वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 30
From जैनकोष
सर्वत: स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम् ।
नास्ति नास्ति मम कश्चन मोह: शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि ।।30।।
292―स्वरसनिर्भर अंतस्तत्त्व की भावना―मैं अपने आपको सर्व ओर से अपने ज्ञानरस करि के निर्भर, गाढ़ घन चिद्घन अनुभव करता हूँ, देखो समस्त संसार संकटों से छूटने का ही सबका भाव है ना तो संसार संकटों से छूटकर क्या स्थिति बनेगी, यह भी तो ध्यान में लाओ? हर एक कोई जो भावी प्रोग्राम बनाता है कि मुझे ऐसा करना है, वैसा करना है, यहाँ जाना है, वहाँ जाना है तो उसका कोई चित्रण तो उसके चित्त में रहता है कि ऐसा होगा, ऐसा करना है, वहाँ होऊँगा । कुछ तो मन में आता ही है । जैसे मान लो एक भावी प्रोग्राम बना कि तीन महीने बाद यह विवाह होगा, तो वह सब चित्रण चित्त में है कि ऐसा विवाह होगा, इस इस तरह से लोगों का संगम होगा । बोलो आपको संसार के समस्त संकटों से छूटना है तो छूटकर क्या स्थिति होती है उसकी कुछ खबर है ना? जन्म न हो, मरण न हो, शरीर नहीं, विकल्प नहीं, कषाय नहीं, कर्म नहीं, केवल आत्मा । यही स्थिति तो है संसार के समस्त संकटों से छूट जाने की स्थिति । केवल आत्मा । वहाँ और है क्या? एक चित्प्रकाश, ज्ञानघन, ज्ञानपुंज, कैसा पवित्र कि अपने आपके ही ज्ञानरस से परिपूर्ण है । चूँकि ज्ञान का ऐसा स्वभाव है, स्वरूप है कि उसमें समस्त सत् प्रतिबिंबित होते हैं और अपने ही स्वभाव से वे धीर रहते हैं, अलौकिक अनंत आल्हादमय, आनंदमय स्वरूप सदा रहता है केवल एक चित्प्रकाश, जिसमें किसी भी तरह की तरंग होने की बात नहीं । केवल एक निष्काम, निस्तरंग है । इसका कुछ दृष्टांत लेकर अनुमान करें । हमको वैसा बनना है तो यह बतलाओ कि हमारा वैसा स्वरूप है कि नहीं? अभी भी अंत: मेरा वैसा स्वरूप है कि नहीं? अगर वैसा स्वरूप हमारा नहीं है तो वैसा हम कदापि नहीं बन सकते । जैसे कोयला का स्वभाव काला है, सफेद नहीं, तो फिर कोयले को कितना ही धोया जाये, उसमें सफेदी नहीं आ सकती, क्योंकि सफेदी का स्वरूप ही नहीं है उसमें । तो ऐसे ही समझिये कि जब मेरा स्वरूप है संसार के समस्त संकटों से, समस्त उपाधियों से छूटा हुआ, याने अपने अस्तित्व की वजह से मैं बिल्कुल अकेला सत् हूँ, इसमें किसी अन्य का प्रवेश नहीं, समस्त पर से विविक्त हूँ, तभी मैं समस्त संकटों से छूट सकता हूँ, अन्यथा यह काम मेरा कभी बन ही नहीं सकता । तो सोच लो ऐसा मैं हूँ स्वरूप में, अपने स्वभाव में, अपने सत्त्व के कारण अपनी इकाई में केवल मैं ही मैं जो सत् है वह हूँ । कहीं कई सत् मिलकर मैं नहीं हूँ, मैं अपने अस्तित्व से हूँ, क्योंकि हूँ ना?
