वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 96
From जैनकोष
य: करोति स करोति केवलं यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलं ।
य: करोति न हि वेत्ति स क्वचित् यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ।।96।।
803―कर्तृत्व और ज्ञातृत्व का विश्लेषण―जो कर्ता है वह कर्ता ही है और जो जानने वाला है वह जानने वाला ही है । जो कर्ता है वह जानता नहीं कभी और जो जानता है वह कभी कर्ता नहीं । करना और जानना ये दो काम क्या हैं ? यह जिसके ध्यान में आ जाये उसके संसार के सारे संकट नियम से छूटेंगे । वह महा भाग्यवान है, वह धन्य है जिसको करने और जानने का भेद समझ में आ गया । बात क्या हो रही है यह जानियेगा तब भेद समझ में आयेगा । अनादि काल से यह जीव अशुद्ध भाव करता चला आ रहा है और कर्मबंध होता आ रहा है । जिन कर्मों का बंध हुआ था, बंधते समय ही उस कर्मस्कंध के ये चार भेद बन गए थे कि इस प्रकृति का बंध है, इतनी स्थिति का बंध है, इस दर्जे का फल देने का बंध है अर्थात् उस कर्म में इतने दर्जे का फल अनुभाग पड़ा हुआ है और इतने प्रदेशों का बंध है, यह सब निर्णय उसी दिन उसी क्षण हो गया था जिस क्षण कर्मबंध हो गया था । अब उस कर्म की स्थिति आयी उनका उदयकाल आया तो उदयकाल में उस कर्म में ही कर्म के विपाक का विस्फोट हुआ । जैसे किसी विस्फोटक पदार्थ की म्याद होती है, स्थिति पूरी हुई कि उसमें कटु विस्फोट हो जाता है । तो यह कर्म विस्फोटक है । इसकी अब स्थिति पूरी हुई तो उनके विपाक का विस्फोट हुआ । तो कर्म में कर्म की एक भयावही मुद्रा बनी, क्योंकि निकल रहे हैं ना कर्म? जब कोई मौज में सत्ता में रहा करता हो और उसका वहाँ से हटने का अवसर आ जाये तो बड़ी खोटी मुद्रा, क्रोध, बिगाड़ के साथ निकलते हैं, तो ये कर्म शांत सत्ता में पड़े हुए हैं और भगवान आत्मा के प्रदेशों में इनका निवास मिला है । अब जब इनका उदय होता है तो हटने वाला, निकलने वाला तो बड़ी एक भयावनी मुद्रा रखकर निकलेगा । तो कर्मविपाक इसी का ही नाम है कि जब इस कर्म का उदय अथवा उदीरणा होती है उस समय इस कर्म में फल प्रकट होता है, विस्फोट होता है और उस काल में चूंकि आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह में है, निमित्त नैमित्तिक बंधन है तो यह कर्मविपाक इस उपयोग में इस भूमिका में प्रतिबिंबित हुआ, प्रतिफलित हुआ, उस काल में यह जीव अपनी सुध भूल रहा है और उस प्रतिफलन में उस कर्मरस की छाया में इसने मान लिया कि यह मैं हूँ और जब उस कर्मविपाक में इसकी श्रद्धा बन गई कि मैं यह हूँ और अपने स्वरूप को इसने छोड़ दिया उपयोग में तो जिसको जैसी श्रद्धा होती है उसकी क्रिया उसके अनुरूप हुआ करती है । जैसे जो यह मान बैठता है कि मैं इसका पिता हूँ, दादा हूँ, बाबा हूं तो उस तरह की उसकी मन, वचन, काय की क्रिया हो बैठती