ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 5
From जैनकोष
पंचमं पर्व
तदनंतर, किसी दिन राजा महाबल की जन्मगाँठ का उत्सव हो रहा था । वह उत्सव मंगलगीत, वादित्र तथा नृत्य आदि के आरंभ से भरा हुआ था ।।1।। उस समय विद्याधरों के अधिपति राजा महाबल सिंहासन पर बैठे हुए थे । अनेक वारांगनाएँ उन पर क्षीरसमुद्र के समान श्वेतवर्ण चामर ढोर रही थीं ।।2।। उनके समीप खड़ी हुई वे तरुण स्त्रियाँ ऐसी मालूम होती थीं मानो कामदेवरूपी वृक्ष की मंजरियाँ ही हों, अथवा सौंदर्यरूपी सागर की तरंग ही हों अथवा सुंदरता की कलिकाएँ ही हों ।।3।। अपने-अपने विशाल वक्षःस्थलों से समीप के प्रदेश को आच्छादित करने वाले तथा मुकुटों से शोभायमान अनेक विद्याधर राजा महाबल को घेरकर बैठे हुए थे । उनके बीच में बैठे हुए महाबल ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो अनेक पर्वतों से घिरा हुआ या उनके बीच में स्थित सुमेरुपर्वत ही हो ।।4।। उनके वक्षःस्थल पर चंद्रमा के समान उज्ज्वल कांति का धारक―श्वेत हार पड़ा हुआ था जो कि हिमवत् पर्वत के शिखर पर पड़ते हुए झरने के समान शोभायमान हो रहा था ।।5।। जिस प्रकार विस्तृत आकाश में जलकाय के इधर-उधर चलती हुई हंसों की पंक्ति शोभायमान होती है उसी प्रकार राजा महाबल के विस्तीर्ण वक्षःस्थल पर इंद्रनीलमणि से सहित मोतियों की कंठी शोभायमान हो रही थी ।।6।। उस समय मंत्री, सेनापति, पुरोहित, सेठ तथा अन्य अधिकारी लोग राजा महाबल को घेरकर बैठे हुए थे ।।7।। वे राजा किसी के साथ हंसकर, किसी के साथ संभाषण कर, किसी को स्थान देकर, किसी को दान देकर, किसी का सम्मान कर और किसी की ओर आदरसहित देखकर उन समस्त सभासदों को संतुष्ट कर रहे थे ।।8।। वे महाबल संगीत आदि अनेक कलाओं के जानकार विद्वान् पुरुषों की गोष्ठी का बार-बार अनुभव करते जाते थे । तथा श्रोताओं के समक्ष कलाविद् पुरुष परस्पर में जो स्पर्धा करते थे उसे भी देखते जाते थे । इसी बीच में सामंतों-द्वारा भेजे हुए दूतों को द्वारपालों के हाथ बुलवाकर उनका बार-बार यथायोग्य सत्कार कर लेते थे । तथा अन्य देशों के राजाओं के प्रतिष्ठित पुरुषों-द्वारा लायी हुई भेंट का अवलोकन कर उनका सम्मान भी करते जाते थे । इस प्रकार परम आनंद को विस्तृत करते हुए, आश्चर्यकारी विभव से सहित वे महाराज महाबल मंत्रिमंडल के साथ-साथ स्वेच्छानुसार सभामंडप में बैठे हुए थे ।।9-12।। उस समय तीक्ष्णबुद्धि के धारक तथा इष्ट और मनोहर वचन बोलने वाले स्वयंबुद्ध मंत्री ने राजा को अतिशय प्रसन्न देखकर स्वामी का हित करने वाले नीचे लिखे वचन कहे ।।13।। हे विद्याधरों के स्वामी, जरा इधर सुनिए, मैं आपके कल्याण करने वाले कुछ वचन कहूँगा । हे प्रभो, आपको जो यह विद्याधरों की लक्ष्मी प्राप्त हुई है उसे आप केवल पुण्य का ही फल समझिए ।।14।। हे राजन् धर्म से इच्छानुसार संपत्ति मिलती है, उससे इच्छानुसार सुख की प्राप्ति होती है और उससे मनुष्य प्रसन्न रहते हैं इसलिए यह परंपरा केवल धर्म से ही प्राप्त होती है ।।15।। राज्य, संपदा, भोग, योग्य कुल में जन्म, सुंदरता, पांडित्य, दीर्घ आयु और आरोग्य, यह सब पुण्य का ही फल समझिए ।।16।। हे विभो, जिस प्रकार कारण के बिना कभी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, दीपक के बिना कभी किसीने कहीं प्रकाश नहीं देखा, बीज के बिना अंकुर नहीं होता, मेघ के बिना वृष्टि नहीं होती और छत्र के बिना छाया नहीं होती उसी प्रकार धर्म के बिना संपदाएँ प्राप्त नहीं होतीं ।।17-18।। जिस प्रकार विष खाने से जीवन नहीं होता, ऊसर जमीन से धान्य उत्पन्न नहीं होते और अग्नि से आह्लाद उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार अधर्म से सुख की प्राप्ति नहीं होती ।।19।। जिससे स्वर्ग आदि अभ्युदय तथा मोक्षपुरुषार्थ की निश्चित रूप से सिद्धि होती है उसे धर्म कहते हैं । हे राजन् मैं इस समय उसी धर्म का विस्तार के साथ वर्णन करता हूँ उसे सुनिए ।।20।। धर्म वही है जिसका मूल दया हो और संपूर्ण प्राणियों पर अनुकंपा करना दया है । इस दया की रक्षा के लिए ही उत्तम क्षमा आदि शेष गुण कहे गये हैं ।।21।। इंद्रियों का दमन करना, क्षमा धारण करना, हिंसा नहीं करना, तप, ज्ञान, शील, ध्यान और वैराग्य ये उस दयारूप धर्म के चिह्न हैं ।।22।। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह का त्याग करना ये सब सनातन (अनादिकाल से चले आये) धर्म कहलाते हैं ।।23।। इसलिए हे महाभाग, राज्य आदि समस्त विभूति को धर्म का फल जानकर उसके अभिलाषी पुरुषों को अपनी दृष्टि हमेशा धर्म में स्थिर रखनी चाहिए ।।24।। हे बुद्धिमन् यदि आप इस चंचल लक्ष्मी को स्थिर करना चाहते हैं तो आपको यह अहिंसादि रूप धर्म मानना चाहिए तथा शक्ति के अनुसार उसका पालन भी करना चाहिए ।।25।। इस प्रकार स्वामी का कल्याण चाहने वाला स्वयंबुद्ध मंत्री जब धर्म से सहित, अर्थ से भरे हुए और यश को बढ़ाने वाले वचन कहकर चुप हो रहा तब उसके वचनों को सुनने के लिए असमर्थ महामति नाम का दूसरा मिथ्यादृष्टि मंत्री नीचे लिखे अनुसार बोला ।।26-27।। महामति मंत्री, भूतवाद का आलंबन कर चार्वाक मत का पोषण करता हुआ जीवतत्त्व के विषय में दूषण देने लगा ।।28।। वह बोला―हे देव, धर्मों के रहते हुए ही उसके धर्म का विचार करना संगत (ठीक) होता है परंतु आत्मा नामक धर्मी का अस्तित्व सिद्ध नहीं है इसलिए धर्म का फल कैसे हो सकता है ? ।।29।। जिस प्रकार महुआ, गुड़, जल आदि पदार्थों के मिला देने से उसमें मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथिवी, जल, वायु और अग्नि के संयोग से उनमें चेतना उत्पन्न होती है ।।30।। इसलिए इस लोक में पृथिवी आदि तत्त्वों से बने हुए हमारे शरीर से पृथक् रहने वाला चेतना नाम का कोई पदार्थ नहीं है क्योंकि शरीर से पृथक् उसकी उपलब्धि नहीं देखी जाती । संसार में जो पदार्थ प्रत्यक्षरूप से पृथक् सिद्ध नहीं होते उनका अस्तित्व नहीं माना जाता, जैसे कि आकाश के फूल का ।।31।। जब कि चेतनाशक्ति नाम का जीव पृथक् पदार्थ सिद्ध नहीं होता तब किसी के पुण्य-पाप और परलोक आदि कैसे सिद्ध हो सकते हैं शरीर का नाश हो जाने से ये जीव जल के बबूले के समान एक क्षण में विलीन हो जाते हैं ।।32।। इसलिए जो मनुष्य प्रत्यक्ष का सुख छोड़कर परलोक संबंधी सुख चाहते हैं वे दोनों लोकों के सुख से च्युत होकर व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं ।।33।। अत एव वर्त्तमान के सुख छोड़कर परलोक के सुख की इच्छा करना ऐसा है जैसे कि मुख में आये हुए मांस को छोड़कर मोहवश किसी शृगाल का मछली के लिए छलाँग भरना है । अर्थात् जिस प्रकार शृगाल मछली की आशा से मुख में आये हुए मांस को छोड़कर पछताता है उसी प्रकार परलोक के सुखों की आशा से वर्तमान के सुखों को छोड़ने वाला पुरुष भी पछताता है ‘आधी छोड़ एक को धावै, ऐसा डूबा थाह न पावैं ।।34।। परलोक के सुखों की चाह से ठगाये हुए जो मूर्ख मानव प्रत्यक्ष के भागों को छोड़ देते हैं वे मानो सामने परोसा हुआ भोजन छोड़कर हाथ ही चाटते हैं अर्थात् परोक्ष सुख की आशा से वर्तमान के सुख छोड़ना भोजन छोड़कर हाथ चाटने के तुल्य है ।।35।।
