वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 35
From जैनकोष
सकलमपि विहायाह्नाय चिच्छक्तिरिक्तं, स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम् ।
इममुपरि चरंतं चारु विश्वस्य साक्षात्, कलयतु परमात्मात्मानमात्मंयनंतम् ।।35।।
328―सकल अनात्मतत्त्व को त्यागने का आदेश―चैतन्य शक्ति के सिवाय, जितने भी भाव हैं उन सब भावों को छोड़कर एक चैतन्य शक्ति माने निज अंतस्तत्त्व में ही प्रकाश करते हुये भव्य जीव सारे विश्व के ऊपर प्रवर्तने वाले इस ज्ञायक स्वरूप अंतस्तत्त्व का अनुभव करें । यहाँ यह बात बतलाई गई है कि चैतन्य शक्ति के अतिरिक्त जितने भी भाव हैं उन सब भावों का परित्याग करें । चाहे वे परद्रव्य रूप हों चाहे वे परद्रव्य भाव रूप हों, सबको त्यागें, क्या-क्या त्यागना है, किस किसको त्यागना है? तो सीधे यह बात समझ लीजिए कि जीव के अष्ट प्रकार के कर्मो का बंधन है और उनका जब उदय होता है उस काल में जो जीव में अध्यवसान जगते हैं, प्रत्येक सूक्ष्म, स्थूल भावों का पुद्गल उपादान वाले भी सब भावों का परित्याग करने को कहा है, क्योंकि आठों ही प्रकार के कर्म पुद्गल द्रव्य हैं और जब वे विपाक में आते हैं तो उनका जो भी फल है वह सब दुःख रूप है । देखो यहाँ विभावों को पर मानकर ही तो त्यागा जा सकेगा । देखो रागद्वेष विकार जो भी भाव होते हैं वे पर है―जब तक यह बुद्धि न जगे कि इनसे निराला मैं चैतन्यरस शक्ति मात्र स्व हूँ, जव तक यह ज्ञान न जगे तब तक विभावों का त्यागना कैसे बन सकता है? तो ये रागादिक विभाव पर हैं, ऐसी तथ्य की बात करने वाले आचार्य महाराज इस समयसार में यह बात कह रहे हैं कि ये रागादिक अध्यवसान, ये हास्य, रति, अरति, आदिक भाव, ये विकल्प, ये विचार, ये तरंग सब पुद्गल कर्म से निष्पन्न हैं । सीधे शब्द लिखे हैं उसमें और कुछ तोड़ मरोड़ की गुंजाइश नहीं है । और फिर देखिये-यहाँ यह बात बतायी गयी कि यहाँ जीव और कर्म दो चल रहे हैं । कर्म में कर्म हैं, जीव में जीव है, करें में कर्म की परिणति है, जीव में जीव को परिणति है मगर जो विभाव जग रहा उसमें निमित्त नैमित्तिक योग है कर्म के उदय का सन्निधान पाकर जो एक छाया हुई, प्रतिफलन हुआ, बस वह है अध्यवसाय मूल उसे कोई अपनाये तो वह है मिथ्या अध्यवसान । ये पर है क्योंकि कमोदय का निमित्त पाकर हुए है ऐसी दृष्टि रखकर ही पर का ज्ञान होगा और जब पर जान लिया गया तो पर से असहयोग बन जायेगा और उस निज चैतन्य शक्ति में प्रवेश करेगा । यह ही विधि सीधे शब्दों में कही गई है ।
329―विकार विधि का परिचयन―अब विकार होने के संबंध में तीन बातें समझियेगा । जीव में विकार जो, रागद्वेषादिक भाव जगे, उसमें तीन कारण है-उपादान कारण, निमित्त कारण, आश्रयभूत कारण । उपादान कारण कौन? यह जीव, अशुद्ध जीव, ऐसी पर्याय वाला जीव, जिसमें रागादिक उठ रहे हैं यह जीव है उपादानकारण, निमित्त कारण क्या है कि उस प्रकार के अनुभाग रस उदय वाला कर्म उसके विपाक का सन्निधान पाना यह हैं निमित्त । और आश्रयभूत कारण क्या है? यह सब ठाठ बाट घन