वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 97
From जैनकोष
ज्ञप्ति: करोतौ न हि भासतेऽंत: ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽंत: ।
ज्ञप्ति: करोतिश्च ततो विभिन्ने ज्ञाता न कर्तेति तत: स्थितं च ।।97।।
810―ज्ञप्ति और करोति का विवरण―जानन किसे कहते हैं और करना किसे कहते हैं यह तथ्य ऊपर के कलश से जान लिया होगा । जानना नाम है आत्मा के सहज स्वरूप अखंड चैतन्यभाव, वह ज्ञान में आये और करना नाम है निज अखंड स्वभाव की सुध न होकर बाहरी कर्मलीलाओं में, कर्मरसों में अपना उपयोग लगाना । तो जानने की क्रिया किस तरह होती? यह जीव अपने आपके स्वरूप में ही है और अपने आपमें ही परिणम रहा है, सारी क्रियायें अपने आपमें कर रहा है मगर जानन क्रिया कैसी निरपेक्ष है, अपने आपके स्वभाव से उठी हुई है, इसमें पर की रंच भी अपेक्षा नहीं, जिसे कहते कि कुछ करना ही नहीं पड़ रहा, कुछ श्रम नहीं हो रहा, बस जो है सो है, विश्राम में बना हुआ है । अब चूंकि पदार्थ का स्वभाव है ऐसा कि यह कुछ परिणमन निरंतर करता ही रहे । सो यह आत्मस्वभाव के कारण अपने आपमें एक प्रतिभास क्रिया हो रही है, यह तो है ज्ञप्ति क्रिया और अब दूसरी ओर देखो तो उपयोग में खुद कुछ नहीं है पर अन्य-अन्य रूप से अपने आपका अनुभवन चल रहा । मैं सुखी दुःखी मैं रंक राव । मेरे गृह धन गोधन प्रभाव । मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन ।। अन्य-अन्य नाना रूपों से अपने आपका अनुभवन चल रहा है । मैं सुखी, मैं दुःखी, धन वैभव परिवार आदि कैसा लगाव चल रहा । परिजन तो, कुटुंबीजन तो मेरे उपयोग के आश्रयभूत हैं और चल रहा है लगाव इसका अपने विभावों में, मैं सबल हूं, दीन हूँ, रूपवान हूँ, कुरूप हूँ....अपने आपके शरीर में इतना झुक रहा । और मूरख प्रवीण । अपने गुण इस तरह जच रहे इस अज्ञानी को, इस करने वाले को, जो करोति क्रिया में मग्न हो रहा है । इस तरह के मिथ्या विकल्प चल रहे हैं । तो यह कर क्या रहा है ? हो रहा है सब आत्मा में ही, पर किस मुख होकर हो रहा है, कैसी धुन और तान से हो रहा है किस प्रकार की परिणतियां चल रही हैं । बाहरी पदार्थ इसके उपयोग में आश्रयभूत है और अपने आपमें जो छाया है, माया है, जो छा गया, कर्मोदय कर्मविपाक, कर्मरस जो इसमें छा गया, बस उस रूप अपना अनुभवन बनाना यह है करोति क्रिया का काम ।
811―आत्मा के मूलधन का प्रताप―करोति क्रिया में भी ज्ञान मदद दे रहा है अर्थात् आत्मवस्तु ज्ञानस्वरूप न हो, कुछ जानने की बात वहाँ न हो तो करोति का ही विकल्प कहाँ से आये? उस ज्ञान की उसे सुध ही नहीं जिस ज्ञान के प्रताप से वह करने के विकल्प में मौज मान रहा है । जैसे भोजन लुब्ध थोड़े से नमक के प्रताप से पकौड़ी के लोभ में उस नमक की याद नहीं करते और दिख रहा जो यह पिंड है पकौड़ी बस उसकी उसी पर ही दृष्टि है, उसी में स्वाद का अनुभव करता है इसी तरह विषय, कषाय, इच्छा, अभिलाषा आदिक नाना विकल्प मचते हैं और जिन विकल्पों में रहकर यह जीव राजी हो रहा है उनमें प्रताप किसका है ? इस जानन का, ज्ञान का । वह ज्ञान जानन वहाँ साथ है । तो जिस ज्ञान के प्रताप से, भीतर से एक प्रेरणा हुई है, एक प्रतिभास है जिसके बिना