293―मोहनिर्ममत्व की भावना―देखो―आचार्य महाराज यहाँ भव्यों को समझा रहे है कि यह मोह कुछ नहीं है । उस अकेले को समझना है ना तो मैं अपने आपमें क्या अकेला हूँ, इसकी समझ के लिए अन्ययोगव्यवच्छेद मायने आपने सत्त्व के सिवाय बाकि जो कुछ अन्य हैं उनके योग का निराकरण किया जा रहा है-ये मैं नहीं, ये मेरे नहीं । क्यों नहीं मोह मेरा कि देखो आचार्य देव यहाँं कहते हैं कि फलदान में समर्थ होने से भावक रूप से आया हुआ यह मोहनीय कर्म, उसके द्वारा रचा गया है यह मोह भाव । ये ही शब्द हैं टीका में । इससे हमको बल क्या मिलता है? यह निमित्त नैमित्तिक योग से बना है मोहभाव वह मेरा कुछ नहीं । केवल अकेला जीव से याने बिना निमित्त सन्निधान के केवल योग्यता से ऐसा बनता रहे तो मोह योग्यता भी स्वभाव बन जायेगा । जो-जो अन्य निरपेक्ष हों वे-वे सब स्वभाव होते हैं । तो योग्यता ही क्यों मिटाओ? बनी रहने दो योग्यता । अपना ही तो स्वरूप है योग्यता । लेकिन ऐसा नहीं, यह योग्यता भी स्वभाव नहीं । तब सोचिये यह मोहभाव है तो अपनी परिणतिरूप मगर यह मोहभाव आ कैसे गया? तो फलदान में समर्थ यह है भावक मोहनीय कर्म, क्योंकि जब यह बँधा था, अनुभाग बन चुका था, अब यह सामने आया, तो उस पुद्गल द्रव्य के द्वारा यह मोह रचा गया है । मोहभाव मायने पुद्गलद्रव्य में यह मोह रचा है उसका निमित्त पाकर उपयोग का विकल्प परिणाम हुआ है । है एक साथ, मगर निमित्त नैमित्तिक भाव में आगे पीछे शब्द बोले जाते हैं । यह मोहभाव मोहनीय कर्म की परिणति है, क्योंकि उसका स्वरूप अनुभाग है । मगर जब आया तो चूँकि यह स्वच्छ है जीव, इसमें उपयोजन की आदत है, ग्रहण करने की आदत है, सो यह मोहभाव जो मोहनीय कर्म की परिणति है वह यहाँ प्रतिफलित हुआ । भला बतलाओ जब ये अत्यंत भिन्न पदार्थ भिन्न क्षेत्र में रहनेवाले जब ये भी मेरे में प्रतिबिंबित हो जाते हैं तो जब जो एकक्षेत्रावगाह है, जहाँ निमित्तनैमित्तिक संबंध है उसकी जब कोई परिणति बनती, उन कर्मों में कोई अनुभाग खिले तो क्या वह प्रतिबिंबित नहीं होता? झलक है, किंतु एकत्वभाव होने से मोही को अज्ञात है बस यह ही तो संसार है, इसी से रुलना चल रहा है । जो भी कर्म उदय में आये वे उपयोग में प्रतिफलित हुए । अब अगर अज्ञानी है तो उस प्रतिफलन में यह आत्मबुद्धि करेगा कि यह मैं हूँ, एकत्व बुद्धि करेगा और वहाँ अपने स्वरूप की सुध होगी फिर कैसे? और उस राग में एकत्व बुद्धि होने से चूँकि ये पदार्थ भी तो ज्ञान में आये तो उनमें इष्ट अनिष्ट बुद्धि करेगा तब विकार की मुद्रा बनती है । इस रहस्य को जानने वाला ज्ञानी यह चिंतन करता है कि यह मोहभाव, यह पुद्गल द्रव्य से रचा हुआ है । यह मेरा कुछ नहीं है । मैं तो एक टंकोत्कीर्णवत् निश्चल ज्ञानमात्र हूँ । बस यहाँ भेद करना ।