वैभव पुत्र, मित्र, स्त्री, इज्जत आदि पंचेंद्रिय के विषयभूत जो अर्थ हैं जिनमें प्राणी उपयोग फंसाते हैं वे सब कहलाते हैं आश्रयभूत कारण । अब अंदाज कर लो―अगर मानो ये रागभाव मात्र जीव की योग्यता से होते हैं, निमित्त तो मुक्त में खड़ा हो जाता है तो अब इसके मायने हुआ कि यह सब रागादिक ढांचा मात्र निरपेक्ष होकर जीव की ओर से ही चल रहा है । तो जीव की ओर से चल रहा केवल निरपेक्ष होकर तो कभी सिद्ध में भी चल बैठे । जब कोई विकार में साधन नहीं, हेतु नहीं तो फिर वह सिद्ध में चल बैठे । क्यों नहीं चलता? केवल यह बात कहना कि उनमें योग्यता नहीं इसलिए नहीं चलता, योग्यता है इस कारण चलता यह तो उत्तर नहीं है, क्यों? ऐसी यहाँ योग्यता रही वहाँ क्यों न योग्यता रही इसका भी जवाब दें । यहाँ योग्यता की योग्यता मानोगे तो अनवस्था दोष होगा और फिर क्यों यहाँ योग्यता की योग्यता है इसका भी जवाब दो याने जो बात प्राचीन धवल, जयधवल, महाधवल में कही गई जो ग्रंथ बड़े पूज्य माने जाते हैं, जिससे श्रुतपंचमी पर्व तक निकला है वह चूँकि व्यवहार से कहा है तो उसे कहना कि यह सब झूठा है ऐसी अनर्गल बात कहना युक्त नहीं, क्योंकि व्यवहारनय झूठा नहीं होता, उपचार झूठा होता है कारण यह पड़ गया कि उपचार को भी शास्त्रों में व्यवहार कहा और व्यवहार को भी व्यवहार शब्द से कहा, तो अब उपचार तो निकला असत्य और उसका नाम धरा व्यवहार, तो जिनवाणी के भक्तों को इतना विवेक होना चाहिए कि व्यवहार का दो जगह प्रयोग होता है-उपचार के लिए भी और व्यवहार नय के लिए भी । उनमें से उपचार वाला व्यवहार असत्य है और व्यवहार के लिए कहा गया व्यवहार असत्य नहीं, जैसे कि गाय, भैंस के दूध का भी नाम दूध है और आक के पत्तों से जो दूध निकलता है उसका भी नाम दूध है । अब विवेकियों को यह समझना चाहिए कि आक के दूध को भी दूध कहते हैं, गाय भैंस के दूध को भी दूध कहते हैं इसलिए ऐसी घोषणा न करनी चाहिए कि दूध मनुष्य के प्राणों का घात करता है क्योंकि आक का दूध तो मनुष्यों के प्राण मिटा देता है इसलिए आक के दूध की बात रखकर कोई सब दूधों को कहे कि सब दूध मनुष्य की जान लेते हैं तो यह कहना युक्त नहीं । इसी प्रकार उपचार वाला व्यवहार जिस भाषा में बोला गया उसी भाषा में उपादान के ढंग से समझे तो झूठ । ऐसी बात एक उपचार वाले व्यवहार में पायी गई, इससे सारे व्यवहारों को असत्य कह देना यह तो द्वादशांग वाणी का अपलाप है ।
330―व्यवहारनय और निश्चय का उपकार―अब देखो यही नजर में र लो, हम परिचय दो दृष्टियों में करते हैं 1-केवल एक द्रव्य को देखकर और 2-संयोग को देखकर । सोग है यह बात क्या झूठ है? इस समय हम आपके साथ कर्म का बंधन है यह बात क्या झूठ है? पर संयोग की बात व्यवहारनय से बतायी जाती है । झूठा तो नहीं है मगर स्वरूपदृष्टि से देखें, निश्चय से देखें तो वह एक ही द्रव्य को देखेगा, जीव में जीव को ही देखेगा निश्चयनय, कर्म में कर्म को ही देखेगा निश्चयन । तो जब एक द्रव्य को ही निश्चयनय से देखा तो इस दृष्टि से संयोग नहीं पर संयोग सर्वथा ही नहीं