करोति को भी अवकाश नहीं मिलता देखो क्रिया भी आ गई, विकल्प आ गए उस ज्ञान की सुध नहीं है, और मैं क्रोध करता हूं, मान करता हूं, लोभ करता हूं, माया करता हूं, अध्यवसित हूं इन कषायों में एक अभिमान होने से उस ही रूप क्रिया करोति इन दोनों में कितना अंतर है, तो जैसे कोई बड़ा योगी हो संन्यासी हो और दूसरा कोई गुंडा हो तो उन दोनों में साफ अंतर नजर आता है । ऐसे ही ज्ञप्ति क्रिया में अर्थात् केवल शुद्ध जानन मात्र क्रिया में और इन नाना प्रकार की विचित्र क्रियाओं में कितना अंतर है । ज्ञप्ति क्रियायों में कितना अंतर है । ज्ञप्ति क्रिया शांत रस से भरी हुई है और करोति क्रिया नाना आकुलताओं से भरी हुई है । आखिर दो भिन्न क्रियायें हैं ना? ये दोनों क्रियायें आत्मा में एक साथ नहीं हो रही है, किसी आत्मा में करोति क्रिया हो रही, जो बहिरात्मा है, मूढ़ है, अज्ञानी है वह करोति का धनी है और जो तत्त्ववेदी है, ज्ञाता है, स्वरूप का रुचिया है वह ज्ञप्ति क्रिया का रुचिया है तो इस ज्ञानी की क्रिया में, और उस अज्ञानी की क्रिया में कितना अंतर है, तब कह देना कि ज्ञप्ति में करोति नहीं बसी और करोति में ज्ञप्ति नहीं बसी । सन्मार्ग में कुमार्ग नहीं और कुमार्ग में सन्मार्ग नहीं । अत: सन्मार्ग के आधार को, स्वरूप को देखो ।
812―करोति से हटकर ज्ञप्ति में आने के लिये आत्म करुणा करने का अनुरोध―कुछ जरा अपने पर करुणा करके देखो तो सही कि इन 24 घन्टों में हम कभी ज्ञप्ति क्रिया भी करते हैं क्या? या करोति क्रिया ही निरंतर कर रहे हैं । धन वैभव में इतना अधिक मोह छाना, अपने परिजनों को माना कि ये दो मेरे सर्वस्व हैं, और जीवों को गैर मान लेना, ये सारी उन्मत्त चेष्टायें हैं, ये सब बहिरात्मापन की चेष्टायें हैं, ऐसे विकल्पों में रहते सुनते यह क्या अपनी ज्ञप्ति क्रिया का शुद्ध आनंद ले सकता है? नहीं ले सकता । जिन्होंने ज्ञप्ति क्रिया का विशुद्ध आनंद लिया है वे ही अरहंत हो पाये, वे ही सिद्ध हुए और सदा के लिए सर्व संकटों से मुक्त हुए । रास्ता ही यह है, जैसे आपको घर से मंदिर जाने का रास्ता ही एक है रोज-रोज वहीं से गुजरते हैं । ऐसे ही मोक्ष महल में पहुंचने का रास्ता केवल एक ही है―अपने आपके भीतर एक ज्ञप्ति क्रिया में लगन। अपने आपके उस स्वच्छ चैतन्य चमत्कार में अपना विश्राम पाना, भीतर ऐसा विशुद्ध परिणाम यह ही मोक्ष का मार्ग है । मोक्ष का मार्ग दूसरा नहीं । निर्ग्रंथ हुए, नग्न हुए, मुनि हुए, दिगंबर हुए निश्चयत: मोक्ष का मार्ग यह नहीं है, पर मोक्षमार्ग का जो रुचिया है, मोक्षमार्ग में जो चलेगा उसे सबका वैराग्य रहेगा, तो ऐसी स्थिति में वह परिग्रह से लदेगा नहीं । उसका परिग्रह छूटेगा । जब एक ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व का रुचिया बना है कोई, उसकी ही तो धुन के कारण उसके वस्त्र हटेंगे, घर छूटेगा, अकेला विचरेगा, क्योंकि उसकी धुन ज्ञप्ति की लगी हुई है तो उस धुनिया की ये बाहरी बातें बन जाती हैं और मात्र इन बाहरी बातों में, भेष में ही थोड़ा ऐसा योग मिलता है कि आत्म ध्यान में और भी विशेष चले मगर जिसको आत्मतत्त्व की धुन नहीं, समाज में, पुरुषों में स्त्रियों में सेठों में, लोगों