है, तो ऐसे ही जब इस अज्ञानी ने उस कर्मरस के प्रतिफलन को माना कि मैं यह हूँ तो बस क्रोध, मान, माया लोभ विकल्प आकुलता, विह्वलता, व्यग्रता, कुछ ठिकाना न रहना, चिंतित रहना ये सब क्रिया बनती हैं । तो जो इस-इस तरह का विकल्प कर रहा है उसे कहते हैं करना और जानना क्या होता है? इस तथ्य को समझ जाने के कारण कि यह कर्मरस झलक रहा है यह सब कर्म का नाटक है, मैं तो चैतन्यस्वरूप हूँ, ज्ञानमात्र हूँ जाननहार हूँ, मेरा स्वरूप अडिग है, मेरे में कोई बाधा नहीं है, मैं अपने स्वरूप में ही हूँ, ऐसे विश्वास के कारण वह स्वरूप जान रहा है, और कभी यह ज्ञानी कर्मफलन की ओर चिंतन करे तो उसे भी जान रहा है, कि यह कर्मरस आया ।
804―कर्तृत्व और ज्ञातृत्व के विश्लेषण के प्रतिबोध के विषय में एक नाटक दृष्टांत―कोई नाटक हो रहा हो और उसे देखने वाले दार्शनिक लोग जब उस भाव में आ जाते हैं कि यह तो सही बात हो रही है यह नाटक है, जो घटना हुई थी, जिसका नाटक दिखाया जा रहा उस घटना पर दृष्टि देता है और उस ही में एकमेक बन जाता है तो वह कभी रो पड़ता, कभी हंस पड़ता याने वह दर्शक विह्वल हो जाता, और जो दर्शक यह समझ रहा कि यह तो फलाने का लड़का है, यह बड़ी होशियारी से अपना पार्ट अदा कर रहा है, अभी यह काम किया था, अब यह कर रहा है इस तरह । कोई जान रहा हो तो वह रोने की बात में भी रोवेगा नहीं क्योंकि वह तथ्य जान रहा है कि यह तो खेल का नाटक है अमुक का लड़का है, इसमें कितनी होशियारी है, ऐसा जब कोई दार्शनिक समझता तो वह रोवेगा नहीं, और जो दार्शनिक यह समझता कि देखो कितना गजब हो गया, कितनी गड़बड़ कर रहा, जब इस तरह उस घटना को ही सही समझ रहा है तो वह रो पड़ेगा, तो ऐसे ही जिसने उस कर्मरस को, उस प्रतिफलन को यह मान लिया कि यही सही तो मैं हूँ, तो वह कर्ता है, अज्ञानी है, मोही है, व्यग्र होता, आकुलित होता, संसारपरंपरा बढ़ाता, और जब यह मान लेता कि यह अमुक कर्मरस है तो वह मजाक जैसा हंसता है, यह कर्मलीला हो रही, उसमें व्यग्र नहीं होता । ज्ञानी दोनों तरफ जान रहा है, अपने आपके स्वरूप को जानता कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, प्रतिभास मात्र हूँ, निर्विघ्न हूं, मेरे में कुछ दूसरा आता नहीं, मेरे में कुछ गड़बड़ी नहीं, जो सहज है, वही सही हूँ, ऐसा ज्ञानी स्व को जान रहा है, और इससे बाहर जाने तो वहाँ उस कर्म घटना पर हंस रहा ज्ञानी । कैसा कर्मरस, कैसी लीला, यह कर्म का नाटक है, अब यह फलानी प्रकृति का उदय है, विपाक इस प्रकार चल रहा है, ऐसा तथ्यज्ञाता पुरुष उसमें व्यग्र नहीं होता, क्योंकि उसमें उसने मोह नहीं किया । तो अब समझ लेना चाहिए कि जानन किसे कहते और करना किसे कहते ।