इस प्रकार भूतवादी महामति मंत्री अपने पक्ष की युक्तियाँ देकर जब चुप हो रहा तब बात करने की खुजली से उत्पन्न हुए कुछ हास्य को धारण करने वाला संभिन्नमति नाम का तीसरा मंत्री भी केवल विज्ञानवाद का आश्रय लेकर जीव का अभाव सिद्ध करता हुआ नीचे लिखे अनुसार अपने मत की सिद्धि करने लगा ।।36-37।। वह बोला―हे जीववादिन् स्वयंबुद्ध, आपका कहा हुआ जीव नाम का कोई पृथक् पदार्थ नहीं है क्योंकि उसकी पृथक् उपलब्धि नहीं होती । यह समस्त जगत् विज्ञानमात्र है क्योंकि क्षणभंगुर है । जो-जो क्षण―भंगुर होते हैं वे सब ज्ञान के विकार होते हैं । यदि ज्ञान-विकार न होकर स्वतंत्र पृथक पदार्थ होते तो वे नित्य होते, परंतु संसार में कोई नित्य पदार्थ नहीं है इसलिए वे सब ज्ञान के विकारमात्र हैं ।।38।। वह विज्ञान निरंश है―अवांतर भागों से रहित है, बिना परंपरा उत्पन्न किये ही उसका नाश हो जाता है और वेद्य-वेदक तथा संवित्तिरूप से भिन्न प्रकाशित होता है । अर्थात् वह स्वभावत: न तो किसी अन्य ज्ञान के द्वारा जाना जाता है और न किसी को जानता ही है, एक क्षण रहकर समूह नष्ट हो जाता है ।।39।। वह ज्ञान नष्ट होने के पहले ही अपनी सांवृतिक संतान छोड़ जाता है जिससे पदार्थों का स्मरण होता रहता है । वह संतान अपने संतानी ज्ञान से भिन्न नहीं है ।।40।। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि विज्ञान की संतान प्रतिसंतान मान लेने से पदार्थ का स्मरण तो सिद्ध हो जायेगा परंतु प्रत्यभिज्ञान सिद्ध नहीं हो सकेगा । क्योंकि प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि के लिए पदार्थ को
अनेक क्षणस्थायी मानना चाहिए जो कि आपने माना नहीं है । पूर्व क्षण में अनुभूत पदार्थ का द्वितीयादि क्षण में प्रत्यक्ष होने पर जो जोड़रूप ज्ञान होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । उक्त प्रश्न का समाधान इस प्रकार है-क्षणभंगुर पदार्थ में जो प्रत्यभिज्ञान आदि होता है वह वास्तविक नहीं है किंतु भ्रांत है । जिस प्रकार की काटे जाने पर फिर से बड़े हुए नखों और केशों में ये वे ही नख केश हैं इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान भ्रांत होता है ।।41।। [संसार) स्कंध दुःख कहे जाते हैं । वे स्कंध विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप के भेद से पाँच प्रकार के कहे गये हैं । पाँचों इंद्रियाँ, शब्द आदि उनके विषय, मन और धर्मायतन (शरीर) ये बारह आयतन हैं । जिस आत्मा और आत्मीय भाव से संसार में रुलाने वाले रागादि उत्पन्न होते हैं उसे समुदय सत्य कहते हैं । ‘सब पदार्थ क्षणिक हैं’ इस प्रकार की क्षणिक नैरात्म्यभावना मार्ग सत्य है तथा इन स्कंधों के नाश होने को निरोध अर्थात् मोक्ष कहते हैं ।।41।। इसलिए विज्ञान की संतान से अतिरिक्त जीव नाम का कोई पदार्थ नहीं है जो कि परलोकरूप फल को भोगने वाला हो ।।42।। अतएव परलोक संबंधी दुःख दूर करने के लिए प्रयत्न करने वाले पुरुषों का परलोकभय वैसा ही है जैसा कि टिटिहरी को अपने ऊपर आकाश के पड़ने का भय होता है ।।43।।
इस प्रकार विज्ञानवादी संभिन्नमति मंत्री जब अपना अभिप्राय प्रकट कर चुप हो गया तब अपनी प्रशंसा करता हुआ शतमति नाम का चौथा मंत्री नैरात्म्यवाद (शून्यवाद) का आलंबन कर नीचे लिखे अनुसार कहने लगा ।।44।। यह समस्त जगत् शून्यरूप है । इसमें नर, पशु-पक्षी, घट-पट आदि पदार्थों का जो प्रतिभास होता है वह सब मिथ्या है । भ्रांति से ही वैसा प्रतिभास होता है जिस प्रकार स्वप्न अथवा इंद्रजाल आदि में हाथी आदि का मिथ्या प्रतिभास होता है ।।45।। इसलिए जब कि सारा जगत् मिथ्या है तब तुम्हारा माना हुआ जीव कैसे सिद्ध हो सकता है और उसके अभाव में परलोक भी कैसे सिद्ध हो सकता है क्योंकि यह सब गंधर्वनगर की तरह असत् स्वरूप है ।।46।। अत: जो पुरुष परलोक के लिए तपश्चरण तथा अनेक अनुष्ठान आदि करते हैं वे व्यर्थ ही क्लेश को प्राप्त होते हैं । ऐसे जीव यथार्थज्ञान से रहित हैं ।।47।। जिस प्रकार ग्रीष्मऋतु में मरुभूमि पर पड़ती हुई सूर्य की चमकीली किरणों को जल समझकर मृग व्यर्थ ही दौड़ा करते हैं उसी प्रकार ये भोगाभिलाषी मनुष्य परलोक के सुखों को सच्चा सुख समझकर व्यर्थ ही दौड़ा करते हैं―उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं ।।48।। इस प्रकार खोटे दृष्टांत और खोटे हेतुओं द्वारा सारहीन वस्तु का प्रतिपादन कर जब शतमति भी चुप हो रहा तब स्वयंबुद्ध मंत्री कहने के लिए उद्यत हुए ।।49।।
हे भूतवादिन्, ‘आत्मा नहीं है’ यह आप मिथ्या कह रहे हैं क्योंकि पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय के अतिरिक्त ज्ञानदर्शनरूप चैतन्य की भी प्रतीति होती है ।।50।। वह चैतन्य शरीररूप नहीं है और न शरीर चैतन्यरूप ही है क्योंकि दोनों का परस्पर विरुद्ध स्वभाव है । चैतन्य चित्स्वरूप हैं―ज्ञान दर्शनरूप है और शरीर अचित्स्वरूप हैं―जड़ है ।।51।। शरीर और चैतन्य दोनों मिलकर एक नहीं हो सकते क्योंकि दोनों में परस्पर विरोधी गुणों का योग पाया जाता है । चैतन्य का प्रतिभास तलवार के समान अंतरंगरूप होता है और शरीर का प्रतिभास म्यान के समान बहिरंगरूप होता है । भावार्थ―जिस प्रकार म्यान में तलवार रहती है । यहाँ म्यान और तलवार दोनों में अभेद नहीं होता उसी प्रकार ‘शरीर में चैतन्य है’ यहाँ शरीर और आत्मा में अभेद नहीं होता । प्रतिभास भेद होने से दोनों ही पृथक्-पृथक् पदार्थ सिद्ध होते हैं ।।52।। यह चैतन्य न तो पृथिवी आदि भूतचतुष्टय का कार्य है और न उनका कोई गुण ही है । क्योंकि दोनो की जातियाँ पृथक-पृथक् हैं । एक चैतन्यरूप है तो दूसरा जड़रूप है । यथार्थ में कार्यकारणभाव और गुणगुणीभाव सजातीय पदार्थों में ही होता है विजातीय पदार्थों में नहीं होता । इसके सिवाय एक कारण यह भी है कि पृथिवी आदि से बने हुए शरीर का ग्रहण उसके एक अंशरूप इंद्रियों के द्वारा ही होता है जब कि ज्ञानरूप चैतन्य का स्वरूप अतींद्रिय है―ज्ञानमात्र से ही जाना जाता है । यदि चैतन्य, पृथिवी आदि का कार्य अथवा स्वभाव होता तो पृथिवी आदि से निर्मित शरीर के साथ-ही-साथ इंद्रियों द्वारा उसका भी ग्रहण अवश्य होता, परंतु ऐसा होता नहीं है । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि शरीर और चैतन्य पृथक्-पृथक् पदार्थ हैं ।।53। वह चैतन्य शरीर का भी विकार नहीं हो सकता क्योंकि भस्म आदि जो शरीर के विकार है उनसे वह विसदृश होता है । यदि चैतन्य शरीर का विकार होता तो उसके भस्म आदि विकाररूप ही चैतन्य होना चाहिए था परंतु ऐसा नहीं होता, इससे सिद्ध है कि चैतन्य शरीर का विकार नहीं है । दूसरी बात यह भी है कि शरीर का विकार मूर्तिक होगा परंतु यह चैतन्य अमूर्तिक है―रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है―इंद्रियों द्वारा उसका ग्रहण नहीं होता ।।54।। शरीर और आत्मा का संबंध ऐसा है जैसा कि घर और दीपक का होता है । आधार और आधेय रूप होने से घर और दीपक जिस प्रकार पृथक् सिद्ध पदार्थ हैं उसी प्रकार शरीर और आत्मा भी पृथक् सिद्ध पदार्थ हैं ।।55।। आपका सिद्धांत है कि शरीर के प्रत्येक अंगोपांग की रचना पृथक्-पृथक् भृतचतुष्टय से होती है सो इस सिद्धांत के अनुसार शरीर के प्रत्येक अंगोपांग में पृथक्-पृथक् चैतन्य होना चाहिए क्योंकि आपका मत है कि चैतन्य भूतचतुष्टय का ही कार्य है । परंतु देखा इससे विपरीत जाता है । शरीर के सब अंगोपांगों में एक ही चैतन्य का प्रतिभास होता है, उसका कारण यह भी है कि जब शरीर के किसी एक अंग में कंटकादि चुभ जाता है तब सारे शरीर में दुःख का अनुभव होता है । इससे मालूम होता है कि सब अंगोपांगों में न्यास होकर रहने वाला चैतन्य भूतचतुष्टय का कार्य होता तो वह भी प्रत्येक अंगों में पृथक-पृथक् ही होता ।।56।। इसके सिवाय इस बात का भी विचार करना चाहिए कि मूर्तिमान् शरीर से मूर्तिरहित चैतन्य की उत्पत्ति कैसे होगी ? क्योंकि मूर्तिमान् और अमूर्तिमान् पदार्थों में कार्यकारण भाव नहीं होता ।।57।। कदाचित् आप यह कहें कि मूर्तिमान पदार्थ से भी अमूर्तिमान् पदार्थ की उत्पत्ति हो सकती है, जैसे कि मूर्तिमान इंद्रियों से अमूर्तिमत् ज्ञान उत्पन्न हुआ देखा जाता है, सो भी ठीक नहीं है क्योंकि इंद्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान को हम अमूर्तिक ही मानते हैं ।।58।। उसका कारण भी यह है कि यह आत्मा मूर्तिक कर्मों के साथ बंध को प्राप्त कर एक रूप हो गया है इसलिए कथंचित् मूर्तिक माना जाता है । जब कि आत्मा भी कथंचित् मूर्तिक माना जाता है तब इंद्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान को भी मूर्तिक मानना उचित है । इससे सिद्ध हुआ कि मूर्तिक पदार्थों से अमूर्तिक पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती ।।