294―निर्बंध स्वरूप की भावना―जिसने अपने आपकी भूमिका में भेद कर लिया उसको ही ज्ञानप्रकाश मिला । बाहर का भेद तो साधारण जन भी मुख से बोला करते हैं । अजी ये मकान, ये धनधाम किसके? ये तो सब मिट जाते हैं, यह बात तो आबाल गोपाल सब किया करते हैं, मगर यहाँ भेद जो परख ले कि मैं तो अपने ज्ञान में ही स्वच्छ ज्ञानमात्र हूँ और इसमें जो पर भाव हैं वह सब उस-उस अनुभाग वाले कर्म का प्रतिफल है । यह मोहभाव मेरा स्वरूप नहीं, मैं तो एक ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा जानकर यह जीव अपने आपमें क्या अनुभव करता है? सर्व ओर से अपने रस से निर्भर निज भाव का संचेतन करता है कि मैं यह हूँ । देखो श्रद्धा बिल्कुल निर्मल बनाओ, उपयोग में स्वरूप निर्बंध रखो । जैसे मैं कुटुंब वाला हूँ, मैं इस घर का हूँ, ऐसी कोई भीतर में श्रद्धा बनावें तो वह एक अटक है ना? वह अटक आत्मानुभव को नहीं होने देती । मैं अमुक शरीरधारी हूँ, यह शरीर हूं, ऐसी श्रद्धा बने तो वह आत्मानुभव की अटक है, और मैं अमुक जाति का हूँ, अमुक कुल का हूँ, यह ही श्रद्धा हो तो वह भी एक अटक है । अपनी श्रद्धा ऐसी निर्मल होनी चाहिए कि मैं सबसे निराला केवल चैतन्यस्वरूप मात्र हूं, और मैं अमुक गोष्ठी का हूँ, अमुक पार्टी का हूँ, इस प्रकार की श्रद्धा हो तो वह भी अटक है । इतना तो निर्बंध श्रद्धा में लाओ । मेरी कोई पार्टी नहीं, कुटुंब मेरा नहीं, कुछ मेरा नहीं, न मेरा शरीर, न जाति, न कुल । और की तो बात क्या कहें, ये जो रागद्वेष विकार जग रहे ये भी मेरे नहीं । विकार क्यों मेरे नहीं? यों कि मेरे स्वभाव से नहीं हुए । इनको उत्पन्न करने की मुझमें सामर्थ्य नहीं । कैसे मुझमें सामर्थ्य नहीं? यहाँ इस ढंग से विचार करें कि जो मैं अकेला रहकर कर सकूँ उसे तो मैं समझूँ कि यह मेरे सामर्थ्य की चीज है, और जिसको मैं किसी उपाधि सन्निधान में कर सकूँ वह निरपेक्ष मेरे सामर्थ्य की चीज नहीं । शराब पीने के बाद यह पुरुष कायर भी बनता और कभी कोई काम करना चाहे तो बड़ा तेज काम भी कर डालता । कहता भी है कि हम बिना नशा के ही रहे तो इतना माल न उठा पायेंगे । तो इस प्रकार समझो कि अब कर्म का प्रतिफलन हुआ तो वह अंधकार छाया, राग झलका । तो उस राग को करना मेरे स्वरूप का काम नहीं । वह बंधनबद्ध होने से योग्यता का काम है । राग स्वभावत: कार्य नहीं है, हटो तुम मेरे नहीं ।
295―अंतस्तत्त्व की प्रभावना की भावना―प्रयोजन तो भाई परभावों से हटना और स्वभाव में लगना है, यह ही तो करना है काम इस जिंदगी में । अगर कोई दूसरा उद्देश्य बनाये हैं जीवन का कि मुझे यह करना है, वह करना है, अपना तो कुछ ध्यान नहीं, धर्म के प्रचार का काम करना है, यह करना है, वहाँ करना है मुझे इस तरह की बात करना है हमको इतना ऊँचा उठना है, इतना नाम पैदा करना है तो यह कोई जीवन का अच्छा उद्देश्य नहीं है । अपने जीवन का उद्देश्य होना चाहिये समस्त विभावों से हटकर अपने आपके स्वभाव के दर्शन करने का । ऐसा करते हुए मन वचन काय की जो परिणति बनेगी वहाँ धर्म की प्रभावना होती है । वह ईमानदारी की प्रभावना है, बनावट की प्रभावना नहीं । बनावट की प्रभावना क्या कि खुद में तो हैं रीते और दुनिया को बातें बतायें धर्म की, तो यह तो एक बनावटी प्रभावना है । इस बनावटी प्रभावना के लिये मनुष्य जन्मा नहीं है । प्रभाव हो तो, न हो तो अपने में अपनी प्रभावना करना है । अपने आपकी प्रभावना के साथ-साथ जो प्रभावना है वह एक कानूनी सही तौर की प्रभावना है, एक जैन नियम के अनुसार प्रभावना है । नहीं तो जैसे एक बार किसी राजा ने अपने मंत्री से पूछा कि बतलाओ अपनी प्रजा के सब लोग हमारे भक्त हैं ना? आज्ञाकारी हैं ना? तो मंत्री ने कहा हाँं महाराज―आज्ञाकारी तो सब लोग हैं पर भक्त हैं यह बात नहीं कह सकते । कैसे? हम तो जहाँ जाते लोग बड़े आदर से मिलते बड़ी भक्ति दिखाते । तो मंत्री ने क्या किया कि रात्रि में घोषणा करा दी अपने राज्य में कि राजा को बहुत अधिक दूध की जरूरत है । राजाज्ञा के अनुसार प्रत्येक घर से एक-एक किलो दूध आना जरूरी है । राजमहल के आंगन में एक बड़ा हौज बना दिया गया है, रात्रि के एक बजे सभी लोग अपने-अपने घर से दूध लाकर हौज में डाल जायें । अब सभी लोगों ने अपने घरों में बैठे यह सोच लिया कि देखो सभी लोग तो दूध ले ही जायेंगे, एक हम दूध के बजाये पानी ले गए तो उसमें क्या फर्क पड़ता? आखिर सभी लोगों ने रात्रि को हौज में एक-एक किलो पानी डाला । जब सबेरा हुआ तो हौज में देखा गया कि दूध का नाम नहीं । यह दृश्य देखकर राजा को विदित हुआ कि मंत्री सच कहता था कि राज्य के सभी लोग आज्ञाकारी तो हैं, आज्ञा से विपरीत नहीं, पर भक्त कोई नहीं । तो ऐसे समझो कि कोई लोग इस बात के लिए उतारू हो जायें कि मुझे तो जैन धर्म की प्रभावना करना है और उनमें से एक भी परिचित न हो कि जैन धर्म का मर्म क्या, तत्त्व क्या? समस्त परभावों से विविक्त अपने आपके स्वरस में, एकत्व में रस ऐसे एक चित् अखंड, ज्ञायकस्वरूप, ज्ञानमात्र इस रूप अनुभव कोई न करता हो, इसकी सुध कोई न रखता हो और अपने धर्म की प्रभावना के लिए बहुत-बहुत काम किए जाते हों तो वह चल फिर कर बनावट करके कोशिश करके प्रभावना की बात है । वह एक सहज धारा प्रवाह, कानूनन, जिसका कोई प्रतिघात नहीं कर सकता, चलती रहे प्रभावना वह बात नहीं बन सकती । खैर बाहर में क्या होता है, क्या नहीं? अपनी-अपनी सम्हाल करें ।
296―पावन अंतस्तत्त्व के सम्हाल की भावना―अपनी-अपनी सब सम्हालेंगे तो सब सम्हले हैं । जैसे बहुत सी बुढ़ियाँ इकट्ठी होकर तीर्थधाम की यात्रा बड़ी आसानी से करके घर लौट आती है, महीनों का समय यात्रा में लगा लेती हैं फिर भी उनकी कोई चीज गुमने नहीं पाती, और ये यात्री रईस लोग जब अपनी मित्रमंडली के साथ तीर्थ यात्रा में निकलते हैं तो कुछ ही दिनों में वे सब कुछ न कुछ चीजें गमाकर घर आते हैं, तो इसमें फर्क क्या आया? वे बुढ़िया चाहे मोह की वजह से सम्हली हैं, हम उसका उदाहरण नहीं कर रहे, हम तो एक अपने आपके सम्हाल की बात कह रहे हैं । उन सब बुढ़ियों ने अपनी-अपनी पोटली की सम्हाल की, दूसरे की सम्हाल नहीं की, और ये रईस लोग अपने-अपने सामान के अतिरिक्त दूसरों के सामान की फिकर रखते हैं । एक दूसरे से पूछते फिरते―कहो भाई तुम्हारा सब सामान आ गया कि नहीं? यों दूसरों के सामान की फिकर रख-रखकर अपनी कोई न कोई चीज गुमा देते हैं तो जरा अपने आप पर करुणा करके और सब प्रकार के व्यामोह दूर करके यह जानकर कि मैं लोक में अकेला ही हूँ । मेरा सत्त्व किसी से मिला जुला नहीं है, किसी की कृपा से नहीं है, मैं हूँ, अपने आप हूँ, मेरा सत्त्व मुझमें है, और जो पदार्थ है उसमें मेरे स्वभाव का विलास हुआ करता है । यह स्वरूप है मेरा । मैं चेतन हूँ । मेरे चैतन्यस्वरूप का विलास केवल चित्प्रकाश है और यह मोह, राग, द्वेष