GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 100 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[कालोत्ति य ववदेसो] 'काल' ऐसा व्यपदेश, संज्ञा, नाम । वह नाम क्या करता है ? [सब्भावपरूवगो हवदि] 'काल' ऐसे वाचक-भूत दो अक्षरों द्वारा अपने वाच्य-भूत परमार्थ-काल के सद्भाव का निरूपण होता है । किसके समान क्या निरूपित है ? 'सिंह' शब्द से 'सिंह-स्वरूप' के निरूपण-समान, 'सर्वज्ञ' शब्द से 'सर्वज्ञ-स्वरूप' के निरूपण-समान, 'काल' शब्द से काल की सत्ता निरूपित है । इस प्रकार अपने स्वरूप का निरूपण करता हुआ वह कैसा है ? [णिच्चो] यद्यपि 'काल' -- ये दो अक्षर, अक्षर रूप से नित्य नहीं हैं; तथापि काल शब्द से वाच्य जो द्रव्य-काल का स्वरूप है, उससे वह नित्य है ऐसा निश्चय-काल जानना चाहिए । [अवरो] अपर / दूसरा व्यवहार-काल है । वह किस रूप वाला है ? [उप्पण्णप्पद्धंसी] यद्यपि वर्तमान समय की अपेक्षा उत्पन्न-प्रध्वंसी है; तथापि पूर्वापर समयों की सन्तान / परम्परा अपेक्षा व्यवहार-नय से [दीहंतरट्ठाई] आवलिका, पल्योपम, सागरोपम आदि रूप से दीर्घान्तर स्थायीत्व घटित होता है इसमें दोष नहीं है । इसप्रकार नित्य-क्षणिक रूप से निश्चय-व्यवहार काल जानना चाहिए ।
अथवा प्रकारान्तर से निश्चय-व्यवहार काल का स्वरूप कहते हैं । वह इसप्रकार -- अनाद्यनिधन, समय आदि कल्पना भेद से रहित, कालाणु-द्रव्य रूप से व्यवस्थित, वर्णादि मूर्ति-रहित निश्चय-काल है; उसकी ही पर्याय-भूत, सादि-सनिधन, समय-निमिष-घड़ी आदि विवक्षित कल्पना भेद-रूप व्यवहार-काल है ॥१०८॥
इसप्रकार निर्विकार निजानन्द सुस्थित चित् चमत्कार-मात्र की भावना में रत भव्यों की बहिरंग-काल-लब्धि-भूत निश्चय-व्यवहार काल के निरूपण की मुख्यता से चतुर्थ-स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुईं ।