GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 44 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, द्रव्य और गुणों के स्वोचित अनन्य-पने का कथन है (अर्थात् द्रव्य और गुणों को कैसा अनन्य-पना घटित होता है, वह यहाँ कहा है )।
द्रव्य और गुणों को १अविभक्त-प्रदेशत्व-स्वरूप अनन्य-पना स्वीकार किया जाता है; परन्तु विभक्त-प्रदेशत्व-स्वरूप अन्य-पना तथा (विभक्त-प्रदेशत्व-स्वरूप) अनन्य-पना स्वीकार नहीं किया जाता । वह स्पष्ट समझाया जाता है :- जिस प्रकार एक परमाणु को एक स्व-प्रदेश के साथ अविभक्त-पना होने से अनन्य-पना है, उसी प्रकार एक परमाणु को तथा उसमें रहने-वाले स्पर्श-रस-गंध-वर्ण आदि गुणों को अविभक्त प्रदेश होने से (अविभक्त-प्रदेशत्व-स्वरूप) अनन्य-पना है; परन्तु जिस प्रकार अत्यन्त दूर ऐसे २सह्य और विंध्य को विभक्त-प्रदेशत्व-स्वरूप अन्य-पना है तथा अत्यन्त निकट ऐसे मिश्रित ३क्षीर-नीर को विभक्त-प्रदेशत्व-स्वरूप अनन्य-पना है, उसी प्रकार द्रव्य और गुणों को विभक्त-प्रदेश न होने से (विभक्त-प्रदेशत्व-स्वरूप) अन्य-पना तथा (विभक्त-प्रदेशत्व-स्वरूप) अनन्य-पना नहीं है ॥४४॥
१अविभक्त = अभिन्न (द्रव्य और गुणों के प्रदेश अभिन्न है इसलिए द्रव्य और गुणों को अभिन्न-प्रदेशत्व-स्वरूप अनन्य-पना है) ।
२अत्यन्त दूर स्थित सह्य और विंध्य नाम के पर्वतों को भिन्न-प्रदेश्त्व-स्वरूप अनन्य-पना है ।
३अत्यन्त निकट स्थित मिषित दूध-जल को भिन्न-प्रदेशत्व-स्वरूप अनन्य-पना है । द्रव्य और गुणों को ऐसा अनन्य-पना नहीं है, किन्तु अभिन्न-प्रदेशत्व-स्वरूप अनन्य-पना है ।