805―कर्ता में ज्ञातृत्व का अभाव और ज्ञाता में कर्तृत्व का अभाव―जो करेगा सो बरबाद हो जायेगा जो जानेगा सो आबाद रहेगा । केवल जाननहार रहना बस यह ही मोक्षमार्ग है, यही आत्मा को शांति पाने का उपाय है । तो अब समझ लीजिए कि दो प्रकार के जीव रखें सामने, एक तो ऐसा मनुष्य जो उस कर्मरस में आपा मान रहा मग्न हो रहा वही मैं हूँ, ऐसा एक अध्यवसाय में आ गया और अपने स्वरूप की सुध कुछ भी नहीं है ऐसा जीव कुछ विकल्प में रच रहा और उस कर्मरस को अपनाने की श्रद्धा में नाना विसंवाद भी बना रहा । रोता है, हँसता है सुख दुःख मानता है, कोई दो चार मित्रजन बैठे गप्प कर रहे हों, हंस रहे हों, अच्छा हो रहा, यह क्या हो रहा? उस कर्मरस में आया कि उसने श्रद्धा की तो उसके अनुकूल क्रिया भी करेगा । कभी कोई विपत्ति आ गई, घबड़ा गया, रो रहा, क्या कर रहा? अरे जैसी उसकी श्रद्धा है उसके अनुकूल काम हो रहा । तो एक तो पुरुष ऐसा है, इसे कहते हैं करनहार, करने वाला, जो विकल्प करे, अपनी सुध भूले और बाह्य पदार्थों में मग्न हो जाये उसे कहते हैं कर्ता, और जाननहार किसे कहते हैं? जो स्वरूप का जाननहार है उस कर्मविपाक का जाननहार है वह कर्मविपाक को अपनाने वाला तो होता नहीं है । कोई जब ज्ञानी जाननहार है यहाँ देखा तो यों जाना, वहाँ देखा तो जाना, जब स्वरूप को निरखा तो जाना, बस तप्त ज्ञानानंदमात्र हूँ, सहज प्रतिमास मात्र हूँ, इसमें कुछ अटक ही नहीं, किसी पर का जब प्रवेश ही नहीं तो इसमें कोई बाधा ही नहीं, ऐसा निर्बाध स्वरूप हूँ ऐसा अनुभव करता है ज्ञानी । देखो ऐसा जानने के साथ उसके सारे संकट एक तरफ हो गए । दूर हो गए, जब कुछ अगल बगल देखा तो वह कर्मरस, उसका नाटक, उसकी लीला, उसकी विचित्रता सबको मजाकपूर्वक देख रहा कि यह हो रहा, यह कर्म में जल रहा, यह कर्म में चल रहा । कर्म की बातें कर्म में ही समझ में आये तो ऐसा पुरुष कहलाता है जाननहार । तो जो कर्ता है वह जानता नहीं, जो जानता है वह कर्ता नहीं, अच्छी प्रकार अंतर समझ लीजिए । कोई विकल्प करने वाला बस उसकी दुनिया और हो गई । कर्मरस, कर्मविपाक, अशुद्धता, व्यग्रता, अपने से हटकर अंधेरे में पहुंचना, बस वहाँ यह गुम हो रहा । यह उस मायामयी दुनिया में पहुंच गया जो कर्ता है । और, जो जानता है अपने अंदर अपने को जानता है, अपने अगल-बगल भी उस कर्मरस को जानता है, तो ऐसा जाननहार पुरुष धीर है, वीर है, शूर है, निर्दोष है, तृप्त है, उसे कुछ करने को पड़ा ही नहीं है । वह अब भी समझ रहा है कि मैं बस आत्मसर्वस्व पाये हुए हूं । कुछ अटका ही नहीं, व्यग्रता आये कहाँ से ! तो जो जाननहार नहीं, जो कर्ता है वह केवल कर्ता ही है, जो जानता है वह केवल जानता ही है ।
