GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 161 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
जेण कर्तारूप यह जीव लोकालोक को प्रकाशित करनेवाले जिस ज्ञान द्वारा विजाणदिसंशय, विपर्यय, अनध्यवसाय से रहित होने के कारण विशेषरूप से जानता है, सब ओर से पूर्ण जानकारी करता है । किसे जानता है ? सव्वं सभी को, तीन लोक-तीन कालवर्ती वस्तुसमूह को जानता है । मात्र जानता ही नहीं है अपितु पेच्छदि लोकालोक को प्रकाशित करनेवाले सत्तावलोकन रूप जिस केवलदर्शन द्वारा देखता है; सो तेण सोक्खमणुभवदि वह जीव उन्हीं केवल-ज्ञान-दर्शन -- दोनों द्वारा निरन्तर उनसे अभिन्न सुख का अनुभव करता है । इदि तं जाणदि भवियो इस पूर्वोक्त प्रकार से उस अनन्त सुख को जानता है, उपादेयरूप से उसका श्रद्धान करता है और अपने-अपने गुणस्थान के अनुसार उसका अनुभव करता है । ऐसा करने वाला वह कौन है ? वह भव्य है । अभव्वसत्तो ण सद्दहदि अभव्य जीव उसका श्रद्धान नहीं करता है ।
वह इसप्रकार -- मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों का और यथासंभव चारित्रमोह का उपशम, क्षयोपशम या क्षय होने पर यद्यपि भव्य जीव अपने-अपने गुणस्थानानुसार हेय बुद्धि से विषयसुख का अनुभव करता है; तथापि निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न अतीन्द्रिय सुख को ही उपादेय मानता है; परंतु अभव्य उसे स्वीकार नहीं करता है । वह स्वीकार क्यों नहीं करता है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर देते हैं -- उसके पूर्वोक्त दर्शन-चारित्र मोहनीय के उपशमादि सम्भव नहीं हैं, इसलिए वह उसे स्वीकार नहीं करता है तथा उसीकारण वह अभव्य है, ऐसा भावार्थ है ॥१७१॥
इसप्रकार भव्य-अभव्य के स्वरूप-कथन की मुख्यता से सातवें स्थल में गाथा पूर्ण हुई ।