59।। इसके सिवाय एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि पृथिवी आदि भूतचतुष्टय में जो शरीर के आकार परिणमन हुआ है वह भी किसी अन्य निमित्त से हुआ है । यदि उस निमित्त पर विचार किया जाये तो कर्मसहित संसारी आत्मा को छोड़कर और दूसरा क्या निमित्त हो सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं । भावार्थ―कर्मसहित संसारी आत्मा ही पृथिवी आदि को शरीररूप परिणमन करता है, इससे शरीर और आत्मा की सत्ता पृथक् सिद्ध होती है ।।60।। यदि कहो कि जीव पहले नहीं था, शरीर के साथ ही उत्पन्न होता है और शरीर के साथ ही नष्ट हो जाता है इसलिए जल के बबूले के समान है जैसे जल का बबूला जल में ही उत्पन्न होकर उसी में नष्ट हो जाता है वैसे ही यह जीव भी शरीर के साथ उत्पन्न होकर उसी के साथ नष्ट हो जाता है सो आपका यह मानना ठीक नहीं है क्योंकि शरीर और जीव दोनों ही विलक्षण-विसदृश पदार्थ हैं । विसदृश पदार्थ से विसदृश पदार्थ की उत्पत्ति किसी भी तरह नहीं हो सकती ।।61।। आपका कहना है कि शरीर से चैतन्य की उत्पत्ति होती हैं―यहाँ हम पूछते हैं कि शरीर चैतन्य की उत्पत्ति में उपादान कारण है अथवा सहकारी कारण उपादान कारण तो हो नहीं सकता क्योंकि उपादेय―चैतन्य से शरीर विजातीय पदार्थ है । यदि सहकारी कारण मानो तो यह हमें भी इष्ट है परंतु उपादान कारण की खोज फिर भी करनी चाहिए । कदाचित् यह कहो कि सूक्ष्म रूप से परिणत भूतचतुष्टय का समुदाय ही उपादान कारण है तो आपका यह कहना असत् है क्योंकि सूक्ष्म भूतचतुष्टय के संयोग-द्वारा उत्पन्न हुए शरीर से वह चैतन्य पृथक् ही प्रतिभासित होता है । इसलिए जीवद्रव्य को ही चैतन्य का उपादान कारण मानना ठीक है चूँकि वही उसका सजातीय और सलक्षण है ।।62-64।। भूतवादी ने जो पुष्प, गुड़, पानी आदि के मिलने से मदशक्ति के उत्पन्न होने का दृष्टांत दिया है, उपयुक्त कथन से उसका भी निराकरण हो जाता है क्योंकि मदिरा के कारण जो गुड़ आदि हैं वे जड़ और मूर्तिक हैं तथा उनसे जो मादक शक्ति उत्पन्न होती है वह भी जड़ और मूर्तिक है । भावार्थ―मादक शक्ति का उदाहरण विषम है । क्योंकि प्रकृत में आप सिद्ध करना चाहते हैं विजातीय द्रव्य से विजातीय की उत्पत्ति और उदाहरण दे रहे हैं सजातीय द्रव्य से सजातीय की उत्पत्ति का ।।65।। वास्तव में भूतवादी चार्वाक अपिशाचों से ग्रसित हुआ जान पड़ता है । यदि ऐसा नहीं होता तो इस संसार को जीवरहित केवल पृथिवी, जल, तेज, वायुरूप ही कैसे कहता ।।66।। कदाचित् भूतवादी यह कहे कि पृथिवी आदि भूतचतुष्टय में चैतन्यशक्ति अव्यक्तरूप से पहले से ही रहती है सो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि अचेतन पदार्थ में चेतनशक्ति नहीं पायी जाती, यह बात अत्यंत प्रसिद्ध है ।।67।। इस उपयुक्त कथन से सिद्ध हुआ कि जीव कोई भिन्न पदार्थ है और ज्ञान उसका लक्षण है । जैसे इस वर्तमान शरीर में जीव का अस्तित्व है उसी प्रकार पिछले और आगे के शरीर में भी उसका अस्तित्व सिद्ध होता है क्योंकि जीवों का वर्तमान शरीर पिछले शरीर के बिना नहीं हो सकता । उसका कारण यह है कि वर्तमान शरीर में स्थित आत्मा में जो दुग्धपानादि क्रियाएँ देखी जाती हैं वे पूर्वभव का संस्कार ही हैं । यदि वर्तमान शरीर के पहले इस जीव का कोई शरीर नहीं होता और यह नवीन ही उत्पन्न हुआ होता तो जीव की सहसा दुग्धपानादि में प्रवृत्ति नहीं हो सकती । इसी प्रकार वर्तमान शरीर के बाद भी यह जीव कोई-न-कोई शरीर धारण करेगा क्योंकि ऐंद्रियिक ज्ञानसहित आत्मा बिना शरीर के रह नहीं सकता ।।68।। जहाँ यह जीव अपने अगले-पिछले शरीरों से युक्त होता है वहीं उसका परलोक कहलाता है और उन शरीरों में रहने वाला आत्मा परलोकी कहा जाता है तथा वही परलोकी आत्मा परलोक संबंधी पुण्य-पापों के फल को भोगता है ।।69।। इसके सिवाय, जातिस्मरण से जीवन-मरणरूप आवागमन से और आप्त प्रणीत आगम से भी जीव का पृथक् अस्तित्व सिद्ध होता है ।।70।। जिस प्रकार किसी यंत्र में जो हलन-चलन होता है वह किसी अन्य चालक की प्रेरणा से होता है । इसी प्रकार इस शरीर में भी जो यातायातरूपी हलन-चलन हो रहा है वह भी किसी अन्य चालक की प्रेरणा से ही हो रहा है वह चालक आत्मा ही है । इसके सिवाय शरीर की जो चेष्टाएँ होती हैं सो हित-अहित के विचारपूर्वक होती हैं―इससे भी जीव का अस्तित्व पृथक् जाना जाता है ।।71।। यदि आपके कहे अनुसार पृथिवी आदि भूतचतुष्टय के संयोग से जीव उत्पन्न होता है तो भोजन पकाने के लिए आग पर रखी हुई बटलोई में भी जीव की उत्पत्ति हो जानी चाहिए क्योंकि वहाँ भी तो अग्नि, पानी, वायु और पृथिवीरूप भूतचतुष्टय का संयोग होता है ।।72।। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भूतवादियों के मत में अनेक दूषण हैं इसलिए यह निश्चय समझिए कि भूतवादियों का मत निरे मूर्खों का प्रलाप है उसमें कुछ भी सार नहीं है ।।73।।
इसके अनंतर स्वयं बुद्ध ने विज्ञानवादी से कहा कि आप इस जगत् को विज्ञान मात्र मानते हैं―विज्ञान से अतिरिक्त किसी पदार्थ का सद्भाव नहीं मानते परंतु विज्ञान से ही विज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि आपके मतानुसार साध्य, साधन दोनों एक हो जाते हैं―विज्ञान ही साध्य होता है और विज्ञान ही साधन होता है । ऐसी हालत में तत्त्व का निश्चय कैसे हो सकता है ? ।।74।। एक बात यह भी है कि संसार में बाह्यपदार्थों की सिद्धि वाक्यों के प्रयोग से ही होती है । यदि वाक्यों का प्रयोग न किया जाये तो किसी भी पदार्थ की सिद्धि नहीं हो गई और उस अवस्था में संसार का व्यवहार बंद हो जायेगा । यदि वह वाक्य विज्ञान से भिन्न है तो वाक्यों का प्रयोग रहते हुए विज्ञानाद्वैत सिद्ध नहीं हो सकता । यदि यह कहो कि वे वाक्य भी विज्ञान ही हैं तो हे मुझे, बता कि तूने ‘यह संसार विज्ञान मात्र है’ इस विज्ञानाद्वैत की सिद्धि किसके द्वारा की है ? इसके सिवाय एक बात यह भी विचारणीय है कि जब तू निरंश निर्विभाग विज्ञान को ही मानता है तब ग्राह्य आदि का भेदव्यवहार किस प्रकार सिद्ध हो सकेगा ? भावार्थ―विज्ञान पदार्थों को जानता है इसलिए ग्राहक कहलाता है और पदार्थ ग्राह्य कहलाते हैं जब तू ग्राह्य-पदार्थों की सत्ता ही स्वीकृत नहीं करता तो ज्ञान-ग्राहक किस प्रकार सिद्ध हो सकेगा ? यदि ग्राह्य को स्वीकार करता है तो विज्ञान का अद्वैत नष्ट हुआ जाता है ।।75-76।। ज्ञान का प्रतिभास घट-पटादि विषयों के आकार से शून्य नहीं होता अर्थात् घट-पटादि विषयों के रहते हुए ही ज्ञान उन्हें जान सकता है, यदि घट-पटादि विषय न हों तो उन्हें जानने वाला ज्ञान भी नहीं हो सकता । क्या कभी प्रकाश करने योग्य पदार्थों के बिना भी कहीं कोई प्रकाशक प्रकाश करने वाला होता है अर्थात् नहीं होता । इस प्रकार यदि ज्ञान को मानते हो तो उसके विषयभूत पदार्थो को भी मानना चाहिए ।।77।। हम पूछते हैं कि आपके मत में एक विज्ञान से दूसरे विज्ञान का ग्रहण होता है अथवा नहीं यदि होता है तो आपके माने हुए विज्ञान में निरालंबता का अभाव हुआ अर्थात् वह विज्ञान निरालंब नहीं रहा, उसने द्वितीय विज्ञान को जाना इसलिए उन दोनों में ग्राह्य-ग्राहक भाव सिद्ध हो गया जो कि विज्ञानाद्वैत का बाधक है । यदि यह कहो कि एक विज्ञान दूसरे विज्ञान को ग्रहण नहीं करता तो फिर आप उस द्वितीय विज्ञान को जो कि अन्य संतानरूप है, सिद्ध करने के लिए क्या हेतु देंगे कदाचित् अनुमान से उसे सिद्ध करोगे तो घट-पट आदि बाह्य पदार्थों की स्थिति भी अवश्य सिद्ध हो जायेगी क्योंकि जब साध्य-साधनरूप अनुमान मान लिया तब विज्ञानाद्वैत कहाँ रहा ? उसके अभाव में अनुमान के विषयभूत घट-पटादि पदार्थ भी अवश्य मानने पड़ेंगे ।।78-79।। यदि यह संसार केवल विज्ञानमय हुई है तो फिर समस्त वाक्य और ज्ञान मिथ्या हो जायेंगे, क्योंकि जब बाह्य घट-पटादि पदार्थ ही नहीं है तो ये वाक्य और ज्ञान सत्य हैं तथा ये असत्य यह सत्यासत्य व्यवस्था कैसे हो सकेगी ? ।।80।। जब आप साधन आदि का प्रयोग करते हैं तब साधन से भिन्न साध्य भी मानना पड़ेगा और वह साध्य घट-पट आदि बाह्य पदार्थ ही होगा । इस तरह विज्ञान से अतिरिक्त बाह्य पदार्थों का भी सद्भाव सिद्ध हो जाता है । इसलिए आपका यह विज्ञानाद्वैतवाद केवल बालकों की बोली के समान सुनने में ही मनोहर लगता है ।।81।।
