GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 163 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि शुद्धात्मा की परिच्छित्ति से विलक्षण अज्ञान के कारण कर्तारूप ज्ञानी यदि मानता है । वह क्या मानता है? हवदित्ति दुक्खमोक्खो अपने स्वभाव से उत्पन्न सुख से प्रतिकूल दु:ख का मोक्ष, विनाश होता है ऐसा मानता है । वह ऐसा किससे होना मानता है ? सुद्धसंपयोगादो शुद्धों में, शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव में अथवा शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव के आराधक अरहन्तादि में सम्प्रयोग, भक्ति-शुद्ध सम्प्रयोग है; उस शुद्ध सम्प्रयोग से मोक्ष होना मानता है । तब वह कैसा होता है ? परसमयरदो हवदि उस समय परसमयरत होता है, जीवो वह पूर्वोक्त ज्ञानी जीव ।
वह इसप्रकार-कोई पुरुष निर्विकार शुद्धात्मभावना लक्षण परम उपेक्षा संयम में स्थित रहने का प्रयत्न करता है । उसमें असमर्थ होता हुआ काम, क्रोध आदि अशुद्ध परिणामों से बचने के लिए अथवा संसार की स्थिति का छेद करने के लिए जब पंच-परमेष्ठियों में गुण-स्तवन आदि रूप भक्ति करता है; तब सूक्ष्म परसमय परिणत होता हुआ सराग सम्यग्दृष्टि होता है और यदि शुद्धात्म-भावना में समर्थ होने पर भी उसे छोडकर शुभोपयोग से ही मोक्ष होता है ऐसा मानता है, तब स्थूल परसमय परिणाम के कारण अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होता है । -- इससे यह निश्चित हुआ कि अज्ञान से जीव का नाश होता है । वैसा ही कहा भी है --
'कुछ अज्ञान के कारण नष्ट हैं, कुछ प्रमाद के कारण नष्ट हैं, कुछ ज्ञान के अवलेप से नष्ट हो रहे हैं और कुछ नष्टों द्वारा नष्ट किए जा रहे हैं।' ॥१७३॥