GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 138 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
- [सण्णाओ] आहार आदि संज्ञा रहित शुद्ध चैतन्य परिणति से भिन्न आहार, भय, मैथुन, परिग्रह -- ये चार संज्ञायें;
- [तिलेस्सा] कषाय-योग-दोनों के अभाव रूप विशुद्ध चैतन्य प्रकाश से पृथग्भूत कषाय के उदय से रंजित योग-प्रवृत्ति लक्षण तीन कृष्ण, नील, कापोत लेश्यायें;
- [इन्दियवसदा य] स्वाधीन अतीन्द्रिय सुखास्वाद परिणति की प्रच्छादिका-रूप पंचेन्द्रिय विषयों की अधीनता;
- [अट्टरुद्दाणि] समस्त विभावों की आकांक्षा से रहित शुद्ध चैतन्य भावना का प्रतिबंधक इष्ट संयोग, अनिष्ट-वियोग, व्याधि-विनाश, भोग-निदान की आकांक्षा रूप से उद्रेक, भाव प्रचुरता-मय चार प्रकार का आर्तध्यान;
- क्रोधावेश से रहित शुद्धात्मा की अनुभूति रूप भावना से पृथग्भूत क्रूरचित्त से उत्पन्न हिंसा, असत्य, चोरी, विषयसंरक्षण से आनन्दरूप चार प्रकार का रौद्रध्यान;
- [णाणं च दुप्पउत्तं] शुभ-शुद्ध- दोनों उपयोगों को छोडकर मिथ्यात्व-रागादि के अधीन होने से अन्यत्र दुष्ट भाव में प्रवृत्त ज्ञान दुष्प्रयुक्त ज्ञान;
- [मोहो] मोह के उदय से उत्पन्न ममत्व आदि विकल्प-जाल से रहित स्व-संवित्ति का विनाशक दर्शन और चारित्र मोह,
इसप्रकार द्रव्य-पापास्रव के कारणभूत पूर्व सूत्र में कहे गए भाव-पापास्रव का विस्तार जानना चाहिए, ऐसा अभिप्राय है ॥१४८॥
दूसरी बात यह है कि पुण्य-पाप दोनों का पहले व्याख्यान किया जा चुका है, वह ही पर्याप्त था, पुण्य-पाप आस्रव का व्याख्यान किसलिए किया? ऐसा प्रश्न होने पर परिहार कहते हैं / करते हैं -- जलप्रवेश द्वार से जल आस्रव के समान पुण्य-पाप दोनों आस्रवित होते हैं, आते हैं; इस कारण उन्हें आस्रव कहा । यहाँ आगमन मुख्य है; परन्तु वहाँ तो पुण्य-पाप दोनों के आगमन के बाद स्थिति-अनुभाग बंध रूप से अवस्थान मुख्य है, इतना दोनों में अन्तर है ।
इसप्रकार नौ पदार्थ-प्रतिपादक द्वितीय महाधिकार में पुण्य-पाप आस्रव के व्याख्यान की मुख्यता वाली छह गाथाओं के समुदाय द्वारा छठवाँ अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।
अब ख्याति, पूजा, लाभ, दृष्ट, श्रुत, अनुभूत / भोगों की आकांक्षारूप निदान बन्ध आदि समस्त शुभ-अशुभ संकल्प-विकल्प से रहित शुद्धात्म-संवित्ति लक्षण परम उपेक्षा संयम से साध्य संवर के व्याख्यान में [इंदियकसाय] इत्यादि तीन गाथा द्वारा समुदाय-पातनिका है ।