इस प्रकार विज्ञानवाद का खंडन कर स्वयंबुद्ध शून्यवाद का खंडन करने के लिए तत्पर हुए । वे बोले कि―आपके शून्यवाद में भी, शून्यत्व को प्रतिपादन करनेवाले वचन और उनसे उत्पन्न होने वाला ज्ञान है, या नहीं ? इस प्रकार दो विकल्प उत्पन्न होते हैं ।।82।। यदि आप इन विकल्पों के उत्तर में यह कहें कि हाँ, शून्यत्व को प्रतिपादन करने वाले वचन और ज्ञान दोनों ही हैं; तब खेद के साथ कहना पड़ता है कि आप जीत लिये गये क्योंकि वाक्य और विज्ञान की तरह आपको सब पदार्थ मानने पड़ेंगे । यदि यह कहो कि हम वाक्य और विज्ञान को नहीं मानते तो फिर शून्यता की सिद्धि किस प्रकार होगी भावार्थ―यदि आप शून्यता प्रतिपादक वचन और विज्ञान को स्वीकार करते हैं तो वचन और विज्ञान के विषयभूत जीवादि समस्त पदार्थ भी स्वीकृत करने पड़ेंगे । इसलिए शून्यवाद नष्ट हो जायेगा और यदि वचन तथा विज्ञान को स्वीकृत नहीं करते हैं तब शून्यवाद का समर्थन व मनन किसके द्वारा करेंगे ।।83।। ऐसी अवस्था में आपका यह शून्यवाद का प्रतिपादन करना उन्मत्त पुरुष के रोने के समान व्यर्थ है । इसलिए यह सिद्ध हो जाता है कि जीव शरीरादि से पृथक् पदार्थ है तथा दया, संयम आदि लक्षण वाला धर्म भी अवश्य है ।।84।।
तत्वज्ञ मनुष्य उन्हीं तत्त्वों को मानते हैं जो सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे हुए हों । इसलिए विद्वानों को चाहिए कि वे आप्ताभास पुरुषों द्वारा कहे हुए तत्त्वों को हेय समझें ।।85।। इस प्रकार स्वयंबुद्ध मंत्री के वचनों से वह संपूर्ण सभा आत्मा के सद्भाव के विषय में संशयरहित हो गयी अर्थात् सभी ने आत्मा का पृथक् अस्तित्व स्वीकार कर लिया और सभा के अधिपति राजा महाबल भी अतिशय प्रसन्न हुए ।।86।। वे परवादीरूपी वृक्ष भी स्वयंबुद्ध मंत्री के वचनरूपी वज्र के कठोर प्रहार से शीघ्र ही म्लान हो गये ।।87।। इसके अनंतर जब सब सभा शांतभाव से चुपचाप बैठ गयी तब स्वयंबुद्ध मंत्री दृष्ट श्रुत और अनुभूत पदार्थ से संबंध रखने वाली कथा कहने लगे ।।88।।
हे महाराज, मैं एक कथा कहता हूँ उसे सुनिए । कुछ समय पहले आपके वंश में चूड़ामणि के समान एक अरविंद नाम का विद्याधर हुआ था ।।89।। वह अपने पुण्योदय से अहंकारी शत्रुओं के भुजाओं का गर्व दूर करता हुआ इस उत्कृष्ट अलका नगरी का शासन करता था ।।90।। वह राजा विद्याधरों के योग्य अनेक उत्तमोत्तम भोगों का अनुभव करता रहता था । उसके दो पुत्र हुए, एक का नाम हरिचंद्र और दूसरे का नाम कुरुविंद था ।।91।। उस अरविंद राजा ने बहुत आरंभ को बढ़ाने वाले रौद्रध्यान के चिंतन से तीव्र दुःख देने वाली नरकआयु का बंध कर लिया था ।।92।। जब उसके मरने के दिन निकट आये तब उसके दाहज्वर उत्पन्न हो गया जिससे दिनों-दिन शरीर का अत्यंत दुःसह संताप बढ़ने लगा ।।93।। वह राजा न तो लाल कमलों से सुवासित जल के द्वारा, न पंखों की शीतल हवा के द्वारा, न मणियों के हार के द्वारा और न चंदन के लेप के द्वारा ही सुख-शांति को पा सका था ।।94।। उस समय पुण्य क्षय होने से उसकी समस्त विद्याएँ उसे छोड़कर चली गयी थीं इसलिए वह उस गजराज के समान अशक्त हो गया था जिसकी कि मदशक्ति सर्वथा क्षीण हो गयी हो ।।95।। जब वह दाहज्वर से समस्त शरीर में बेचैनी पैदा करने वाले संताप को नहीं सह सका तब उसने एक दिन अपने हरिचंद्र पुत्र को बुलाकर कहा ।।96।। हे पुत्र, मेरे शरीर में यह संताप बढ़ता ही जाता है । देखो तो, लाल कमलों की जो मालाएँ संताप दूर करने के लिए शरीर पर रखी गयी थीं वे कैसी मुरझा गयी हैं ।।97।। इसलिए हे पुत्र, तुम मुझे अपनी विद्या के द्वारा शीघ्र ही उत्तरकुरु देश में भेज दो और उत्तरकुरु में भी उन वनों में भेजना जो कि सीतोदा नदी के तट पर स्थित हैं तथा अत्यंत शीतल हैं ।।98।। कल्पवृक्षों को हिलाने वाली तथा सीता नदी की तरंगों से उठी हुई वहाँ की शीतल वायु मेरे इस संताप को अवश्य ही शांत कर देगी ।।99।। पिता के ऐसे वचन सुनकर राजपुत्र हरिचंद्र ने अपनी आकाशगामिनी विद्या भेजी परंतु राजा अरविंद का पुण्य क्षीण हो चुका था इसलिए वह विद्या भी उसका उपकार नहीं कर सकी अर्थात् उसे उत्तरकुरु देश नहीं भेज सकी ।।100।। जब आकाशगामिनी विद्या भी अपने कार्य से विमुख हो गयी तब पुत्र ने समझ लिया कि पिता की बीमारी असाध्य है । इससे वह बहुत उदास हुआ और किंकर्त्तव्यविमूढ़-सा हो गया ।।101।। अनंतर किसी एक दिन दो छिपकली परस्पर में लड़ रही थीं । लड़ते-लड़ते एक की पूँछ टूट गयी, पूँछ से निकली हुई रक्त की कुछ बूँदें राजा अरविंद के शरीर पर आकर पड़ी ।।102।। उन खून की बूँदों से उसका शरीर ठंडा हो गया―दाहज्वर की व्यथा शांत हो गयी । पाप के उदय से वह बहुत ही संतुष्ट हुआ और विचारने लगा कि आज मैंने दैवयोग से बड़ी अच्छी ओषधि पा ली है ।।103।। उसने कुरुविंद नाम के दूसरे पुत्र को बुलाकर कहा कि हे पुत्र, मेरे लिए खून से भरी हुई एक बावड़ी बनवा दो ।।104।। राजा अरविंद को विभंगावधि ज्ञान था इसलिए विचार कर फिर बोला―इसी समीपवर्ती वन में अनेक प्रकार के मृग रहते हैं उन्हीं से तू अपना काम कर अर्थात् उन्हें मारकर उनके खून से बावड़ी भर दे ।।105।। वह कुरुविंद पाप से डरता रहता था इसलिए पिता के ऐसे वचन सुनकर तथा कुछ विचारकर पापमय कार्य करने के लिए असमर्थ होता हुआ क्षण-भर चुपचाप खड़ा रहा ।।106।। तत्पश्चात् वन में गया वहाँ किन्हीं अवधिज्ञानी मुनि से जब उसे मालूम हुआ कि हमारे पिता की मृत्यु अत्यंत निकट है तथा उन्होंने नरकायु का बंध कर लिया है तब वह उस पापकर्म के करने से रुक गया ।।107।। परंतु पिता के वचन भी उल्लंघन करने योग्य नहीं हैं ऐसा मानकर उसने कृत्रिम रुधिर अर्थात् लाख के रंग से भरी हुई एक बावड़ी बनवायी ।।108।। पापकार्य करने में अतिशय चतुर राजा अरविंद ने जब बावड़ी तैयार होने का समाचार सुना तब वह बहुत ही हर्षित हुआ जैसे कोई दरिद्र पुरुष पहले कभी प्राप्त नहीं हुए निधान को देखकर हर्षित होता है ।।109।। जिस प्रकार पापी नारकी जीव वैतरणी नदी को बहुत अच्छी मानता है उसी प्रकार वह पापी अरविंद राजा भी लाख के लाल रंग से धोखा खाकर अर्थात् सचमुच का रुधिर समझकर उस बावड़ी को बहुत अच्छी मान रहा था ।।110।। जब वह उस बावड़ी के पास लाया गया तो आते ही उसके बीच में सो गया और इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगा । परंतु कुल्ला करते ही उसे मालूम हो गया कि यह कृत्रिम रुधिर है ।।111।। यह जानकर पापरूपी समुद्र को बढ़ाने के लिए चंद्रमा के समान वह बुद्धिरहित राजा अरविंद, मानो नरक की पूर्ण आयु प्राप्त करने की इच्छा से ही रुष्ट होकर पुत्र को मारने के लिए दौड़ा परंतु बीच में इस तरह गिरा कि अपनी ही तलवार से उसका हृदय विदीर्ण हो गया तथा मर गया ।।112-113।। वह कुमरण को पाकर पाप के योग से नरकगति को प्राप्त हुआ । हे राजन् ! यह कथा इस अलका नगरी में लोगों को आज तक याद है ।।114।। जिस प्रकार दाँत टूट जाने से न हाथी अपना मुँह नीचा कर लेता है अथवा जिस प्रकार फण का मणि उखाड़ लेने से सर्प तेज रहित हो जाता है अथवा सूर्य अस्त हो जाने से जिस प्रकार कमल मुरझा जाता है उसी प्रकार पिता की मृत्यु से कुरुविंद ने अपना मुँह नीचा कर लिया, उसका सब तेज जाता रहा तथा सारा शरीर मुरझा गया―शिथिल हो गया । इस प्रकार वह शोचनीय अवस्था को प्राप्त हुआ था ।।115-116।।