806―ज्ञाता और कर्ता में विलक्षणता―देखो दोनों ही पुरुषों की घटना समझ लो । जाननहार क्या कर रहा और करनहार क्या कर रहा? जाननहार में क्या हो रहा, करनहार में क्या हो रहा । तो जो कर्ता है वह जानता नहीं, जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं । जो कर्म रस है जो कर्म का प्रतिफलन है, छाया बनी है, बड़े विचित्र ढंग से वह कैसे? बाहरी ज्ञेयों को तो हम समझते हैं, जानते हैं कि यह है, मगर कर्म का विधान ज्ञेय होता है वह और ढंग से । बुद्धि में नहीं आ रहा, और उसके अनुकूल दिमाग बन गया । यहाँ तो हम भी पत्थर आदि जो कुछ भी जानते तो जानने में आ तो रहे हैं फिर चाहे राग करें या द्वेष करें, विपाक यों जाननना में न आकर वेदन में आते हैं । कैसा एक विचित्र ढंग चल रहा । कुछ भी कहो, जो अपनी सुध से हटा और उस कर्म के फल में लगा ऐसा पुरुष कर्ता है, मगर जानता नहीं । जानता होता तो करता क्यों? जो इस दुनिया के तथ्य को जान जाये, बाहर की दुनिया की बात में आस्था क्यों करेगा? अपने अंदर के रहस्य को जो जाने कि है क्या और दोनों जगह हो क्या रहा है इस तरह जो एक अपने अंतर्गत तथ्य को जान जाये, वह आत्मा तो जाननहार है, करनहार नहीं । तो जो कर्ता है वह जानता नहीं और जो जानता है वह ज्ञानी है अतः कभी कर्ता नहीं ।
807―कर्ता बनने में या ज्ञाता बनने में समृद्धि के निर्णय की गवेषणा―अब अपने में निर्णय बनाओ कि तुम्हें कर्ता बनना है या जाननहार? अज्ञ पुरुषों में तो उमंग ऐसी रहती है कि मैंने किया था, मैं कर दूंगा, यह काम किसी दूसरे के वश का नहीं है, मैं ही कर सकता हूं, यहाँ तो मैं और करना ऐसा खूब दंभ चल रहा तथा करने । मैंने की बात कहने में, करने में, प्रयोग में उसकी उमंग मच रही और सभी पुरुष करने के प्रोग्राम में भीतर प्रगति की कामना करते हैं, मैंने अभी इतना काम किया, अभी इतना और करूंगा, यह तो मामूली सी हमारी करतूत है अभी अभी तो बहुत बातें करने को पड़ी हैं, उन्हें भी करके दिखाऊंगा । किस-किस प्रकार की कल्पनाओं में विकल्पजालों में यह मनुष्य डूबा हुआ है । ऐसे विकल्पों में मग्न पुरुषों को क्या कहा जाना चाहिए था? अज्ञानी, मोही, दोषी संसारी, बेहोश, बेचारा, अशरण, अनाथ आदि अनेक शब्दों में कहो । उनकी कौन रक्षा कर सकेगा? तो दुनिया तो करने में मग्न हो रही है, बोलो ऐसा करनहार ही बनना है, क्या उसका फल है संसार में जन्म मरण करते रहना, कुत्ता, गधा, बैल, भेड़, बकरी, कीड़ा मकोड़ा आदि बनते रहना । जब फल सुनायेंगे तब तो एक बार चित्त कह ही उठेगा कि मुझे करनहार नहीं बनना है मगर जब करने की उमंग होती है अज्ञान बसा है तो उसके फल में दृष्टि नहीं रहती है कि इसका क्या फल भोगना पड़ेगा । वह तो करने की धुन में रहता है । तो करनहार बनने का तो है दुर्गति फल और जाननहार बनने का क्या फल है? शांत निरंजन निरुपद्रव, निर्विघ्न होना जिसमें किसी का प्रवेश नहीं जिसमें कोई धक्का नहीं लगा सकता । क्योंकि जो अपने स्वरूप का और इस कर्म रस का भेद जान चुका, बिल्कुल भिन्न बातें हैं तो अब इस जानकारी को रोकेगा कौन? बतलाओ इसमें कोई दूसरा बाधा डालेगा कौन? तो जो जाननहार है कि यह मैं ज्ञानानंद स्वरूप हूं और यह सब कर्मरस का फोटो है, मनुष्य