है ऐसा एकांत हो तो असत्य है । संयोग तो है, रोज खाते हैं, पीते हैं, अपनी कषाय के प्रतिकूल कोई बात कर बैठता है तो यहाँ तिलमिला उठते हैं, यह सब क्या है? यह संयोग की बात है । उपाधि के संबंध से बात चल रही है, पर विवेक यह करना है कि इस उपाधि संबंध को देखकर तो कल्याण न कर सकेंगे । हमें तो इसे हटाना है इसलिए एक द्रव्य को देखें । देखो यह निश्चयनय का विषय है वा की सब व्यवहार का है । अगर व्यवहारनय मिथ्या हैं तो समयसार में 75 प्रतिशत व्यवहारनय का वर्णन है, केवल 25 प्रतिशत निश्चय का वर्णन है तो क्या हम समयसार के तीन हिस्सों को झूठा करार कर देंगे? यह व्यवहारनय तो हमारा बड़ा उपकारी है । यह व्यवहारनय निश्चयनय के एक द्रव्य के विषय को दृष्ट कराने योग्य बनाकर स्वयं मर जाता है । भला जो माता अपने पुत्र के लिए मर जाये और पुत्र को ही एक जीवित रखने के लिए अगर मा अपने प्राण गवाये तो वह तो एक लौकिक हिसाब से दयालु है, उपकारिणी है, ऐसे ही व्यवहारनय समझने योग्य बनाकर व्यवहारनय स्वयं मर जाता है और इसी तरह निश्चयनय भी इस आत्मा को अनुभव के योग्य बनाकर व्यवहारनय स्वयं मर जाता है । और, फिर दोनों नयों से अतीत स्थिति हो जाती है ।
331―जीव प्रकट जीवविकार के कारणत्रय का विश्लेषण―अब देखो प्रकट विकार के तीन कारण अशुद्ध जीव उपादान कारण, कर्मोदय निमित्त कारण और ये घन वैभव नौकर चाकर आदिक ये सब आश्रयभूतकारण हैं । बात क्या होती है ? कर्मरस उदय में आता है, उसकी छाया यहाँ उपयोग में होती है, उससे उद्विग्न होकर अज्ञानी पुरुष आश्रयभूत करना उपयोग करता है । जानी उद्विग्न नहीं होता, उसे समझ है कि यह कर्मलीला है, यह मेरा स्वरूप नहीं, पर अज्ञानी को इसका पता नहीं, वह तो इस कर्मरस को ही समझता कि यही मैं हूँ, और जो नोकर्म हैं, आश्रयभूत, कारण हैं उनमें यह उपयोग फंसाता है । जब इन आश्रयभूत कारणों में उपयोग फसता है तो । इसमें व्यक्त रागद्वेष चलते हैं । अब इन तीन कारणों में क्या बात समझना कि जीव ने ऐसा परिणमन किया है तब तो यह अध्यवसान जगा । इस परिणमन को बदलकर शुद्धतत्त्व के उपयोग का परिणमन चाहिये यह उपादान कारण से शिक्षा मिली । कर्मोंदय है उसी का तो यह प्रतिफलन हुआ । यह निमित्त की बात है उसमें मैं क्यों वह जाऊं । और आश्रयभूत कारण, इनमें उपयोग जुटाये तो व्यक्त राग हो गया, इनमें उपयोग जुटाये तो राग प्रकट नहीं होगा । तो आश्रयभूत कारण का विकार के लिए कारणपना नहीं । कारणपना तो बनाया गया है आश्रयभूत कारण में, जिसको सब निमित्त शब्द से बोलते हैं । आश्रयभूत कारण को बहिरंग कारण कहा है शास्त्रों में बहिरंग कारण को भी निमित्त शब्द से लिखा है और कर्मोदय कारण को भी निमित्त शब्द से समझ में नहीं आयेगा । तो वहाँ यह विवेक करना चाहिए कि यदि अं है कि इसमें उपयोग जुटायें तो ये कारण होते तो बात यहाँ यह ठीक यह बात नहीं बैठ पाती, क्योंकि वह कर्मानुभाग कर्मरस अपनी स्थिति है, उसकी यहाँ झांकी होती है और उसको फिर अज्ञानी आत्मसात् पा रहा कि मैं ही तो एक चैतन्य स्वभावमात्र हूँ । मैं