का विलास क्या है? यह है पुद्गल द्रव्य के द्वारा रचा हुआ विकार विलास । पुद्गल में तो उपादानतया पुद्गल का रचा है और उसका सन्निधान पाकर यह प्रतिफलित हुआ है जैसे दर्पण में प्रतिबिंब आया, जिसको जान रहे ज्ञानी, यह प्रतिफलन उसके स्वभाव से उत्पन्न नहीं योग्यता में तो है, परिणति में तो है, मगर साइंस के हिसाब से देख लो―यह एक नैमित्तिक भाव है । मैं नहीं हूँ यह । निमित्त नैमित्तिक योग का परिचय विकार को हटने के लिए हुआ करता है । और, इसे कोई कर्ता कर्म बुद्धि में ढाल ले तो यह प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता । यदि उपादानतया यह मान लिया जाये कि कर्म ने ही उसके राग विकार को रचा है, तो बस विवश हूँ मैं । कर्म रच रहा है, मैं क्या कर सकता हूँ, यहाँ तो राग ऐसा लावारिस है कि पुद्गल का निमित्त पाकर हुआ, पर पुद्गल की परिणति नहीं, इसलिए पुद्गल बेचारे भी इसका रक्षण नहीं कर सकते । यहाँ भाव विभाव हुए हैं और यद्यपि जीव के गुण का विकार परिणमन है लेकिन ये पुद्गल द्रव्य का निमित्त सन्निधान पाकर हुए हैं, ये मेरे स्वभाव से नहीं हुए हैं इनका मेरे स्वामित्व नहीं इसलिए मैं इनका कैसे रक्षण कर सकता हूं? वे तो हटेंगे, अन्वय व्यतिरेक पुद्गल के साथ है, ऐसे लावारिस हैं ये विकारभाव । इनसे तो हटना बहुत सुगम काम है, कोई कठिन बात नहीं । पर ज्ञान में बात समा जाये और यह भी चित्त में समा जाये कि इस दुनियाँ में जन्म मरण हमको अकेले ही करना पड़ेगा, कोई दूसरा हमारा साथ न निभायेगा और जो कर्मबंध होता है पुण्य पाप, शुभ अशुभ, उसका प्रतिफलन मुझको ही तो झेलना पड़ेगा, दूसरा कोई झेलने न आयेगा । तब फिर क्यों न इन समस्त विभावों का लगाव तोड़कर अपने आपके पवित्र इस चिद्घन में प्रवेश करें?
297―चैतन्यरसनिर्भर अंतस्तत्त्व का ईक्षण―यह ज्ञानी सब ओर से अपने चैतन्यरस से निर्भर ज्ञानघन निज स्वभाव का अनुभव करता है । मैं चित्स्वरूपमात्र हूँ, स्वयं एक हूं, अकेला केवल जिसका सत्त्व है वही मैं । कितना ही मिला हुआ कुछ हो, एक ही जगह में तो छहों द्रव्य बस रहे हैं । जहाँ आप अंगुली धरते बताओ वहाँ पुद्गल है कि नहीं? अरे संसारी जीव है तो वहाँ उसके निबद्ध पुद्गल तो हैं ही और अनिबद्ध भी है । धर्म द्रव्य भी तो है, अधर्म द्रव्य भी तो है, आकाश, काल द्रव्य भी तो वहाँ पड़े हैं । लोक का कौनसा प्रदेश हैं ऐसा, जहाँ छहों प्रकार के द्रव्य न हों? मगर अपने-अपने सत्त्व का अनुभव प्रत्येक का स्वयं में प्रत्येक में चल रहा । कहते हैं ना सिद्ध भगवान जिस एक जगह में हैं, जिस जगह एक सिद्ध हैं वहाँ अनंत सिद्ध हैं । और अमूर्त निर्मल लोकालोक के जाननहार सारे लोक का जहाँ जानन है, प्रतिबिंब है, सभी के ऐसा है मगर स्वरूप देखो―सबका जानन अपने-अपने में है, सबका अनुभव अपने-अपने में है, एक का दूसरे में नहीं । एक माँहि एक राजे―एक सिद्ध में एक ही रह रहा, रहा दूसरा नहीं, स्वरूप की ओर से देख रहे ना―जरा थोड़े से और अगल बगल देखो स्वरूप कि एक माहि अनेक तो । यहाँ तो जहाँ एक सिद्ध है वहाँ अनेक हैं । क्या है? तो जब एक मात्र स्वरूप देखा जाये और सिद्ध प्रभु के व्यक्तित्व को भी न देखा जाये, तो मात्र स्वरूप में एक अनेकन की नहीं संख्या, वहाँ न एक है, न अनेक है, अनेक में एक नहीं, एक में अनेक नहीं । यह किसके अनुभव की बात चल रही है? जो एक विशुद्ध चैतन्य स्वरूप की उपासना में है उसके लिए एक अनेकन की नहीं संख्या । ओहो-जिसके बारे में ये भिन्न-भिन्न परिचय चल रहे हैं और इन भिन्न-भिन्न परिचयों से जिस एक तत्त्व को निरखा जा रहा, अहा, नमों सिद्ध निरंजनो ।
