो वह व्यक्ति उसमें कुछ अपनी चद्दर के चिन्ह ही नहीं पाता है तो वह कहता है अजी मेरी यह चद्दर नहीं है, यह तो किसी दूसरे की है तो धोबी बोला―बस समझ गए, आपकी चद्दर बदल गई, उसे तो भूल से हमने अमुक व्यक्ति को दे दिया है । वह व्यक्ति पहुंचा उसके पास जिसके पास चद्दर चली गई थी और उसे जगाकर कहता है―भाई यह चद्दर मेरी है, मुझे दो । यह भूल से धोबी ने आपको दे दी । अब वह लगा अपनी चद्दर के निशान देखने । जब अपनी चद्दर के चिन्ह न पाये तो समझ गया कि हाँ यह चद्दर मेरी नहीं है, यह तो इसी की है । इतना ज्ञान हो जाने से बताओ उस व्यक्ति के परिणामों में कुछ अंतर आया कि नहीं? जिस काल में उसकी समझ में आया कि यह तो मेरा नहीं, उस काल में थोड़ा आचरण आ गया कि नहीं? अब वह बड़ा आचरण न पा सके कोई बात नहीं है तो भी अब भीतर में परख, त्याग किया गया, कि नहीं । तो जहाँ एक यह ज्ञान हुआ कि यह मेरी नहीं, वहाँ भीतर में ऐसा प्रकाश चलता है कि उसने चद्दर का त्याग कर दिया । यह मेरा नहीं, उसके ज्ञान से पूछो, ज्ञानप्रकाश से तो उसने चद्दर को त्यागा है । मगर अभी पकड़े तो है, और यह भी संभव है कि वह लड़ भी बैठे कि हम तो नहीं देते यह चद्दर जब तक कि हमारी चद्दर हमको न मिल जाये, देखो ऊपर से तो वह लड़ता भी है, झगड़ता भी है, फिर भी अंदर से उसके यह बात है कि यह चद्दर मेरी नहीं है । जरा भीतर के ज्ञानप्रकाश से पूछो, उसको उस चद्दर का त्याग हो गया और ऊपरी आचरण से पूछो वह अभी चद्दर देने में आनाकानी कर रहा । यद्यपि दे देगा थोड़ी देर में, वह रख नहीं सकता अपने पास उस चद्दर को, क्योंकि जिसकी चद्दर है वह भी तो बड़ा मजबूत आदमी है, और अंदर में खुद के चद्दर का आग्रह रहा नहीं, तो छोड़ देगा अभी थोड़ी देर में, मगर ज्ञानप्रकाश ने तो तत्काल पर वस्तु को छोड़ दिया, जब जाना कि यह चद्दर मेरी नहीं है । इसी प्रकार ये रागादिक भाव इस जीव पर आक्रमण किए हुए हैं, आक्रांत है यह जीव । देखो ज्ञेय से तो आक्रांत कहते हैं ना । सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में तीनों लोक के सब पदार्थों ने मानो एक साथ आक्रमण कर दिया । यहाँ तो जब एक लड़का या स्त्री या कोई ये ही ज्ञान में रहते, इनका ही आक्रमण रहे तो ये झेल नहीं पाते और दुःखी हो जाते और भगवान के ज्ञान में तीन लोक के सारे पदार्थ हमला कर दें, हमला मायने प्रतिबिंबित हो गए तिस पर भी निजानंद रसलीन । सकल ज्ञेय ज्ञायक यह है हमला और निजानंद रसलीन, यह है अपने घर की मस्ती । देखो कितना पूज्य हमला है यह । ऐसा हमला वीतराग होने पर ही होता है हमला के मायने वह प्रतिबिंबित हो गया । यह जीव कर्मबंधन में है, एकक्षेत्रावगाही है, उनका अनुभाग रस उदय होता है । उनकी जो बात यहाँ होती है उस बात का ग्रहण न करता हो यह बात कैसे मानी जाये? बाह्य पदार्थ का तो आक्रमण बन गया और भीतर बद्ध जो अनुभाग है, रस है, कर्म हैं उनका उदय आता है, उनका प्रतिबिंब न हो यह कैसे माना जा सकता है? हो रहा तब ही तो यह संसार है । नहीं तो यह एक प्रश्न होता कि अब तक क्यों रुलते आये? पहले ही प्रक्रिया करते, पहले ही प्रभु बन जाते ।
