GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 156 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
जो इत्यादि पदखण्डना रूप से व्याख्यान करते हैं -- सो कर्ता रूप वह सगचरियं चरदि निजशुद्धात्मा की सम्वित्ति, अनुचरणरूप, परमागम भाषा से वीतराग परम सामायिक नामक स्वचारित्रमय आचरण करता है, अनुभव करता है । ऐसा करने वाला कौन है ? जीवो वह जीव है । वह कैसा जीव है ? जो सव्वसंगमुक्को जो सर्वसंग से मुक्त है; तीन लोक-तीन काल में होने पर भी मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा समस्त बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त, रहित, शून्य होते हुए भी निस्संग परमात्मा की भावना से उत्पन्न सुन्दर आनन्द स्यंदि परमानन्द एक लक्षण सुख-सुधारस के आस्वाद से पूर्ण भरे हुए कलश के समान सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में भरितावस्थ है । और वह किस विशेषता वाला है ? अणण्णमणो अनन्य मन है; कापोतलेश्या आदि सम्बंधी दृष्ट, श्रुत, अनुभूत भोगों की आकांक्षा आदि समस्त परभावों से उत्पन्न विकल्पजालों से रहित होने के कारण एकाग्र मन वाला है । ऐसा वह और क्या करता है? जाणदि जानता है; स्व-पर को परिच्छित्ति के आकार से प्राप्त करता है / जानता है। पस्सदि देखता है; निर्विकल्प रूप से अवलोकन करता है । णियदं निश्चित रूप में । वह किसे जानता-देखता है? अप्पणं निज आत्मा को जानता-देखता है । उसे किससे जानता-देखता है ? सहावेण स्वभाव से, निर्विकार चैतन्य चमत्कार रूप प्रकाश से जानता-देखता है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि विशुद्ध ज्ञान-दर्शन लक्षण जीव-स्वभाव में निश्चल अवस्थान मोक्षमार्ग है ॥१६६॥