में मिलना जुलना, बात करना, उसमें खुश होना यह बात जहाँ पायी जाती है वहाँ क्या आप सम्यक्त्व की भी कल्पना कर सकते कि इसको सम्यग्दर्शन हुआ और जिसको सम्यग्दर्शन नहीं उसे मुनि माना जा सकता है क्या ? मुनिपना क्या कहलाता है? एक आत्मतत्त्व का प्रकृष्ट रुचिया, उसकी ही धुन, वह असंयमी जनों से बात नहीं करता, ये आगम के वाक्य हैं । यदि कोई ऐसा आवश्यक काम पड़ जाये कोई साधु समाधिमरण में है उसके लिए कोई बात करना है तो बात करेगा । गप्प करना तो बहुत दूर बात है क्योंकि आत्मतत्त्व की धुन लगी है, ऐसा पुरुष मोक्षमार्गी है, और जो जान-जानकर निर्ग्रंथ रूप धारी समझ-समझकर कि मुझे मुनि बनना है मुनि बनने से अच्छी आवभगत है उसके क्या मोक्षमार्ग चल रहा है । मोक्षमार्ग बाहर में नहीं है, अंत: परिणाम में है । बड़े-बड़े ऋषिराज हुए, उन सबके आत्मा की बड़ी धुन थी और इस जानन क्रिया के अनुभव में उनका समय गुजरता था और इसी कारण उनके अनेक ऋद्धियाँ प्रकट हो जाती थीं, जिनका उन्हें स्वयं को भी पता न रहता था । ऐसे अंतस्तत्त्व की धुन में निर्ग्रंथ भेष होता, और जिन्हें आत्मतत्त्व की पहिचान नहीं वे विषय कषायादिक रूप ही रहे आये तो वहाँ मोक्षमार्ग नहीं है । जो निर्ग्रंथ थे उन्होंने भी शरीर की ममता छोड़ी । इस द्रव्यलिंग से, इस मुनि भेष से अपना उपयोग हटाया, इस मुनित्व होते हुए भी उन्होंने इस मुनि वेष की खबर नहीं रखी, इसकी याद नहीं की किंतु एक ज्ञान-स्वरूप की अंतस्तत्त्व की धुन में ही रहे तब उन्हें मुक्ति प्राप्त हुई । मोक्षमार्ग कहाँ है? बाहर नहीं, अपने आपके आत्मतत्त्व में ही है, तो जानन क्रिया और करण क्रिया इन दोनों का अंतर जानें । ये हो रहे आत्मा में ही । थोड़ा मुख मोड़ने की बात है, अपने सहज स्वरूप की ओर जिन्होंने अपना उपयोग मोड़ा जानन क्रिया बनी और स्वरूप से विमुख होकर जिन्होंने कर्मरस की ओर मुख किया उनके करोति क्रिया बनी ।
813―करने का विकल्प तजकर जाननहार रहने में ही भलाई―हमें यह करना है, वह करना है यह पड़ा है, यह करूंगा । करूंगा विचार कर यह अपना जीवन खो देता है और मरूंगा, मरूँगा, मरूँगा, इसका कुछ ध्यान भी नहीं करता यह है इस अज्ञानी जीव की एक आदत । आत्मप्रदेश में ही ज्ञान और अज्ञान है, कहीं बाहर शरीर की क्रिया में ज्ञान और अज्ञान का भेद नहीं । अपने आपमें उपयोग दें, अपने आपका आनंद लूटें । बाहरी ममता छोड़ें, यह सब संग प्रसंग रहने का नहीं, अनादि काल से अब तक क्या-क्या नहीं किया । धनी हुए प्रतिष्ठा पायी, राजा बने पर कुछ रहा क्या साथ? और इसी भव में क्या-क्या इसने भोग सुख नहीं भोगे मौज नहीं माना । बचपन से लेकर अब तक की जिंदगी में समझ लो कहाँ-कहाँ मौज मानते रहे अपने को इंद्र तुल्य माना, सबसे महान माना, खूब मौज रहा, भोग विषयों का बड़ा-बड़ा सुख नहीं भोगा । पर अब बताओ इस समय कि आपके आत्मा में कुछ है क्या? समृद्धि हुई, सुखी हुआ, शांत हुआ । तो इतनी निर्दयता तो न रखना चाहिए अपने आप पर । दूसरों पर निर्दयता की बात नहीं कह रहे, अपने आप पर ही दया लावो और इस कर्मरस में लीन होकर अपने को बरबाद करना और उसमें यह मानना कि मैं बड़ा चतुर हूँ बुद्धिमान हूँ ऐसा अपने को मानना यह तो बड़ी मूढ़ता