298―शुद्धचिद्घन महोनिधि की भावना―यह ज्ञानी जिसका ऐसा दृढ़तम अभ्यास हुआ कि समस्त परभावों विभक्त, अपने आपके स्वरूप के एकत्व में गत याने मैं हूँ, तो जो मैं हूँ अपने आप, बस उस ही में अपने आपका अनुभव करने वाले ज्ञानी पुरुष का क्या संचेतन है यह बात इस कलश में कही जा रही है । नास्ति नास्ति, नहीं है नहीं है, क्या? यह मोह विकार मेरा नहीं है, मेरा स्वरूप नहीं है मैं तो एक चित्प्रकाश मात्र हूँ । नहीं है, नहीं है, यह बात निश्चय करने के लिए यहाँ निमित्तनैमित्तिकयोग की दृष्टि से जरा कर्म की परख करें । उदय आया, झलक गया, सन्निधान हुआ, यह बाहर ही बाहर लोट रहा है । मेरे मात्र स्वरूप से उद्धत नहीं है, जैसे दर्पण के सामने आयी हुई चीज का प्रतिबिंब हुआ, यह बाहर ही बाहर लोटता है, यह दर्पण के निजी स्वभाव की रचना नहीं है । यह तो एक तिरस्कार है । यह मोह मेरा कुछ नहीं है । मैं तो एक ज्ञानघन रूप हूँ, एक महान तेज की निधि हूँ, ज्ञान सरोवर हूँ, जिसको अवगाह कर नहायें तो सारे संताप दूर होते हैं । इसके लिए बात रखें और दूसरा कोई आग्रह न रखें, पर और परभावों से विविक्त एक इस निज चैतन्यरस में अपने को उपयुक्त करना है । मेरे ज्ञान में यह ही बात रहे कि मैं यह हूँ, अन्य कुछ नहीं, बस यह प्रतीति बने । यह ही बात रखें चित्त में । श्रद्धा में ज्ञान स्वभावातिरिक्त अन्य बात मत लावें ।
299―ज्ञान की भावक भाव्य भावातीतता―अब यहाँ देखो भावक भाव्य भाव । भावक है पुद्गल कर्म, भाव्य है यह विकृत जीव । पुद्गल द्रव्य का निमित्त पाकर जो विकार जगा यह विकार है भाव्य और वह है भावक सो भावक और भाव्य का जब तथ्य समझ लिया गया तब अव्यक्त रूप से वह विभाव भाव रहा, पर यह जीव भाव्य नहीं बन सकता, क्योंकि उसको यह निर्णय है कि मैं टंकोत्कीर्णवत् निश्चल ज्ञान स्वरूप हूँ मैं परभाव रूप से हुवाया ही नहीं जा सकता । जब तक इस मूड में उन विभावों में एकत्व बुद्धि थी जिसका परिचय किया, बाहर विभावों के विषयभूत में एकता थी तब तक यह भाव्य बन रहा था । अब यह समझ गए कि बस छाया है, पौद्गलिक हैं, विभाव हैं, ये मेरी चीज नहीं । इनसे मैं निराला ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व हूँ । यह अंतस्तत्त्व, पुद्गल द्रव्य के कितने ही उदय आयें उनका प्रतिफलन हो, यह तो एक ही है ऐसी इसकी वान है, सारा विभाव भी प्रतिबिंबित हो गया, पर जानो कि यह मेरे स्वभाव से उठा हुआ विलास नहीं मेरे स्वरूप में नहीं है, यह तो औपाधिक है, ऐसा समझने वाला भाव्य नहीं बन सकता, और जो केवल निरपेक्ष रूप से यह माने कि राग तो उसकी योग्यता से आया है तो उसके भाव्य भार बन गए, उसकी योग्यता बन गई, वह तो भाव्य रहेगा । भाव करना और बात है और अशुद्ध से उतर कर शुद्ध में अवगाह करना और बात है, किसी चीज का