भी बन गए पर वह ज्ञानी पुरुष अपने को मनुष्य भी नहीं मान रहा । ज्ञानी तो अपने को एक अमूर्त चैतन्य स्वरूप मान रहा । यह तो निमित्तनैमित्तिक योग का एक मायामय दृश्य है, मैं मनुष्य नहीं हूँ, तो जो अपने आपके यथार्थ स्वरूप का जाननहार है उसे व्यग्रता किसकी? मानो अचानक खबर मिली ज्ञानी गृहस्थ को कि इस फर्म में इस साल एक लाख का घाटा हो गया तो वह मुस्करा कर हंस देगा कि यह तो बाहर में बाहर की बात है, यहाँ था अब दूसरी जगह चला गया । यह धन वैभव इस जगह पड़ा था अब दूसरी जगह चला गया, अपने में वह बाधा नहीं समझता । क्या बाधा है? इस बात को वह तुच्छ समझना है कि कम वैभव होगा तो लोगों में इज्जत क्या रहेगी? अरे जिन लोगों में इज्जत की बात सोच रहे वे खुद विपत्ति में पड़े हुए हैं । ये सब मनुष्य जब अज्ञानमयी कल्पनाओं में गुजर रहे हैं तो ये तो सब बेचारे हैं दयापात्र हैं, अज्ञानी हैं, बेहोशी में पड़े हैं । भला यहाँ भी किसी को यह इच्छा जगती है क्या कि मैं इन कठिन दुःखियों में तुच्छ लोगों में, भिखारियों में बड़ा अच्छा, श्रेष्ठ माना जाऊँ? मैं बड़ा अच्छा कहलाऊँ ऐसी कोई अभिलाषा रखता है क्या? मोही जीव भो अभिलाषा रखते हैं तो यह कि मैं इन अधिकारियों में, अपने पुरा पड़ोसियों में, समाज में, अच्छा कहलाऊँ । मैं इन दुःखियों में, तुच्छों में कुछ अच्छा कहलाऊँ, ऐसी तो कोई यहाँ इच्छा नहीं रखता तो अब समझो कि सारा संसार, सारे प्राणी, सभी मनुष्य बिरले ही 2-4 को छोड़कर ये सब दुःखी हैं, अज्ञानी हैं, बेहोश हैं, इन्हें कुछ पता नहीं, ऐसों में कोई इज्जत क्यों चाहे कि ये लोग मुझे अच्छा माने? उनके अच्छा मानने से बनेगा क्या? कौन सा सुधार बन जायेगा? तो जो जाननहार है, ज्ञानी जीव है, तथ्य का ज्ञाता है उसे किसी परिस्थिति में उद्वेग नहीं होता । मान लो लाखों का टोटा पड़ गया, निर्धन हो गया, उससे कोई उद्वेग नहीं, क्योंकि वह तथ्य का ज्ञाता है ।
808―असली नाटक और नकली नाटक―लोग नकली नाटक देखने के लिए, उसकी टिकट लेने के लिए लाइन बनाकर खड़े होते, रात्रि भर आँखे फोड़ते, बड़ा परिश्रम करते, धन भी खर्च करते । जिसका फिल्म बना है, जिसका नाटक खेला जा रहा है, वह कोई घटना ही तो थी, तो वह घटना जो हुई थी वह है असली नाटक । हम आप अपनी जिंदगी में जो काम कर रहे हैं सुबह से शाम तक, यह है हमारा असली नाटक । और जो सुबह से लेकर शाम तक असली नाटक खेल रहे उसको देखने की उमंग किसी को नहीं होती और इसी का अगर फिल्म दिखाया जाये तो उसमें भीड़ हो जायेगी । अरे जो असली नाटक खिलता रहता है उसके दर्शन क्यों नहीं करते? और उस फिल्म के दर्शन करने क्यों जाते? जो असली नाटक कर रहा वह बाहर में होने वाले नाटक को देखेगा ही क्यों? वह तो यह समझेगा कि हम ही नाटक करने वाले हैं, दूसरे का क्या नाटक देखना? जो इस नाटक का करनहार है, अपने स्वरूप का देखनहार है उसे