289―पदार्थों के परस्पर असंबंध का परिचय―कर्तृत्वबुद्धि न करना चाहिए निमित्तनैमित्तिक योग को जानकर कि पुद्गल कर्म ने जीव में राग उत्पन्न किया । अरे ! वह अपने में करेगा जो कुछ करना है, उसका सन्निधान पाकर जीव अपने में कर रहा जो कुछ करना है । अपने-अपने परिणाम से उत्पद्यमान जीव जीव ही है अजीव नहीं । हो ही नहीं सकता, मगर यह निमित्तनैमित्तिकयोग का सही परिचय हमको स्वभावदृष्टि के लिए बड़ा उत्साह दिलाता है, क्योंकि ये परभाव हैं, ये तेरे स्वरूप नहीं, तू इनसे हट और अपने स्वभाव की परख कर । व्यवहारनय से सब पहचान कर और पहचान पाकर फिर इनकी उपेक्षा कर, और निश्चय से जो पहचाना गया उस स्वभाव में लगें । उसका फल यह होगा कि जैसे व्यवहार पहले बनेगा, यह निश्चय भी बनेगा और दोनों पक्षों से अतिक्रांत होकर यह अपने समयसार का अनुभव करेगा, सो ही कहते हैं कि जैसे अपर भाव के त्याग के दृष्टांत की दृष्टि पुरानेपन को नहीं प्राप्त होती वैसे ही तुरंत यह शीघ्र ही समस्त अन्य भावों से विमुक्त यह ज्ञानानुभूति आविभूति हो जाती है । अन्यभाव विमुक्त का शब्दार्थ है―दूसरे के भावों से रहित । देखिये, रागादिक विकार के लिए बात कह रहे हैं कि दूसरे के भावों से रहित स्थिति ऐसी है, पुद्गल कर्म के उदय का निमित्त पाकर हुआ विकार का प्रतिफलन फिर हुआ विकार रागादिक, सो ये परिणमन जीव के हैं, मगर यहाँ कह रहे हैं कि ये अनात्मभाव हैं क्योंकि नैमित्तिक भाव को अनात्मभाव कहते हैं, इन अनात्मभावों से विमुक्त होता हुआ तुरंत उत्पन्न होता है ज्ञान । अज्ञान में पर को पर समझना, स्व को स्व समझना बिल्कुल नहीं होता । निज को निज पर को पर जान, फिर दुख का नहिं लेश निदान । इसका मोहीजन क्या अर्थ लगायेंगे, अपने घर को अपना घर जानो, दूसरे के घर को दूसरे का घर जानों । सब लोग अपना-अपना अर्थ लगा लो―किसे जानें, क्या जानें? मेरा जो यह विशुद्ध निरपेक्ष अपने सत्त्व के तेज के कारण है वह निज है और पुद्गल कर्म के अनुभाग का उदय पाकर यह विकार चल रहा था यह परकीयभाव है । निज को निज पर को पर जान, यहाँ भीतर के निज की छटनी कर रहे हैं, बाहर में छटनी नहीं करना है, निज पर की छटनी करना है अपने आप पर, बाहर में नहीं, तो जैसे ही हमने अपने स्वभाव को ग्रहण किया परभावों को पर को पर माना कि उसको यह अनुभव स्वयं ही अपने आप उत्पन्न होता है ।