तो एक सबसे अत्यंत निरपेक्ष परमपारिणामिक भावरूप यह मैं हूँ, इस बात को अज्ञानी तो नहीं समझ रहा यों कि यह जो कर्मोदय का कर्मरसरूप प्रतिबिंब हो रहा, बस यह मैं हूँ । इस निमित्त का तो इस कार्य के साथ इस विकार का अन्वय व्यतिरेक संबंध नहीं, इसलिए ये निमित्त कारण नहीं कहलाते । ये जो जगत के समस्त पदार्थ हैं, अन्य सब जीव, सारे पुद्गल सब ये मेरे विकार के लिए निमित्त नहीं हैं । इनमें इसने उपयोग जुटाया तो ये आश्रयभूत कारण कहलाते हैं ।
विकारविधिपरिचय से विभाव के हेयत्व का प्रतिबोध―कर्मानुभाग जो अपने भावों से ही बाँधा हुआ था वह जीव अपनी विपाकीय तांडव लीला में है, आता है, उसका अनुभाग उदय में आता है उस समय यहाँ क्या होता है? वही प्रतिबिंब है जिम को चिद्विलास में बताया है कि कर्म हँस रहा, रो रहा यह अज्ञान न होना चाहिए कि मैं हंस रहा । जैसे दर्पण के आगे लाल चीज रखी तो लाल तो है मूल में कपड़ा । दर्पण में प्रतिबिंब मात्र है । दर्पण तो एक समझा देने वाला है कि कपड़ा लाल है सब जानते हैं । एक दर्पण आगे किया, पीछे कुछ लड़ के खेल खेल रहे, कोई बालक टाँग फैला रहा, कोई हाथ फैला रहा, कोई जीभ निकाल रहा, कोई सिर मटका रहा, तो उस दर्पण में प्रतिबिंब को देखकर कहते जाते हैं कि देखो अमुक बालक ने यों किया अमुक बालक ने यों किया । तो यह बात यह सिद्ध करती है कि लड़ के जुदे हैं और वह दर्पण जुदा है 1 दर्पण तो एक झलक कराने वाला है । जुदेपने की झलक । ज्ञानी पुरुषों के लिए यह जो कर्मरस झल का है यह तो जुदा करा देने को समझाने वाला है कि यह कर्मरस है, कर्म में खुद स्वयं रस ही है, वही तो झन का है यहाँ । अब इस झलक में हमको न फसना चाहिए । ये परभाव हें, विभाव हैं, हेय हैं ।
333―आत्मानुभवार्थी को निमित्तनैमित्तिक योग के सुपरिचय की भी आवश्यकता―निमित्तनैमित्तिक योग का सही परिचय जिन्होंने नहीं पाया वे अभी आत्मानुभव नहीं कर सकते । हाँ अगर कोई व्यवहार का एकांत करके यह माने कि कर्म ने राग किया तो यह मिथ्या है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, यह वस्तु का स्वरूप है । तब ही तो आज तक ये अनंतानंत पदार्थ टिके हुए हैं । अगर एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कुछ कर देता होता तो यह न रहा, कोई एक रहा दो में से । उसे किसी दूसरे ने किया तो एक क्या रहा? यों गड़बड़ होते-होते शून्य हो जाता । यह जगत की सत्ता यह बात जताती है कि प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से परिणमता है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं इसलिए कर्म रागादिक परिणति को करते हैं यह बात तो अयुक्त है, लेकिन यह बात युक्त है कि कर्मोंदय का निमित्त पाकर जीव अपनी योग्यता से अपने में ऐसी कला खेल बैठता है । जीव ने कर्म को नहीं किया । कर्म ने जीव को नहीं किया । जैसे हम (प्रवक्ता) चौकी पर बैठे हैं तो यह कहना-युक्त नहीं कि इस चौकी ने हमें बैठा लिया, पर यह बात कहना युक्त है कि इस चौकी का निमित्त पाकर हम अपनी कला से उस पर इस प्रकार से