हे राजन् अब दूसरी कथा सुनिए―समुद्र के समान विस्तीर्ण आपके इस वंश में एक दंड नाम का विद्याधर हो गया है । वह बड़ा प्रतापी था । उसने अपने समस्त शत्रुओं को दंडित किया था ।।117।। जिस प्रकार समुद्र से मणि उत्पन्न होता है उसी प्रकार उस दंड विद्याधर से भी मणिमाली नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । जब वह बड़ा हुआ तब राजा दंड ने उसे युवराज पद पर नियुक्त कर दिया और आप इच्छानुसार भोग भोगने लगा ।।118।। वह विषयों में इतना अधिक उलूक हो रहा था कि चिरकाल तक भोगों को भोगकर भी तृप्त नहीं होता था बल्कि स्त्री, वस्त्र तथा आभूषण आदि में पहले की अपेक्षा अधिक आसक्त होता जाता था ।।119।। अत्यंत विषयासक्ति के कारण मायाचारी चेष्टाओं को करनेवाले उस आर्तध्यानी राजा ने तीव्र संक्लेश भावों से तिर्यंच आयु का बंध किया ।।120।। चूँकि मरते समय उसका आर्तध्यान नाम का कुध्यान पूर्णता को प्राप्त हो रहा था, इसलिए कुमरण से मरकर वह मोह के उदय से अपने भंडार में बड़ा भारी अजगर हुआ ।।121।। उसे जातिस्मरण भी हो गया था इसलिए वह भंडारी की तरह भंडार में केवल अपने पुत्र को ही प्रवेश करने देता था अन्य को नहीं ।।122।।
हे तात, जिस प्रकार रथ का पहिया निरंतर संसार-परिभ्रमण करता रहता है―चलता रहता है उसी प्रकार यह विषय भी निरंतर संसार-परिभ्रमण करता रहता है-स्थिर नहीं रहता अथवा संसार चतुर्गतिरूप संसार का वन्य करता रहता है । यद्यपि यह कंठस्थ प्राणों के समान कठिनाई से छोड़े जाते हैं परंतु त्याज्य अवश्य हैं ।।127।। ये विषय शिकारी के गाने के समान हैं जो पहले मनुष्यरूपी हरिणों को ठगने के लिए विश्वास दिलाते हैं और बाद में भयंकर हो प्राणों का हरण किया करते हैं ।।128।। जिस प्रकार तांबूल चूना, खैर और सुपारी का संयोग पाकर राग-लालिमा को बढ़ाते हैं उसी प्रकार ये विषय भी स्त्री-पुत्रादि का संयोग पाकर रागस्नेह को बढ़ाते हैं और बढ़ते हुए अंधकार के समान समीचीन भाव को रोक देते हैं ।।125।। जिस प्रकार जैनमत मतांतरों का खंडन कर देता है उसी प्रकार ये विषय भी पिता, गुरु आदि के हितोपदेशरूपी मतों का खंडन कर देते हैं । ये बिजली की चमक के समान चंचल हैं और इंद्रधनुष के समान विचित्र हैं ।।130।। अधिक कहने से क्या लाभ ? देखो, विषयों से उत्पन्न हुआ यह विषयसुख इस जीव को संसाररूपी अटवी में घुमाता है ।।131।। जो इस विषय रस की आसक्ति से विमुख रहकर अपने आत्मा को अपने आपमें स्थिर रखते हैं ऐसे मुनियों के समूह को नमस्कार हो । वृक्ष का राजा मणिमाली ने विषयों की निंदा की ।।132 ।।
इस प्रकार स्वयंबुद्ध मंत्री के कहे हुए उदार और गंभीर वचन सुनकर वह संपूर्ण सभा बड़ी प्रसन्न हुई तथा परम आस्तिक्य भाव को प्राप्त हुई ।।156।। स्वयंबुद्ध के वचनों से समस्त सभासदों को यह विश्वास हो गया कि यह जिनेंद्रप्रणीत धर्म ही वास्तविक तत्त्व है अन्य मत-मतांतर नहीं ।।157।। तत्पश्चात् समस्त सभासद् उसकी इस प्रकार स्तुति करने लगे कि यह स्वयंबुद्ध सम्यग्दृष्टि है, व्रती है, गुण और शील से सुशोभित है, मन, वचन, काय का सरल है, गुरुभक्त है, शास्त्रों का वेत्ता है, अतिशय बुद्धिमान् है, उत्कष्ट श्रावकों के योग्य उत्तम गुणों से प्रशंसनीय है और महात्मा है ।।158-159।। विद्याधरों के अधिपति महाराज महाबल ने भी महाबुद्धिमान् स्वयंबुद्ध की प्रशंसा कर उसके कहे हुए वचनों को स्वीकार किया तथा प्रसन्न होकर उसका अतिशय सत्कार किया ।।160।।
इसके बाद किसी एक दिन स्वयंबुद्ध मंत्री अकृत्रिम चैत्यालय में विराजमान जिन-प्रतिमाओं की भक्तिपूर्वक वंदना करने की इच्छा से मेरुपर्वत पर गया ।।161।। वह पर्वत जिनेंद्र भगवान् के समवसरण के समान शोभायमान हो रहा है क्योंकि जिस प्रकार समवसरण (अशोक, सप्तच्छद, आम्र और चंपक) चार वनों से सुशोभित होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी चार (भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पांडुक वनों से सुशोभित है । वह अनादि निधन है तथा प्रमाण से (एक लाख योजन) सहित है इसलिए श्रुतस्कंध के समान है क्योंकि आर्यदृष्टि से श्रुतस्कंध भी अनादिनिधन है और प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणों से सहित है । अथवा वह पर्वत किसी उत्तम महाराज के समान है क्योंकि जिस प्रकार महाराज अनेक महीभृतों (राजाओं) का अधीश होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी अनेक महीभृतों ( पर्वतों) का अधीश है । महाराज जिस प्रकार सुवृत्त (सदाचारी) और सदास्थिति (समीचीन सभा से युक्त) होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी सुवृत्त (गोलाकार) और सदास्थिति (सदा विद्यमान) रहता है । तथा महाराज जिस प्रकार प्रवृद्धकटक बड़ी सेना का नायक) होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी प्रवृद्धकटक (ऊँचे शिखर वाला) है । अथवा वह पर्वत आदि पुरुष श्री वृषभदेव के समान जान पड़ता है क्योंकि सुधार वृषभदेव जिस प्रकार सर्वलोकोत्तर हैं―लोक में सबसे श्रेष्ठ हैं उसी प्रकार वह पर्वत भी सर्वलोकोत्तर है―सब देशों से उत्तर दिशा में विद्यमान है । भगवान् जिस प्रकार सब मध्य को (सब राजाओं में) ज्येष्ठ थे उसी प्रकार वह पर्वत भी सब भूभृतों (पर्वतों में ज्येष्ठ-उत्कृष्ट है । भगवान् जिस प्रकार महान् थे उसी प्रकार वह पर्वत भी महान् है और भगवान् जिस प्रकार सुवर्ण वर्ण के थे उसी प्रकार वह पर्वत भी सुवर्ण वर्ण का है । अथवा वह मेरु पर्वत इंद्र के समान सुशोभित है क्योंकि इंद्र जिस प्रकार वज्र (वज्रमयी शस्त्र) से सहित होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी वज्र (हीरों) से सहित होता है । इंद्र जिस प्रकार अप्सरःसंश्रय (अप्सराओं का आश्रय) होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी अप्सरःसंश्रय (जल से भरे हुए तालाबों का आधार) है । और इंद्र का शरीर जैसे चारों और फैलती हुई ज्योति (तेज) से सुशोभित होता है उसी प्रकार उस पर्वत का शरीर भी चारों ओर फैले हुए ज्योतिषी देवों से सुशोभित है । सौधर्म स्वर्ग का इंद्रक विमान इस पर्वत की चूलिका के अत्यंत निकट है (बालमात्र के अंतर से विद्यमान है) इसलिए ऐसा मालूम होता है मानो स्वर्गलोक को धारण करने के लिए एक ऊँचा खंभा ही खड़ा हो । वह पर्वत अपनी कटनियों से जिन वन-पंक्तियों को धारण किये हुए है वे हमेशा फूलों से उज्ज्वल रहती हैं तथा ऐसी मालूम होती हैं मानो कल्पवृक्षों के साथ स्पर्धा करके ही सब ऋतुओं के फल फूल दे रही हों । वह पर्वत सुवर्णमय है ऊंचाई और अनेक रत्नों की कांति से सहित है इसलिए ऐसा जान पड़ता है मानो जिनेंद्रदेव के अभिषेक के लिए देवों के द्वारा बनाया हुआ सुवर्णमय ऊँचा और रत्नखचित सिंहासन ही हो । उस पर्वत पर श्री जिनेंद्रदेव का अभिषेक होता है तथा अनेक चैत्यालय विद्यमान हैं मानो इन्हीं दो कारणों से उत्पन्न हुए पुण्य के द्वारा वह बिना किसी रोक-टोक के स्वर्ग को प्राप्त हुआ है अर्थात् स्वर्ग तक ऊँचा चला गया है । अथवा वह पर्वत लवणसमुद्र के नीले जलरूपी सुंदरवस्त्रों को धारण किये हुए जंबूद्वीपरूपी महाराज के अच्छी तरह लगाये गये मुकुट के समान मालूम होता है । अथवा यह जगत् एक सरोवर के समान है क्योंकि यह सरोवर की भाँति ही कुलाचलरूपी बड़ी ऊँची लहरों से शोभायमान है, संगीत के लिए बजते हुए बाजों के शब्दरूपी पक्षियों के शब्दों से सुशोभित है, गंगा, सिंधु आदि महानदियों के जलरूपी मृणाल से विभूषित है, नंदनादि महावनरूपी कमलपत्रों से आच्छन्न है, सुर और असुरों के सभाभवनरूपी कमलों से शोभित है, तथा सुखरूप मकरंद के प्रेमी जीवरूपी भ्रमरावली को धारण किये हुए है । ऐसे इस जगत्रूपी सरोवर के बीच में वह पीत वर्ग का सुवर्णमय मेरु पर्वत ऐसा जान पड़ता है मानो प्रलयकाल के पवन से बड़ा हुआ तथा एक जगह इकट्ठा हुआ कमलों की केशर का समूह हो । वास्तव में वह पर्वत, पर्वतों का राजा है क्योंकि राजा जिस प्रकार रत्नजड़ित कटकों (कड़ों) से युक्त होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी रत्नजड़ित कटकों (शिखरों) से युक्त है और राजा जिस प्रकार मुकुट से शोभायमान होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी चूलिकारूपी दैदीप्यमान मुकुट से शोभायमान है । इस प्रकार वर्णन युक्त तथा जिनमंदिरों से शोभायमान वह मेरु पर्वत स्वयंबुद्ध मंत्री ने देखा ।।162-175।।