290―सच्चे ज्ञान से ही संकटों के अभाव की संभवता―अगर बड़े लगन के साथ सच्चाई रखते हुए श्रद्धा की सच्चाई में चलें तो आपको क्या नुकसान पड़ता है, जो बात सच है उसको सच मानने में आपको कौन सी असुविधा हो रही? अपनी श्रद्धा सही बनाओ-निज को निज पर को पर जान । निज है यह ज्ञान तरंग और पर हैं ये रागादिक विकार । क्यों पर हैं कि पुद्गल कर्म के उदय का निमित्त पाकर हुए हैं । ऐ रागादिक विकारों ! तुम यहाँ से जाओ, तुम्हारे ठहरने के लिए यहाँ जगह नहीं । यद्यपि रागादिक रूप इस जीव का परिणमन चल रहा है फिर भी जो ज्ञानी पुरुष तथ्य को समझ गया वह झुंझला कर बोलता है कि ऐ रागादिक भावो तुम यहाँ से जावो । यहाँ तुम्हारे ठहरने के लिए जगह नहीं, तुम लावारिस हो । जैसे सड़क पर कोई बच्चा खेल रहा हो, वहाँ से अनेक रिक्शे ताँगे निकलते, तो वे रिक्शा ताँगे वाले क्या बोलते हैं―अरे तू फालतू है क्या, लावारिस है क्या? तो ऐसे ही समझो कि ये रागादिक विकार लावारिस हैं । फालतू है, क्योंकि जिनका अन्वय व्यतिरेक पाकर हुए उनकी परिणति तो है नहीं रागादि विभाव, इनका-निकट संबंध तो है कर्म के साथ, अन्वय व्यतिरेक है, मगर परिणति हो रही जीव की । बस यही ढंग बन गया लावारिस का । पुद्गल कर्म के उदय का सन्निधान पाकर हुए ये रागादिक विकार, इसलिए इनका नाता उससे जुड़ना चाहिए थी । मगर उससे क्यों नहीं जुड़ पाता? कहेंगे कि फिर तो रागादिक विकार के माता पिता कर्म ही कहलाने लगेंगे । अच्छा बताओ ये रागादिक विकार नष्ट हो रहे हों तो कोई बचा सकेंगे क्योंकि रागादिक परिणामों तुम यहीं हों, जाओ नहीं, क्या जीव का रक्षण मिल जायेगा रागादिक विकारों को, जीव के स्वभाव से ये रागादि विकार नहीं हुए, उनसे इस जीव का अन्वय व्यतिरेक संबंध नहीं है । इसलिए जीव का इनको संरक्षण नहीं मिल रहा, क्योंकि ये औपाधिक चीजें हैं । जब तक जीव को अज्ञान था जीव ने मोह महामद पियो अनादि, जब तक जीव को अज्ञान था, जीव ने मोह महामद पी रखा था तब तक तो रागादिक भावों का संरक्षण चलता था । संरक्षण तब भी न था मगर जब ज्ञानप्रकाश हुआ कि अरे ये तो परभाव हैं, ये मेरे स्वरूप नहीं और निरंतर पौरुष करते हैं आत्मस्वभाव की दृष्टि का तो यह भी संरक्षण मिट गया । कर्म ने रक्षण नहीं दिया रागादिक विकारों को, क्योंकि विभाव कर्म की परिणति नहीं । जीव ने रक्षण नहीं दिया रागादिक विकारों को, क्योंकि जीव के स्वभाव से नहीं हुए, ये पुद्गल कर्म का उदय पाकर हुए, जीव ने संरक्षण नहीं दिया इसलिए ये विकार लावारिस होकर मरते हैं, अब तो इन्हें बचाने वाला कोई नहीं । जब ज्ञान जग गया तो इन विकारों की रक्षा करने में कोई समर्थ नहीं, ये तो मिटेंगे । जैसे वृक्ष कट गया तो वह कब तक हरा रहेगा? वह तो सूखेगा ही ऐसे ही ये रागादिक विकार भी कब तक हरे भरे रहेंगे ये तो मिटेंगे ही । इसलिए निज को निज पर को पर जान ।
291―फिर दु:ख का नहिं लेश निदान―