बैठ गए । ठीक ऐसे ही सर्वत्र जान लो । निमित्त उपादान की परिणति को कभी नहीं करता, यह ध्रुव सत्य है, और, गह भी सत्य है कि निमित्त का सन्निधान पाये बिना पदार्थ अपने में विकार भाव नहीं कर पाता । अब देखिये निमित्तनैमित्तिक योग व वस्तुस्वातंत्र्य की इस दृष्टि में हमको स्वभाव के दर्शन के लिए कितनी प्रेरणा मिली? यह प्रतिबिंब तो कपड़े का है दर्पण का नहीं । प्रतिबिंब तो दर्पण के प्रदेशों में झलक रहा है । यह झलक ही यह बात बतला रही है कि यह दर्पण की चीज नहीं है, यह पर है । यह पर पदार्थ इस दर्पण से जुदा है । वह झलक तो एक ज्ञापक है, इसी प्रकार ये विभाव ये रागादिक भाव ये तो ज्ञापक हैं, ये कर्मरस हैं और कर्म मुझसे जुदे हैं ।
334―दृष्टांतपूर्वक विकार निरखकर विकारविविक्त चैतन्य की परिज्ञप्ति―जैसे कोई एक कमरा बंद है, एक खिड़की भर खुली है, उस कमरे के कोने में बिजली का एक बहू, (बल्ब) जल रहा था । उस खिड़की से बिजली का प्रकाश दिखा तो उससे झट ज्ञान कर लिया कि इस कमरे में बल्ब जल रहा है । देखो बल्ब नहीं दिखाई पड़ता मगर उसके ज्ञान में आता है ना कि बिजली जल रही? तो जैसे खिड़की से प्रकाश देखकर यह ज्ञान कर लिया कि कमरे में बिजली जल रही ठीक ऐसे ही जीव में जो झलक है, चाहे इस ज्ञेय पदार्थ की झलक हो, यह झलक यह ज्ञापन कराती है कि यह द्रव्य जुदा है इसी तरह कर्मरस की भी झलक आती है । ये ज्ञेय पदार्थ तो बहुत दूर हैं वहाँ विलयरूप से झलक है और ये कर्म इस जीव के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह है और उनके जिन निषेकों का अनुभाग फूटता है उनकी यह झलक है । यह झलक इस बात को सिद्ध करती कि आत्मा के स्वरूप से कर्म रस जुदा है । भेदविज्ञान यहाँ उत्पन्न हुआ । कहते हैं ना―सूक्ष्म अंत: संधि पर इस प्रज्ञा का निपातन करना वह सूक्ष्म अंत: संधि क्या? कर्मरस व जीवत्व । कर्मरस का प्रतिफलन और जीव का निजस्वरूप । जीव का निज स्वरूप जानें, सहज भाव, चैतन्य शक्ति मात्र यह मैं अंतस्तत्त्व हूँ, और यह प्रतिफलन, यह कर्मधारा है, इससे मैं निराला हूँ, इसीलिए कहा गया है कि चैतन्य शक्ति के अतिरिक्त जितने मी भाव हैं वे परभाव हैं, उनका परित्याग करें । उनसे असहयोग करें, तुम मुझमें मत रहो । अच्छा परभाव तो दुनिया में और भी बहुत हैं, उनसे हटने की क्यों शिक्षा नहीं लेते? अरे जिनमें लगे ही नहीं हैं उनसे हटने की क्या शिक्षा दें? और ये परभाव जो कर्मरस है, छाया है, ये परभाव, ये उसके एक क्षेत्र में हैं और इनमें आत्मबुद्धि करके मैं अपने जन्म मरण की परंपरा बढ़ाता हूँ, यह है, अनिष्ट सब, समागम यह विदेशी माल है, इससे असहयोग करें, यह मेरे निज स्वभाव का माल नहीं है । जो अपना निजी माल हो उसमें रुचि करें ।