अद्भूत शोभायुक्त उस मेरु पर्वत को देखता हुआ वह मंत्री अत्यंत आनंद को प्राप्त हुआ और बड़े आश्चर्य से उसके समीपवर्ती प्रदेशों का नीचे लिखे अनुसार निरूपण करने लगा ।।176।। इस गिरिराज ने अपने शिखरों के अग्रभाग से समस्त आकाशरूपी आंगन को घेर लिया है जिससे ऐसा शोभायमान होता है मानो लोकनाड़ी की लंबाई ही नाप रहा हो ।।177।। मनोहर तथा घनी छाया वाले वृक्षों से शोभायमान इस पर्वत के शिखरों पर वे देव लोग अपनी-अपनी देवियों के साथ सदा निवास करते हैं ।।178।। इस पर्वत के प्रत्यंत पर्वत (समीपवर्ती छोटी-छोटी पर्वत श्रेणियाँ) यहाँ से लेकर निषध और नील पर्वत तक चले गये हैं सो ठीक ही है क्योंकि बड़ों की चरण सेवा करने वाला कौन पुरुष बड़प्पन को प्राप्त नहीं होता ।।179।।। इसके चरणों (प्रत्यंत पर्वतों) के आश्रित रहने वाले ये गजदंत पर्वत ऐसे जान पड़ते हैं मानो निषध और नील पर्वत ने भक्तिपूर्वक सेवा के लिए अपने हाथ ही फैलाये हों ।।180।। ये सीता, सीतोदा नाम की महानदियों मानो भय से ही इसके पास नहीं आकर दो कोश की दूरी से समुद्र की ओर जा रही हैं ।।181।। इस पर्वत के चारों ओर यह भद्रशाल वन है जो अपनी शोभा से देवकुरु तथा उत्तरकुरु की शोभा को तिरस्कृत कर रहा है और अपने वृक्षों के द्वारा इस पर्वत संबंधी चारों ओर के भूमिभाग को सदा अलंकृत करता रहता है ।।182।। इधर नंदनवन, इधर सौमनस वन और इधर पांडुक वन शोभायमान है । ये तीनों ही वन सदा फूले हुए वृक्षों से अत्यंत मनोहर है ।।183।। इधर ये अर्धचंद्राकार देवकुरु तथा उत्तरकुरु शोभायमान हो रहे हैं, इधर शोभावान् जंबूवृक्ष है और इधर यह शाल्मली वृक्ष है ।।184।। इस पर्वत के चारों वनों में ये जिनेंद्रदेव के चैत्यालय शोभायमान हैं जो कि रत्नों की कांति से भासमान अपने शिखरों के द्वारा आकाशरूपी आंगन को प्रकाशित कर रहे हैं ।।185।। यह पर्वत सदा पुण्यजनों (यक्षों) से व्याप्त रहता है । अनेक बाग-बगीचे तथा जिनालयों से सहित है तथा इसके समीप ही अनेक नदियाँ और विदेह क्षेत्र विद्यमान हैं इसलिए यह किसी नगर के समान मालूम हो रहा है । क्योंकि नगर भी सदा पुण्यजनों (धर्मात्मा लोगों) से व्याप्त रहता है, बाग-बगीचे और जिन-मंदिरों से सहित होता है तथा उसके समीप अनेक नदियाँ और खेत विद्यमान रहते हैं ।।186।। अथवा यह पर्वत संसारी जीवरूपी भ्रमरों से सहित तथा भरतादि क्षेत्ररूपी पत्रों से शोभायमान इस जंबूद्वीपरूपी कमल की कर्णिका के समान भासित होता है ।।187।। इस प्रकार उत्कृष्ट महिमा से युक्त यह सुमेरुपर्वत, जान पड़ता है कि आज भी तीनों लोकों की लंबाई का उल्लंघन कर रहा है ।।188।। इस तरह दूर से ही वर्णन करता हुआ स्वयंबुद्ध मंत्री उस मेरु पर्वत पर ऐसा जा पहुँचा मानो जिनमंदिरों ने अपने ध्वजारूपी हाथों से उसे आदरसहित बुलाया ही हो ।।189।। वहाँ अनादिनिधन, हमेशा प्रकाशित रहने वाले और देवों से पूजित अकृत्रिम चैत्यालयों को पाकर वह स्वयंबुद्ध मंत्री परम आनंद को प्राप्त हुआ ।।190।। उसने पहले प्रदक्षिणा दी । फिर भक्तिपूर्वक बार-बार नमस्कार किया और फिर पूजा की । इस प्रकार यथाक्रम से भद्रशाल आदि वनों की समस्त अकृत्रिम प्रतिमाओं की वंदना की ।।191।। वंदना के बाद उसने सौमनसवन के पूर्व दिशा संबंधी चैत्यालय में पूजा की तथा भक्तिपूर्वक प्रणाम करके क्षण-भर के लिए वह वहीं बैठ गया ।।192।।
इतने में ही उसने पूर्व विदेह क्षेत्र संबंधी महाकच्छ देश के अरिष्ट नामक नगर से आये हुए, आकाश में चलने वाले आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो मुनि अकस्मात् देखे । वे दोनों ही मुनि युगंधर स्वामी के समवसरणरूपी सरोवर के मुख्य हंस थे ।।193-194।। अतिशय बुद्धिमान् स्वयंबुद्ध मंत्री ने सम्मुख जाकर उनकी पूजा की, बार-बार प्रणाम किया और जब वे सुखपूर्वक बैठ गये तब उनसे नीचे लिखे अनुसार अपने मनोरथ पूछे ।।195।। हे भगवन् आप जगत् को जानने के लिए अवधिज्ञानरूपी प्रकाश धारण करते हैं इसलिए आप से मैं कुछ मनोगत बात पूछता हूँ, कृपा कर उसे कहिए ।।196।। हे स्वामिन् इस लोक में अत्यंत प्रसिद्ध विद्याधरों का अधिपति राजा महाबल हमारा स्वामी है वह भव्य है अथवा अभव्य ? इस विषय में मुझे संशय है ।।197।। जिनेंद्रदेव के कहे हुए सन्मार्ग का स्वरूप दिखाने वाले हमारे वचनों को जैसे वह प्रमाणभूत मानता है वैसे श्रद्धान भी करेगा या नहीं यह बात मैं आप दोनों के अनुग्रह से जानना चाहता हूँ ।।198।। इस प्रकार प्रश्न कर जब स्वयंबुद्ध मंत्री चुप हो गया तब उनमें से आदित्यगति नाम के अवधिज्ञानी मुनि कहने लगे ।।195।। हे भव्य, तुम्हारा स्वामी भव्य ही है, वह तुम्हारे वचनों पर विश्वास करेगा और दसवें भव में तीर्थंकर पद भी प्राप्त करेगा ।।200।। वह इसी जंबूद्वीप के भरत नामक क्षेत्र में आने वाले युग के प्रारंभ में ऐश्वर्यवान् प्रथम-तीर्थंकर होगा ।।201।। अब में संक्षेप से इसके उस वैभव का वर्णन करता हूँ जहाँ कि इसने भोगों की इच्छा के साथ-साथ धर्म का बीज बोया था । राजन् तुम सुनो ।।202।। इसी जंबूद्वीप में मेरुपर्वत से पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में एक गंधिला-नाम का देश है उसमें सिंहपुर नाम का नगर है जो कि इंद्र के नगर के समान सुंदर है । उस नगर में एक श्रीषेण नाम का राजा हो गया है । वह राजा चंद्रमा के समान सबको प्रिय था । उसकी एक अत्यंत सुंदर सुंदरी नाम की स्त्री थी ।।203-204।। उन दोनों के पहले जयवर्मा नाम का पुत्र हुआ और उसके बाद उसका छोटा भाई श्रीवर्मा हुआ । वह श्रीवर्मा सब लोगों को अतिशय प्रिय था ।।205।। वह छोटा पुत्र माता-पिता के लिए भी स्वभाव से ही प्यारा था सो ठीक ही है संतानपना समान रहने पर भी किसी पर अधिक प्रेम होता ही है ।।206।। पिता श्रीषेण ने मनुष्यों का अनुराग तथा उत्साह देखकर छोटे पुत्र श्रीवर्मा के मस्तक पर ही राज्यपट्ट बाँधा और इसके बड़े भाई जयवर्मा की उपेक्षा कर दी ।।207।। पिता की इस उपेक्षा से जयवर्मा को बड़ा वैराग्य हुआ जिससे वह अपने पापों की निंदा करता हुआ स्वयंप्रभगुरु से दीक्षा लेकर तपस्या करने लगा ।।208।। जयवर्मा अभी नवदीक्षित ही था―उसे दीक्षा लिये बहुत समय नहीं हुआ था कि उसने विभूति के साथ आकाश में जाते हुए महीधर नाम के विद्याधर को आँख उठाकर देखा । उस विद्याधर को देखकर जयवर्मा ने निदान किया कि मुझे आगामी भव में बड़े-बड़े विद्याधरों के भोग प्राप्त हों । वह ऐसा विचार ही रहा था कि इतने में एक भयंकर सर्प ने बामी से निकलकर उसे डस लिया । वह भोगों की इच्छा करते हुए ही मरा था इसलिए यहाँ महाबल हुआ है और कभी तृप्त न करने वाले विद्याधरों के उचित भोगों को भोग रहा है । पूर्वभव के संस्कार से ही वह चिरकाल तक भोगों में अनुरक्त रहा है किंतु आपके वचन सुनकर शीघ्र ही इनसे विरक्त होगा ।।209-212।। आज रात को उसने स्वप्न में देखा है कि तुम्हारे सिवाय अन्य तीन दुष्ट मंत्रियों ने उसे बलात्कार किसी भारी कीचड़ में फँसा दिया है और तुमने उन दुष्टों मंत्रियों की भर्त्सना कर उसे कीचड़ से निकाला है और सिंहासन पर बैठाकर उसका अभिषेक किया है ।।213-214।। इसके सिवाय दूसरे स्वप्न में देखा है कि अग्नि की एक प्रदीप्त ज्वाला बिजली के समान चंचल और प्रतिक्षण क्षीण होती जा रही है । उसने ये दोनों स्वप्न आज ही रात्रि के अंतिम समय में देखे हैं ।।215।। अत्यंत स्पष्ट रूप से दोनों स्वप्नों को देख वह तुम्हारी प्रतीक्षा करता हुआ ही बैठा है इसलिए तुम शीघ्र ही जाकर उसे समझाओ ।।216।। वह पूछने के पहले ही आप से इन दोनों स्वप्नों को सुनकर अत्यंत विस्मित होगा और प्रसन्न होकर निःसंदेह आपके समस्त वचनों को स्वीकृत करेगा ।।217।। जिस प्रकार प्यासा चातक मेघ में पड़े हुए जल में, और जंमांध पुरुष तिमिर रोग दूर करने वाली श्रेष्ठ ओषधि में अतिशय प्रेम करता है उसी प्रकार मुक्तिरूपी सी की दूत के समान काललब्धि के द्वारा प्रेरित हुआ महाबल आप से प्रबोध पाकर समीचीन धर्म में अतिशय प्रेम करेगा ।।