GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 126-128 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
इस लोक में संसारी जीव से अनादि बन्धन रूप उपाधि के वश स्निग्ध परिणाम होता है, परिणाम से पुद्गल-परिणामात्मक कर्म, कर्म से नरकादि गतियों में गमन, गति की प्राप्ति से देह, देह से इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से विषयग्रहण, विषयग्रहण से रागद्वेष, रागद्वेष से फ़िर स्निग्ध परिणाम, परिणाम से फ़िर पुद्गल-परिणामात्मक कर्म, कर्म से फ़िर नरकादि गतियों में गमन, गति की प्राप्ति से फ़िर देह, देह से फ़िर इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से फ़िर विषय-ग्रहण, विषय-ग्रहण से फ़िर राग-द्वेष, राग-द्वेष से फ़िर पुनः स्निग्ध परिणाम । इस प्रकार यह अन्योन्य १कार्य-कारण-भूत जीव-परिणामात्मक और पुद्गल-परिणामात्मक कर्म-जाल संसार-चक्र में जीव को अनादि-अनन्त-रूप से अथवा अनादि-सान्त-रूप से चक्र की भाँति पुनः-पुनः होते रहते हैं ।
इस प्रकार यहाँ (ऐसा कहा कि), पुद्गल-परिणाम जिनका निमित्त है ऐसे जीव-परिणाम और जीव-परिणाम जिनका निमित्त है ऐसे पुद्गल-परिणाम अब आगे कहे जाने वाले (पुण्यादि सात) पदार्थों के बीज-रूप अवधारना ॥१२६-१२८॥
अब पुण्य-पाप पदार्थ का व्याख्यान है।
१कार्य अर्थात नैमित्तिक, और कारण अर्थात निमित्त। (जीव-परिणामात्मक कर्म और पुद्गल-परिणामात्मक कर्म परस्पर कार्य-कारण-भूत अर्थात नैमित्तिक-निमित्तभूत हैं। वे कर्म किसी जीव को अनादि-अनन्त और किसी जीव को अनादि-सान्त होते हैं।)