335―जीवविकार परिणाम के तीन कारणों का परिचय―यहाँ बात चल रही थी तीन कारणों की । जीव में जो विकार होते हैं उनमें इन तीन कारणों की पहिचान बनावें । उपादान कारण, निमित्त कारण और आश्रयभूत कारण । ग्रंथ में आश्रयभूत कारण को भी निमित्त शब्द से लिखा है, कहीं-कहीं नहीं भी लिखा है, पर अक्सर करके लिखा रहता है । तो निमित्त की बात सुनकर पहले तो यह निर्णय बनायें कि यह आश्रयभूतकारण की बात कही जा रही है निमित्त शब्द से या अन्वय व्यतिरेक वाले निमित्त की बात कही जा रही है । यदि आप यह छटनी करें तो कभी आप भ्रम न पायेंगे । यह छटनी करनी होगी । जैसे कि लोग कहते हैं ना कि देवदर्शन, वेदनानुभव, ऋद्धिदर्शन, हितोपदेशादिक ये सम्यक्त्व के निमित्त कारण हैं । और यह भी तो कहते कि सम्यक्त्व घातक 7 प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम ये सम्यक्त्व होने के निमित्त कारण हैं । अब इन दोनों वाक्यों में देखिये―आगम में दोनों लिखे हैं । धवल का जहाँ छठे भाग का अंतिम चूलिका आयी है वहाँ बताया है कि नरक गति में सम्यक्त्व के, कितने निमित्त हैं? वेदनानुभव, देशना आदिक और देवगति में सम्यक्त्व के कितने निमित्त हैं? ऋद्धिदर्शन, जिनबिंबदर्शन, पंचकल्याणक आदिक । पर वस्तुत: ये सम्यक्त्व निमित्त कारण हैं ही नहीं । आगम में तो लिखा है, पर वहाँ यह विवेक बनायें कि निमित्त शब्द का प्रयोग दो के लिए होता है, आश्रयभूत कारण के लिए और अन्वय व्यतिरेक रूप निमित्त के लिए । तो जहाँ 7 प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम निमित्त कहा है वह तो है अन्वय व्यतिरेकी निमित्त और जहाँ देवदर्शन, पंचकल्याणक, समवशरण इनको निमित्त कहा है, सम्यक्त्व का वह है सम्यक्त्व के अनंतर पूर्व परिणाम का आश्रयभूत कारण आश्रयभूत कारण के साथ यह नियम नहीं है कि आश्रयभूत कारण होवे तो सम्यक्त्व हो ही और इसीलिए यह शंका न करना कि देखो जीव समवशरण में अनेक बार गया और उसे सम्यक्त्व न हुआ, तो यह कारण कहाँ रहा? अब कहते हैं कि ये देवदर्शन, समवशरण में जाना आदिक सम्यक्त्व के निमित्त नहीं हैं किंतु आश्रयभूत कारण हैं, तो सम्यक्त्व का निमित्त क्या है? सम्यक्त्वघातक 7 प्रकृतियाँ-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, इन 7 प्रकृतियों का उपशम हो, क्षय हो, क्षयोपशम हो तो ये सम्यक्त्व के निमित्त कारण हैं कर्म प्रकृतियों का कैसा उपशम, कैसा क्षय, क्या उनमें बात बीतती इतनी सूक्ष्म बातें करणानुयोग में वर्णित हैं, मगर अब ऐसी हवा बदल चुकी कि किसी भी अनुयोग से प्रेम न रहा । सिवाय जीव, और देह, बस इनकी मामूली सी चर्चा समाज में रह गई, करणानुयोग की ओर किसी की दृष्टि नहीं रही । अब वह निधि लुप्त हो गई । जो जैन दर्शन के ज्ञाता रहे सहे लोग हैं वे कब तक ठहरेंगे? जब करणानुपयोग का अध्ययन हो तब ग्रंथकर्ता प्रति और सर्वज्ञ महात्म्य के ति अपूर्व भक्ति उमड़ती है । एक-एक समय में अनंतानुबंधी का अन्य प्रकृति का किस-किस तरह ही संक्रमण, निरीक्षण, गुणश्रेणी आदिक अनेक ढंगों से इन कर्मों ही दुर्दशा बनी है । फिर उसका उपाय बताया कि यह जोव अपने विशुद्ध परिणामों की सम्हाल को तो इसका समस्त कर्मों से छुटकारा हो जायेगा । देखिये यह विषय निर्विरोध जैन शासन में ही पाया जाता हे), और आजकल के कुछ मनचले लोग इसे झूठा करार कर रहे, ठीक ही है । उन्हें इसके मर्म का क्या पता? देखो-बात तीन कारणों को कह रहे है―सम्यग्दर्शन का कारण केवल 7 प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम हैं । समवशरण में जाना, देवदर्शन करना आदिक ये हैं सम्यक्त्व पूर्वभावी शुभभाव के आश्रयभूत कारण ।