218-219।। राजा महाबल ने जो पहला स्वप्न देखा है उसे तुम उसके आगामी भव में प्राप्त होने वाली विभूति का सूचक समझों और द्वितीय स्वप्न को उसकी आयु के अतिशय ह्रास को सूचित करने वाला जानो ।।220।। यह निश्चित है कि अब उसकी आयु एक माह की ही शेष रह गयी है इसलिए हे भद्र, इसके कल्याण के लिए शीघ्र ही प्रयत्न करो, प्रमादी न होओ ।।221।। यह कहकर और स्वयंबुद्ध मंत्री को आशीर्वाद देकर गगनगामी आदित्यगति नाम के मुनिराज अपने साथी अरिंजय के साथ-साथ अंतर्हित हो गये ।।222।। मुनिराज के वचन सुनने से कुछ व्याकुल हुआ स्वयंबुद्ध भी महाबल के समझाने के लिए शीघ्र ही वहाँ से लौट आया ।।223।। और तत्काल ही महाबल के पास जाकर उसे प्रतीक्षा में बैठा हुआ देख प्रारंभ से लेकर स्वप्नों के फल पर्यंत विषय को सूचित करने वाले ऋषिराज के समस्त वचन सुनाने लगा ।।224।। तदनंतर उसने यह उपदेश भी दिया कि हे बुद्धिमन्, जिनेंद्र भगवान् का कहा हुआ यह धर्म ही समस्त दुःखों की परंपरा का नाश करने वाला है इसलिए उसी में बुद्धि लगाइए, उसी का पालन कीजिए ।।225।। बुद्धिमान् महाबल ने स्वयंबुद्ध से अपनी आयु का क्षय जानकर विधिपूर्वक शरीर छोड़ने―समाधिमरण धारण करने में अपना चित्त लगाया ।।226।। अतिशय समृद्धिशाली राजा अपने घर के बगीचे के जिनमंदिर में भक्तिपूर्वक आष्टाह्निक महायज्ञ करके वहीं दिन व्यतीत करने लगा ।।227।। वह अपना वैभवशाली राज्य अतिबल नामक पुत्र को सौंपकर तथा मंत्री आदि समस्त लोगों से पूछकर परम स्वतंत्रता को प्राप्त हो गया ।।228।। तत्पश्चात् वह शीघ्र ही परमपूज्य सिद्धकूट चैत्यालय पहुँचा । वहाँ उसने सिद्ध प्रतिमाओं की पूजा कर निर्भय हो संन्यास धारण किया ।।229।। बुद्धिमान् महाबल ने गुरु की साक्षीपूर्वक जीवनपर्यंत के लिए आहार पानी तथा शरीर से ममत्व छोड़ने की प्रतिज्ञा की और वीरशय्या आसन धारण की ।।230।। वह महाबल आराधनारूपी नाव पर आरूढ़ होकर संसाररूपी सागर को तैरना चाहता था इसलिए उसने स्वयंबुद्ध मंत्री को निर्यापकाचार्य (सल्लेखना की विधि कराने वाले आचार्य, पक्ष में―नाव चलाने वाला खेवटिया) बनाकर उसका बहुत ही सम्मान किया ।।231।। वह शत्रु, मित्र आदि में समता धारण करने लगा, सब जीवों के साथ मैत्रीभाव का विचार करने लगा, हमेशा अनुत्सुक रहने लगा और बाह्य-आभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर परिग्रहत्यागी मुनि के समान मालूम होने लगा ।।232।। वह धीर-वीर महाबल शरीर तथा आहार त्याग करने का व्रत धारण कर आराधनाओं की परम विशुद्धि को प्राप्त हुआ था, उस समय उसका चित्त भी अत्यंत स्थिर था ।।233।। उस धीर-वीर ने प्रायोपगमन नाम का संन्यास धारण कर शरीर से बिलकुल ही स्नेह छोड़ दिया था इसलिए वह शरीर रक्षा के लिए न तो स्वकृत उपकारों की इच्छा रखता था और न परकृत उपकारों की ।।234।। भावार्थ―संन्यास मरण के तीन भेद हैं―1. भक्त प्रत्याख्यान, 2. इंगिनीमरण और 3. प्रायोपगमन । (1) भक्तप्रतिज्ञा अर्थात् भोजन की प्रतिज्ञा कर जो संन्यासमरण हो उसे भक्तप्रतिज्ञा कहते हैं, इसका काल अंतर्मुहूर्त से लेकर बारह वर्ष तक का है । (2) अपने शरीर की सेवा स्वयं करे, किसी दूसरे से रोगादि का उपचार न करावे । ऐसे विधान से जो संन्यास धारण किया जाता है उसे इंगिनीमरण कहते हैं । (3) और जिसमें स्वकृत और परकृत दोनों प्रकार के उपचार न हों उसे प्रायोपगमन कहते हैं । राजा महाबल ने प्रायोपगमन नाम का तीसरा संन्यास धारण किया था ।।234।। कठिन तपस्या करने वाले महाबल महाराज का शरीर तो कृश हो गया था परंतु पंचपरमेष्ठियों का स्मरण करते रहने से परिणामों की विशुद्धि बढ़ गयी थी ।।235।। निरंतर उपवास करने वाले उन महाबल के शरीर में शिथिलता अवश्य आ गयी थी परंतु ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा में रंचमात्र भी शिथिलता नहीं आयी थी, सो ठीक है क्योंकि प्रतिज्ञा में शिथिलता नहीं करना ही महापुरुषों का व्रत हैं ।।236।। शरीर के रक्त, मांस आदि रसों का क्षय हो जाने से वह महाबल शरद् ऋतु के मेघों के समान अत्यंत दुर्बल हो गया था । अथवा यों समझिए कि उस समय वह राजा देवों के समान रक्त, मांस आदि से रहित शरीर को धारणकर रहा था ।।237।। राजा महाबल ने मरण का प्रारंभ करने वाले व्रत धारण किये हैं, यह देखकर उसके दोनों नेत्र मानो शोक से ही कहीं जा छिपे थे और पहले के हाव-भाव आदि विलासों से विरत हो गये थे ।।238।। यद्यपि उसके दोनों गालों के रक्त, मांस तथा चमड़ा आदि सब सूख गये थे तथापि
उन्होंने अपनी अविनाशिनी कांति के द्वारा पहले की शोभा नहीं छोड़ी थी, वे उस समय भी पहले की ही भाँति सुंदर थे ।।239।। समाधि ग्रहण के पहले उसके जो कंधे अत्यंत स्थूल तथा बाजूबंद की रगड़ से अत्यंत कठोर थे उस समय वे भी कठोरता को छोड़कर अतिशय कोमलता को प्राप्त हो गये थे ।।240।। उसका उदर कुछ भीतर की ओर झुक गया था और त्रिवली भी नष्ट हो गयी थी इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो हवा के न चलने से तरंगरहित सूखता हुआ तालाब ही हो ।।241।। जिस प्रकार अग्नि में तपाया हुआ सुवर्ण पाषाण अत्यंत शुद्धि को धारण करता हुआ अधिक प्रकाशमान होने लगता है उसी प्रकार वह महाबल भी तपरूपी अग्नि से तप्त हो अत्यंत शुद्धि को धारण करता हुआ अधिक प्रकाशमान होने लगता था ।।242।। राजा असह्य शरीर-संताप को लीलामात्र में ही सहन कर लेता था तथा कभी किसी विपत्ति से पराजित नहीं होता था इसलिए उसके साथ युद्ध करते समय परीषह ही पराजय को प्राप्त हुए थे, परीषह उसे अपने कर्त्तव्य मार्ग से क्षत नहीं कर सके थे ।।243।। यद्यपि उसके शरीर में मात्र चमड़ा और हड्डी ही शेष रह गयी थी तथापि उसने अपनी समाधि के बल से अनेक परीषहों को जीत लिया था इसलिए उस समय वह यथार्थ में महाबल सिंह हुआ था ।।244।। उसने अपने मस्तक पर लोकोत्तम परमेष्ठी को तथा हृदय में अरहंत परमेष्ठी को विराजमान किया था और आचार्य, उपाध्याय तथा साधु इन तीन परमेष्ठियों के ध्यानरूपी टोप-कवच और अस्त्र धारण किये थे ।।245।। ध्यान के द्वारा उसके दोनों नेत्र मात्र परमात्मा को ही देखते थे, कान परम मंत्र (णमोकार मंत्र) को ही सुनते थे और जिह्वा उसी का पाठ करती थी ।।246।। वह राजा महाबल अपने मनरूपी गर्भगृह में निर्धूम दीपक के समान कर्ममल कलंक से रहित अर्हंत परमेष्ठी को विराजमान कर ध्यानरूपी तेज के द्वारा मोह अथवा अज्ञानरूपी अंधकार से रहित हो गया था ।।247।। इस प्रकार महाराज महाबल निरंतर बाईस दिन तक सल्लेखना की विधि करते रहे । जब आयु का अंतिम समय आया तब उन्होंने अपना मन विशेष रूप से पंचपरमेष्ठियों में लगाया । उसने हस्त कमल जोड़कर ललाट पर स्थापित किये और मन-ही-मन निश्चल रूप से नमस्कार मंत्र का जाप करते हुए, म्यान से तलवार के समान शरीर से जीव को पृथक् चिंतवन करते और अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की भावना करते हुए, स्वयंबुद्ध मंत्रि के समक्ष सुखपूर्वक प्राण छोड़े ।।248-250।। स्वयंबुद्ध मंत्री जिस प्रकार पहले अपनी मंत्रशक्ति (विचारशक्ति) के द्वारा महाबल में बल (शक्ति अथवा सेना) सन्निहित करता रहता था, उसी प्रकार उस समय भी वह, मंत्रशक्ति पंचनमस्कार मंत्र के जाप के प्रभाव) के द्वारा उसमें आत्मबल सन्निहित करता रहा, उसका धैर्य नष्ट नहीं होने दिया ।।251।। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से महाराज महाबल की धर्म सहायता करने वाले स्वयंबुद्ध मंत्री ने अंत तक अपने मंत्रीपने का कार्य किया ।।252।। तदनंतर वह महाबल का जीव शरीररूपी भार छोड़ देने के कारण मानो हलका होकर विशाल सुख-सामग्री से भरे हुए ऐशानस्वर्ग को प्राप्त हुआ । वहाँ वह श्रीप्रभ नाम के अतिशय सुंदर विमान में उपपाद शय्या पर बड़ी ऋद्धि का धारक ललितांग नाम का उत्तम देव हुआ ।।253-254।। मेघरहित आकाश में श्वेत बादलोंसहित बिजली की तरह उपपाद शय्या पर शीघ्र ही उसका वैक्रियिक शरीर शोभायमान होने लगा ।।