व्यग्रता क्यों आयेगी? क्योंकि नाटक ही नाम उसका है―न अटक सो नाटक । संधि करें, याने अटको नहीं, जिसमें अटकना न चाहिए उसे कहते हैं नाटक । क्या कोई ऐसा भी मूर्ख होगा जो नाटक में अटक जाये? याने नाटक शब्द तो मना कर रहा यह कोई माया की चीज दिख रही, इसमें न अटको, मगर यह मोही कहता कि हम तो अटकेंगे । ऐ रागद्वेषादिक भाव, तुम ही हमारे प्रिय हो, श्रेय हो सब कुछ हो, ऐसा मोही जीव समझता । तो अपना नाटक देखो । नाटक याने अटको नहीं, देखते जावो ।
809―भ्रम समाप्त करके शांत शुद्ध-ज्ञाता रहने में कल्याण―स्वभाव के अतिरिक्त जो भी जितनी बातें हैं उन सबके प्रति चिंतन करें, मनन करें, उनको धिक्कारें कि यह सब कर्मलीला है, इसमें मेरा कुछ भी नहीं है, मैं तो एक जाननमात्र हूँ, इसे कहते हैं जानन, और एक अपनी सुध न रहे और जो कर्म उदय में आये, क्रोध, मान, माया, लोभ, इच्छा आदिक जो-जो भी विकार इसके फोटो में आये, उसे ही जो सर्वस्व मान बैठे उसे कहते हैं करनहार । जो करनहार है सो जाननहार कैसे हो सकता है ? वह तो उन वैभवों में मग्न है । जो जाननहार है सो करनहार कैसे हो सकता है । भला जिसने दूर पड़ी हुई रस्सी को साँप समझ लिया तो वह तो घबड़ायेगा । अरे साँप निकल आया, अब न जाने मेरा क्या हाल होगा । यों बहुत घबड़ायेगा और जिसने जान लिया कि यह तो कोरी रस्सी है, सांप नहीं है, तो उससे कहो कि जरा तुम घबड़ाकर दिखाओ तो सही, जैसे कि पहिले घबड़ा रहे थे, पसीना भी आ गया था, काँप गया था, घबड़ा गया था, जरा ऐसा करके अब भी तो दिखा दो । तो वह वैसा करके नहीं दिखा सकता । तो जैसे भ्रम करने वाला पुरुष कभी शांत नहीं रह सकता इसी प्रकार सही जानने वाला पुरुष कभी घबड़ा नहीं सकता । यह ही बात यहाँ है कि जो अपनी सुध भूलकर कर्मरस में मग्न हो गया वह है कर्ता । जो करनहार है वह जान नहीं सकता और जो जाननहार है, जिसने सही-सही जान लिया कि यह रस्सी है, साँप नहीं, यह कर्मरस है मेरा स्वरूप नहीं, ऐसा जिसने जान लिया वह अब घबड़ा सकेगा क्या ? वह तो शांत और शूरवीर रहेगा, वह घबड़ाता नही । अब समझ लो कि जाननहार रहने में कल्याण है, और करनहार रहने में जन्ममरण का कुचक्र है । अब जो इच्छा हो सो अपना निर्णय बना लो । यहां, प्रकरण चल रहा था कि यह जीव नयपक्ष करता है और उसमें भी आत्मा सूक्ष्म है, अमूर्त है, एक है ऐसी-ऐसी बातें भी कही गई हैं और उन तत्त्वों को मना किया गया हो तो विकल्पों को ही मना किया गया, उसके लिए यहाँ कहा जा रहा है कि जो पक्ष से अतिक्रांत हो गया वही समयसार अमृत का पान करता है और फिर यहाँ के इन मोहियों में जो कर्ता बन रहा है उसकी तो दशा ही क्या कही जाये? तो अब समझ लीजिये कि अपने की कर्ता नहीं बनना है, विकल्प करनहार नहीं बनना है अज्ञानी नहीं बनना है । कर्मरस में स्वभाव में भेद करके ज्ञाता बनना है । ज्ञाता बनने में ही अपने आपकी भलाई है ।