है । अपने स्वरूप का उपयोग छोड़कर कर्मरस में उपयुक्त होना और उनमें अपनी बुद्धिमानी समझना यह चतुराई है कि मूर्खता? बुद्धिमानी तो ज्ञानवानपना में अर्थात् यथार्थ यथार्थ जानने में है । अपने को सही देखें, सही जानें, मैं वास्तव में अपने आप निरपेक्षतया क्या हूं? एक चैतन्य चमत्कारमात्र आनंदरस से भरा हुआ । इसे हिलावो डुलाओ नहीं । अगल बगल उपयोग किया और यों इसे हिलाया डुलाया तो यह तो दुःखी होगा, कष्ट मानेगा । शांत अपने सहज स्वभाव को देखो विश्राम से रहो, आनंद मिलेगा ।
814―मोह की कुटेव में आत्महत्या―अच्छा चौबीसों घन्टे मोह करते हैं, परवस्तु चित्त में लादे रहते हैं कि मैं अमुक हूँ, मेरा यह घर है मेरी यह माता है, मेरी यह स्त्री है, मेरा यह पिता है जो उपयोग में बाह्य पदार्थों के प्रति ममता लगी रहती, बताओ एक आधमिनट को अगर यह ममता न करे तो ये कुटुंबीजन गुजर जायेंगे क्या? क्या घर गिर पड़ेगा? आपका धन कहीं भाग जायेगा क्या? सब ज्यों के त्यों रहेंगे, पर जरा एक मिनट को भी ममता नहीं हटा सकते । भले ही किसी काम में उपयोग लग जाये और घर की खबर न हो, दूकान में खूब दूकान चल रही, बातें हो रहीं, रूपये पैसे गिन रहा उस समय आपको कुछ ख्याल है क्या परिवार के लोगों का, मगर भीतर में ममता खतम हो गई है क्या? नहीं । सम्यग्दर्शन हुए बिना ये अहंकार ममकार समाप्त नहीं होते और जब तक अहंकार ममकार है तब तक अपने आप पर निर्दयता है । वह अपने आत्मा का हिंसक है, अपने आपको बरबाद करने के लिए कषायी है । सो विचित्रता देखें कि अपन आप अपने पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं और हँस खेल रहे हैं । अरे यह सब संगम कुछ नहीं रहना है । हर भव में आप नई पाटी पढ़ते हैं, अगले भव में जायेंगे, कहीं होंगे, कुछ फिर ममता बनेगी । नई पाटी फिर पढ़े, जिसमे खतम हुआ वह तो मिट गया, दूसरे भव में गया वहाँ नये प्रसंग मिले तो नई पार्टी की फिर ममता बन गई इतने बीच में भी ममता रही । ममता खतम नहीं होती है, वह भीतर बीज पड़ा हुआ है, केवल नये-नये अंकुर उत्पन्न हो रहे हैं । जैसे गन्ना बो देने पर भी दो तीन साल तक उसे खोदा न जाये तो उसमें अंकुर तो बने, मगर बीज हैं भीतर तब ही बनें । ऐसे ही एक भव छोड़कर नये भव में जाना है तो छोड़े हुए भव का कुटुंब वैभव मकान आदिक सब पड़े रह गए । यह गया दूसरे भव में । वहाँ अब नई चीज मिलेगी । नई तो कुछ नहीं है, अनादि काल से अनंत बार भोगा, पर वियोग हो गया, फिर मिले । अब उसमें नई ममता, नई पाटी बढ़ गई, बीज ममता का पड़ा हुआ है, ऐसी कठिन दशा में रह रहा यह जीव जिसको अपना होश नहीं । वेदना पा रहा, ऐसी तो यह अपने पर निर्दयता कर रहा और अपना घात करते हुए भी अपने में व्यर्थ मौज मान रहा । उपयोग पर सदा लदा रहता है वैभव मकान धन धाम पुत्र आदिक, ये मैं हूँ, और ये जगत के जैसे अनंत जीव हैं वैसे ही तो ये घर के दो चार जीव हैं अनंत जीवों में और घर में बसे हुए जीवों में कुछ फर्क है क्या? हाँ है । जिन्हें गैर माना वे इसके दुःख के कारण तो नहीं बने और जिन्हें अपना मान लिया वे दुःख के कारण बन रहे, फर्क यह मिलेगा और दूसरा नहीं । तो ऐसा अहंकार ममकार जो उपयोग पर चढ़ा हुआ है उसमें भलाई है क्या?