255।। वह देव अंतर्मुहूर्त में ही नवयौवन से पूर्ण तथा संपूर्ण लक्षणों से संपन्न होकर उपपाद शय्या पर ऐसा सुशोभित होने लगा मानो सब लक्षणों से सहित कोई तरुण पुरुष सोकर उठा हो ।।256।। दैदीप्यमान कुंडल, केयूर, मुकुट और बाजूबंद आदि आभूषण पहने हुए, माला से सहित और उत्तमवस्त्रों को धारण किये हुए ही वह अतिशय कांतिमां ललितांग नामक देव उत्पन्न हुआ ।।257।। उस समय टिमकाररहित नेत्रों से सहित उसका रूप निश्चल बैठी हुई दो मछलियों सहित सरोवर के जल की तरह शोभायमान हो रहा था ।।258।। अथवा उसका शरीर कल्पवृक्ष की शोभा धारणकर रहा था क्योंकि उसकी दोनों भुजाएँ उज्ज्वल शाखाओं के समान थी, अतिशय शोभायमान हाथों की हथेलियाँ कोमल पल्लवों के समान थीं और नेत्र भ्रमरों के समान थे ।।259।। अथवा ललितांगदेव के रूप का और अधिक वर्णन करने से क्या लाभ है ? उसका वर्णन तो इतना ही पर्याप्त है कि वह योनि के बिना ही उत्पन्न हुआ था और अतिशय सुंदर था ।।260।। उस समय स्वयं कल्पवृक्षों के द्वारा ऊपर से छोड़ी हुई पुष्पों की वर्षा हो रही थी और दुंदुभि का गंभीर शब्द दिशाओं को व्याप्त करता हुआ निरंतर बढ़ रहा था ।।261।। जल की छोटी-छोटी बूँदों को बिखेरता और नंदन वन के हिलते हुए कल्पवृक्षों से पुष्पपराग ग्रहण करता हुआ अतिशय सुहावना पवन धीरे-धीरे बह रहा था ।।262।। तदनंतर सब ओर से नमस्कार करते हुए करोड़ों देवों के शरीर की प्रभा से व्याप्त दिशाओं में दृष्टि घुमाकर ललितांगदेव ने देखा कि यह परम ऐश्वर्य क्या है ? मैं कौन हूँ ? और ये सब कौन हैं जो मुझे दूर-दूर से आकर नमस्कार कर रहे हैं । ललितांगदेव यह सब देखकर क्षणभर के लिए आश्चर्य से चकित हो गया ।।263-264।। मैं यहाँ कहाँ आ गया कहाँ से आया आज मेरा मन प्रसन्न क्यों हो रहा है ? यह शय्यातल किसका है ? और यह मनोहर महान् आश्रम कौनसा है इस प्रकार चिंतवन कर ही रहा था कि उसे उसी क्षण अवधिज्ञान प्रकट हो गया । उस अवधिज्ञान के द्वारा ललितांगदेव ने स्वयंबुद्ध मंत्री आदि के सब समाचार जान लिये ।।265-266।। यह हमारे तप का मनोहर फल है, यह अतिशय कांतिमां स्वर्ग है, ये प्रणाम करते हुए तथा शरीर का प्रकाश सब ओर फैलाते हुए देव हैं, यह कल्पवृक्षों से घिरा हुआ शोभायमान विमान है ये मनोहर शब्द करती तथा रुनझुन शब्द करने वाले मणिमय नूपुर पहने हुई देवियाँ है, इधर यह अप्सराओं का समूह मंद-मंद हँसता हुआ नृत्य कर रहा है, इधर मनोहर और गंभीर गान हो रहा है, और इधर यह मृदंग बज रहा है । इस प्रकार भवप्रत्यय अवधिज्ञान से पूर्वोक्त सभी बातों का निश्चय कर वह ललितांगदेव अनेक रत्नों की किरणों से शोभायमान शय्या पर सुख से बैठा ही था कि नमस्कार करते हुए अनेक देव उसके पास आये । वे देव ऊँचे स्वर से कह रहे थे कि हे स्वामिन् आपकी जय हो । हे विजयशील, आप समृद्धिमान् हैं । हे नेत्रों को आनंद देने वाले, महाकांतिमां आप सदा बढ़ते रहें―आपके बलविद्या, ऋद्धि आदि की सदा वृद्धि होती रहे ।।267-271।। तत्पश्चात् अपने-अपने नियोग से प्रेरित हुए अनेक देव विनयसहित उसके पास आये और मस्तक झुकाकर इस प्रकार कहने लगे कि हे नाथ स्नान की सामग्री तैयार है इसलिए सबसे पहले मंगलमय स्नान कीजिए फिर पुण्य को बढ़ाने वाला जिनेंद्रदेव की पूजा कीजिए । तदनंतर आपके भाग्य से प्राप्त हुई तथा अपने-अपने गुटों (छोटी टुकड़ियों) के साथ जहाँ-तहाँ (सब ओर से) आने वाली देवों की सब सेना का अवलोकन कीजिए । इधर नाट्यशाला में आकर, लीलासहित भौंह नचाकर नृत्य करती हुई, दर्शनीय सुंदर देव नर्तकियों को देखिए । हे देव, आज मनोहर वेषभूषा से युक्त देवियों का सम्मान कीजिए क्योंकि निश्चय से देवपर्याय की प्राप्ति का इतना ही तो फल है । इस प्रकार कार्यकुशल ललितांगदेव ने उन देवों के कहे अनुसार सभी कार्य किये सो ठीक ही है क्योंकि अपने नियोगों का उल्लंघन नहीं करना ही महापुरुषों का श्रेष्ठ भूषण है ।।272-277।। वह ललितांगदेव तपाये हुए सुवर्ण के समान कांतिमान था, सात हाथ ऊँचे शरीर का धारक था, साथ-साथ उत्पन्न हुए वस्त्र, आभूषण और माला आदि से विभूषित था, सुगंधित स्वासोच्छ्वास से सहित था, अनेक लक्षणों से उज्ज्वल था और अणिमा, महिमा आदि गुणों से युक्त था । ऐसा वह ललितांगदेव निरंतर दिव्य भोगों का अनुभव करने लगा ।।278-279।। वह एक हजार वर्ष बाद मानसिक आहार लेता था, एक पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेता था तथा स्त्रीसंभोग शरीर द्वारा करता था ।।280।। वह शरीर की कांति के समान कभी नहीं मुरझाने वाली उज्ज्वल माला तथा शरत्काल के समान निर्मल दिव्य अंबर (वस्त्र, पक्ष में आकाश) धारण करता था ।।281।। उस देव के चार हजार देवियां थीं तथा सुंदर लावण्य और विलास-चेष्टाओं से सहित चार महादेवियाँ थीं ।।282।। उन चारों महादेवियों में पहली स्वयंप्रभा, दूसरी कनकप्रभा, तीसरी कनकलता और चौथी विद्युल्लता थी ।।283।। इन सुंदर स्त्रियों के साथ पुण्य के उदय से प्राप्त होने वाले भोग को निरंतर भोगते हुए इस ललितांगदेव का बहुत काल बीत गया ।।284।। उसके आयुरूपी समुद्र में अनेक देवियाँ अपनी-अपनी आयु की स्थिति पूर्ण हो जाने से चंचल तरंगों के समान विलीन हो चुकी थीं ।।285। जब उसकी आयु पृथक्त्वपल्य के बराबर अवशिष्ट रह गयी तब उसके अपने पुण्य के उदय से एक स्वयंप्रभा नाम को प्रिय पत्नी प्राप्त हुई ।।286।। वेष-भूषा से सुसज्जित तथा कांतियुक्त शरीर को धारण करने वाली वह स्वयंप्रभा पति के समीप ऐसी सुशोभित होती थी मानो रूपवती स्वर्ग की लक्ष्मी ही हो ।।287।। जिस प्रकार आम की नवीन मंजरी भ्रमर को अतिशय प्यारी होती है उसी प्रकार वह स्वयंप्रभा ललितांगदेव को अतिशय प्यारी थी ।।288।। वह देव स्वयंप्रभा का मुख देखकर तथा उसके शरीर का स्पर्श कर हस्तिनी में आसक्त रहने वाले हस्ती के समान चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहता था ।।289।। वह देव उस स्वयंप्रभा के साथ कभी मनोहर चंद्रकांत शिलाओं से युक्त तथा भ्रमर, कोयल आदि पक्षियों द्वारा वाचालित नंदन आदि वनों से सहित मेरुपर्वत पर, कभी नील निषध आदि बड़े-बड़े पर्वतों पर, कभी विजयार्ध के शिखरों पर, कभी कुंडलगिरि पर, कभी रुचकगिरि पर, कभी मानुषोत्तर पर्वत पर, कभी नंदीश्वर महाद्वीप में, कभी अन्य अनेक द्वीपसमुद्रों में और कभी भोगभूमि आदि प्रदेशों में दिव्यसुख भोगता हुआ निवास करता था ।।290-292।। इस प्रकार बड़ी-बड़ी ऋद्धियों का धारक और अद्भुत शोभा से युक्त वह ललितांगदेव, अपने किये हुए पुण्य कर्म के उदय से, मंद-मंद मुसकान, हास्य और विलास आदि के द्वारा स्पष्ट चेष्टा करने वाली अनेक देवांगनाओं के साथ कुछ अधिक एक सागर तक अपनी इच्छानुसार उदार और उत्कृष्ट दिव्यभोग भोगता रहा ।।293।। उस बुद्धिमान् ललितांगदेव ने पूर्वभव में अत्यंत तीव्र असह्य संताप को देनेवाले तपश्चरणों के द्वारा अपने शरीर को निष्कलंक किया था इसलिए ही उसने इस भव में मनोहर कांति की धारक देवियों के साथ सुख भोगे अर्थात् सुख का कारण तपश्चरण वगैरह से उत्पन्न हुआ धर्म है अत: सुख चाहने वालों को हमेशा धर्म का ही उपार्जन करना चाहिए ।।294।। हे आर्य पुरुषो, यदि अतिशय लक्ष्मी प्राप्त करना चाहते हो तो भोगों की तृष्णा छोड़कर तप में तृष्णा करो तथा निष्पाप श्री जिनेंद्रदेव की पूजा करो और उन्हीं के वचनों का श्रद्धान करो, अन्य मिथ्यादृष्टि कुकवियों के कहे हुए मिथ्यामतों का अध्ययन मत करो ।।295।। इस प्रकार जो प्रशंसनीय पुरुषार्थों का देने वाला है और करमरूपी कुटिल वन को नष्ट करने के लिए तीक्ष्ण कुठार के समान है ऐसे इस जैनधर्म की सेवा के लिए हे सुखाभिलाषी पंडितजनो, सदा प्रयत्न करो और दुर्बुद्धि को नष्ट करने वाले जैनमत में आस्था―श्रद्धा करो ।।296।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्य विरचित त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह में
ललितांग स्वर्गभोग वर्णन नाम का पंचम पर्व पूर्ण हुआ ।।5।।