336―देवदर्शन आदि की सम्यक्त्वपूर्वमाषी भाव को आश्रयभूत कारणता―एक सूक्ष्म बात और देखिये―समवशरण में जाना, उपदेश का सुनना, देवदर्शन होना, ये सम्यक्त्व के आश्रयभूत कारण भी नहीं है । अच्छा तो फिर किसके कारण है । देखिये जिस-जिस वक्त सम्यक्त्व उत्पन्न हो रहा है उस समय इस जीव की क्या स्थिति है? निर्विकल्प । उस स्थिति में उस काल में क्या कोई समवशरण का ध्यान है? क्या कुछ देवदर्शन का ध्यान हैं? तो सम्यक्त्व के आश्रयभूत कारण कैसे हो जायेंगे ? अच्छा ग्रंथों में तो लिखा हैं कुछ और अपना दिल भी कह रहा है सो कैसे । कह रहा है तो समझो सम्यक्त्व उत्पन्न हुआ जिस काल में उस काल से पहले जो शुभोपयोग हुआ उस शुभोपयोग का आश्रयभूत कारण है यह समवशरण में जाना, देवदर्शनादिक करना । अशुभोपयोग के बाद कभी सम्यक्त्व नहीं हो सकता । जब भी होगा तो शुभोपयोग के बाद ही हो सकेगा इसी प्रकार जब भी होगा तो शुभोपयोग के बाद ही हो सकेगा । इसी प्रकार जब भी शुद्धोपयोग है वह शुभोपयोग के अनंतर ही हो सकेगा, अशुभोपयोग के बाद नहीं हो सकता । एक भी उदाहरण आपको ऐसा न मिलेगा ? के जी अशुभोपयोग के अनंतर शुद्धोपयोग हुआ हो । हो ही नहीं सकता । शुभोपयोग के बाद ही शुद्धोपयोग होता हूँ । तो जो सम्यक्त्व जगा उस सम्यक्त्व से पहले जो शुभोपयोग था, जो सम्यक्त्व के लिए प्रेरक भाव था, जो सम्यक्त्व के विषय की ओर दृष्टि कराने के लिए भाव थे उन भावों के समय, उस शुभोपयोग के समय समवशरण आश्रयभूत कारण बन रहा, देवदर्शन आश्रयभूत कारण बन रहा, । ये जितने सम्यक्त्व के बाह्म निमित्त कहे गए । ये सब सम्यक्त्व के पूर्व समय में हुए शुभोपयोग के आश्रयभूत कारण हैं । सम्यक्त्व के लिये आश्रयभूत कारण नहीं होता । सम्यक्त्व तो केवल चित्शक्तिमात्र स्व के आश्रय से ही होता है, पर के आश्रय से सम्यक्त्व नहीं होता । तो समझना चाहिये कि इस जीव के विकार में तीन प्रकार के कारण है और जीव अजीव के प्रसंग में दो कारण है, वहाँ आश्रयभूत कारण नहीं होते । उपादाननिमित्त । जैस रोटी सिकी ती अग्नि निमित्त कारण, रोटी, उपादान कारण । यहाँ जो रोटी सिकी या जो भो कार्य बना वहाँ आश्रयभूत कारण नहीं होता । आश्रयभूत कारण तो केवल जीव के व्यक्त विकार के प्रसंग में होता है, निमित्त कारण भी होता है । निमित्त दोनों को कहते हैं वहाँ विवेक करना चाहिए कि यह आश्रयभूत कारण है, यह निमित्त कारण नहीं । आश्रयभूत कारणों में कारणपना उपचार से है, पर जो अन्वयव्यतिरेक संबंधी निमित्त है वह सही है, उपचार से नहीं है, निमित्तकारण की परख होनेपर नैमित्तिक भाव की भी परख होती है, इनसे हटना है, इन्हें परभाव मानों । निमित्त मेरे में कुछ नहीं करता । उनका सन्निध न पाकर फोटो उतर रही । ये मेरे से हटो, मैं तो अपनी चित्चैतन्यमात्र शक्ति में जुटूंगा ।