815―धर्म के नाम पर की जाने वाली मोहमयी चेष्टावों से भी लाभ का अभाव―धर्म के नाम पर भी बातें हैं―जैसे कोई दान भी करे तो पहले सब गुंतारा सोच लिया जाता कि इसमें कितना नाम होगा, कहाँ-कहाँ के लोग जान पायेंगे । वहाँ भी ममता मिटी क्या? त्याग हो सका क्या? प्रथम तो त्याग की बुद्धि ही नहीं जगी बल्कि यह मेरा धन है, मेरा अमुक है, यह घट जायेगा और देंगे भी तो पहले सब सोच लेंगे कि इसमें हमारा इतना यश हो सकता, इतना बड़ा नाम हो सकता बोलो ममता हटी क्या? धर्म करने आते, पूजा कर रहे, लोग कहते कि यह रोजरोज पूजा करते बड़े अच्छे हैं, बड़ी भक्ति है, यों तारीफ सुनकर अच्छा लग रहा है, इसलिए पूजा करने आते । वहाँ बतलाओ धर्म हो सका क्या? धर्म तो ज्ञानभाव से होता और वह गुप्त होता है । धर्मात्मा के जानन क्रिया जो साथ चलती है, वह ऐसी धुन में है कि शुभ विकल्प पूजादि किए बिना रहेंगे नहीं याने भीतर से चलकर क्रिया होनी चाहिए । अगर यह हो तो आपका पूजा त्याग सफल, दान सफल, तपश्चरण सफल । और बाहर में धर्म मानकर उस क्रिया में चले तो मोक्षमार्ग तो नहीं मिलता । फिर तो ऐसा है कि जिसको धान के भीतर रहने वाले चावल की खबर नहीं उसने पड़ोस के किसी दूसरे सेठ को देखा कि यह धान के व्यापार से इतना अधिक धनी बना तो उसकी देखादेखी किसी धान मिल से धान के छिलके उसी भाव में खरीद डाले जिस भाव में धान थे । उसे तो धान के रूप का पता था, उसके भीतर स्थित चावल का नहीं । देखा होगा कि कुछ मशीनें ऐसी भी होती हैं जिनमें धान कूटने से चावल निकल जाता है और छिलका समूचा रह जाता है । तो उसने वह छिलका खरीद तो डाला धानों के भाव में, पर बेचा तो घाटा हुआ । तो वह घाटा क्यों हुआ? इसलिए कि आंतरिक चावल का उसे पता न था, ज्ञान न था जो कि धान के भीतर चाँवल होता है । ठीक इसी प्रकार जो अजानी जीव अपने आत्मा के स्वरूप का ज्ञान नहीं रखता वह बाहरी क्रियाओं में उलझ जाता और उससे कुछ लाभ नहीं उठा पाता । नग्न भी हो गया, तपश्चरण भी खूब किया, एक बार खाया, ईर्यासमिति से चला―बाहरी सब क्रियायें कर डालीं, पर सहज एक आत्मा की सुध न होने से वह मूढ़ रहा, बहिरात्मा रहा । वह भीतर शांति न पा सका, मोक्षमार्ग में वह चल न सका बढ़ न सका ।
816―अंत: यथार्थ ज्ञानप्रयोग में ही धर्म का लाभ―भैया धर्म के लिए कुछ भीतर ही प्रयोग करना है भीतर ही समझ बनाना है । विशुद्धजानन क्रिया क्या है, उसको समझे । और नहीं तो सबका ख्याल छोड़ दें, विश्राम से बैठ जावें, ऐसी ही सरलता अपनावें तो बस अपने को निरखकर यह मैं ज्ञानमात्र, बाकी सब कर्मरस है कर्मलीला है, उनमें मैं क्यों जुटूं ? जो ऐसा सोच रहा है कि कर्मरस में भी में क्यों जुटूं, उसका इन बाहरी पदार्थों का जोड़ना तो छूट ही गया । जब वह कर्मरस मे ही जुटना नहीं चाहना तो इसमें जुटेगा क्या? उसको तो एक सही जाननक्रिया की स्थिति होती है । तो यह जानन की क्रिया और विकल्प की क्रिया इन दोनों में परस्पर विरोध हे । ज्ञप्ति में करोति नहीं जब करोति में ज्ञप्ति नहीं ये दोनों ही क्रियायें परस्पर भिन्न हैं तो यह निश्चित हो गया कि जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं, जो कर्ता है वह ज्ञाता नहीं, कर्ता मत बनो । सर्व जगत के ज्ञातामात्र रहो तो इसमें अपने आपकी रक्षा है और यह ही अपने आपकी बड़ी विभूति है ।