प्रस्ताव करना सरल है, पर उसका अमल करने में बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ आती हैं । तब यह ठीक निर्णय कीजिये कि यह कार्य कैसे किया जाता है । वे विभाव, वे विकार उसके परिणमन हैं वर्तमान हैं और उस समय उसकी योग्यता है कि जो उस रूप परिणम सकता है परिणम रहा है, इतने पर भी केवल अंतस्तत्त्व से आया हुआ नहीं, मगर बाहरी यह किसी निमित्त का सन्निधान पाकर होने से उठा हुआ है अतएव परभाव है, यह मेरी चीज नहीं ।
300―शुद्धचिद᳭घनरूपता का विश्लेषण―अब जरा और भीतर प्रवेश करें, ये विभाव बाहर लोट रहे हैं, क्योंकि ये नैमित्तिक हैं, ये मेरे स्वरूप में नहीं हैं, उनसे विविक्त मैं अपने आपमें शुद्ध चैतन्यघन हूँ, तेज पुंज हूँ । देखो कुछ लोग ऐसी शंका रख सकते हैं कि मैं हूँ इस समय अशुद्ध और अनुभव के लिए यह कह रहे कि अपने को शुद्ध चैतन्यघन अनुभव करें । शुद्ध तो मैं हूँ ही नहीं, तो कैसे अनुभव करूँ तो उनको ऐसी शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अपनी तरफ आकर देखें, अनुभव करें । जैसे एक मकान की एक फोटो है उसके पूरब की ओर से खींची हुई, एक है पश्चिम की ओर से, एक उत्तर की ओर से और एक दक्षिण की ओर से खींची हुई अब इनमें से कोई एक फोटो सामने रखकर कहे कि यह नहीं है तो समझो कि वह मकान की दूसरी दिशा से कह रहा है । यह व्यावहारिक संयोग है । वह संयोग की तरफ से कह रहा है कि यह अशुद्ध है । बात उसकी गलत नहीं । वह ठीक कह रहा है, क्योंकि वह संयोग की तरफ से निरखकर कह रहा है । और, हम यहाँं कह रहे हैं एक उस चित्स्वभाव की ओर से याने जब सत्त्व है, अपने आपमें क्या है स्वरूप, उस ओर से कहा जा रहा कि जो वह है सो एक है । यहाँ पर्याय की बात नहीं कही जा रही कि निर्मल पर्याय की बात कह रहे या मलिन पर्याय की बात कह रहे । शुद्ध अशुद्ध का प्रयोग वहाँ भी होता है । निर्मल पर्याय को कहते हैं शुद्ध और मलिन पर्याय को कहते अशुद्ध, मगर पर्याय की बात नहीं कही जा रही वस्तुत्व की बात कही जा रही है । जैसे जिस दूध में पानी न मिला हो, जिस दूध का क्रीम न निकाला गया हो उस दूध को शुद्ध कहा जाता है, चाहे वह किसी ने भी निकाला हो, कैसे ही बर्तन में निकाला हो, दुग्धत्व की दृष्टि से वह शुद्ध है । अब कोई व्रती सज्जन ऐसा दूध लेता कि किसी त्यागी व्रती के हाथ का लेता हो, उस दूध को वह शुद्ध समझता हो तो उसकी बात नहीं कह रहे, वहाँ शुद्धता की दूसरी दृष्टि है, यह । दुग्धत्व की दृष्टि से शुद्धता की बात कह रहे हैं । तो ऐसे ही पर्यायदृष्टि से शुद्ध, अशुद्ध निरखना अन्य बात है और वस्तुत्व की दृष्टि से शुद्ध अशुद्ध निरखना अन्य बात है । जहाँ केवल एक सत् को देखा जा रहा है, पर से भिन्न और अपने आपमें से कुछ निकाला नहीं, अपने में पूरा, पानी से रहित और दूध की शक्ति में पूरा, जैसे वह दुग्धत्व से शुद्ध है ऐसे ही यह मैं समस्त पर से निराला और अपने ही स्वरूप में परिपूर्ण इतना ही मात्र निरखना, इसे कहते हैं शुद्ध आत्मत्व को देखना । मैं उसका संचेतन करता हूँ, उसका प्रसाद ऐसा है कि निर्मल पर्यायों का प्रवाह चल उठेगा । वहाँ चिंता मत करें, अपनी जो एक विशुद्ध वस्तु है उसको अपने आपमें देखें ।