GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 118 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह उक्त (-पहले कहे गये) जीवविस्तार का उपसंहार है ।
जिनके प्रकार (पहले) कहे गये ऐसे समस्त संसारी देह में वर्तने वाले (अर्थात् देहसहित) हैं, देह में नहीं वर्तने वाले (अर्थात् देहरहित) ऐसे सिद्धभगवन्त हैं- जो कि शुद्ध जीव हैं। वहाँ, देह में वर्तने की अपेक्षा से संसारी जीवों का एक प्रकार होने पर भी वे भव्य और अभव्य ऐसे दो प्रकार के हैं। १'पाच्य' और २'अपाच्य' मूँग की भाँति, जिनमें शुद्ध स्वरूप की ३उपलब्धि की शक्ति का सद्भाव है उन्हें 'भव्य' और जिनमें शुद्ध स्वरूप की शक्ति का असद्भाव है उन्हें 'अभव्य' कहा जाता है ॥११८॥
१पाच्य = पकने योग्य, रंधने योग्य, सीझने योग्य, कोरा न हो ऐसा ।
२अपाच्य = नहीं पकने योग्य, रंधने-सीझने की योग्यता रहित, कोरा ।
३उपलब्धि = प्राप्ति, अनुभव