GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 95 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
धम्माधम्मागासा धर्म, अधर्म, लोकाकाश द्रव्य हैं । वे किस विशेषतावाले हैं ? अपुधब्भूदा समाणपरिमाणा व्यवहारनय से अपृथग्भूत और समान परिमाणवाले हैं । और किस रूप वाले हैं ? पुधगुवलद्धविसेसा निश्चय की अपेक्षा पृथक् रूप से उपलब्ध विशेषवान हैं । ऐसे होते हुए क्या करते हैं ? करेंति करते हैं, एयत्तमण्णत्तं व्यवहार से एकत्व और निश्चय से अन्यत्व करते हैं ।
वह इसप्रकार -- जैसे यह जीव, पुद्गलादि पाँच द्रव्यों और शेष जीवान्तरों के साथ एक क्षेत्रावगाही होने के कारण व्यवहार से एकत्व करता है; परन्तु निश्चय से समस्त वस्तु-गत अनन्त धर्मों को एकसाथ प्रकाशित करनेवाले परम चैतन्य विलास लक्षण ज्ञान-गुण द्वारा भिन्नत्व करता है; उसीप्रकार धर्म, अधर्म, लोकाकाश द्रव्य एक क्षेत्रावगाह के कारण अभिन्न होने से और समान परिमाणी होने से उपचरित असद्भूत व्यवहार की अपेक्षा परस्पर एकत्व करते हैं; तथा निश्चय-नय की अपेक्षा गति, स्थिति, अवगाह रूप अपने-अपने लक्षणों द्वारा नानात्व / भिन्नत्व करते हैं, ऐसा सूत्रार्थ है ॥१०३॥
इस प्रकार 'पंचास्तिकाय षड्द्रव्य प्रतिपादक प्रथम महाधिकार' में सात गाथा पर्यंत तीन स्थल द्वारा 'आकाशास्तिकाय व्याख्यान रूप सातवाँ अन्तराधिकार' पूर्ण हुआ ।
तत्पश्चात् (आठवें अन्तराधिकार में) आठ गाथा पर्यन्त पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य का चूलिका व्याख्यान करते हैं वहाँ आठ गाथाओं में से
- चेतनत्व-अचेतनत्व, मूर्तत्व-अमूर्तत्व के प्रतिपादन की मुख्यता से आयास.. इत्यादि एक गाथासूत्र है ।
- इसके बाद सक्रिय-निष्क्रियत्व की मुख्यता से जीवा-पोग्गलकाया इत्यादि एक सूत्र है;
- तदुपरान्त प्रकारान्तर से मूर्त-अमूर्तत्व कथन की मुख्यता से जे खलु इन्दियगेज्जा इत्यादि एक सूत्र है ।
- तदनन्तर नवीन-पुरानी पर्यायादि स्थिति-रूप व्यवहार-काल, जीव-पुद्गलादि की पर्यायों के परिणमन में सहकारी कारण-भूत कालाणु रूप निश्चय-काल, इसप्रकार दो कालों के व्याख्यान की मुख्यता से कालो परिणामभवो इत्यादि दो गाथायें हैं ।
- उसी काल के द्रव्य का लक्षण सम्भव / सम्यक् प्रकार से घटित होने के कारण द्रव्यत्व, द्वितीयादि प्रदेश का अभाव होने से अकायत्व, इस प्रतिपादन की मुख्यता से एदे कालागासा इत्यादि एक सूत्र है ।
- इसके बाद पंचास्तिकाय के अन्तर्गत केवल-ज्ञान-दर्शन-रूप शुद्ध जीवास्तिकाय के निश्चय मोक्ष-मार्ग-भूत वीतराग निर्विकल्प-समाधि-रूप परिणमन के समय भावना / तद्रूप परिणमन के फल प्रतिपादनरूप से एवं पवयणसारं.. इत्यादि दो गाथायें हैं ।